मुस्लिम वोट बैंक क्या हक़ीक़त है या सिर्फ़ एक भ्रम, इस मुद्दे पर आज मेरा एक लेख अमर उजाला कॉम्पैक्ट में छपा है।
इस लेख को इस लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है-
मुस्लिम वोट बैंक का मिथक
लेख की मूल प्रति ये है-
16वीं लोकसभा के चुनाव में मुसलमान वोट किस पार्टी के खाते में जाएंगे?क्या मुस्लिम वोट बैंक राष्ट्रीय स्तर पर एक वास्तविकता है या सिर्फ मिथक? क्या मुस्लिमों को अन्य धर्मों के मुकाबले किसी पार्टी विशेष के पक्ष में एकमुश्त वोट करने के लिए आसानी से तैयार किया जा सकता है? मुस्लिम वोटों की इस पहेली को साधने की कोशिश करने में कोई भी सियासी दल पीछे नहीं है। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी भी मुस्लिमों का ‘सच्चा हितैषी’ होने का दावा कर रही है। नरेंद्र मोदी एक बुकलेट के माध्यम से दावे कर रहे हैं कि किस तरह गुजरात में मुस्लिमों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति दूसरे राज्यों की तुलना में बेहतर है।
Keywords:Muslim Vote Bank, Secularism
इस लेख को इस लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है-
मुस्लिम वोट बैंक का मिथक
लेख की मूल प्रति ये है-
16वीं लोकसभा के चुनाव में मुसलमान वोट किस पार्टी के खाते में जाएंगे?क्या मुस्लिम वोट बैंक राष्ट्रीय स्तर पर एक वास्तविकता है या सिर्फ मिथक? क्या मुस्लिमों को अन्य धर्मों के मुकाबले किसी पार्टी विशेष के पक्ष में एकमुश्त वोट करने के लिए आसानी से तैयार किया जा सकता है? मुस्लिम वोटों की इस पहेली को साधने की कोशिश करने में कोई भी सियासी दल पीछे नहीं है। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी भी मुस्लिमों का ‘सच्चा हितैषी’ होने का दावा कर रही है। नरेंद्र मोदी एक बुकलेट के माध्यम से दावे कर रहे हैं कि किस तरह गुजरात में मुस्लिमों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति दूसरे राज्यों की तुलना में बेहतर है।
मुस्लिम वोट बैंक के
पीछे ‘थ्योरी’ दी जाती है कि
मुसलमान अपने बड़े धार्मिक संस्थानों या धार्मिक गुरुओं की अपील के हिसाब से वोट
करते हैं। जिस पार्टी या प्रत्याशी के पक्ष में ये अपील जारी हो जाती है, उसे
मुस्लिम थोक के भाव से मतदान करते हैं। शायद यही वजह है कि कांग्रेस हो या
समाजवादी पार्टी, बीजपी से छिटका जेडीयू
हो या राष्ट्रीय जनता दल या फिर बामुश्किल डेढ़ साल पुरानी आम आदमी पार्टी,
सभी मुस्लिम धार्मिक नेताओं का समर्थन हासिल करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाए
रखते हैं। ये भी एक हक़ीक़त है कि मुसलमानों के कुछ कथित ‘रहनुमा’ भी निजी फायदे के लिए इस भ्रम को टूटने नहीं देना चाहते कि मुस्लिम
समुदाय को किसी दिशा में भी एकतरफा मोड़ा जा सकता है।
दरअसल, देश के सब मुसलमानों की सोच को एक तराजू में रखकर तौलना एक
भ्रांति के सिवा और कुछ नहीं है। भारत में मुसलमानों की आबादी 13 फीसदी, यानि 16
करोड़ है। भारत भौगोलिक रूप से जितना विशाल है सांस्कृतिक स्तर पर उतना विविध भी। देश
के अलग-अलग इलाकों में रहने वाले मुसलमानों का रहन-सहन भी उसी इलाके की ज़रूरतों
के हिसाब से प्रभावित होता है। स्थानीय मुददे मुसलमानों को भी उतना ही उद्वेलित
करते हैं जितना कि अन्य समुदायों को। ऐसे में मुसलमान भी क्षेत्र के हिसाब से
पार्टी और उम्मीदवार को चुनते हैं तो आश्चर्य कैसा? मुस्लिम वोटर तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार लोकसभा चुनाव और
