बुज़ुर्गो से भी गलतियां होती हैं...खुशदीप

क्या कसूर सिर्फ बेटे-बहुओं का ही होता है...माता-पिता या बुज़ुर्ग क्या कभी गलत नहीं होते...युवा पीढ़ी के इस सवाल में भी दम है...हम सिर्फ एक नज़रिए से ही देखेंगे तो न्याय नहीं होगा...रिश्तों की मर्यादा बेहद महीने धागे की तरह होती है...एक बार टूट जाए तो बड़ा मुश्किल होता है उसका दोबारा जुड़ना...जुड़ भी जाए तो गांठ पड़ ही जाती है...इस लेखमाला को विराम देने के लिए मैं सितंबर में लिखी एक पोस्ट के कुछ अंशों को दोबारा उद्धृत कर रहा हूं...

कहते हैं न...क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात...बच्चे गलतियां करते हैं, बड़ों का बड़प्पन इसी में है कि उन्हें क्षमा करें...बुज़ुर्ग अगर मन में बात रखेंगे तो उससे दिक्कतें बढ़ेंगी ही कम नहीं होंगी...बुज़ुर्ग भी नए ज़माने की दिक्कतों को समझें...जिस तरह के प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में आज जीना पड़ रहा है, पहले ऐसा नहीं था...ज़ाहिर है नौकरियों में पैसा बढ़ा है तो तनाव भी उतना ही बढ़ा है...अब पहले वाला ज़माना नहीं रहा कि दस से पांच की ड्यूटी बजा दी और काम खत्म...आज चौबीसों घंटे आपको अपने काम के बारे में सोचना पड़ता है...अन्यथा करियर में पिछड़ जाने की तलवार हमेशा सिर पर लटकी रहेगी...फिर बच्चों के लिए भी अब कॉम्पिटिशन बहुत मुश्किल हो गया है...इसलिए बीच की पीढ़ी को बच्चों को भी काफी वक्त देना पड़ता है...ठीक वैसे ही जैसे कि आप अपने वक्त में देते थे...

बुज़ुर्ग अपने लिए हर वक्त मान-सम्मान की उम्मीद करते हैं तो वो दूसरों  (चाहे वो कितने भी छोटे क्यों न हो) की भावनाओं का भी ध्यान रखे...बुज़ुर्ग अगर हमेशा ही...हमारे ज़माने में ऐसा होता था, वैसा होता था...करते रहेंगे तो इससे कोई भला नहीं होगा...मैंने देखा है बुज़ुर्ग सास-ससुर का बहू-बेटे के लिए सोचने का कुछ नज़रिया होता है...और बेटी-दामाद के लिए कुछ और...आपको ये समझना चाहिए कि अब बहू ही बेटी है...बिना बात हर वक्त टोका-टाकी न करे...अब दुनिया ऐसी होती जा रही है जहां चौबीसों घंटे काम होता है...जीने के अंदाज़ बदल गए हैं...इसलिए समय पर घर आओ, समय से घर से जाओ, जैसे नियम-कायदे अब हर वक्त नहीं चल सकते...दिन भर काम में खपने के बाद पति-पत्नी को प्राइवेसी के कुछ पल भी चाहिए होते हैं...इसलिए उन्हें ये लिबर्टी देनी ही चाहिए...सौ बातों की एक बात...बुज़ुर्ग हो या युवा, एडजेस्टमेंट बिठाने की कला सभी को आनी चाहिए...

युवा पीढ़ी को भी समझना चाहिए कि बच्चा और बूढ़ा एक समान होते हैं...जैसे आप बच्चों की ख्वाहिशें पूरी करने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते हैं, ऐसे ही उनकी भावनाओं का भी ध्यान रखें जिन्होंने आपको हर मुश्किल सहते हुए अपने पैरों पर खड़ा किया...हर रिश्ते का मान कैसे रखना चाहिए, इसके लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है...



