ये संवाद मुझे बहुत पसंद है...मायावती जी को भी मैं यही डायलॉग सुनाना चाहता हूं...इत्तेफ़ाक से गांधी की 62वीं पुण्यतिथि पर ही मैं इस पोस्ट को टाइप कर रहा हूं...दरअसल हम में ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने गांधी को रु-ब-रू देखा होगा...गांधी को दुनिया से गए 62 साल हो गए...इसलिए गांधी के बारे में हमारी जो भी धारणा है वो हमारे घरों में बुज़ुर्गों के मुंह से सुनाई गई बातों पर आधारित है...इसलिए गांधी का आप दिल से सम्मान नहीं करते तो फिर राजघाट, गांधी के बुत, स्मारक, साहित्य के आपके लिए कोई मायने नहीं है...और यदि आप गांधी का दिल से सम्मान करते हैं तो भी इन बुतों का कोई औचित्य नहीं है...क्योंकि गांधी तो आपके दिल में हैं...वहां से उन्हें कोई ताकत नहीं हटा सकती...
बहन मायावती जी से भी मैं यही कहना चाहता हूं...अगर आप अपने कामों से गरीब-गुरबों, पिछड़े-कुचले वर्गों के दिलों में जगह बना लेती हैं (या कहीं कहीं बना भी ली है) तो फिर आपको किस बात का डर...फिर आप जिन्हें मनुवादी कहती रही हैं वो लाख कोशिश कर लें इतिहास में आपका नाम दर्ज होने से नहीं रोक सकते...मायावती जी के लिए मेरी सारी शुभकामनाएं हैं...अगर वो किसी दिन देश की प्रधानमंत्री बनती हैं तो मैं इसलिए खुश नहीं हूंगा कि एक दलित की बेटी प्रधानमंत्री बनी...मैं इसलिए खुश हूंगा कि बादलपुर गांव की बेटी तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद पढ़ लिख कर अपनी योग्यता के बल पर देश की सबसे बड़ी कुर्सी तक पहुंची...
अब आता हूं अपनी पोस्ट पर मिली विचारोत्तेजक टिप्पणियों पर...पहले प्रवीण शाह भाई की टिप्पणी जस की तस...
खुशदीप जी,
बहन मायावती जी ऐसा क्यों कर रही हैं इसको समझने के लिये आपको दलित मानस को भी समझना पढ़ेगा, काफी चिंतन-मनन है इस सब के पीछे... अभी बस इतना ही कहूँगा कि यह क्रिया नहीं प्रतिक्रिया है...सदियों से हाशिये पर रखे गये वर्ग जिसने आजादी से न जाने क्या-क्या उम्मीद लगाई हुई थीं...उस वर्ग की उम्मीदें योजनाबद्ध तरीके से तोड़ीं गई... वोट बैंक से ज्यादा कभी कुछ नहीं समझा गया जिनको...उनकी प्रतिक्रिया...ठेंगा दिखाती, मुँह चिड़ाती, अपने जागने, खुद के महत्व को पहचानने का उदघोष करती एक प्रतिक्रिया...मेरे ऊपर के टिप्पणीकारों ने जो कमेंट दिये हैं ऐसे कमेंट मिलेंगे यह पता था उस दलित नेत्री को... जितना ऐसा कहा जायेगा...दलित चेतना उतना ही जागृत होगी...मुद्दों को, असमानता को, भेदभाव को किनारे कर अपने और केवल अपने हित की चिन्ता करते खाते पीते, पेट भरे, लिबराइजेशन और ग्लोबलाइजेशन की गाय को दुहते, अगड़े बुद्धिजीवी वर्ग के सौन्दर्यबोध और कम्फर्ट लेवल को भले ही यह कदम चोट पहुंचाता है...पर यह उठाया भी इसी लिये गया है। और हाँ, कभी समय मिले तो गिनती करियेगा कि हमारे अघोषित पर निर्विवाद राजवंश के सदस्यों के कितने बुत खड़े हैं देश में, कितना खर्चा हुआ उन पर, कितनी सड़कें, संस्थान, पुल हवाई अड्डे, चौराहे, बाजार आदि आदि हैं उनके नाम पर ?
