मधुकर त्रिपाठी: Khushdeep Sehgal सर, मेरा नाम मधुकर त्रिपाठी है, मैं प्रयागराज उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूं. BAJMC की पढ़ाई 3 साल करने के बाद मुझे 2 साल लोकल चैनलों में काम करते हो गए. सर मैं सामान्य से घर का रहने वाला हूं पर मेरे पास किसी भी व्यक्ति का सोर्स नहीं है. मैंने कई चैनलों के बाहर जाकर चक्कर लगाया है, सब कुछ बेनतीजा रहा मेरे पास किसी मंत्री, विधायक का सोर्स नहीं है पर पत्रकारिता के क्षेत्र में मास कम्युनिकेशन करने के बाद एक पढ़ा-लिखा बेरोजगार होने की फीलिंग आती है, सर उचित राय देकर रास्ता बताने का कष्ट करें.
इलाहाबाद के रहने वाले युवा साथी मधुकर त्रिपाठी की ये टिप्पणी खुश_हेल्पलाइन पर नहीं फेसबुक पर सार्वजनिक तौर पर मिली. मधुकर की बात का समर्थन फेसबुक पर ही सार्वजनिक तौर पर आशीष द्विवेदी और निर्दोष श्रीवास्तव ने भी किया. अगर ये टिप्पणियां फेसबुक की जगह खुश_हेल्पलाइन पर आई होतीं तो मैं तीनों- मधुकर, आशीष और निर्दोष के नाम इस पोस्ट में नहीं लिखता. हेल्पलाइन पर आने वाली किसी बात को भी मैं सार्वजनिक नहीं करूंगा, न ही किसी के नाम का कहीं ज़िक्र करूंगा. ये निजता का मामला है जिसका मैं बहुत सम्मान करता हूं.
आशीष द्विवेदी: नमस्कार सर, मधुकर की पोस्ट से अक्षरशः सहमत हूँ, योग्यता को अमूमन सिफ़ारिश की जरूरत पड़ती है, या ऐसे कहे कि सिफ़ारिश वालों के सामने अक्सर योग्यता हार जाती है. सिर्फ पत्रकारिता ही नही कमोबेश हर सेक्टर में यही स्थिति है। योग्यता पर जुगाड़,हावी है।
निर्दोष श्रीवास्तव: पत्रकारिता में डिग्री मेरे पास भी है, मैं भी उत्तर प्रदेश से हूं, मेरे पास भी कोई सिफारिश नहीं है जितनी जगह भी आवेदन करते हैं सब बोल देते हैं बिना सिफ़ारिश के नौकरी नहीं है तीन साल मीडिया में काम भी किया है कृपया मार्गदर्शन करें,इनपुट डिपार्टमेंट में काम करने का अनुभव भी है.
मधुकर,
आशीष और निर्दोष ने जो सवाल उठाया है, वो उन जैसे सैकड़ों और युवा साथियों का भी
हो सकता है. मोटा-मोटा इनका कहना है कि सिफ़ारिश और जुगाड़ हावी है और इनके आगे
योग्यता हार जाती है. सिफ़ारिश या रेफरेंस न हो तो किसी को ढंग के मीडिया संस्थान
में जॉब तो क्या इंटर्नशिप तक भी नहीं मिलती.
अगर
बड़ी संख्या में युवा साथी ऐसे सवाल उठा रहे हैं तो स्थिति वाकई विकट है. कोरोना
ने हालात और पेचीदा कर दिए हैं. आदर्श तो यही है कि जिन पत्रकारिता संस्थानों से
ये युवा पढ़ाई करते हैं, वहीं से इनके लिए प्लेसमेंट की पुख्ता व्यवस्था होनी
चाहिए. इंटर्नशिप के लिए भी और जॉब के लिए भी. लेकिन जितनी संख्या में पत्रकारिता
की पढ़ाई कर हर साल युवा निकल रहे हैं, क्या उन सभी को एडजस्ट करने के लिए हमारे
पास इतनी संख्या में रिक्तियां हैं? ये कोई छुपा तथ्य नहीं कि कोरोना ने
अख़बारों-पत्रिकाओं की जमी जमाई व्यवस्था को खासा नुकसान पहुंचाया है. अखबारों के
साथ-साथ अन्य मीडिया संस्थानों से भी पिछले डेढ़ साल में बड़े पैमाने पर छटनी की
ख़बरें भी हमने देखी हैं. कई पत्र-पत्रिकाओं ने स्थाई तौर पर अपने शटर गिरा लिए हैं. वहीं कुछ संस्थान न्यूनतम खर्चों पर काम चलाने की कोशिश कर रहे
हैं.