राम ने हर रिश्ते की मर्यादा को जान से भी ज़्यादा अहमियत दी...राम का यही पक्ष इतना मज़बूत है कि उन्हें पुरुष से उठा कर भगवान बना देता है...कहने वाले कह सकते हैं कि एक धोबी के कहने पर राम ने सीता के साथ अन्याय किया...लेकिन जो ऐसा कहते हैं वो राम के व्यक्तित्व की विराटता को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझते...राम ने सीता को कभी अपने अस्तित्व से अलग नहीं समझा...राम खुद हर दुख, हर कष्ट सह सकते थे लेकिन मर्यादा के पालन की राह में कोई आंच नहीं आते देख सकते थे...इसलिए सीता ने जब दुख सहा तो उससे कहीं ज़्यादा टीस राम ने सही...क्योंकि राम और सीता के शरीर भले दो थे लेकिन आत्मा एक ही थे...बस राम के इसी आदर्श को पकड़ कर हम चाहें तो अपने घर को स्वर्ग बना सकते हैं...अन्यथा घर को नरक बनाने के लिए हमारे अंदर रावण तो है ही...

विवेक राम के रूप में हमसे मर्यादा का पालन कराता है...लेकिन कभी-कभी हमारे अंदर का रावण विवेक को हर कर हमसे अमर्यादित आचरण करा देता है...अपने बड़े-बूढ़ों को ही हम कटु वचन सुना डालते हैं...अपने अंदर के राम को हम जगाए रखें तो ऐसी अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता है...यहां ये राम-कथा सुनाने का तात्पर्य यही है कि बड़ों के आगे झुक जाने से हम छोटे नहीं हो जाते...यकीन मानिए हम तरक्की करते हैं तो हमसे भी ज़्यादा खुशी हमारे बुज़ुर्गों को होती है...जैसा हम आज बोएंगे, वैसा ही कल हमें सूद समेत हमारे बच्चे लौटाने वाले हैं...इसलिए हमें अपने आने वाले कल को सुधारना है तो आज थोड़ा बहुत कष्ट भी सहना पड़े तो खुशी-खुशी सह लेना चाहिए...

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37 टिप्पणियाँ
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  1. बेहतरीन शिक्षाप्रद बात....सुंदर आलेख के लिए हार्दिक बधाई

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  2. बात तो एकदस दुरुस्त है..ताली एक हाथ से ही नहीं बजती..पर सास-ससुर को माता पिता का दर्जा भी देना जरुरी है..और बहु को बेटी का..आखिर हर औऱत कहीं बेटी है और कहीं बहु..मेरा मानना है कि इस मामले में महिलाओं को आगे आकर ये सुधार अपने अंदर लाना ही होगा..

    वैसे एक बात है बॉस रामजी के आशिर्वाद से आप की पोस्ट फिर सप्ताह में दो बार के बेरियर को पार करती जा रही है. हीहीहीहीहीहीहही

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  3. बिल्कुल आजमाई हुई बात है कि वैसा ही कल हमें सूद समेत हमारे बच्चे लौटाने वाले हैं...बहुत उम्दा आलेख!


    एक विनम्र अपील:

    कृपया किसी के प्रति कोई गलत धारणा न बनायें.

    शायद लेखक की कुछ मजबूरियाँ होंगी, उन्हें क्षमा करते हुए अपने आसपास इस वजह से उठ रहे विवादों को नजर अंदाज कर निस्वार्थ हिन्दी की सेवा करते रहें, यही समय की मांग है.

    हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार में आपका योगदान अनुकरणीय है, साधुवाद एवं अनेक शुभकामनाएँ.

    -समीर लाल ’समीर’

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  4. बुजुर्गों को भी नई सोंच के साथ तालमेल बिठा कर चलना चाहिए..

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  5. सुंदर आलेख के लिए हार्दिक बधाई

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  6. बिल्कुल सही कहा आपने .......बदलते वक्त के साथ ..इंसान में भी बदलाव होना जरूरी होता है .

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  7. हमें अपने आने वाले कल को सुधारना है तो आज थोड़ा बहुत कष्ट भी सहना पड़े तो खुशी-खुशी सह लेना चाहिए...
    उत्तम विचार!

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  8. आपके पोस्ट पढ़ने के बाद संस्कृत के इस श्लोक की याद आयी-

    अभिवादनशीलस्य नित्यंवृद्धोपिसेविना।
    चत्वारि तस्य वर्द्धन्ति आयुर्विद्या यशोबलम्।।

    सकारात्मक सोच से लबरेज आपके शब्द प्यारे हैं खुशदीप भाई।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  9. जीवन का अक्सर यही नियम काम करता है. अपनी संतान के व्यवहार में झलकता है जो हम अपने बुजुर्गों से कर चुके होते हैं.