फिर आई पीसी गोदियाल जी की टिप्पणी...
@ प्रवीण जी शायद सही कह रहे है !
दलितों का तर्क देखिये : अगर मायावती के बुतों से आपको दिक्कत हो रही है तो फिर क्यों ये लालकिले, क़ुतुब मीनार, ताज महल इत्यादि को जीवित रखे हो, और इतने अरबो रूपये हर साल रख-रखाव पर खर्च कर रहे हो ? इनको बनाने में भी तो हजारो निरीह, गरीब मजदूरों का शोषण और बलिदान हुआ था ! कल तुम्ही लोग, तुम्हारी ही सरकारे, मायावती के स्मारकों को भी उसी तरह संजोयेंगी जैसे आज आप लोग लाल किले को संजो के रखे हो ! लेकिन प्रवीण जी एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि मायावती का उद्देश्य चाहे जो भी हो, लेकिन मुझे दुःख इस बात का है कि यह सब मेरे पैसे से और मेरे बच्चो का पेट काटकर बनाया जा रहा है इसलिए मैं इसका विरोध कर रहा हूँ ! इज्जत बुत बनाने से नहीं दिलो में जगह बनाने से मिलती है ! आज आप उत्तर प्रदेश के हालात देख रहे है ? फिर भी ये भेड़े बार बार इसी गडरिये को कुर्सी सौंप रही है !
फिर मेरे अज़ीज़ धीरू भाई की टिप्पणी...
यह कोई नया तो काम नही है सदियो से बुत बनवाये जाते रहे है .बेचारी दौलत माफ़ किजिये दलित की बेटी ने अगर मूर्ति अपनी लगवाली तो क्या गुनाह किया . आप और हम जैसे उच्च मानसिकता के लोगो को कोई काम ही नही है इसके अलावा...
आप तीनों की बात अपनी जायज़ है...लेकिन यहां मेरे मन में कुछ सवाल उमड़ते हैं...इन्हें देश के एक आम नागरिक के नज़रिए से लीजिएगा, किसी जाति या पेशे से बांध कर नहीं...मायावती जी 21 मार्च 1997 को पहली बार और 13 मई 2007 को चौथी बार देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं...पहली तीन बार से इस बार की अहमियत इसलिए ज़्यादा है क्योंकि मायावती सिर्फ अपनी पार्टी बीएसपी को मिले बहुमत के आधार पर सत्ता में आईं...यानि इस बार मायावती जैसे स्वतंत्र होकर फैसले ले सकती हैं, पहले नहीं ले सकती थीं..लेकिन यहां मैं सवाल करता हूं कि क्या उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचार होने बिल्कुल बंद हो गए हैं...क्या गांवों में गरीब खुशहाल हो गए हैं...क्या तालीम की रौशनी हर गरीब बच्चे को मिलने लगी है...क्या गांवों में पानी, बिजली, शौचालय जैसी बुनियादी ज़रूरतों की व्यवस्था हर घर में हो गई है...पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में आज भी दलितों को वोट नहीं डालने दिए जाते...क्या वहां सब ठीक हो गया...
आप कहेंगे कि जादू की छड़ी से पलक झपकते ही ये काम नहीं हो सकते...इसमें वक्त लगेगा...सही बात है आपकी...लेकिन क्या वो इच्छाशक्ति ईमानदारी से दिखाई दे रही है...मायावती बिना किसी लागलपेट कहती हैं कि उन्हें पार्टी चलाने के लिए पैसा चाहिए, इसलिए वो अपने लोगों से चंदा कर इसे जुटाती हैं...चाहे जन्मदिन के बहाने सही...लेकिन मायावती जी आप इन गरीबों की ताकत के बल पर सत्ता में हैं तो आपकी योजनाएं वाकई गरीबों का जीवन-स्तर उठाने वाली होनी चाहिए...आप की योजनाएं जिस तरह अरबों खर्च कर स्मारक बनाने के लिए स्पष्ट हैं, सुप्रीम कोर्ट तक की नाराज़गी मोल ले लेती हैं, वैसे ही गरीबों (गरीब मतलब गरीब, बिना किसी जाति का विभेद किए) के कल्याण के लिए भी काम होता साफ दिखना चाहिए...
