‘देशनामा’ ब्लॉग पर आज़ादी से जुड़े विमर्श पर पहली कड़ी के बाद आज दूसरी कड़ी पेश है. इसमें जिस सवाल पर प्रतिक्रियाएं मांगी गई वो था- आपको देश में एक चीज़ बदलने का मौका दिया जाए तो क्या बदलना चाहेंगे?
मैं इस सवाल पर अपना मत भी रखूंगा लेकिन पहले ब्लॉगर्स मित्रों समेत सुधिजनों, खुश_हेल्पलाइन से जुड़े युवा साथियों से मिली प्रतिक्रियाएं जान ली जाएं.
राहुल त्रिपाठी- बेरोज़गारी
जितेंद्र
कुमार भगतिया- विमर्श
धीरेंद्र
वीर सिंह- कुछ
नहीं
विवेक
शुक्ला- शिक्षा
क्षेत्र में सुधार
संगीता
पुरी- मैं तो
शिक्षा की स्थिति को बदलने पर बल दूंगी. पूरे देश ही नहीं पूरे विश्व के बच्चों को
सिर्फ किताबी नहीं. रूचि रखने वाला और जरूरत पड़ने पर काम आनेवाला व्यवहारिक ज्ञान
भी मिले, जिसमे नैतिकता कूट कूटकर भरी जाये. दस-पंद्रह-बीस साल इंतज़ार करना होगा पर
उसके बाद की दुनिया देखने लायक होगी!
अमित
नागर- सरकार
आलोक
शर्मा- रोजगारपरक
शिक्षा और रोजगार के अवसर
हरिवंश
शर्मा- मौके
की तलाश में केवल सरकारें बदलती है
प्रमोद
राय- व्यापक
चुनाव सुधार
सुशोभित
सिन्हा- "बदलाव बहुत कठिन है" इस सोच को बदलना जरूरी है.
चंद्रमोहन गुप्ता- न्याय का ढंग
प्रवीण
शाह- चुनाव
प्रणाली
प्रखर
शर्मा- देश
में लोगों के बीच मैं, मेरा, मुझे ये
भाव बदल कर वसुधैव कुटुंबकम के भाव हम को लाऊंगा.
अंकेश
सिंह- सिविल
सर्विसेज
सरवत
जमाल- सरकारी
नियंत्रण
शाहनवाज़- अगर मुझे मौका मिले तो मैं चाहूंगा कि ऐसी व्यवस्था बन पाए जहाँ करप्शन का
रोल नहीं हो और धार्मिक या नास्तिक किसी पर ज़बरदस्ती अपनी मर्ज़ी नहीं थोप सकें.
रेखा
श्रीवास्तव- मैं चाहूँगी कि लचर न्याय व्यवस्था में सुधार हो , त्वरित न्याय होने लगे तो अपराधों पर अंकुश लगा सकूं
आकाश देव शर्मा- नेताओं की एजुकेशन तय हो
अमित
कुमार श्रीवास्तव-
आरक्षण
प्रवीण
द्वारी- मैं
भारत को अराजकता मुक्त कर कानून व्यवस्था का शासन लाना चाहूंगा
अर्चना
चावजी- महिलाओं की सोच कि ये हमसे न हो पाएगा
निर्मला
कपिला- सब से
पहले ये सरकार बदलना चाहेंगे
जसविंदर
बिंद्रा- जाति
और धार्मिक बंटवारे के आधार पर सियासत
अश्वनी
गुप्ता- शासन
का नौकरशाही तंत्र
अजित
वडनेरकर- अंग्रेजी-राज
के कानूनों की छुट्टी
सुदेश
आर्या- मनमानी
रविंद्र
प्रभात- कानून
में बदलाव कर सभी के लिए देश में समान शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी और शिक्षा को निजी
क्षेत्र से बेदखल करना होगा
सुनील
हंचोरिया- जाति
व्यवस्था पूर्णतः समाप्त हो और जाति के कॉलम में सिर्फ भारतीय उल्लेख!