    रामराम.

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  10. अपने अंदर के राम को हम जगाए रखें तो अनेक अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता है!
    बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  11. आज कल तो एक के बाद एक उम्दा लेखों की झड़ी

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  12. खुशदीप जी, बहुत ही सुन्दर विचार व्यक्त किये हैं आपने!

    किन्तु क्या बुजुर्गों का ही यह कर्तव्य है कि वे छोटों की भावनाओं को समझें? आज के जमाने में छोटे लोग बुजुर्गों की भावनाओं को कितना समझते हैं? आज बड़ों को सम्मान देना तो दूर की बात रह गई है, छोटों के पास उनसे बात करने के लिये भी समय नहीं रह गया है। बुजुर्ग लोग दो मीठे बोल सुनने के लिये भी तरस जाते हैं। फिल्म बागबान में इस कटु सत्य को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

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  13. क्या बात है , लाजवाब विचार लगें आपके ।

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  14. व्यवहार में संतुलन ही इसका एक मात्र उपाय है....और वो परिवार के हर सदस्य को करना चाहिए...एक के करने से संभव नहीं..

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  15. बात सही है और कमोबेश इसी अंदाज में हर समझदार व्यक्ति सोचना चाहता है, करने की कोशिश करता है। सच यह भी है कि बुजुर्गीयत का नाम समझदारी इसीलिए है कि उसमें अनुभवों के दीर्घ संसार की कल्पना की गई है। मगर बुजुर्ग का अर्थ संतत्व भी नहीं है और साधुता भी नहीं। सभी बुजुर्ग ऐसे नहीं होते।

    बुजुर्ग हो जाने मात्र से ये गुण नहीं आ जाते। अधिकांश लोग अनुदार है। बदलाव को महसूस किए बिना सिर्फ अपने स्वार्थ में रमें रहते हैं। बच्चों से अपेक्षाएं ज़रूरत से ज्यादा हो जाती हैं। मैं देखता हूं उन गैरजिम्मेदार अभिभावकों को जिन्होंने अपने होनहार बच्चों की परवरिश बेहद लापरवाही से की। अब बुढ़ापे में भी बुजुर्गों वाला आदर्श पद और सम्मान तो चाहते ही हैं, सब कुछ वैसा चलने देना चाहते हैं जैसा वे चलाते आए हैं। उन्हें सोचना चाहिए कि उनके बच्चों का जो हक था वह उन्हें कभी दिया गया? अपने बच्चों के बेहतर भविष्य से खिलवाड़ के दोषी हैं वे। बेहतर शिक्षा न देने के वे दोषी हैं और एक अपाहिज कमजोर पीढ़ी समाज पर थोपने के अपराधी हैं।

    बड़ों के सम्मान की बात अक्सर उपदेश के अंदाज में सामने आती है। वो तो किया ही जाता है। युवावस्था के लापरवाह पालकों में अचानक संतो जैसी महानता कैसे आ सकती है, यह समझ से परे है। हां, बुजुर्गीयत में जिंदगी मुश्किल हो जाती है, शारीरिक अक्षमता बडी समस्या बनकर उभरती है, लिहाजा अपने से बड़ों को भरपूर सुविधायुक्त जीवन मिले यह हमारा कर्तव्य है। हां, ताउम्र लापरवाह रहा व्यक्ति बुढ़ापे में समझदार बन जाता है, इस पर संशय है। मैने कई लोगों को उसी लालसा, मूर्खता, जिद के साथ बुढ़ापा बिताते देखा है। बावजूद इसके, उनके घरों में वे सम्मान और सुविधा से जी रहे हैं। उन्हें अपनी गलतियों का एहसास नहीं।

    समाज में ऐसे भी बुजुर्ग हैं जिन्होंने तमाम असुविधाओं के बीच अपनी संतान को बेहतर परवरिश दी। उसे समाज में सम्मान के साथ जीवन-यापन करने लायक बनाया। हर मुश्किल से जूझने की समझ दी। खुद की पसंद नहीं थोपी बल्कि सिर्फ मार्गदर्शन दिया। कहीं कोई कमी रही तो फराखदिली से उसे कबूल करने में कभी झिझके नहीं। यही पारदर्शिता सभी चाहते हैं अपनी बुजुर्ग पीढ़ी से। सम्मान योग्य व्यक्ति सम्मान जरूर पाएगा। बुजुर्ग होते है संत-महात्मा की मुद्रा शायद परिजनों को नागवार गुजरती है। थोड़ा संतुलन रहे तो बहुत कुछ सध जाता है।

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  16. आपके विचारों से सहमत हूँ ....गलतियाँ सभी से होती हैं ....आभार.

