इसी पोस्ट पर वैभव ने अपनी फेसबुक वॉल पर Khush_Helpline Followers के लिए अपना अनुभव लिखा है. वैभव को मैंने हमेशा शांत ही देखा. हमेशा धीमी आवाज़ में बात करते हुए. आज इसका लिखा हुआ पढ़कर मेरी आंखें नम हो गईं. ज़ाहिर है खुशी से...
आप भी पढ़िए वैभव ने क्या लिखा...
फोटो- वैभव की फेसबुक वॉल से साभार |
Say 'No' to 'Glamour' at very first... हेल्प जरूर मिलेगी
मीडिया में जॉब्स के मामले में डिमांड एंड सप्लाई के प्वाइंट से मैं भी सहमत हूं. जैसे-जैसे समय बढ़ा, पिछले 10-12 सालों में पत्रकारिता के क्षेत्र में तमाम मीडिया स्कूल्स मार्केट में खुले, बढ़े और प्रचार तंत्र से कुछ सफल भी हुए. यहां एक साथ होड़ लगती है. बहुत सारे स्टूडेंट्स स्कूल से निकलकर इनमें एडमिशन लेते हैं. सभी पहले साल तो सीखने के लिए उत्साहित रहते हैं, पर सेकेंड ईयर और थर्ड ईयर में आते-आते उन्हें लेक्चर्स अटेंड करना भी मुसीबत लगने लगता है. उनकी क्लासेज़ में उपस्थिति लगातार कम होने लगती है. एक्साइटमेंट लेवल बंटने लगता है. एक तो ये बहुत ही व्यापक क्षेत्र है. जहां इतनी विधाएं हैं कि सीखने में और उन स्किल्स को सुधारने में पूरी ज़िंदगी लगाई जा सकती है. सुधार निरंतर होता है, पर कुछ दबाव, पियर प्रेशर, पारिवारिक और भावनात्मक उथल-पुथल के बीच अडिग रहना मुश्किल होता है.
अगर मीडिया स्कूल्स 3 साल के ग्रेजुएशन या 2 साल के पोस्ट ग्रेजुएशन में स्टूडेंट्स को इतनी स्पष्टता देने में असफल रहें कि वो अपनी खुद की बेस्ट स्किल और इंट्रेस्ट को फाइंड आउट ना कर पाएं, तो सबसे पहले सुधार की जरूरत उन्हीं के स्तर पर है. दूसरे नंबर पर स्टूडेंट्स को भी थोड़ा एक्स्ट्रा फोकस करना चाहिए, कि उनकी खुशी किस काम में है.
मैं अपने ग्रेजुएशन कोर्स के दौरान इस क्षेत्र के विस्तार और असीमित दायरे से अचंभित ही होता रहा. मैं बेहद आनंदित रहा. हर चीज को ट्राय करता रहा. पर अपने आपको बांधा नहीं.. कि नहीं बस एक ही काम करना है. इस स्तर पर चीजों के विस्तार को जानना समझना बेहद जरूरी है. चाहें वह तकनीकी चीजें हों या थ्योरी में. एक बार हमें आभास हो गया कि ये चीज है जो मैं प्रैक्टिकली करने में सबसे ज्यादा खुश रहूंगा. तो मान लीजिए पहली लड़ाई आपने जीत ली. हालांकि, अपने आपको बंद भी नहीं करना होता कि नहीं मैं तो सिर्फ एक यही काम करूंगा. जानने और समझने के लिए हमेशा तैयार रहना होता है.
पोस्ट-ग्रेजुएशन में मुझे बिल्कुल मानसिक रूप से तैयार होना था कि आखिर मुझे किस फील्ड में जाना है. प्रिंट, इलैक्ट्रॉनिक, पीआर एजेंसी या मार्केटिंग? मेरा कोर्स काफी व्यापक था. जिसमें मीडिया के लगभग हर क्षेत्र का एक सब्जेक्ट जरूर था. फर्स्ट ईयर एंड आते-आते कंफ्यूजन बढ़ गया. मीडिया कंवर्जेंस की वजह से ट्रडीशनल मीडिया चैनल्स बिल्कुल बदल रहे थे. डिजिटल का बोलबाला शुरू हो रहा था. पुराने मानक टेलीविजन, प्रिंट, रेडियो के बीच डिजिटल का आगे बढ़ना उनके एक्जिस्टिंग एंप्लाईज़ के लिए भी चुनौती बन रहा था. फिर भी टीवी के प्रति लगाव बढ़ रहा था, पर गाइडेंस की कमी लग रही थी. कारण ये था क्योंकि आस-पास मौजूद लोग अपनी फील्ड को ही बेहतर बताते. ऐसे में ये सवाल अपने भीतर ही पूछना था कि मेरे लिए क्या ठीक है? इस तनाव से गुजरना सेहत पर भी भारी रहा. अपने शहर से बाहर नोएडा में अकेले ये सब करना, निपटाना... ऐसे में फैमिली का सपोर्ट बेहद अहम रहा. खासकर मां का. पिता ने भी अपने शुरुआती दिनों के बारे में बताया. उस दौर में कैसे उन्होंने शुरुआत की और फिर कैसे पूरा लंबा सफर बिताया. पिता से भरोसा मिला, मां का स्नेह साथ मिला, हिम्मत आई. बस एक दिन उठकर तय किया आज आगे का फैसला करना ही है. बस निकल पड़ा घर से फिल्म सिटी पहुंच गया.