जहां
तक इंटर्नशिप का सवाल है तो जिन मीडिया हाउसेज के खुद के मीडिया लर्निंग इंस्टीट्यूट्स
हैं तो जाहिर है वो अपने छात्र-छात्राओं को पहले मौका देंगे. ऐसे में बाहर के युवा साथियों
के लिए अधिक गुंजाइश ही कहां बचती है.
डिमांड एंड सप्लाई के सिद्धांत के मुताबिक जब डिमांड ही नहीं है तो नए साथियों को एडजस्ट किए जाने का सवाल ही कहां है. ऐसे में इंटर्नशिप या जॉब के लिए आवेदन भेजने के बाद भी किसी तरह का रिस्पॉन्स न मिलना युवा साथियों को हताश करता है. फिर इस समस्या का तोड़ क्या है?
सिफ़ारिश
या रेफरेंस की कितनी भी बात कर ली जाए लेकिन अगर ढंग का कोई भी संस्थान हो वो किसी
को भी नौकरी पर रखने से पहले उसे ठोक बजाकर ज़रूर देखेगा. बिना प्रतिभा के ढंग के संस्थानों
में नौकरी पाना बहुत मुश्किल है. बहुत जुगाड़ से नौकरी पा भी ली और क़ड़ी
मेहनत नहीं की तो लंबे वक्त तक टिक पाना मुश्किल होता है.
अब
युवा साथियों का कहना है कि उनमें प्रतिभा भी है, योग्यता भी है, कड़ी मेहनत का
माद्दा भी है, फिर भी उन्हें कहीं मौका नहीं दिया जाता. अब मौका ही नहीं मिलेगा तो
अनुभव कहां से आएगा. साथ ही उम्र बढ़ने का दबाव भी इन युवा साथियों पर रहता है.
होना
क्या चाहिए?
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि पत्रकारिता शिक्षण संस्थानों को
अपने यहां पढ़ रहे छात्र-छात्राओं के लिए गरिमापूर्ण प्लेसमेंट की पुख्ता व्यवस्था
खड़ी करने पर ज़ोर देना चाहिए. ये बात मैं खास तौर पर सरकारी पत्रकारिता संस्थानों या गैर मुनाफ़े के आधार पर चलाए जा रहे मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए कह रहा हूं. अब सवाल ये उठेगा कि इनके अपने चैनल या अखबार तो है नहीं, फिर
ये कहां प्लेसमेंट दिलवा सकते हैं.
यहां मुझे एक उम्मीद की किरण दिखाई देती है. और वो है
सोशल मीडिया. ये माध्यम जितनी तेजी से उभर रहा है और जितनी ताकत इसके पास है, मैं
समझता हूं और कहीं नहीं है. हाल फिलहाल कई वरिष्ठ पत्रकारों ने अपने
यू-ट्यूब चैनल कामयाबी के साथ स्थापित कर लिए हैं. मैं ऐसे कई युवा लोगों को जानता हूं
जिन्होंने कुछ वर्ष मीडिया में नौकरी करने के बाद अपने खुद के प्लेटफार्म खड़े कर
लिए हैं. स्वावलंबन को अपना कर ये पत्रकारिता का दायित्व भी निभा रहे हैं और
आर्थिक तौर पर भी आत्मनिर्भर हैं. ऐसे स्वतंत्र प्लेटफॉर्म चला रहे लोगों से मेरा
अनुरोध है कि वो युवा साथियों को अपने साथ रह कर काम सीखने का मौका दें. इस तरह के
माहौल में रह कर युवाओं को जो प्रैक्टीकल तजुर्बा मिलेगा वो उनके बहुत काम आएगा.
हर युवा साथी से भी मेरा यही कहना है कि उन्हें
पत्रकारिता में आगे बढ़ने के लिए खुद को मज़बूत करने के लिए लगातार प्रयास करते
रहने चाहिए. किसी बड़े मीडिया संस्थान में काम करने के लिए क्या क्या आप में होना
चाहिए, उसमें खुद को मांझते रहना चाहिए. मसलन सम-सामयिक विषयों पर पकड़ बनाना,
लेखन शैली में धार लाना और अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद की दक्षता हासिल करना.