किसी जमाने में ये नारा ज़रूर सुना जाता था कि तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार...लेकिन आज आप सर्वजन समाज की बात करती हैं...अब नारे भी बदल गए हैं...हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है...
यहां मैं अब कुछ सवाल उठाने जा रहा हूं, उस पर मुझे आरक्षण विरोधी नहीं मान लीजिएगा...ये सच है कि जब पढ़ता था तो सीपीएमटी में 85 प्रतिशत नंबर लाने के बाद भी उत्तर प्रदेश के किसी मेडिकल कालेज में दाखिला नही पा सका था...सिर्फ गाजीपुर के होम्योपैथी मेडिकल कॉलेज में सीट मिली थी, जहां मैने खुद ही एडमिशन नहीं लिया था...उस वक्त एक किशोर के अपरिपक्व मस्तिष्क की तरह ही मुझे बड़ा गुस्सा आया था कि मेरे से आधे भी कम नंबर पाने वाले लोग सिर्फ आरक्षण की बैसाखी थामकर मेडिकल कालेज में एमबीबीएस या बीडीएस में प्रवेश पा गए और मैं सिर्फ अपने भाग्य को कोसता रहा कि मैं क्यों सवर्ण घर में पैदा हुआ...मुझे भी ऐेसे घर में पैदा होना
चाहिए था जहां जाति के आधार पर मुझे आरक्षण का लाभ मिल जाता....लेकिन जैसे-जैसे सोच परिपक्व होनी शुरू हुई, वैसे मुझे भी लगा कि जो सदियों से ऊंची जातियों का अत्याचार सहते आए हैं, उनको आगे लाने और समाज में समरस करने के लिए सरकार ने आरक्षण जैसी व्यवस्था की है तो कोई बुराई नहीं की...लेकिन यहां मेरा फिर सवाल है कि क्या वाकई आरक्षण ने समाज समरस कर दिया...
आज मेडिकल कालेज में सवर्ण, पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के छात्रों के गुट साफ-साफ अलग नजर आते हैं...यानि हम आरक्षण के ज़रिए चले तो थे भेदभाव मिटाने और ये और बढ़ गया...ये हमारे नीतिनिर्माताओं की भूल थी कि वो आरक्षण को ही सामाजिक बदलाव का एकमात्र औज़ार समझ बैठे...आरक्षण का भरपूर लाभ अनुसूचित जातियों की क्रीमी लेयर ने उठाया...आर्थिक स्थिति से सुदृढ़ हो जाने के बावजूद ये क्रीमी लेयर अपनी अगली पीढ़ियों को आरक्षण का लाभ दिलाती रही है...लेकिन गांव का गरीब कलुआ कलुआ ही रहा...वो कल भी समाज के ताने सहने के साथ जीवन जीने को अभिशप्त था...वो आज भी वैसा ही जीवन जी रहा है...
