‘खुले में शौच’ लिखना-पढ़ना आंखों को बड़ा
खटकता है.खास तौर पर हम शहरों, वो भी मेट्रो में रहने वाले लोगों के लिए. हां, अगर
इसके लिए ‘Shitting Outside’ का इस्तेमाल किया जाए तो ये ‘सम्मानजनक’ भी हो जाएगा और ‘स्वीकार्य’ भी. अब क्या करें अंग्रेज़ी
की महत्ता ही कुछ ऐसी है. हिंदी और अंग्रेज़ी के इन दो जुमलों में जितना फ़र्क है
वैसा ही कुछ कुछ इस वक्त भारत में स्वच्छता के मिशन को लेकर हो रहा है. कहा जा रहा
है कि गांधी ने अंग्रेज़ों से आजादी के लिए ‘सत्याग्रह’ का रास्ता अपनाया था,
वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब देश को गंदगी से आज़ादी दिलाने के लिए ‘स्वच्छताग्रह’ का नारा दे रहे हैं.
मोदी ने महात्मा गांधी की 150वीं जयंती
(2 अक्टूबर 2019) तक भारत को ODF (Open
Defecation Free) यानि ‘खुले में शौच से मुक्त’ बनाने का लक्ष्य रखा
है. क्योंकि डेडलाइन में अब दो साल का ही वक्त बचा है, इसलिए अब देश के कुछ
राज्यों में किसी भी सूरत में इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए ‘साम-दाम-दंड-भेद’ सभी तरीके अपनाए जा रहे
हैं. विषय बड़ा खुश्क है, लेकिन देश के हर नागरिक की तवज्जो चाहता है.
पहले थोड़े से आंकड़ों की बात कर ली जाए.
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 21 सितंबर 2017 को अपने ब्लॉग में लिखा है कि 2014 में
देश के महज़ 39 फीसदी लोगों तक ही सुरक्षित सेनिटेशन के साधन उपलब्ध थे. जेटली के
दावे के मुताबिक बीते 3 साल में 68 फीसदी लोग सुरक्षित सेनिटेशन के साधन वाले हो
गए हैं. अगर इस दावे पर यकीन किया जाए तो वाकई ये चमत्कारिक कार्य हुआ है. इसका
अर्थ यही निकलेगा कि अब देश में सिर्फ 30 करोड़ लोग ही ऐसे बचे हैं जिनके घर में टॉयलेट
की सुविधा नहीं है. हालांकि अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंसियों के मुताबिक देश में
अब भी 56 करोड़ लोग हैं जो खुले में शौच जाते हैं. आंकड़ों पर मतभेद हो सकते हैं. लेकिन
तब भी करोड़ों की संख्या वाले इन लोगों को ऐसी किसी बात के लिए कैसे चुटकियों में मनाया जा सकता है
जो उनके पुरखे सदियों से करते आए हैं. ये सिर्फ़ इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी समस्या नहीं
है जिसके लिए मोटा बजट रख कर निपटा जा सके. ये समस्या व्यवहार से जुड़ी है. इसके सामाजिक
निहितार्थ है जो करोड़ों लोगों की जीवनशैली से जुड़े हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें
विरासत में मिली है.
इंदिरा गांधी ने कभी कहा था कि उनके पास जादू
की छड़ी नहीं है जो वो घुमाएं और देश से महंगाई दूर हो जाए. यही बात स्वच्छता के
इस मिशन के लिए भी कही जा सकती है कि कोई जादू की छड़ी घुमाई जाए और पूरा देश
स्वच्छ हो जाए. ये समस्या लोगों के व्यवहार से जुड़ी है, इसलिए उन्हें प्यार से ही
इसके लिए समझाया जा सकता है. डंडे के ज़ोर पर नहीं. डंडा चलाने का नतीजा क्या होता
है ये देश सत्तर के दशक में संजय गांधी की ओर से शुरू किए जबरन परिवार नियोजन
(नसबंदी) के दौरान देख चुका है. इसी संदर्भ में दूसरा सकारात्मक उदाहरण भी है. वो
है देश में पोलियो अभियान की कामयाबी का. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के निर्देशन में ये अभियान चलाया गया. बेशक इसमें
लंबा वक्त लगा लेकिन अंतत: वो वांछित परिणाम मिल
गए जिनके लिए ये शुरू किया गया था.
ये दो उदाहरण हमारे
सामने हैं. अब स्वच्छता मिशन को लेकर भी ये हमारे लिए सीख और प्रेरणा दोनों हो
सकते हैं. रास्ता हमें चुनना है. शार्ट कट ये है कि हमने एक तारीख तय कर दी है और
उस दिन तक हर हाल में भारत को ‘खुले में शौच’ से मुक्त कराना है. अब भले ही इसके लिए कुछ भी
किया जाए. इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले ये सोचना भी ज़रूरी है कि हमारे देश में
साक्षरता दर कितनी है. हम शहर में रहने वाले जिस तरह स्वच्छता को लेकर भाषण पिला
सकते हैं, लच्छेदार बातें कर सकते हैं, उसी मापदंड से देश के ग्रामीण अंचलों में
रहने वाली बड़ी आबादी को नहीं हांक सकते. चुनौती बड़ी है, इसके लिए मेहनत भी बड़ी
करनी होगी. लेकिन जो भी होगा वो प्यार से समझाने-बुझाने से ही होगा. अब भले ही
इसमें लंबा वक्त लगे.
ये विषय गहन है,
इसलिए इसे एक पोस्ट में नहीं समेटा जा सकता. इस पर रिसर्च के साथ सिलसिलेवार लिखने
की कोशिश करूंगा. इस पोस्ट में इतना ही, अगली कड़ी में ज़िक्र करूंगा कि देश के
कुछ हिस्सों में लोगों को खुले में शौच से रोकने के लिए किस-किस तरह के तरीके
अपनाए जा रहे हैं.
क्रमश:
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
स्वच्छता के प्रति जागरूकता बेहद आवश्यक है, ऐसी कोशिशों का स्वागत होना चाहिए!
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पुण्यतिथि : मंसूर अली खान पटौदी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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