इसके अलावा युवा साथियों को स्वावलंबन पर भी सोचना चाहिए. अगर वो अपने में अच्छा
कंटेंट जेनेरेट करने की क्षमता समझते हैं तो उनके पास नौकरी के अलावा और भी कई
विकल्प मौजूद हैं. जैसे कि समाचार पत्र-पत्रिकाओं में वे आर्टिकल भेजकर धनार्जन कर
सकते हैं. इसके अलावा खुद का ब्लॉग बनाकर भी लेखन कर सकते हैं. अगर उन्हें अच्छे
हिट्स मिलेंगे तो गूगल ऐडसेंस से उनकी कमाई हो सकती है. सोशल मीडिया के कई दूसरे
प्लेटफॉर्म्स भी ओरिजनल कंटेंट को आर्थिक प्रोत्साहन देते हैं.
लेकिन इन दिनों अगर आप में वीडियो के तौर पर अच्छा
कंटेंट देने की संभावना है तो यू-ट्यूब चैनल कमाई का बढ़िया ज़रिया बन रहा है. ये
भी गूगल का ही प्रोडक्ट है. जिस किसी के पास भी जीमेल आईडी है वो यू-ट्यूब पर चैनल
बना सकता है. आप अच्छा कंटेंट देंगे तो आपकी व्यूअरशिप बढ़ेगी. जितने ज्यादा लोग
आपके चैनल को सब्सक्राइब करेंगे या आपके वीडियो को जितने ज्यादा लोग देखेंगे, उतनी
ही कमाई की संभावना अधिक होती जाएगी.
ऐसे में युवा साथियों को मेरी यही सलाह है कि नौकरी की
तलाश के साथ-साथ वो खुद के पैरों पर खड़ा होने के अवसरों को भी खंगालें.
खुश_हेल्पलाइन
शुरू करने के साथ मेरी पहचान ‘रोजगार एक गिलहरी प्रयास’ संस्था से
जुड़े एक युवा साथी राहुल त्रिपाठी से हुई, ये संस्था बेरोजगारों को नौकरी दिलाने
के प्रयास में जुटी है, वो भी बिना किसी स्वार्थ. मैं इस संस्था से अनुरोध करूंगा
कि आप मीडिया में आने के इच्छुक युवा साथियों के लिए भी ऐसा करने का प्रयास करें.
खास तौर पर ऐसे युवाओं के लिए जिन्हें इंटर्नशिप की दरकार है. आप ऐसे युवाओं को
मीडिया हाउसेज, स्वतंत्र पत्रकारों, यू-ट्यूबर्स, स्थानीय स्तर पर चलने वाले
न्यूज़ चैनल्स तक पहुंचाने के लिए सेतु का काम कर सकते हैं. आप ऐसे मीडिया हाउसेज
से संपर्क कर सकते हैं जिनके अपने मीडिया शिक्षण संस्थान नहीं हैं. उन्हें अगर अच्छे,
मेहनती और प्रतिभावान इंटर्न्स मिलते हैं तो वो जरूर स्वागत करेंगे. ये युवा साथी
दिल लगाकर काम करेंगे तो इन्हे वहीं जॉब के ऑफर भी हो सकते हैं.
ज़रूरत है तो बस सच्चे मन से कोशिश करने की.
(खुश हेल्पलाइन को मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है. आप भी मिशन से जुड़ना चाहते हैं और मुझसे अपने दिल की बात करना चाहते हैं तो यहां फॉर्म भर दीजिए)
सोशल मीडिया में अर्निंग के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया से ज्यादा स्कोप है, बशर्ते कि यहाँ अर्निंग कि जगह पेशन के लिए काम किया जाए। सोशल मीडिया खासतौर पर टूट्यूब में तरक्की के लिए ज़्यादा सब्सक्राइब की दरकार होती है। यहां कामयाबी ज़रूर मिलेगी पर उसके लिए लगातार अच्छे कंटेंट और लंबी साधना की ज़रूरत होती है। कई बार किसी वीडियो के वायरल होने से अचानक भी ज़्यादा सब्सक्राइबर मिल जाते हैं, पर हर किसी के साथ यह संभव नहीं होता है। इसलिए ध्यान अच्छे कंटेंट और थोड़ी-बहुत टेक्निकल नॉलेज पर देना चाहिए और प्रयास लगातार पूरे पेशन के साथ करते रहना चाहिए, यहाँ अच्छे कंटेंट का मतलब है कि कंटेंट में ताजगी और रोचकता का मिश्रण हो। मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ कि कामयाबी ज़रूर मिलेगी।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा शाहनवाज़...
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक कहा है सिर आपने, अगर सच में योगिता के अनुसार प्रतियाशियों का चयन किया जाए तो मीडिया की पहचान को बदला जा सकता है
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