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  17. @अवधिया जी,
    सही कहा आपने बुज़ुर्गों की बात पर ध्यान कौन देता है...लेकिन ताली क्या हमेशा एक हाथ से बजती है...मैंने इस लेखमाला के पहले चार-पांच लेख जो लिखे हैं उसमें बुज़ुर्गों के प्रति असंवेदना दिखाने के लिए युवा पीढ़ी को ही आईना दिखाने का प्रयास किया है...लेकिन सिर्फ एक ही नज़रिये से दुनिया देखने से समस्याओं का समाधान नहीं
    होता...दूसरे के विचारों को भी समझने के लिए स्पेस देनी चाहिए...इस संदर्भ में अजित वडनेरकर जी की बातों पर गंभीरता से मनन किए जाने की भी आवश्यकता है...

    जय हिंद...

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  18. एकदम बढिया और प्रेरक आलेख, धन्यवाद
    आजकल बुजुर्गों को भी चाहिये कि आज के बच्चों की सोच और वातावरण से तालमेल बैठा कर, उन्हें अपने अनुभव के आधार पर अच्छे और बुरे का ज्ञान करायें।
    एक बुजुर्ग हैं, जो हमेशा दूसरों के बेटे-बहुओं की तारीफ करते हैं और अपने बेटे-बहु की (चाहे कितना भी बढिया काम करें) कभी तारीफ नहीं करते नहीं सुना।

    गलतियां करने के लिये कोई उम्र नहीं होती। और हमेशा बच्चे ही गलत नहीं होते। लेकिन हमेशा बच्चों के व्यवहार को ही गलत ठहराया जाता है।

    प्रणाम

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  19. एकदम बढिया और प्रेरक आलेख, धन्यवाद !

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  20. इस पोस्ट ने मुझे बहुत प्रेरित किया है,मन में कई अच्छे और नेक विचार आ रहे हैं, लाजवाब ....

    VIKAS PANDEY

    www.vicharokadarpan.blogspot.com

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  21. Bahut hi badhiya lekh. Ek aur badhiya lekh hai:-


    ईशवाणी हमारे कल्याण के लिए अवतरित की गई है , यदि इस पर ध्यानपूर्वक चिंतन और व्यवहार किया जाए तो यह नफ़रत और तबाही के हरेक कारण को मिटाने में सक्षम है ।


    वेद:
    समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः

    मैं तुम सबको समान मन्त्र से अभिमन्त्रित करता हूं ।

    ऋग्वेद , 10-191-3

    कुरआन:
    तुम कहो कि हे पूर्व ग्रन्थ वालों ! हमारे और तुम्हारे बीच जो समान मन्त्र हैं , उसकी ओर आओ ।


    पवित्र कुरआन , 3-64 - शांति पैग़ाम , पृष्ठ 2, अनुवादकगण : स्वर्गीय आचार्य विष्णुदेव पंडित , अहमदाबाद , आचार्य डा. राजेन्द प्रसाद मिश्र , राजस्थान , सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ , रामपुर

    एक ब्रह्मवाक्य भी जीवन को दिशा देने और सच्ची मंज़िल तक पहुंचाने के लिए काफ़ी है ।

    जो भी आदमी धर्म में विश्वास रखता है , वह यक़ीनी तौर पर ईश्वर पर भी विश्वास रखता है । वह किसी न किसी ईश्वरीय व्यवस्था में भी विश्वास रखता है । ईश्वरीय व्यवस्था में विश्वास रखने के बावजूद उसे भुलाकर जीवन गुज़ारने को आस्तिकता नहीं कहा जा सकता है । ईश्वर पूर्ण समर्पण चाहता है । कौन व्यक्ति उसके प्रति किस दर्जे समर्पित है , यह तय होगा उसके ‘कर्म‘ से , कि उसका कर्म ईश्वरीय व्यवस्था के कितना अनुकूल है ?

