सूचना का अधिकार यानि राइट टू इन्फॉर्मेशन (RTI) क़ानून में बदलाव को लेकर मोदी 2.0 सरकार ने कदम बढ़ाया है.
इसके लिए संशोधन बिल लोकसभा और राज्यसभा, दोनों सदनों से पास हो चुका है. 25 जुलाई
को राज्यसभा में हाईवोल्टेज ड्रामे और विपक्ष के वॉकआउट के बीच संशोधन बिल पास
हुआ. सरकार ने संशोधन बिल के ज़रिए आरटीआई क़ानून में क्या बदलाव किए हैं, इन्हें
जानने से पहले साफ़ कर लिया जाए कि सूचना का अधिकार है क्या?
सूचना का अधिकार क्या है?
लोकतंत्र में जनता अपनी चुनी हुई सरकार को शासन करने का
अवसर प्रदान करती है. साथ ही उम्मीद करती है कि सरकार पूरी ईमानदारी के साथ अपनी
ज़िम्मेदारियों को निभाएगी.
लेकिन दुनिया के कई देशों में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गईं ऐसी सरकारें भी
हुईं जिन्होंने अपने भ्रष्टाचार को छुपाने के लिए पारदर्शिता का गला घोंटने में
कोई कसर नहीं छोड़ी. ऐसी सरकारों ने जनविरोधी और अलोकतांत्रिक कदम बढ़ चढ़ कर
उठाए.
लोकतंत्र में लोक ही सर्वोपरि होने के नाते जनता को यह
जानने का पूरा अधिकार है, कि जो सरकार उनकी सेवा में है, वह क्या कर रही
है? हर नागरिक किसी ना किसी
माध्यम से सरकार को टैक्स देता है. कोई भी कहीं भी बाज़ार से सामान खरीदता है तो
वो वैट, जीएसटी या एक्साइज ड्यूटी आदि के नाम पर टैक्स अदा करता है. यही टैक्स देश
के विकास और वेलफेयर स्टेट के दायित्वों को पूरा करने में लगाया जाता है. इसलिए जनता को यह
जानने का पूरा हक है कि उसका दिया पैसा कब, कहाँ, और किस प्रकार
खर्च किया जा रहा है? इसके लिए ज़रूरी है कि जनता को सूचना का अधिकार
मिले जो कि क़ानून के ज़रिए ही संभव है. सूचना अधिकार के ज़रिए राष्ट्र अपने
नागरिकों को अपनी कार्य और शासन प्रणाली को सार्वजनिक करता है.
मोदी सरकार ने RTI क़ानून में अब क्या किए
बदलाव?
विपक्ष का कहना कि मूल क़ानून में जो बदलाव किए जा रहे हैं
वो आरटीआई वॉचडॉग की स्वतंत्रता का गला घोटने वाले हैं और इसे आख़िरकार दंतविहीन (Toothless)
बनाने वाले हैं. वहीं सरकार का कहना है कि संशोधन
से सूचना अधिकारियों की शक्तियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है.
आइए पहले जानिए कि क्या नया किया गया है...
1. अभी तक मुख्य सूचना आयुक्त (CIC) और सूचना
आयुक्तों का कार्यकाल पांच साल का निर्धारित होता था. अब ऐसा नहीं होगा और उनका
कार्यकाल कितना होगा ये केंद्र सरकार पर निर्भर होगा...
2. अभी तक CIC और सूचना
आयुक्तों का वेतन भी तय होता था...अब ये केंद्र सरकार के हाथ में होगा...अभी तक
इनका वेतन मुख्य चुनाव आयक्त और चुनाव आयुक्तो के समकक्ष होता है जो खुद ही
सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर होता है...इन्हें प्रति माह ढाई लाख रुपए वेतन, 34,000 रु मासिक
भत्ता, किराया मुक्त फर्निश्ड आवास और 200 लीटर ईंधन प्रति माह मिलता है...सरकार के
मुताबिक सूचना आयोग वैधानिक निकाय है जबकि चुनाव आयोग सांविधानिक निकाय है. सरकार
सूचना आयुक्तों का वेतन कम भी कर सकती है....लेकिन मौजूदा सूचना आयुक्तों का वेतन
वही रहेगा जो अभी उन्हें मिल रहा है...
3. जैसे केंद्र में CIC और सूचना आयुक्त
होते हैं वैसे ही राज्य में भी मुख्य सूचना आयुक्त (SCIC) और सूचना आयुक्त
भी होते हैं...अभी केंद्र में इन आयुक्तों की नियुक्ति तीन सदस्यीय पैनल करता
है...जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता, और पीएम की ओर से
नियुक्त कोई कैबिनेट मंत्री होता है...ऐसे ही राज्य में इन आयुक्तों की नियुक्ति
करने वाले पैनल में मुख्यमंत्री, विधानसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता
और सीएम की ओर से नियुक्त कोई राज्य का कैबिनेट मंत्री होता है...
