क्रिकेट के वर्ल्डकप 1983 और 2011 की हर कोई बात करता है. 2007 टी-20 वर्ल्ड कप का ज़िक्र होता है.
लेकिन भारत ने एक वर्ल्डकप 1975 में भी जीता था.
तब भारत ने वर्ल्डकप हॉकी में मलयेशिया के कुआलालंपुर में हुए फाइनल में पाकिस्तान को 2-1 से हराया था. भारत के लिए पहला गोल पेनल्टी कॉर्नर से सुरजीत सिंह ने और दूसरा फील्ड गोल मेजर ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार ने किया था. भारत ने हॉकी में ये इकलौता वर्ल्ड कप अपने नाम किया है.
उस वक़्त सुरजीत और अशोक के अलावा कैप्टन अजीत पाल सिंह,असलम शेर ख़ान,भास्करन, गोविंदा जैसे अन्य हॉकी खिलाड़ियों को भी हीरो की तरह देश के घर घर में जाना जाने लगा था.जैसे कि आज विराट कोहली, सचिन तेंदुलकर, महेंद्र सिंह धोनी को जाना जाता है.
तब देश के प्लेग्राउंड्स में बच्चे वैसे ही हॉकी खेलते नज़र आते थे,जैसे कि अब क्रिकेट. मुझे याद है कि मेरठ में तब उद्योग जगत में बड़ा नाम माने जाने वाले मोदी घराने ने रायबहादुर गूजरमल मोदी के नाम पर सालाना हॉकी टूर्नामेंट शुरू किया था. इसमें देश की नामी टीमें हिस्सा लेती थीं. तब इंडियन एयरलाइंस की हॉकी टीम का बड़ा दबदबा होता था.
1975 वर्ल्ड कप हॉकी की उस जीत ने भारत को फिर दद्दा के स्वर्णिम हॉकी युग की वापसी की उम्मीद बंधाई थी. 1980 में भारत ने मॉस्को ओलिम्पिक्स में गोल्ड मेडल भी जीता लेकिन तब पश्चिमी देशों ने रूस से तनातनी की वजह उन खेलों में हिस्सा नहीं लिया था. क्योंकि अधिकतर मज़बूत हॉकी टीमें पश्चिमी देशों से ही थीं इस लिए उस गोल्ड का मूल्य भारत के उससे पहले जीते गए सात गोल्ड, एक सिल्वर और दो ब्रांज जितना नहीं था. भारत ने 1928 से 1956 तक ओलिम्पिक्स में 6 गोल्ड जीतकर दुनिया में किसी और टीम की अपने सामने एक नहीं चलने दी. 1960 रोम ओलिम्पिक्स में भारत को हॉकी में सिल्वर पर ही संतोष करना पड़ा. तब फाइनल में पाकिस्तान ने भारत को 1-0 से हराया था. इसके बाद 1964 में भारत ने टोक्यो ओलिम्पिक्स में अपना सातवां गोल्ड जीता. फिर 1968 में मेक्सिको ओलिम्पिक्स और 1972 में म्युनिख ओलिम्पिक्स में भारत ने हॉकी में ब्रॉन्ज अपने नाम किया.
1 दिसंबर 1982: भारतीय हॉकी का काला दिन
1980 मॉस्को ओलिम्पिक्स में भारत ने हॉकी का गोल्ड बेशक जीता लेकिन दो साल बाद ही 1982 दिल्ली एशियाई खेलों ने भारतीय हॉकी को उसका सबसे काला दिन दिखाया. 1 दिसंबर 1982 को खेले गए फाइनल में पाकिस्तान के हाथों 1-7 से हार ने भारत की हॉकी का शोकगीत तैयार कर दिया. हालांकि उस फाइनल मैच के लिए भारतीय दर्शकों में बड़ा जोश था. दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में गुलाबी सर्दी वाली दोपहर में 25,000 दर्शक उस फाइनल को देखने के लिए जुटे थे. उस फाइनल में पहला गोल भारत ने ही किया था. मैच के चौथे मिनट में ही भारत को मिले पेनल्टी स्ट्रोक को जफ़र इकबाल ने गोल में बदल डाला था. लेकिन इसके बाद पाकिस्तान ने भारत पर गोलों की झड़ी लगा दी. कलीमुल्लाह, हसन सरदार, हनीफ, मंजूर सीनियर, मंजूर जूनियर एक के बाद एक गोल दागे जा रहे थे. भारत के गोलकीपर रंजन नेगी का उस दिन बुरा दिन था. यहां तक कि मैच में जब भारत 1-4 से पिछड़ रहा था, तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने सहयोगी आरके धवन के जरिए राजीव गांधी को संदेश भिजवा कर गोली को बदलने के लिए कहा था. राजीव गांधी उस वक्त एशियाई खेलों की आयोजन समिति में थे. लेकिन राजीव गांधी का कहना था कि गोली को बदलने का फैसला टीम के कप्तान, मैनेजर और कोच ही ले सकते हैं.