विधानसभा चुनाव का फर्क भी अच्छी तरह समझता है। 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर
प्रदेश में मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस पर भरपूर भरोसा जताया। वही राज्य में
2012 में विधानसभा चुनाव के दौरान मुस्लिमों ने कांग्रेस को पूरी तरह नकार मुलायम
सिंह यादव की झोली वोटों से भर दी।
मुस्लिम वोट बैंक का तर्क देने वालों के लिए मुस्लिम समाज को अटूट
इकाई के तौर पर देखना भी गलतफहमी है। ये समाज सदियों पहले से ही शिया और सुन्नी,
दो वर्गों में बंटा हुआ है। इसके अलावा हिदू समाज जैसे ही ऊंच-नीच का भेदभाव
मुस्लिम समाज में भी पाया जाता है। मध्ययुगीन भारतीय समाज में इस्लाम को एक
धार्मिक समुदाय के नही बल्कि जाति समुदाय के रूप में स्वीकार किया गया था। मुगल, पठान, तुर्क, शेख और सैयद को मूल उप-जातियों के तौर पर लिया
गया। इन सभी ने खुद को हमेशा अगड़े वर्ग में माना। इनके अलावा भारत में जो भी दूसरे
लोग धर्म परिवर्तन के बाद मुसलमान बने, उनसे बराबरी का बर्ताव न करते हुए पिछड़े
दर्जे में ही रखा गया।
आज़ादी के बाद चुनावी राजनीति ने मुस्लिम समाज में जातिगत बंटवारे
को और तेज़ किया। सियासत के मंडलीकरण के बाद तो कहीं-कहीं ये टकराव इतना तीक्ष्ण
है कि कुरैशी अगर एक पार्टी को वोट करते हैं तो अंसारी दूसरी प्रतिद्वन्द्वी
पार्टी के प्रत्याशी को वोट देते हैं। यहां ये मायने नहीं रखता कि प्रत्याशी
मुस्लिम है या किसी और धर्म का।
आखिर देश के मुसलमान किस पैट्रन से वोट करते हैं? इसके लिए पिछले तीन लोकसभा चुनाव नतीजों के आधार पर एक हालिया अध्ययन में
दिलचस्प नतीजे सामने आए। इनसे साफ़ हुआ है कि 1999, 2004 और 2009 के लोकसभा
चुनावों में हिंदुओं ने जिस आधार पर अपना वोट दिया, कमोवेश वैसा ही आधार मुसलमानों
ने भी चुना। 1999 में पार्टी को मुख्य आधार मान कर वोट करने वाले हिंदू मतदाता 55.50% तो मुसलमान 52.70% थे। 2004 में पार्टी के आधार पर
वोट करने वालों हिंदुओं का प्रतिशत गिर कर 45.70 पर आया तो मुस्लिमों में भी ये
43.50% ही रह गया। 2009 में पार्टी के आधार पर हिंदू
मतदाताओं की वोटिंग का प्रतिशत 61.80 तक चढ़ा तो मुसलमानों में भी 59.10% तक पहुंच गया।
जहां तक उम्मीदवार को मुख्य आधार मान कर वोटिंग का सवाल है तो
हिंदू मतदाताओं में 1999 मे 26.30%, 2004
में 31.50% और 2009 में 24.30% ने इसे
और सभी कारणों पर तरजीह दी। उम्मीदवार को मुख्य आधार मान कर वोट करने वाले मुस्लिम
मतदाताओं का भी समान पैट्रन दिखा। 1999 में 25.00%, 2004 में
32.10 और 2009 में 24% मुस्लिम मतदाताओं ने पसंद के
उम्मीदवार के आधार पर वोट दिया।
मुस्लिम समुदाय भी विकास, शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य आदि बुनियादी
मुद्दों पर वैसे ही सोच रखता है जैसे कि देश के बाक़ी नागरिक। लेकिन इसके साथ ही
मुस्लिमों के लिए एक और बड़ा सवाल है- सुरक्षा की गारंटी। जो भी राजनीतिक दल इस
मामले में उसे ईमानदारी से काम करता दिखता है, मुस्लिम समुदाय उसके पीछे एकजुट
होने में देर नहीं लगाता। गुजरात में 2002 की हिंसा हो या हाल में उत्तर प्रदेश के
मुजफ्फरनगर में दंगा, मुस्लिम मतदातों के लिए सुरक्षा भी चुनाव के वक्त अहम मुद्दा
होता है।
Keywords:Muslim Vote Bank, Secularism
आप जमीनी हकीकत को जानते ही नहीं .....
जवाब देंहटाएंइनसान को इनसान से लड़ाने की फितरत किसी भी मज़हब की ओर से हो, उसे मैं जानना चाहता भी नहीं...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...