आज़ादी के वक्त कहा गया था कि आरक्षण सिर्फ दस-पंद्रह साल तक रहेगा..लेकिन हर दस साल बाद इसे बढ़ाया जाता रहा...मैं ये नहीं कह रहा कि आरक्षण नहीं होना चाहिए...मेरा आग्रह सिर्फ इतना है कि ऐसी व्यवस्था बने कि जिसमें एक गरीब के बच्चे को भी वैसी ही शिक्षा का अधिकार मिले जैसा कि एक अमीर के बच्चे को मिलता है...हमारी सरकार शिक्षा के राष्ट्रीयकरण के बारे में क्यों नहीं सोचती...टैक्स का पैसा शिक्षा पर लगाया जाए तो वो देश का सच्चा निवेश होगा...गरीबों के बच्चों को अच्छी से अच्छी कोचिंग, किताबें, वर्दी, वज़ीफ़ा दिलाने का सरकार प्रबंध करे जिससे वो अमीरों के बच्चों के शिक्षा के स्तर तक बराबरी पर आ सकें...इस काम में वक्त लगेगा...लेकिन शुरुआत तो कीजिए...बच्चों को उनकी प्रतिभा के अनुसार बहुत छोटी उम्र में ही छांटिए...ज़रूरी नहीं सारे ग्रेजुएट बनें...अगर कोई खेल में अच्छा प्रदर्शन दिखा रहा है तो उसे बेसिक शिक्षा के साथ स्पोर्ट्स की बेहतरीन ट्रेनिंग दिलाई जाए...मायावती जी हो या राहुल गांधी अगर वाकई दलितों या गरीबों के दिल से हितेषी हैं तो समरस समाज बनाने के लिए शिक्षा से ही पहल करें...ऐसी व्यवस्था कीजिए कि अगर किसी के मां-बाप बच्चे की अच्छी शिक्षा का खर्च उठाने में समर्थ नहीं है तो सरकार अपने पैसे से उस बच्चे को पढाए-लिखाए...और जब वो बच्चा कुछ बन जाए तो वो अपनी कमाई से उस पैसे को सरकार को वापस कर दे जो बचपन में उसकी पढ़ाई पर सरकार ने लगाया था...ये पैसा फिर और गरीब बच्चों की पढ़ाई पर काम आएगा...इस तरह जो आने वाली पीढ़ियां आएंगी उनकी सोच वाकई बहुत खुली होगी और उनमें एक दूसरे के लिए नफ़रत नहीं बल्कि सहयोग का भाव होगा...ये भावना होगी कि सबको मिलकर भारत को आगे बढ़ाना है...अब
आप सोचिए राजघाटों, शांतिवनों, शक्ति स्थलों, वीर भूमियों या अंबेडकर स्मारकों पर अरबों रुपया बहाना सही है या गरीब चुन्नू या नन्ही की शिक्षा पर पैसा खर्च करना...
रही मूर्तियों के ज़रिए चेतना जगाने की बात तो अभी दो दिन पहले भाई रवीश कुमार जी की एक पोस्ट देखी थी...उसमें उन्होंने कमाल की तस्वीर लगाई थी...आरा से दीपक कुमार जी ने रवीश भाई को ये तस्वीर भेजी थी...ये तस्वीर थी जयप्रकाश नारायण जी की मूर्ति की...जेपी कभी किसी सरकारी पोस्ट में नहीं रहे...वो लोगों के दिलों में रहे...इसलिए उनकी मूर्ति के लिए अरबों रुपये के स्मारक या पार्क की ज़रूरत नहीं है सिर्फ दो पत्थर ही बहुत हैं...शायद बुतों में अहम पूरा होता दिखने वालों को इस तस्वीर से ही कोई संदेश मिले....
आभार रवीश कुमार जी
खुशदीप भाई-आपकी यह पोस्ट कई सवाल उठाती है वर्तमान व्यवस्था पर, जिनका निराकरण करने की कोशिश मे समाज का नुकसान भी हुआ है। जहां तक प्रति्माओं का प्रश्न है। प्रतिमाएं उनकी होती हैं जो इतिहास बन चुके है और आने वाली पीढी उनके द्वारा किए गए कार्यों को याद कर उनसे प्रेरणा ले सके उन्हे याद कर सके।
जवाब देंहटाएंलेकिन प्रतिमा निर्माण अब राजनैतिक रुप लेता जा रहा हैं। सत्ताधीश जनता के पैसे को अपना समझ कर कहीं भी अनाप शनाप खर्च कर रहे हैं। इस पर बंदिश लगनी चाहिए। ये प्रजातंत्र है जब तक जनता अपने वोट के अधि्कार को नही समझ पाएगी, लोक तंत्र के स्वरुप को नही समझ पाएगी तब तक कल्याण होना नामुमकिन है।
बढिया पोस्ट के लिए आभार्।
बात पते की कही है. सहमत.
