इस देश में आबादी जितने ही यूट्यूबर्स हो गए तो...खुशदीप

Credit: Antevenio


नई दिल्ली (26 सितंबर)।

यूट्यूबर्स की दुनिया भी गज़ब है, व्यूज़ पाने की ललक यहां भी सनक की हद तक है. कुछ वैसी ही जैसे कि मेनस्ट्रीम मीडिया में TRP और डिजिटल में हिट्स या विजिट्स के लिए होती है.
यहां सेल्फ रेगुलेशन जैसी कोई व्यवस्था नहीं, इसलिए खुला खेल फर्रूखाबादी है. किसी का जब चाहे मानमर्दन कर दो, किसी को जो मर्ज़ी कह दो, कोई रोकने वाला नहीं. इस तरह से व्यूज़ बड़ी संख्या में आ जाएं तो फिर तो खुद को तोप समझना लाज़मी है. फिर दूसरों के कंधे पर बंदूक चलाने का ये शौक दुस्साहस की सीमा भी पार कर जाता है.
दरअसल देश में पॉलिटिकल डिवाइड इतना बढ़ गया है, इतने खांचे बंट गए हैं कि हर एक ने अपना कम्फर्ट ज़ोन ढूंढ लिया है. राजनीति के इस तरफ़ या उस तरफ़. दोनों तरफ़ देश के करोड़ों नागरिक भी हैं. नागरिक क्यों देश के पत्रकार भी खेमाबंद है. ये खेमाबंदी इतनी स्पष्ट है कि ये खेमे दिन के 24 घंटे दूसरे खेमे के कपड़े उतारने में लगे हैं. बहुस सारे यूट्यूबर्स भी इससे अलग नहीं.
देश में एक और चलन दिख रहा है. अब नेताओं की जगह चर्चित पत्रकारों को अधिक निशाना बनाया जा रहा है. ऐसा माहौल बना है तो पत्रकारों के साथ उनके संस्थानों को अन्तर्मन में झांकना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ?
लेकिन साथ ही मेरा कुकुरमुत्तों की तरह उग आए यूट्यूबर्स से पूछना है कि वो किस मुंह से अपने चौबारों पर चढ़ कर चिल्लाते रहते हैं कि फलाने या फलानी एंकर की फुलटू बेइज्ज़ती हो गई. माफ़ कीजिए इन यूट्यूबर्स के लिए उनकी दुकानें चलने के लिए वहीं लोग मसाला है जिनके पीछे ये दिन-रात पड़े रहते हैं. ये पत्रकार मान लीजिए किसी राजनीतिक विचारधारा विशेष के हैं फिर भी उनका नाम जो बना है उसमें भी उनकी मेहनत का भी बड़ा हाथ है. ऐसे ही नहीं वो इस मुकाम तक पहुंच गए.
ये निशाना साधने वाले यूट्यूबर्स खुद भी गिरेबान में झांके, उन्होंने खुद कौन से तीर मारे हैं जो उन्हें दूसरों का मान मर्दन का अधिकार मिल गया. इन बड़े नामों के इस्तेमाल से कब तक व्यूअरशिप की रोटियां सेकोगे. दम है तो इनके नाम का इस्तेमाल किए बिना अच्छे, सार्थक, सकारात्मक कंटेट पर बड़ी इमारत बना कर दिखाइए.
काफ़ी हद तक यूट्यूब चलाने वाले कुछ चर्चित पत्रकार भी ऐसी स्थिति बनने के लिए कैटेलिस्ट्स का काम कर रहे हैं. वो अपनी तरह की ब्रैंडेड पत्रकारिता को खाद पानी देने वाला मसाला ढूंढ कर उसे ही परोसते रहते हैंं. स्क्रीन पर हर वक्त दिखते रहने के शौक के साथ वही चंद नेताओं के साथ सियासी जुगाली, ग्राउंड रिपोर्टिंग के नाम मनमुताबिक पॉकेट्स में जाकर अपने एजेंडे को सूट करने वाली लोगों की बातचीत. इसके अलावा क्या?
इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि देश का हर वक्त चुनाव मोड में रहना. सत्तापक्ष अपनी दिनरात स्तुति करने वाले पत्रकारों से बहुत खुश रहता हो लेकिन वो जान ले कि स्वस्थ आलोचना को दरकिनार करना, जिस डाल पर बैठे हो उसी को काटना होता है.
ऐसे में निष्पक्ष, सच्चा कंटेट सामने लाना समुद्र से मोती निकालने समान हो गया है. राजनीति से इतर देखा जाए तो दुनिया में और भी बहुत कुछ है. देश की आबादी जल्दी ही डेढ़ अरब के आंकड़े को छूने वाली है तो यक़ीनन इतनी ही उनसे जुड़ी कहानियां भी होंगी लेकिन उन्हें सामने लाने में मेहनत कौन करे. इसके मुक़ाबले राजनीतिक बकर-बकर में कोई लागत नहीं.
कंटेट कैसा मिले, इसके लिए व्यूअर्स खुद भी ज़िम्मेदार हैं. वो हर वक़्त राजनीतिक नकारात्मकता में ही डूबे रहना चाहते हैं या इसके बाहर की बहुत बड़ी सकारात्मक दुनिया में भी झांकना चाहते हैं. वो ये भी देखें कि जिन यूट्यूब चैनल्स पर वो जाते हैं, सब्सक्राइब करते हैं, उनके कर्ताधर्ताओं का पिछला ट्रैक रिकॉर्ड क्या है, सिर्फ़ भड़काऊ हैडिंग, फोटो से व्यूज़ लेने वालों को कितना बढ़ावा देना है ये आपके ही हाथ में है.
यूनीक कंटेंट की साख़ रातोंरात नहीं बन जाती, उसके लिए बार बार लगातार परफॉर्म करके दिखाना होगा, बिना भड़काए, बिना किसी बड़े नाम वाले के कंधे पर बंदूक चलाए.
देशनामा की कोशिश इसी दिशा में बढ़ने की है, देखना है कि ये छोटा सा कदम कितनी दूर तक जा पाता है.

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