यशवंत
माथुर- सांप्रदायिकता, सामाजिक भेदभाव और निजीकरण
किसे
बदले जाने की ज़रूरत है?, इस सवाल पर भी आज़ादी के मायने वाले
सवाल की तरह बंटी हुई राय
सामने आई. शिक्षा व्यवस्था, न्याय प्रणाली, चुनाव सुधार, जातिगत राजनीति, कानून
व्यवस्था की स्थिति और यहां तक कि सरकार का भी जवाबों में ज़िक्र किया गया.
देश में
क्या सबसे पहले बदले जाने की ज़रूरत? इस पर मेरी
राय
इस दिशा में आज मैं अपनी ओर से वो मुद्दा उठा रहा हूं जिसे मैं भारत की हर
समस्या (गरीबी, भूख, भ्रष्टाचार, आतंकवाद) का मूल मानता हूं.ये मुद्दा है शिक्षा
का. मेरी समझ से अगर इस मुद्दे पर अब ठीक से ध्यान दिया जाए तो उसका फल 15-20 साल
बाद मिलना शुरू होगा. लेकिन कभी न कभी तो पहल करनी ही होगी.
देश में शिक्षा पर सबसे ज़्यादा निवेश किया जाना चाहिए. इस निवेश का फायदा
आज नहीं तो कल ज़रूर मिलेगा. देश के हर बच्चे को शिक्षा दिलाने की ज़िम्मेदारी
सरकार ले. इसके लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाए. किसी हकीम ने थोड़े ही कहा
है कि हर बच्चा ग्रेजुएट बनने के बाद ही सम्मान का हकदार हो सकता है. ओलिम्पिक्स
में वो अगर गोल्ड ले आता है तो वो 1.40 अरब भारतवासियों का सीना गर्व से चौड़ा कर
देता है.
देश में ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं अपनाई जाती जिसमें बिना जाति, मजहब, देखे छोटी उम्र में ही बच्चों की स्क्रीनिंग कर ली जाती. ये क्यों नहीं तय कर लिया जाता कि आखिर बच्चे में कितनी प्रतिभा है और वो किस फील्ड में ज़्यादा बेहतर कर सकता है. मान लीजिए ये तय हो गया कि किसी बच्चे में एथलीट बनने के लिए अच्छा पोटेंशियल है. तो फिर उसे क्यों नहीं दिन रात उसके खेल की ही प्रैक्टिस कराई जाती. किताबी शिक्षा उसे उतनी ही दी जाए जितने में वो अपना रोज़मर्रा का काम चला सके. उसका मुख्य ध्येय अपने खेल में ही अव्वल बनने का होना चाहिए. रोज़गार के लिए इसी तरह बच्चे को किसी न किसी हाथ के हुनर में भी दक्ष बनाने पर ज़ोर दिया जाना चाहिए. जिससे कि नौकरी न भी मिले तो वो खुद का काम करके आत्मनिर्भर बन सके.
जर्मनी में बच्चों की औपचारिक शिक्षा शुरू होते ही उन्हें साइकिल में पंचर, फ्यूज़ लगाना, नल ठीक करना जैसे व्यावहारिक कार्य भी सिखाए
जाते हैं. जर्मनी में एक और अच्छी बात भी है. अगर वहां अभिभावक बच्चे की शिक्षा का
खर्च उठाने में समर्थ नहीं हैं तो सरकार उसकी जिम्मेदारी लेती है. जब वो बच्चा
बड़ा होकर कुछ बन जाता है, अच्छा कमाने लगता है तो फिर वो पे—बैक करता है. उस पैसे
से फिर किसी ज़रूरतमंद बच्चे की मदद होती है. ऐसा ही कुछ देश में भी किया जा सकता
है.