1983 से देश में क्रिकेट रंगीन होता गया और हॉकी ग़मगीन
एशियाई खेलों में हॉकी की ये दुर्दशा कम नहीं थी कि 1983 में एक और घटनाक्रम हुआ जिसने हॉकी की बदहाली की रही सही कसर भी पूरी कर दी. उस वक्त वन डे क्रिकेट में फिसड्डी मानी जाने वाली भारतीय टीम ने कपिल देव की अगुआई में लंदन के लॉर्ड्स में इतिहास रच दिया. भारतीय टीम ने तब फाइनल में शक्तिशाली वेस्ट इंडीज की टीम को धूल चटा कर वर्ल्ड कप अपने नाम कर लिया था. ये वो दौर था जब कलर टीवी नया नया भारत में आया था. क्रिकेट में ग्लेमर का तड़का लग चुका था. भारत की इस जीत से करीब 6 साल पहले ऑस्ट्रेलियाई मीडिया टाइकून कैरी पैकर ने ऑस्ट्रेलिया में पैरलल वर्ल्ड सीरीज खड़ी कर दुनिया के नामी क्रिकेट खिलाड़ियों को मुहंमांगे पैसे देकर कॉमर्शियल मोड में ला दिया था. ये सीरीज 1977 से 1979 के बीच ही हुई. दर्शकों की ओर से नकार दिए जाने की वजह से इस पर पर्दा गिर गया. अच्छी बात ये रही कि भारत का कोई भी राष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी अपने बोर्ड से बग़ावत कर इस पैकर सर्कस में शामिल नहीं हुआ था. हॉलांकि उस घटनाक्रम ने भारत में भी क्रिकेट खिलाड़ियों को ये संदेश दे दिया था कि टेनिस जैसे अन्य खेलों की तरह क्रिकेट में भी अपनी खुद की ब्रैंड वैल्यू हो सकती है और कॉमर्शियल तौर पर इसे भुनाया भी जा सकता है.
1972
म्युनिख ओलिम्पिक्स के ब्रॉन्ज जीतने के लगभग आधी सदी बीत जाने के बाद भारतीय हॉकी
ने फिर दुनिया के सूरमाओं को दिखाया है कि उसमें अब भी बहुत दमखम है. अब ज़रूरत है
तो बस इसी जज़्बे को कायम रखने की और हॉकी में आगे आने के लिए युवा प्रतिभाओं को
पूरा प्रोत्साहन देने की. अब फिर देश के नौनिहाल जगह जगह मैदानों में हॉकी खेलते
नज़र आएं तभी बात बनेगी. वरना हॉकी स्टिक को तो हमने मैदान की जगह कार में रखने का
साधन ही बना लिया था, कब झगड़े में इसके इस्तेमाल की ज़रूरत पड़ जाए.
दद्दा मेजर ध्यानचंद के नाम पर देश का सर्वोच्च खेल पुरस्कार रख देने से भी बात बनने वाले नही. दद्दा के लिए गाहे-बगाहे भारत रत्न की मांग भी देश में उठती रहती है. लेेकिन दद्दा की आत्मा को उसी दिन सही खुशी मिलेगी जिस दिन 1928 से 1956 के बीच वाला हॉकी का गोल्डन दौर फिर देश में लौटेगा. ये होगा तभी जब क्रिकेट की तरह ही बच्चा-बच्चा मैदानों में हॉकी खेलता नज़र आए.
देशवासियों...फिर
दिल दो हॉकी को...
(खुश
हेल्पलाइन को मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है. मीडिया में
एंट्री के इच्छुक युवा मुझसे अपने दिल की बात करना चाहते हैं तो यहां फॉर्म भर दीजिए)