अपने ब्लॉग के स्टैट्स देखता हूं तो सुखद आश्चर्य होता है कि भारत से
ज़्यादा पाठक अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और रूस जैसे देशों से आ रहे हैं...यानि भारतीय
दुनिया में कहीं भी जाकर बस जाए लेकिन उनसे देश की माटी की महक कभी दूर नहीं
होती...अपनी भाषा, अपनी ज़मीन, अपने लोगों के बारे में जानने की उनकी ललक हमेशा
बनी रहती है...देश में पल-पल क्या हो रहा है, इस पर उनकी बारीक नज़र बनी रहती
है...
कल से पहले तक केजरीवाल एंड कंपनी और उनकी आम आदमी पार्टी मीडिया की सारी सुर्खियां
बटोर रही थी...उससे पहले नरेंद्र मोदी देश में चाहे किसी चुनावी सभा को संबोधित
करते थे या किसी अन्य कार्यक्रम में शिरकत करते थे, उसका पूरा का पूरा सजीव
प्रसारण हर न्यूज़ चैनल अपना परम धर्म समझता था...दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने
चुनाव में बेहतर प्रदर्शन क्या कर दिखाया कि मीडिया का पूरा फोकस उधर मुड़
गया...केजरीवाल मुख्यमंत्री बन गए...पानी, बिजली जैसे धड़ाधड़ फैसले लिए गए...केजरीवाल
की ईमानदारी के कसीदे पढ़े जाने लगे...सरकार बनते ही आप के एक विधायक विनोद कुमार
बिन्नी ने तेवर दिखा कर साफ कर दिया था कि आम आदमी पार्टी में सब कुछ गुडी-गुडी
नहीं है...पंद्रह दिनों बाद उन्होंने बग़ावत का बम फोड़ दिया...यही नहीं केजरीवाल
को बिन्नी ने झूठों का सरताज भी करार दे दिया...इन सब घटनाओं के चलते लग रहा था कि
आप के सिवा देश में ख़बर लायक कुछ बचा ही नहीं....
फिर अचानक 17 जनवरी को ख़बरों के मिज़ाज में कुछ टर्न आया...वजह बने
राहुल गांधी...वही राहुल गांधी जिन्हें चार राज्चों में विधानसभा चुनाव के बाद
मीडिया बिल्कुल भाव नहीं दे रहा था...ज़िक्र भी किया जाता था तो उनकी अनुभवहीनता,
कमज़ोर नेतृत्व क्षमता की वजह से...यहां तक कि कुमार विश्वास जैसे व्यक्ति को भी
अमेठी जाकर ताल ठोकने की वजह से सुर्खियों में पूरा स्थान दिया गया....लेकिन
दिल्ली में 17 जनवरी को तालकटोरा गार्डन में राहुल ने एआईसीसी के अधिवेशन में क्या
ताल ठोकी कि सबको उनमें जोश नज़र आने लगा...राहुल की स्पीच और आस्तीनें चढ़ाने के लिए जहां उनका उपहास किया जाता था
वहीं अब मीडिया को उनमें संभावनाएं नज़र आने लगीं...चालीस मिनट की स्पीच के बाद ये
चमत्कार कैसे हो गया...क्या ये इमेज मेकओवर के लिए पीआर कंपनियों पर खर्च किए जा
रहे पांच सौ करोड़ रुपये का चमत्कार है या फिर कुछ और...
17 जनवरी की रात से एक और घटना मीडिया पर छाई हुई है...राहुल को
मुश्किल से जो भाव मिल रहा था वो शाम आते आते केंद्रीय मंत्री और ट्विटर बॉय शशि
थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की संदिग्ध मौत की ओर मुड़ गया...दिल्ली के लीला होटल
के एक कमरे में सुनंदा मृत पाई गईं...इससे पहले पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार से
सुनंदा की ट्विटर पर तकरार को लेकर न्यूज़ चैनलों पर खूब मसाला लगाकर परोसा जा रहा
था...एक प्रमुख चैनल पर तीनों के शाट्स पर दिल तो बच्चा है जी, दिल है कि मानता
नहीं जैसे गाने बजा कर कार्यक्रम दिखाया जा रहा था...क्या मीडिया का ये रवैया और
ट्विटर की चीं..चीं.. ही सुनंदा पुष्कर की जान लेने का कारण बने..क्या विदेश की
तरह अब भारत में भी नेताओं की प्राइवेट लाइफ मीडिया और सोशल मीडिया के रडार पर
रहेगी...या प्राइवेसी में दखल की बारीक सीमा कहां से शुरू होती है, इस पर भी देश
में कोई बहस छेड़े जाने की आवश्यकता है या नहीं...