नए बदलाव में केंद्र के साथ साथ राज्यों में भी मुख्य सूचना
आयुक्त और दूसरे सूचना आयुक्तों की नियुक्ति और कार्यकाल निर्धारित करने का अधिकार
भी केंद्र सरकार के पास आ जाएगा...ये राज्य विधायिकाओं की स्वतंत्रता को निरस्त कर
देगा...इन सब सूचना आयुक्तों का कार्यकाल केंद्र सरकार के Pleasure (खुशी) पर निर्भर
रहेगा...यानि पूरी संभावना कि सूचना आयुक्त सरकार के इस Pleasure को बनाए रखने का
पूरा ध्यान रखेंगे जिससे कि उनका कार्यकाल पूरा रहे, ज्यादा ही कृपा
रहे तो आगे भी कार्यकाल मिलता रहे.
4. अभी तक व्यवस्था है कि CIC हो या SCIC या फिर दूसरे
सूचना आयुक्त, उनका कार्यकाल तय पांच साल या 65 साल की उम्र में जो भी पहले हो वहीं तक होता
है. यहां ये भी स्पष्ट है कि कोई सूचना आयुक्त तरक्की पाकर मुख्य सूचना आयुक्त
बनता है तो उसका कार्यकाल (सूचना आयुक्त और मुख्य सूचना आयुक्त मिलाकर) पांच साल
से ज्यादा नहीं होगा. लेकिन अब कार्यकाल फिक्स करना केंद्र सरकार के हाथ में
होगा...
5. जब सभी सूचना आयुक्तों (केंद्र चाहे राज्य) का कार्यकाल
केंद्र सरकार के हाथ में होगा तो उनको हटाना भी ज़ाहिर है केंद्र सरकार के हाथ में
ही रहेगा...अभी तक जो व्यवस्था थी उसके मुताबिक केंद्र में मुख्य सूचना आयुक्त और
दूसरे सूचना आयुक्तों को हटाने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति के पास निहित था...इसी
तरह राज्य में ये अधिकार राज्यपाल के पास था...वो भी ऐसी सूरत में होता था कि
सुप्रीम कोर्ट की जांच के बाद उनके कार्यालय से बर्खास्तगी के समुचित कारण पाए
जाएं...
सूचना के अधिकार का इतिहास
अंग्रेज़ों ने करीब ढाई सदी तक भारत पर शासन किया. इस दौरान
ब्रिटिश हुकूमत ने भारत के लिए शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 बनाया. इसके ज़रिए
ब्रिटिश हुकूमत किसी भी सूचना को गोपनीय रख सकती थी. 1947 में आज़ादी मिलने के बाद
ये एक्ट भारत में बदस्तूर जारी रहा. आने वाली सरकारें एक्ट की धारा 5 व 6 के
प्रावधानों का लाभ उठकार जनता से सूचनाएं छुपाती रहीं.
सूचना के अधिकार को लेकर कुछ जागरूकता 1975 में ‘उत्तर प्रदेश सरकार बनाम राजनारायण’ मामले से हुई. सुप्रीम
कोर्ट ने अपने आदेश में पब्लिक सर्वेन्ट्स के सार्वजनिक कार्यों का ब्योरा जनता को
प्रदान करने की व्यवस्था की.
वर्ष 1982 में दूसरे प्रेस आयोग ने शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 की विवादस्पद धारा 5 को निरस्त करने की सिफारिश की. इसके पीछे उसका तर्क था कि ये कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया था कि ’गोपनीय’ क्या है और ’शासकीय गोपनीय बात’ क्या है? इसलिए परिभाषा के अभाव में यह सरकार के ऊपर था कि कौन सी बात को गोपनीय माना जाए और किस बात को सार्वजनिक किया जाए?
1989 में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद वीपी सिंह की
सरकार सत्ता में आई, जिसने सूचना का अधिकार कानून बनाने का वादा
किया. इस सरकार ने संविधान में संशोधन करके सूचना का अधिकार कानून बनाने का एलान
भी किया. कोशिशों के बावजूद वीपी सिंह सरकार इसे लागू नहीं कर सकी. जल्दी ही इस
सरकार के गिर जाने की वजह से भी इस दिशा में कारगर कदम नहीं उठाया जा सका.
वर्ष 1997 में केंद्र में संयुक्त मोर्चा सरकार ने एच.डी
शौरी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित करके मई 1997 में सूचना की स्वतंत्रता का ड्राफ्ट
पेश किया, किन्तु शौरी कमेटी के इस ड्रॉफ्ट को केंद्र में संयुक्त मोर्चे की दो सरकारों
ने दबाए रखा.
वर्ष 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में संसद
ने ’सूचना की स्वतंत्रता विधेयक( फ्रीडम ऑफ इन्फॉर्मेशन बिल) पास किया इसे जनवरी
2003 में राष्ट्रपति की मंजूरी मिली, लेकिन इसकी नियमावली
बनाने के नाम पर इसे लागू नहीं किया गया.
