स्वच्छता और खुले में शौच की समस्या पर पिछली
दो पोस्ट पर विस्तार से लिख चुका हूं. आज उसी विषय की ये तीसरी और अंतिम कड़ी है.
कुछ लिखूं, इससे पहले पिछली पोस्ट पर आई एक टिप्पणी का ज़िक्र करना चाहूंगा. भाई
चौहान अजय ने ये टिप्पणी भेजी-
मेरे गाँव मे समस्या ये है की पीने का पानी तक
मुहैया नहीं कर पा रही है सरकार। विदर्भ मे इस वर्ष भी सूखा पडा है। यहां जीने का
संघर्ष है और सरकार की सोच सडांध मारते शौचालय जैसी हो गई है
समस्या वाकई विकराल है. गांव में पानी जैसी
बुनियादी चीज़ ही उपलब्ध नहीं है, ऐसे में भारत जैसे विशाल ग्रामीण आबादी वाले देश
को दो साल में ODF (खुले में शौच से मुक्त) बनाने का लक्ष्य रखना
कितना व्यावहारिक है, कह नहीं सकता. 50-60 करोड़ लोगों को खुले में शौच से रोकने
के लिए मनाना भागीरथ कार्य से कम नहीं है. जैसे कि मैंने पिछली पोस्ट में उदाहरण
दिए कि कुछ जगह अधिकारी अति उत्साह में इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अमानवीय
कृत्य करने से भी गुरेज नहीं कर रहे.
ये कहने-सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि
शहर-गांव में घर-घर में शौचालय होना चाहिए. बिल्कुल होना चाहिए. शहरों में मलीन
बस्तियों को छोड़ दिया जाए तो करीब-करीब हर घर में शौचालय उपलब्ध है. शहरों में
समस्या घरों में नहीं बल्कि सार्वजनिक स्थानों पर साफ़-सुथरे शौचालयों की कमी की
है. अगर कहीं हैं भी तो वो या तो इतने गंदे हैं कि कोई उनमें जाने की हिम्मत नहीं
कर सकता. या फिर कुछ गैर सरकारी संगठनों के हवाले हैं, जो देश-विदेश से बड़े
अनुदान मिलने के बावजूद इन्हें दुकानों की तरह चला रहे हैं. किसी गरीब आदमी को एक
बार हल्के होने के लिए पांच रुपए कीमत देना ज़रूर अखरता होगा. यही वजह है कि जब
ट्रेन से सफ़र किया जाए तो सुबह-सुबह शहरों के बाह्य क्षेत्रों में पटरियों, नालों
के किनारे ऐसे दृश्य देखने को मिल जाते हैं कि खिड़कियों को बंद रखना ही बेहतर
रहता है.
गांवों पर जाने से पहले शहरों की ही बात कर ली
जाए. क्या यहां स्थानीय प्रशासन पर्याप्त संख्या में साफ़-सुथरे पब्लिक टॉयलेट्स
उपलब्ध करा पा रहे हैं. स्लम्स की बात छोड़िए, अच्छी रिहाइशी बस्तियों या बाज़ारों
में भी इनकी भारी कमी है. नोएडा के सेक्टर 16-ए में स्थित फिल्म सिटी की ही बात
कीजिए. यहां तमाम बड़े न्यूज चैनल्स और मीडिया संस्थानों के दफ्तर हैं. लेकिन पूरी
फिल्म सिटी में एक भी पब्लिक टॉयलेट नहीं हैं. यहां सिर्फ दफ्तरों में काम करने
वाले ही नहीं बड़ी संख्या में दूसरे लोग भी आते हैं. अब ऐसे में अचानक नेचर कॉल आना किसी मुसीबत से कम नहीं.