    इस धरती और आकाश का और सारी चीज़ों का मालिक वही पालनहार है ।

    हम उसी के राज्य के निवासी हैं । सच्चा राजा वही है । सारी प्रकृति उसी के अधीन है और उसके नियमों का पालन करती है । मनुष्य को भी अपने विवेक का सही इस्तेमाल करना चाहिये और उस सर्वशक्तिमान के नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहिये ताकि हम उसके दण्डनीय न हों । वास्तव में तो ईश्वर एक ही है और उसका धर्म भी , लेकिन अलग अलग काल में अलग अलग भाषाओं में प्रकाशित ईशवाणी के नवीन और प्राचीन संस्करणों में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को चाहिये कि अपने और सबके कल्याण के लिए उन बातों आचरण में लाने पर बल दिया जाए जो समान हैं । ईशवाणी हमारे कल्याण के लिए अवतरित की गई है , यदि इस पर ध्यानपूर्वक चिंतन और व्यवहार किया जाए तो यह नफ़रत और तबाही के हरेक कारण को मिटाने में सक्षम है ।
    आज की पोस्ट भाई अमित की इच्छा का आदर और उनसे किये गये अपने वादे को पूरा करने के उद्देश्य से लिखी गई है । उन्होंने मुझसे आग्रह किया था कि मैं वेद और कुरआन में समानता पर लेख लिखूं । मैंने अपना वादा पूरा किया । उम्मीद है कि लेख उन्हें और सभी प्रबुद्ध पाठकों को पसन्द आएगा

    http://vedquran.blogspot.com/2010/05/blog-post.html

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  22. खुश दीप जी बुजुर्ग भी गलतिया करते है, लेकिन प्यार मै आ कर वो शायद सोचते है कि हम अपने बच्चो के भले के लिये कर रहे है,जब कि वो कदम गलत होता है, इस लिये बुजुर्गो को अपनी यह सोच बदलनाई चाहिये, ओर बुजुर्गो को अपने बच्चो के संग संग ताल मेल रखना चाहिये.... लेकिन कई नोजवान फ़िर भी मां बाप को घर से निकाल देते है, तो खुद क्यो नही दफ़ा होते... पुछने पर यही कहते है कि मां बाप से नही बनती तो ठीक है भाई नही बनती तो जाओ घर से दफ़ा हो जाओ, इन सनकी बुढे बुढिया को घर से क्यो निकाल रहे है, जिन्होने इसे बनाया है, भाई आप लोग जवान हो आप के हाथ पैर है जाओ ओर कमाओ

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  23. ये लो जी,
    बुजुर्ग- बच्चों से लेकर राम-रावण तक सब कुछ। राम जी का फोटू भी। लाजवाब।\

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  24. आज पहली बार हम राम जी वाली बात नहीं मानेंगे....
    ये सब कहने की बात है कि राम जी हर पल सीता के साथ थे ...और सीता माता के दुःख में शामिल थे... बिलकुल बेबुनियाद बात है....वो तो अश्वमेघ यज्ञ और अपने राज्य विस्तार में लगे हुए थे...भूल चुके थे अपने बच्चों तक को...वो राजा थे ...दूर से ही सही अपनी पत्नी और अपने बच्चों के बारे में पता कर सकते थे...एक दम गलत उन्हें अपने बच्चों तक की पहचान नहीं थी...शुक्र हो माता सीता का जिन्होंने ने समय से आकर अपने बच्चे बच्चा लिए वर्ना कोई कसार बाकी नहीं बची थी....अगर इतना ही प्रेम होता तो सीता माता को भी इस बात का अहसास होता ज़रूर ...जब दो व्यक्ति एक दूसरे को टूट कर प्रेम करते हैं तो प्रकृति भी उन्हें इस बात का अहसास दिलाती हैं...जब प्रेम कम होने लगता है तो पता भी चल जाता है...अगर ऐसा नहीं होता तो सीता माता धरती में न समा जाती.....
    आपकी इस बात से बिलकुल इत्तेफाक नहीं रख रही हूँ...

    बाकी सारी बातें सोलह आने सच....