2004 में यूपीए की सरकार केंद्र में बनने के बाद पारदर्शिता
युक्त शासन और भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने के लिए 12 मई 2005 को सूचना का अधिकार
अधिनियम 2005 संसद में पास किया और इसे 15 जून 2005 को राष्ट्रपति की मंज़ूरी
मिली.12 अक्टूबर 2005 को यह कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू किया
गया. राष्ट्रीय स्तर पर अमल में आने से पहले ही नौ राज्यों ने इसे अपना रखा था.
इनमें तमिलनाडु और गोवा (1997), कर्नाटक (2000), दिल्ली (2001), असम, मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं
महाराष्ट्र (2002) तथा जम्मू-कश्मीर
(2004) शामिल थे.
RTI क़ानून बनने के
पीछे जनमुहिम
आरटीआई क़ानून बनने की जनमुहिम में कई लोगों का योगदान रहा लेकिन यहां विशेष
तौर पर तीन नामों का ज़िक्र ज़रूरी है. सिविल सर्विसेज़ छोड़ सोशल वर्क से जुड़ी
अरुणा रॉय, पूर्व एयर चीफ मार्शल के बेटे निखिल और राजस्थान के रहने वाले ओजस्वी वक्ता
शंकर.
अरुणा रॉय की लिखी किताब ‘आरटीआई कैसे आई’ में 18 वर्ष की इस जनमुहिम का विस्तार से उल्लेख
है. अरुणा रॉय ने 1975 में नौकरी से इस्तीफा दिया और एनजीओ ‘सोशल वर्क एंड
रिसर्च सेंटर’ (SWRS) के साथ जुड़ गईं.
SWRS अजमेर (राजस्थान) में किसान-मजदूरों के लिए काम
कर रहा था. यहीं काम करते हुए अरुणा रॉय से कठपुतली कला में माहिर शंकर मिले. वे
लोगों में अपने भाषणों से जोश भरते थे. 1983 में SWRS छोड़ने के बाद भी शंकर उनके साथ रहे.
आगे चलकर निखिल भी इनके साथ जुड़े जो अमेरिका में अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर आ गए थे. वे भी किसान- मजदूरों के लिए काम करना चाहते थे. 1983 में अरुणा, शंकर और निखिल ने मिलकर काम करने का फैसला किया. 1987 में इन्होंने अजमेर के देवडूंगरी गांव को अपनी कर्मस्थली बनाया.
तीनों ने सोहनगढ़ी गांव में मजदूरों को सरकार की ओर से
निर्धारित न्यनूतम मजदूरी 11 रुपए से कहीं कम दिए जाने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई. इनके
कहने पर मजदूरों ने काम बंद कर दिया. फिर सरपंच और अधिकारियों के ख़िलाफ़ जनसुनवाई
शुरू होने पर मजदूरों की बात सुनी गई और उन्हें पूरी मजदूरी मिलनी शुरू हो गई.
इसके बाद तीनों ने “मजदूर किसान शक्ति संगठन” (MKSS) बनाया जो आगे जाकर आरटीआई को जन्म देने वाला बना. MKSS के तहत जनसुनवाइयों का फिर तो सिलसिला चल पड़ा.
1995 तक ये मुहिम न्यूनतम मजदूरी से आगे बढ़कर एक कानून की मांग तक पहुंच गई. हर
जगह सरकारी कागजों को गोपनीयता कानून का हवाला देकर छुपा लिया जाता था. ऐसे में इन
कागजों को निकालने के लिए एक कानून की जरूरत थी जिससे एक नागरिक को कम से कम अपने
हक के कागजों तक पहुंच मिल सके. यानि उसे सूचना का अधिकार मिले.
2001 में ‘लोगों के सूचना के अधिकार के लिए राष्ट्रीय अभियान (NCPRI)’ का सम्मेलन
बुलाया गया. 2002 में राजस्थान में पहली बार “फ्रीडम ऑफ
इन्फॉर्मेशन” आया जो आरटीआई की दिशा
में पहला कदम था. 2003 में MKSS ने इस कानून को देश भर में लागू करने के लिए दिल्ली में
आंदोलन किया. यहां उन्हें अरविंद केजरीवाल और अन्य लोगों का समर्थन मिला. आखिरकार
2005 में यूपीए सरकार ने ‘फ्रीडम ऑफ
इन्फॉर्मेशन” को ‘राइट टू इन्फॉर्मेशन’ के रूप में लागू
किया.
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
काफी अच्छी जानकारी से परिपूर्ण आलेख.
जवाब देंहटाएंसीआईसी के आदेशों के बाद भी सूचना जारी नहीं की जाती है तो आगे कहां जाना चाहिए
जवाब देंहटाएंसीआईसी के आदेशों के बाद भी सूचना जारी नहीं की जाती तो आगे कहां जाना चाहिए
जवाब देंहटाएं