चलिए मायानगरी मुंबई की बात की जाए. यहां बैंड
स्टैंड पर शाहरुख़ ख़ान और सलमान ख़ान जैसे सुपरस्टार्स के आशियाने हैं. समुद्र का
किनारा होने की वजह से यहां बड़ी संख्या में लोग रोज़ पहुंचते हैं. पास ही मछुआरों
की बस्ती भी है. पिछले दिनों यहां सलमान ख़ान जिस गैलेक्सी अपार्टमेंट बिल्डिंग
में रहते हैं, उसी से कुछ दूरी पर बीएमसी ने पोर्टेबल टॉयलेट्स की व्यवस्था की. अब
सलमान ख़ान के घर के सामने सी-व्यू के साथ टॉयलेट का दृश्य कैसे बर्दाश्त किया
जाता. सलमान ख़ान के पिता सलीम ख़ान ने इस पर कड़ा ऐतराज़ जताते हुए बीएमसी को
खड़का डाला. आखिरकार मेयर को बीएमसी को वहां टॉयलेट हटाने का निर्देश देना पड़ा.
ख़ैर ये तो रही शहरों की बात, अब आते हैं
गांवों पर, जहां अब भी करोड़ों लोग खुले में शौच के लिए खेतों में जाते हैं.
स्वच्छ भारत अभियान के तहत मध्य प्रदेश में भी खुले में शौच से रोकने के लिए सरकार
की ओर से बड़ी कोशिशें की जा रही हैं. सीहोर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज
सिंह चौहान का गृह जिला है. यहीं के एक गांव में 8 से 13 साल के कुछ बच्चे सुबह ही
उठ जाते हैं. ये खुद को डिब्बा डोल गैंग के सदस्य बताते हैं. इनका काम जहां भी
नितकर्म करता कोई दिखाई दे या जाता दिखाई दे तो उसके डिब्बे से पानी गिराने का
होता है.
यहां ये नहीं भूलना चाहिए कि सरकार
की ओर से की जाने वाली सख्ती से जो नतीजे आएंगे, वो दीर्घकालिक नहीं होंगे. इसके
लिए सूझ-बूझ और गांव समुदायों को साथ लेकर चलने की आवश्यकता है. वैसी ही सूझ-बूझ
जैसे कि देश में पोलियो उन्मूलन अभियान के दौरान अपनाई गई. स्वच्छ भारत मिशन की
री-ब्रैंडिंग और री-लॉन्चिंग में अगर कुछ सबसे कारगर हो सकता हैं तो वो है-
सामुदायिक नेतृत्व में पूर्ण सेनिटेशन (Community Led Total Sanitation-CLTS).
सामुदायिक
और सहकार की भावना कितना क्रांतिकारी बदलाव कर सकती है, ये हमने वर्गीज़ कुरियन
जैसे प्रणेता के नेतृत्व में आणंद में अमूल दुग्ध क्रांति के दौरान देखा. दूध की
मार्केटिंग तो सरकारी स्तर पर कई और राज्यों में भी होती है, लेकिन वो अमूल
की तरह एक राष्ट्रीय मिशन का रूप क्यों नहीं ले पाई. फर्क कुरियन की ईमानदारी के
साथ भ्रष्टाचार रहित उस सामूहिक भावना का है, जहां हर घरेलू दुग्ध उत्पादक ने अमूल
मिशन को सफल बनाना अपनी खुद की ज़िम्मेदारी समझा. ऐसा ही कुछ देश में स्वच्छता
अभियान के साथ भी होना चाहिए.
यहां
ये भी समझना चाहिए कि गांवों में खुले में शौच जाने वाले लोगों को ये आदत सदियों
से पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिली है. ये आधारभूत से ज्यादा व्यावहारिक और
सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश वाली समस्या है. इसके लिए करोड़ों लोगों को तैयार करने
के लिए जोर जबरदस्ती नहीं बल्कि अभिनव तरीकों का प्रयोग किया जाना चाहिए.