जवाब देंहटाएंBahut gahra chintan hua aaj aur sach me aisa hi vichar manthan ki jaroorat hai aaj ke samay me... sirf chintan hi nahin balki us disha me kriyanvayan ki... kash manmaun singh aur mayawati ki sarkar ye post padhe aur chete..
जवाब देंहटाएंjai Hind...
आप आदर्शवादी हैं. सत्ता अनिवार्य रूप से भ्रष्ट करती है, कुछ बिरली महान आत्माएं ही पाक साफ रह पाती हैं. पर आपकी सबसे ज्यादा आदर्शवादी आशा (इन्तहाई आदर्शवाद) :
जवाब देंहटाएंऐसी व्यवस्था कीजिए कि अगर किसी के मां-बाप बच्चे की अच्छी शिक्षा का खर्च उठाने में समर्थ नहीं है तो सरकार अपने पैसे से उस बच्चे को पढाए-लिखाए...और जब वो बच्चा कुछ बन जाए तो वो अपनी कमाई से उस पैसे को सरकार को वापस कर दे जो बचपन में उसकी पढ़ाई पर सरकार ने लगाया था...ये पैसा फिर और गरीब बच्चों की पढ़ाई पर काम आएगा...
मैं कुछ दिनों पहले आईआईएम् के गणितीय अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर वी. रघुनाथन की किताब पढ़ रहा था, उसमे उन्होंने अपने साथियों, परिचितों और पूर्व छात्रों के बारे में लिखा है की; सरकार ने सत्तर के दशक से आर्थिक रूप से कमज़ोर छात्रों के लिए शिक्षा ऋण की व्यवस्था की. कितने ही छात्रों ने आईआईटी आईआईएम् इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढाई इसी के दम पर पूरी की. आज ये सभी छात्र सफल हैं और समाज में ऊँचा मुकाम रखते हैं. पर इनमे से नब्बे प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने आज तक अपना शिक्षा ऋण नहीं चुकाया है. ऐसा नहीं है की उनके पास पैसे नहीं है, बल्कि ब्याज सहित जितना उनपर बाकी है वे करीब उतना ही फाइव स्टार होटल में अपने परिवार के साथ एक डिनर पर खर्च कर डालते हैं. पर ऋण लौटाने का इरादा आज भी नहीं रखते.
इतना पैसा शिक्षा लोन के कारण डूबत खाते में जाने से बैंकों ने शिक्षा ऋण देने में आनाकानी शुरू कर दी. जिससे अगली पीढ़ी के गरीब बच्चों को सहायता नहीं मिल पाई. यही कारण है की आज आप शिक्षा ऋण लेने जाएँ तो इतनी आसानी से बैंक सहयोग नहीं करता, बल्कि लाख पापड़ बेलने पड़ते हैं.
जब देश के सबसे प्रतिभाशाली मानी जाने वाली जमात का यह हाल है तो आम छात्रों से क्या उम्मीद करें?
खरी बात, सौटके खरी बात पर किस काम की?
जवाब देंहटाएंएक सधी हुई पोस्ट. बहस एवं विमर्श के लिए नहीं, चिन्तन के लिए विषय दिया है.
जवाब देंहटाएंबेशक बुतों में ढलने की मायावती जी की ख्वाहिश नाजायज नहीं होती ....यदि वे इस लायक कोई कार्य कर जाती तो ....यदि वे इस पैसे का उपयोग दलितों के कल्याण में करती तो लोग खुद आगे बढ़कर उनकी मूर्तियों का निर्माण करते ....
जवाब देंहटाएंयह बहुत कुछ ऐसा ही है ...जैसे कई माता- पिता अपने जीवन काल में ही अपने अंतिम संस्कार कर देते हैं ...!!
कमन्ड्ल को फ़ेल करने के लिये मन्डल को झाड फ़ूक कर पेश करने वाले भी उच्च वर्ग के ही लोग थे . आरक्षण का फ़ायदा आज तक उनेह नही मिला जिन्को ध्यान मे रख कर सिर्फ़ १० सालो के लिये व्यव्स्था की गई थी . बाबा साहब अम्बेड्कर ,बाबु जग्जीवन राम , के आर नरायणन या अन्य वह लोग जो मील के पत्थर है वह बिना आरक्षण की सीढी के ही वहा तक पहुचे .