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  25. बेशक बुजुर्गों का ख्याल रखना हम सब का कर्तव्य है।
    हालाँकि उनके साथ निर्वाह करने के लिए बहुत एडजस्ट भी करना पड़ता है ।
    लेकिन इस में भी एक सुख है।

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  26. बढ़िया लिखा है....

    मेरे ब्लॉग पर भी आये (अभी नया नया है)
    http://vikramrathaure.blogspot.com

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  27. बहुत सही लिखा है गुरु...

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  28. यदि ईमानदारी से देखा जाये तो यह पोस्ट पूर्वनिर्धारित निष्कर्ष का एकाँगी पक्ष है.. ऎसा मेरा प्रोफ़ेशनल अनुभव है । वह इतने ज़्यादा आत्मकेन्द्रित हो चुके होते हैं कि उन्हें वर्तमान पीढ़ी की हर बात में कुछ न कुछ कमी अवश्य दिख जाती है ।
    अपने बीते दिनों की बुनियाद का हवाला देते हुये वह गाहे बगाहे अपने होने की पुष्टि चाहते हैं... कौन आया , क्यूँ आया, तो अब क्यूँ चला गया, फिर अब दुबारा कब आयेगा.. इत्यादि इत्यादि !

    ज़िन्दगी के हर पहलू को छिन छिन अपने ज़माने के तराज़ू पर तौलते रहना, उन्हें बच्चोंकी निगाह में हास्यास्पद बना देता है ।
    अलबत्ता अपनी एक गलती को वह पूरी शिद्दत से स्वीकारते हैं, " मैंनें तुझे पैदा ही क्यों किया ?"

    प्रसँगतः आज ही सुबह की घटना बताऊँ कि, 52 वर्षों के दाम्पत्य के बाद कल एक वृद्धा का देहाँत हुआ । सुबह उनकी अर्थी उठने के 15-20 मिनट पहले उनके पति को याद आया कि ब्लडप्रेशर की एक ज़रूरी दवा वह खाना भूल गये हैं, वह हठ कर बैठे कि पहले दवा तो खा लूँ, मुझे कुछ हो गया तो ?
    उस भीड़भाड़ वाले घर में उनकी दवाओं का डिब्बा बमुश्किल बरामद हो पाया.. उसके बाद ही उनकी स्वर्गीय पत्नी की अर्थी उठ पायी ।

    घाट तक के रास्ते पर उनका दीर्घ उच्छ्वास जारी रहा, " मेरी परवाह ही किसे है ? परवाह करने वाली तो चलीं गयीं.. देखियेगा कि कौन मे्री परवाह करता है.. मुझे तो अपनी दुर्गति (?) आज से और अभी से ही दिख रही है !"

    जबकि मुझे डाल के पके इन बुढ़ऊ में अपनी एक पोस्ट का कच्चा माल दिख रहा था.... अब इसे क्या कहोगे ?

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  29. maaf kijiyega khushdeep ji ! bahut der se dekh pai ye post main..aazkal kuchh niji kaamon men atyadhik vyast hoon...
    bahut hi saargarbhit lekh hai ...
    santulit vyavhaar hi sukhad parivaar ki chabi hai..
    kudos to you.

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  30. राम जी के प्रति भरपूर आदर होते हुए भी अदाजी की टिप्पणी पर गौर तो करना ही चाहिए ....

    गलतियाँ बुजुर्गों से भी होती हैं ....तस्वीर के दूसरे पहलू को व्यक्त करने का आभार .....!!

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  31. आदमी गलतियों का पुतला होता है, वो कौन है जो गलती नही करता,
    जब आदमी गलती करता है उसके बाद ही उसमें सुधार आता है,
    गलतियां हमें सुधरना सिखाती है,
    यदि अपने बुजुर्गों ने गलती कर दी है उसे माईडं मत करो क्योंकि हम उन्ही की देन है हम उनके बनाए हुए पुतले है वो दिन भूल गए जब वो हमारी हर इच्छा पुरी करते थे यदि हम अगला जन्म भी ले तो उनका अहसान नही उतार सकते.उनको हक है हमें कुछ भी बोलने का
    हमने उनके जवाब का पलट कर उत्तर या उन्हे उँचे स्वर में नही बोलना चाहिए।

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