इसे
ऐसे भी समझना चाहिए जब देश में कंप्यूटर आया था तो सब इसे अजूबा समझते थे. दरअसल,
भौतिक विज्ञान के जड़त्व के नियम के मुताबिक जो चीज़ जैसी है, वो वैसी ही रहना
चाहती है. इसलिए लोगों का बरसों से चला आ रहा व्यवहार बदलना भी टेढ़ी खीर से कम
नहीं. कंप्यूटर आने से पहले सरकारी दफ्तरों में टाइप राइटर से ही काम होता था.
कर्मचारियों को टाइप राइटर से काम करने की आदत पड़ी हुई थी. उन्हें जब
पहली बार कंप्यूटर पर काम करने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा कि नहीं उनके लिए
तो टाइप राइटर ही ठीक है. तब देश में कंप्यूटर क्रांति के प्रणेता सैम पित्रोदा ने
एक सुझाव कर्मचारियों के सामने रखा. उन्होंने कर्मचारियों से कहा कि आप एक महीना
बस कंप्यूटर पर काम करके देखो. अगर आप इसे फिर भी सुविधाजनक ना समझो तो इन्हें
वापस लेकर आपको दोबारा टाइपराइटर लौटा दिए जाएंगे. एक महीने तक कर्मचारियों ने
कंप्यूटर पर मजबूरन काम करना स्वीकार कर लिया. एक महीने बाद उनसे पूछा गया कि क्या
कंप्यूटर की जगह फिर टाइप राइटर पर लौटना पसंद करेंगे, तो सभी ने मना कर दिया.
क्योंकि तब तक उन्हें कंप्यूटर की सुविधा और आराम समझ आने लगा था. अब उसी का नतीजा
देखिए, देश भर में किसी दफ्तर की कल्पना क्या बिना कंप्यूटर के की जा सकती है.
कुछ
कुछ ऐसे ही तरीके भारत को स्वच्छ करने या खुले में शौच से मुक्त बनाने के लिए भी
अपनाए जाने चाहिएं. Community Led Total Sanitation- CLTS भी ऐसा ही कदम है. इसके तहत किसी समुदाय (ग्राम
सभा, पंचायत, गांव के लोग) को एकत्र किया जाता है. फिर किसी फील्ड को-ऑर्डिनेटर के
जरिए उन्हें खुले में शौच से जुड़े स्वास्थ्य संबंधी तमाम पहलुओं के बारे में
समझाया जाता है. उन्हें आसान भाषा में समझाया जा सकता है कि खुले में शौच नहीं
जाने से कितनी बीमारियों से खुद को और बच्चों को बचाया जा सकता है. साथ ही
अस्पताल, दवाइयों पर होने वाला खर्च बचाकर कितना आर्थिक लाभ भी हो सकता है.
लेकिन
यहां लगातार समुदाय के साथ संवाद की जरूरत है. उन्हें सेलेब्रिटीज का सहयोग लेकर
इस दिशा में एजुकेशन फिल्में प्रोजेक्टर पर दिखाई जा सकती है. कैसे
ये मुद्दा महिलाओं के सम्मान से भी जुड़ा है. कैसे हर साल स्वच्छता की कमी से डायरिया जैसी
बीमारियों से लाखों शिशुओं को मौत के मुंह में जाने से रोका जा सकता है?
कोशिश रहे कि ऐसा संदेश हर जगह हवा में तैरने लगे कि घर में शौचालय होना सामाजिक प्रतिष्ठा का सवाल है. और जब इसके लिए सरकार भी सब्सिडी दे रही है तो फिर इसे बनाने में हर्ज भी क्या है.
कोशिश रहे कि ऐसा संदेश हर जगह हवा में तैरने लगे कि घर में शौचालय होना सामाजिक प्रतिष्ठा का सवाल है. और जब इसके लिए सरकार भी सब्सिडी दे रही है तो फिर इसे बनाने में हर्ज भी क्या है.