जवाब देंहटाएंमूर्तियो से चली बहस एक सार्थक रूप ले बैठी है . बेचारी मायावती की गलती सिर्फ़ यह है दो जगह ही अपनी सैक्डो मूर्तिया लगवा दी . अगर यह मुर्ति सैकडो जगह लगती तो कोई शोर शरावा नही होता जैसे गान्धी नेहरु परीवार या दीनदयाल उपाध्याय आदि के लगी है
बुत मुझे अच्छे नहीं लगते यदि वे कलात्मक न हों। व्यक्तियों के बुतों का तो कोई अर्थ ही नहीं चाहे वे कितने ही महान क्यों न हों।
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंमेरे विचार से तो प्रतिमा, स्मारक आदि के निर्माण का अर्थ सिर्फ अपने सामर्थ्य, चाहे वह आर्थिक हो, चाहे राजनैतिक हो या चाहे और किसी प्रकार का सामर्थ्य हो, का प्रदर्शन मात्र है।
जवाब देंहटाएंसाहिर लुधियानवी जी ने सही ही कहा हैः
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक
कांग्रेस भी एक शहंशाह ही है और गांधी की प्रतिमाओं से सिर्फ उसका सामर्थ्य ही झलकता है।
कलुवा कलुवा ही रह गया
जवाब देंहटाएंहमारा देश धर्म निरपेक्ष कहलाता है
इसका मतलब यह तो नहीं की हम नए नए सरकारी जाती भेद न पैदा करें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अब अन्य पिछड़ा वर्ग ?
गांधी जी को रखो दिल में
जवाब देंहटाएंसबही कहते हैं
हम भी कह रहे हैं
परन्तु दिल में से
छोटी ई की मात्रा (ि)
को निकाल कर
दल में रख लिया है
नेताओं ने भी
पब्लिक ने भी
और इसी दलदल में
सब दल दिये गये हैं
जो निकालना चाहता है
वो भी दला जाता है।
कलुआ कलुआ ही र्हा मगर नहीं रहेगा अगर आपकी इस बात पर अमल किया जाये---मायावती जी हो या राहुल गांधी अगर वाकई दलितों या गरीबों के दिल से हितेषी हैं तो समरस समाज बनाने के लिए शिक्षा से ही पहल करें...ऐसी व्यवस्था कीजिए कि अगर किसी के मां-बाप बच्चे की अच्छी शिक्षा का खर्च उठाने में समर्थ नहीं है तो सरकार अपने पैसे से उस बच्चे को पढाए-लिखाए...और जब वो बच्चा कुछ बन जाए तो वो अपनी कमाई से उस पैसे को सरकार को वापस कर दे जो बचपन में उसकी पढ़ाई पर सरकार ने लगाया था...ये पैसा फिर और गरीब बच्चों की पढ़ाई पर काम आएगा...इस तरह जो आने वाली पीढ़ियां आएंगी उनकी सोच वाकई बहुत खुली होगी और उनमें एक दूसरे के लिए नफ़रत नहीं बल्कि सहयोग का भाव होगा...ये भावना होगी कि सबको मिलकर भारत को आगे बढ़ाना है...अब
जवाब देंहटाएंआप सोचिए राजघाटों, शांतिवनों, शक्ति स्थलों, वीर भूमियों या अंबेडकर स्मारकों पर अरबों रुपया बहाना सही है या गरीब चुन्नू या नन्ही की शिक्षा पर पैसा खर्च करना...