जो जान पहचान के लोग थे, कॉलेज के सीनियर्स थे, मन में ठाना था कि उनसे अभी संपर्क नहीं करूंगा. सभी की अपनी यात्रा है, मुझे अपनी खुद चुननी थी और उसी दिन तय करना था. किस चैनल में अप्लाई करूं, रैंडम सलेक्ट किया.. ज़ी न्यूज में अप्लाई करना चाहता था. मई 2015 की बात है. मैं जी न्यूज के ऑफिस के बाहर पहुंचा ही था, कोई निजी संपर्क नहीं था, बस यूं ही वहां गया और ऑफिस के बाहर एक रैंडम व्यक्ति से मुलाकात हुई. नाम पता चला... राज खुराना. उनके साथ एक और व्यक्ति थे, वो वहां जी न्यूज मार्केटिंग टीम में ही थे. परिचय शुरू अपरिचितों की तरह हुआ. उनसे कोई ज्यादा देर बात नहीं हुई, पर बात कुछ ख़ास हुई. मैंने अपना परिचय दिया, दिलचस्पी बताई और इंटर्नशिप की ख्वाहिश लेकर वहां आने की बात बताई. मैं एडिटोरियल इंट्रेस्ट से इंटर्नशिप चाह रहा था. उन्होंने एक ही बार में कहा कि मार्केटिंग में चाहते तो मैं अपने यहां करवा देता. पर एडिटोरियल में.... फिर सोचकर उन्होंने एक फोन लगाया... किसी से बात की और फिर मुझे बताया कि मैं कल न्यूज24 के ऑफिस चला जाऊं. ऑफिस जी न्यूज के बराबर में ही था, पर तब तो मुझे ये भी पता नहीं था... उन्होंने बातचीत में तब तक नहीं बताया था, कि मुझे किससे मिलना है. ना ही जिनसे मुझे मिलने के लिए कहा उनका कॉन्टैक्ट नंबर दिया. बस अपना नंबर मुझे जरूर दे दिया. कहा कल न्यूज24 ऑफिस पहुंचकर मुझसे बात कर लेना... मैं उन्हें 'थैंक्यू' कहकर वापस लौट आया.
अगले दिन न्यूज24 ऑफिस के बाहर पहुंचा. उन्हें फोन मिलाया कि मैं यहां पहुंच गया हूं. जिनसे मुझे मिलना है, उन्हें सूचना दे दीजिए. बस राज खुराना जी ने बात की और मुझे अंदर जाने दिया गया. अंदर जाकर जिनसे मिला वो कोई और नहीं आज मिड 2021 में 'खुश हेल्पलाइन' के मिशन को साकार करने वाले खुशदीप सर थे.... "मेरे खुशदीप सर". यहां "मेरे" लिखने का आत्मविश्वास आज मुझमें है तो लिखने की हिम्मत कर रहा हूं. उनकी आत्मीयता बेमिसाल है... आगे की कहानी उनके मार्गदर्शन से ही लिखी. उनके साथ 14 महीने काम सीखने के दौरान दो चीजें सबसे अहम सीख रहीं. एक आपके अंदर जज्बा होना चाहिए. दूसरा केवल चमक धमक देखकर इस लाइन में नहीं आना चाहिए. ग्लैमर पसंद सबको आता है. पर वो तो अर्न करना होगा. वो साइड प्रोडक्ट है. वो प्राइमरी स्टेप नहीं है.
'खुश हेल्पलाइन' मेरे जैसे हर युवा एस्पाइरेंट के लिए मार्गदर्शक का काम करेगी. मेरा 100% यकीन है. बस आप इन दो चीजें को गांठ बांध लें. ग्लैमर को अपने शुरुआती सालों में भूल जाएं, दूसरा अपना जज़्बा बरकरार रखें... आखिर में उनकी बताई एक बात और याद आई कि यहां हाथ पकड़कर कोई नहीं सिखाएगा, मतलब आपको स्पूनफीडिंग नहीं कराएगा कोई... कोई चीज नहीं पता है या कुछ नहीं आता है तो पूछने में कोई हर्ज नहीं है... कोई भी पेट से सीखकर पैदा नहीं होता... तो मुझे तो यही सीख मिली है, सीखने का सिलसिला आज भी जारी है. आप भी सीखेंगे और सीखते रहेंगे तो कहीं ना कहीं से हेल्प जरूर मिलेगी... शुभकामनाएं
-वैभव
(खुश हेल्पलाइन को मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है. आप भी मिशन से जुड़ना चाहते हैं और मुझसे अपने दिल की बात करना चाहते हैं तो यहां फॉर्म भर दीजिए)
❤️❤️❤️
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ...
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