एक देश, एक सिलेबस का मुद्दा देश में पहले भी उठता रहा है. कहा ये भी जाता
है कि देश के हर बच्चे का शिक्षा पर समान अधिकार हो. लेकिन क्या प्रैक्टिकली यह
मुमकिन है. गांव-देहात या छोटे शहर का बच्चा भले ही दिमाग से कितना तेज़ हो लेकिन
क्या अंग्रेज़ी बोलने में महानगरों के पांचसितारा स्कूलों के बच्चों के सामने टिक
सकता है. होना ये चाहिए कि हर बड़ी प्रतियोगी परीक्षा में अंग्रेज़ी जितना वेटेज
ही देश की दूसरी भाषाओं को दिया जाए. अंग्रेजी जानने के महत्व को मैं नकार नहीं
रहा हूं. लेकिन इसके लिए SAME PLAYING FIELD बनाना ज़रूरी
है. आज ऑनलाइन टूल्स के ज़रिए बहुत कुछ किया जा सकता है. अगर गांव-देहात में अच्छे
शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं तो महानगरों से ही वीडियो प्रोजेक्शन के ज़रिए पढ़ाई कराई जाए. छात्रों के साथ बस एक समन्वयक मौजूद रहे. बच्चों को मनोवैज्ञानिक
तरीके से दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में बैठे एक्सपर्ट्स ही बढ़िया तरीके से पढ़ा
सकते हैं. इसके लिए देश के कोने-कोने में मज़बूत कनेक्टिवटी का होना जरूरी है.
डिजिटल क्रांति के इस युग में सब कुछ किया जा सकता है. बस इसके लिए दृढ़
इच्छाशक्ति चाहिए.
मेरा एक सवाल ये भी है कि क्या हर बच्चे को कथित ग्रेजुएट बनाना ज़रूरी है?
देश के चप्पे-चप्पे पर विश्वविद्यालय मौजूद हैं लेकिन वहां पढ़ाई का स्तर कैसा है किसी से छुपा नहीं है. ऐसा नहीं होता तो देश के दूर-दराज से बच्चे हर साल दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए दौड़ नहीं लगाते. गुणवत्ता वाले उच्च शिक्षा संस्थानों तक बिना किसी भेदभाव पहुंचने का अधिकार उन्हीं छात्र-छात्राओं को मिले जो वाकई इसके लिए काबिलियत रखते हो. Quantity की जगह Quality को तरजीह दी जाए. बेशक कम उच्च शिक्षा संस्थान हों लेकिन वो गुणवत्ता के मामले में विश्व स्तरीय होने चाहिए.
मैं आपको मेरठ में पढ़ाई के अपने दिनों का अनुभव बताता हूं. आसपास कृषि प्रधान भूमि होने की वजह से गांव-कस्बों से बच्चे बड़ी संख्या में यहां कॉलेज की पढ़ाई के लिए आते हैैं. मुझे अच्छी तरह याद है कि कुछ लड़के उस भले वक्त में अपने घरों पर कहते थे कि ब्लॉटिंग पेपर की ज़रूरत है, इसलिए पांच सौ रुपये भेज दो. अब बेचारा किसान पिता किसी तरह भी पेट काटकर बेटे को पैसे का इंतज़़ाम कर भेजता. शहर में कॉलेज की पढ़ाई कर लेने वाला बच्चा फिर गांव लौटकर फार्मिंग की नहीं सोचता. उसे ग्रेजुएट या पोस्टग्रेजुएट होने के बाद शहर में ही कोई बढ़िया नौकरी चाहिए. देश में नौकरियां आखिर कितनी हैं, जो ढंग की नौकरियां हैं वो ढंग के विश्वविद्यालयों से ढंग की पढ़ाई करने वाले छात्र ही पाते हैं. फिर थोक के भाव से निकलने वाले अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र कहां जाएं.
देश में बेरोज़गारों की फौज में हर साल तेजी से इज़ाफ़ा हो रहा है तो ये सरकार, सिस्टम के साथ हम सब की भी हार है. हम सब भी सिस्टम से अलग नहीं है.
(17 अगस्त को इस संवाद की तीसरी और आखिरी कड़ी प्रकाशित करूंगा, इस सवाल के जवाबों के साथ- 1947 से अब तक देश में विकास का कौन सा सबसे बड़ा काम हुआ है?)
(#Khush_Helpline को मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है. मीडिया में एंट्री के इच्छुक युवा मुझसे अपने दिल की बात करना चाहते हैं तो यहां फॉर्म भर दीजिए)
आपके विचारों से सहमत हूं सर!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया...
हटाएंआप से सहमत हूँ ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक।
जवाब देंहटाएंMera bhi manna hai ki shiksha hi aane wali generation ka bhavishya bana sakti hai. Desh ke vartman arthik halat ko dekhte hue mera vishvas hai ki rojgarparak shiksha bade badlav me sahayak ho sakti hai
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