बिलकुल सही सीख है मगर फिर वोट कैसे लेंगे ये लोग अगर कलुआ सहिइब बन गया तो? आपकी गम्भीरता मे मैं भी आजकल गम्भीर होती जा रही हूँ सोचते हुये लिखने का समय ही नहीं मिलता देखो आज पोस्ट नहीं डाल पाई। शुभकामनायें आशीर्वाद इसी तरह सब को सोचने के लिये मजबूर करते रहो
आज तो बहुत सारे सवाल उठा दिए।
जवाब देंहटाएंलेकिन सभी जायज़।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबुत-परस्ती/नापरस्ती और ठाकरे विषयक दो पोस्टें पढ़कर लगा कि इतने गंभीर मुद्दों पर भी निर्विकार भाव से, बिना किसी पक्ष के प्रति सॉफ्ट-कार्नर दिखाये संयत, और विचारोत्तेजक पोस्टों का टोटा नहीं हुआ है अभी ब्लॉगजगत में..
जवाब देंहटाएंइन गंभीर मुद्दों पर बेबाकी के साथ ग़ज़ब की संतुलित प्रतिक्रिया रखने के लिये साधुवाद..
बुतों के मसले पर प्रवीण भाई से शब्दशः सहमत हूँ.. बाबासाहेब का भी मानना था कि युगों से चमड़ा फाड़ते, मैला ढोते समाज के एक विशाल वर्ग को उन्नति का आत्मविश्वास दिलाने के लिये किसी दलित आइकन को भव्य जीवन जीना होगा.. यही सोचते हुए बाबासाहेब भी बेशकीमती पेन-घड़ी रखते थे, तथा तत्कालीन ‘खादी फैशन’ के विरुद्ध मँहगे सूट पहना करते थे..
लेकिन बात तो वहीं आकर रुक जाती है.. एक जीवट वाला व्यक्तित्व बहुसंख्य भारतीयों के अभावग्रस्त जीवन से व्यथित होकर एक लंगोटी और रूखे-सूखे अन्न पर जीवन बिता देता है, ताकि जनता को सादगी के संस्कार मिलें.. दूसरा व्यक्तित्व ब्राह्मणवादी धर्म के अनकथ अत्याचारों से दबे कुचले समाज के बहुत बड़े तबके में भौतिक-आर्थिक-सामाजिक उन्नति के लिये आधारभूत आत्मविश्वास इन्फ्यूज करने के लिये भव्य जीवन का संदेश देता है..!
लेकिन इन कवायदों के पीछे छुपे विराट संदेशों को उनकी विरासत सँभालने वालों ने किस हद तक समझा??
पार्क बनाने में, मूर्ति लगाने में पैसा खर्च होता है। लेकिन यह पैसा किस पर खर्च होता है? एक आम मजदूर को मजदूरी मिलती है, ठेकेदार को भी व्यापार मिलता है अर्थात देश का पैसा देश की जनता के बीच ही जाता है। यह बात अलग है कि इस पैसे से उत्तर प्रदेश की सड़के अच्छी बनती तो शहर की सुन्दरता वास्तव में बढ़ती। लेकिन जब एक विकासशील देश में हमारी मानसिकता में एक परिवार के स्मारक बनाना ही हो तब ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक होती है। हमारे देश में यही हाल मन्दिरों का है, लाखों मन्दिरों वाले देश में अभी भी वृहत मन्दिर बन रहे हैं। अक्षरधाम इसका उदाहरण है। ऐसे कितने ही प्रश्न हैं जो हमारी विसंगतियों को उजागर करते हैं, इसी कारण मायावती जैसों को रोकने में हमारे कोई भी तर्क कारगार सिद्ध नहीं होते।
जवाब देंहटाएंआज काफ़ी सारे सवाल खडे कर दिये , और एक अजीब सी उथल पुथल शुरु होगई, वाकई कुछ सोचने के लिये बाध्य करती है आपकी यह पोस्ट.
जवाब देंहटाएंरामराम.
अपने मुँह मियाँ मिट्टू बनाने वाली बात है जब तक जनता सच्चे दिल से नही चाहेगी मूर्तियाँ बनवाने से कोई यादगार नही हो जाता....बढ़िया प्रसंग खुशदीप जी अपने प्रदेश की राजनीति में जनता पर कम और ऐसे मूर्तियों पर ज़्यादा चर्चा हो रही है..क्या समय आ गया है..