एक ओर ख़बर ने मेरा ध्यान खींचा...ये दुनिया भर
में प्रतिष्ठित मैगजीन टाइम के 27 जनवरी को आने वाले अंक के एक लेख को लेकर है...प्रसिद्ध
कॉलमनिस्ट माइकल क्रॉली ने ये लेख लिखा है...इसमे कहा गया है कि भारतीय राजनयिक
देवयानी खोबरागड़े के अपनी मेड के कथित वीज़ा फ्रॉड को लेकर भारत और अमेरिका के
बीच कूटनीतिक तकरार से ज़्यादा कठिन वक्त आगे आने वाला है..क्रॉली के मुताबिक
दोनों देशों के बीच एक प्रसिद्ध व्यक्ति के वीज़ा को लेकर बड़ा तनाव सामने आ सकता
है...ये व्यक्ति हैं नरेंद्र मोदी...
टाइम मैगजीन का भी मानना है कि मई में होने
वाले लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत की अच्छी संभावनाएं हैं...ऐसा हुआ तो मोदी ही
देश के प्रधानमंत्री बनेगे...लेकिन मोदी के वीज़ा पर अमेरिका ने 2005 से ही रोक
लगा रखी है...अमेरिका ने ये कदम मोदी पर 2002 के गुजरात दंगों को लेकर उनके
आलोचकों के आरोपों के आधार पर उठाया था...अमेरिका ने नौ साल पहले जब ये फैसला लिया
था उस वक्त मोदी का प्रोफाइल राज्य स्तर के नेता का था...अब दृश्य बदल चुका
है...बीजेपी के पीएम उम्मीदवार होने की वजह से उनका प्रोफाइल राष्ट्रीय स्तर का हो
गया है...
यहां एक हाईपोथेटिकल सवाल किया जा सकता है कि अगर
मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो क्या तब भी मोदी के वीज़ा पर अमेरिका रोक लगाए
रखेगा...इस सवाल पर अमेरिका के नीतिनिर्धारक बंटे हुए हैं...नवंबर में अमेरिकी
कांग्रेस में एक प्रस्ताव पेश कर अमेरिकी विदेश विभाग से मांग की गई थी कि मोदी के
अमेरिका में प्रवेश पर रोक जारी रखी जाए...इस प्रस्ताव को अमेरिकी कांग्रेस में दो
मुस्लिम समेत 43 सह-प्रायोजक मिले...
लेकिन साथ ही अमेरिका में रियलिस्ट्स और कारोबारी
नेताओं का मत दूसरा है...वो विदेशी निवेश को लेकर मोदी के खुले दृष्टिकोण से अपने
लिए भारत में अपार संभावनाएं देखते हैं...अमेरिका के अंदर या बाहर मोदी के आलोचक
उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भी राष्ट्रपति बराक ओबामा पर मोदी के वीज़ा पर रोक के
लिए दबाव बनाएंगे...लेकिन बराक ओबामा राष्ट्रीय हितों को सबसे ज़्यादा तरज़ीह देते
हैं..ऐसे में वो नीतियों को लेकर लचीला रुख दिखाते रहे हैं...टाइम मैगजीन के
अनुसार अमेरिका ऐसे देशों से भी वर्षों से कारोबारी संबंध रखता रहा है जो भारत की
तुलना में उसके बहुत कम मित्र रहे हैं...
ये सच है कि वीज़ा पर रोक लगाकर अमेरिकी सरकार ने
जता दिया था कि मोदी और गुजरात हिंसा को लेकर वो क्या राय रखती है...लेकिन
वाशिंगटन के नई दिल्ली के साथ रिश्ते इससे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं...इसलिए अगर
मोदी पीएम बन जाते हैं तो इन संबंधों को इस एक मुद्दे का बंधक बन कर नहीं रहने
दिया जा सकता...टाइम के मुताबिक दोनों देशों को आगे की ओर कदम उठाने की आवश्यकता
है...और इन्हें मोदी के अतीत का हवाला देकर पीछे नहीं धकेलने नहीं दिया जाना
चाहिए...यानि भारत के सवा अरब लोगों की तरह अब अमेरिका को भी इंतज़ार है अगले
लोकसभा चुनाव के नतीजों का...
(नोट-
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अमेरिकन ऐसे बणिये है जो अपने व्यापारिक हितों के लिये मूंछ को कभी भी ऊँची नीची कर सकते है, मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही वे व्यापार के लिए देशहित की दुहाई देते हुए प्रतिबंध हटा लेंगे !!
जवाब देंहटाएंउनके व्यावसायिक स्वार्थ उनके सिद्धान्तों का बाजा बजा देंगे।
जवाब देंहटाएंकांई भी देश केवल एक सम्प्रदाय या वर्ग विशेष के दुराग्रह से नहीं चलता है। देश चलते हैं न्यायालयों के फैसले पर। अमेरिका को समझना होगा कि मोदी के खिलाफ कोई भी आरोप यहां की न्यायालयों ने सिद्ध नहीं किए हैं इसकारण केवल राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किसी भी व्यक्ति को मोहरा नहीं बनाया जा सकता। लेकिन दूसरा पक्ष यह है कि मोदी को आवश्यकता ही नहीं है अमेरिकी वीजा की, बल्कि होना तो यह चाहिए कि किसी भी देशवासी को आवश्यकता ही ना पड़े वहां के वीजा की।
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