CLTS में लगातार संवाद से पूरा
समुदाय सामूहिक रूप से फैसला करता है कि खुले में शौच करने को रोकना उसकी अपनी
ज़िम्मेदारी है. फिर समुदाय खुद ही देखता है कि गांव के हर सदस्य को अच्छी तरह
समझ आ जाए कि शौचालय का इस्तेमाल कितना लाभकारी है. जहां तक सरकार का सवाल है वो
अपने स्तर पर समुदाय को इस काम में अपनी तरफ से पूरा प्रोत्साहन दे. साथ ही ये भी देखे
कि उस गांव में पानी जैसे बुनियादी चीज़ की कमी है तो उसे दूर करने के लिए युद्ध स्तर
पर प्रयास किए जाएं. सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट को कैसे गांव के ही आर्थिक लाभ
में तब्दील किया जाए, इस पर भी काम किया जाए. जो समुदाय इस दिशा में त्वरित और
अच्छा काम करके दिखाए, उसे जिला, राज्य, देश स्तर पर सम्मानित भी किया जाए. जिससे
दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरणा मिले.
CLTS के
तहत जो भी बदलाव होगा वो टिकाऊ और दीर्घकालिक होगा.
इसमें समुदाय खुद ही निगरानी समितियां बना सकता है. जो लोग बहुत समझाने पर भी नहीं मानते
उन्हें फूल देना या माला पहनाने जैसे गांधीगीरी के रास्तों को भी अपनाया जा सकता
है. खुले में शौच जाने वालों के नामों को नोटिस बोर्ड पर लिखना या लाउड स्पीकर पर
उनके नामों का एलान करना. ये सभी अहिंसावादी तरीके हैं लेकिन इनमें ‘नेमिंग एंड शेमिंग’ का भी पुट है. ये खुद समुदाय की ओर से ही किया जाता है और अंतिम निर्णय व्यक्ति
पर ही छोड़ दिया जाता है.
मोदी सरकार ने 2 अक्टूबर,
2019 (महात्मा गांधी की 150वीं जयंती) तक देश को खुले में शौच से पूरी तरह मुक्त
बनाने का लक्ष्य रखा हुआ है. कुछ राज्य ये डेडलाइन पाने के साथ ही ऐसे बाध्यकारी
तरीके अपना रहे हैं जो CLTS की भावना के विपरीत
हैं. जैसे कि हरियाणा सरकार ने हाल में घोषणा की है कि लोगों पर
निगरानी रखने के लिए ड्रोन्स का इस्तेमाल किया जाएगा. मध्य प्रदेश में क़ानून के
तहत घर में शौचालय नहीं होने पर पंचायत चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं होगी. पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में एक सरपंच ने आदेश दिया कि जो लोग घर में शौचालय
नहीं बनाएंगे वो सरकारी राशन की दुकानों से सामान लेने के हक़दार नहीं रहेंगे.
बिग
ब्रदर जैसा बर्ताव जो कि अधिकतर सरकारी नीतियों और निर्देशों में झलकता है, दूसरे
शब्दों में कहें तो सरकारी ज़ोर ज़बरदस्ती का उल्टा असर भी हो सकता है. सुरक्षित
स्वच्छता के लाभ की ओर मुड़ने की जगह लोग इसके बैरी भी बन सकते है. ये स्थिति वाकई
चिंताजनक होगी. ऐसे बैकलेश से बचना चाहिए क्योंकि हम जानते हैं कि स्वच्छ भारत
अभियान अपने सबसे निर्णायक फेस में है. सत्तर के दशक में जबरन नसबंदी का लोगों में
क्या प्रतिकूल असर हुआ था, किसी से छुपा नहीं है. समझदारी इसी में है कि समुदायों
को आगे बढ़कर खुद ज़िम्मेदारी लेने दी जाए. ऐसा बदलाव पोलियो अभियान जैसे ही शत
प्रतिशत अच्छे परिणाम लाएगा, भले ही इसमें वक्त कुछ ज़्यादा लगे.
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