जवाब देंहटाएंवाह रे बहन मायावती और उनके चमचे , साला पेसै हमारे और बूत बनावायें कोई और वाह बहुत खूब , इनसे उम्मीद भी क्या किया जा सकता है जब इनके साथ पढे लिखे मूर्खो की जमात रहेगी जिन्हे बुत बनाने में ही तरक्की दिख रही है । ये बुत बनवा रही हैं तो उसके लिए पैसे भी लग रहे हैं वह भी बहुत संख्या में ये सबको मालुम है , वह न सिर्फ दलितो, उच्चय जाती का बल्कि पूरे देश वासियो का है, तो इसे निर्रथक बहाने का क्या मतलब बनता है कोई बतायेगा , जितनी संपत्ति वे बुत बनावाने में खर्च कर रही हैं उनसे बहुत से रोजगार मुहैया कराये जासकते हैं जिनसे न सिर्फ दलितो बल्कि औरो का भी कल्याण होगा, लेकिन नहीं मायावती को अजय अमर जो होना है, और रही बात गांधी जी नहरु जी इंदिरा, राजीव गांधी के बुतो की तो उनके बुत लोगो ने बनवाया था उनके मरणोपर्रान्त सरकार द्वारा बनाया गया था न की उन्होंने खूद बनवाया था । बुत बनवाने से कोई महान नहीं बन जाता है बनता है अपने कर्तव्यो से, ऐसे जनता के पैसे खाकर कोई महान नहीं बन जाता ।
जवाब देंहटाएं@धीरु सिंह जी
आप मायावती की किससे तुलना कर रहे है जरा यह भी ध्यान रखे , आप इन महान व्यक्तयों को मायावती की कतार में ना रखे । और आरक्षण का फायदा मिलगा क्या खाक जब सारे पैसे बुत बनवांने में लगेंगे , जरा बाहर आईये यो मायावती को आम नागरिक की नजर से देखिए सब बात साफ हो जायेगी ।
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जवाब देंहटाएं.
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खुशदीप जी,
बुतों का अपना महत्व है, जरूरत है, अत: किसी के भी बुतों को तोडने की जरूरत नहीं है। मैंने सुना है कि ईश्वर भी दिलों में ही बसता है पर हर रोज मुझे उसके भी नये नये बुत, मीनारें और गिरजे बनते दिखते हैं, यह सब भव्यता उसके साथ न जुड़ी हों तो शायद कोई पूछे भी न उसको।
आरक्षण के विकल्प के तौर पर आप जो सुझा रहे हैं वह बहुत ही आदर्शवादी है, गरीबी को यदि पैमाना बनाया जायेगा तो वही होगा जो बीपीएल कार्डों के मामले में हुआ है...६० बीघा खेत, कोठी, ट्रैक्टर, जीप, राइफल सब कुछ...पर पास में बीपीएल कार्ड है...और दूसरी तरफ न जमीन, न मकान, न पशु, न रोजगार...पर बेचारे को गरीब नहीं माना जाता। ऐसी व्यवस्था का फायदा कौन उठायेगा आप खुद ही समझ सकते हैं।
उडन तशतरी जी व निर्मला कपिला जी के विचारों से सहमत।
जवाब देंहटाएंजय हिंद
सार्थक, सटीक!
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी,
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक ...
कुछ घटनाओं के लिए आँसू जैसे चीज़ भी क्या मायने रखेगी....बस प्रार्थना करनी चाहिए...की वो परिवार इस हादसे को झेल पाए...
और उसके बाद जरूरत है...कमर कसने की ..कि पीकर गाड़ी चलाने वालों को कानून के शिकन्जे में हर हाल में पहुँचाया जाए और किसी भी कीमत में वो बच न पाएं......आरोप हमेशा उनपर लगे...फर्स्ट डिग्री मर्डर का.......
khushdeep ji,
जवाब देंहटाएंbahut bahut maafi ..ye comment aapke doostri post ke liye likha tha galati se yahan prakashit ho gaya hai...
SORRY..!!