मेरठ रहता था...बचपन, पढ़ाई, किशोरावस्था में यारों के साथ धमाल...उम्र के साथ सब छूटता गया...शहर भी...मस्तमौला अंदाज़ भी...मेरठ में ही जवानी की दहलीज पर कदम रखा...शहर के जिस हिस्से आबू लेन में हम रहते थे वो पॉश इलाका माना जाता था, अब तो आबू लेन मेरठ का सबसे बड़ा कॉमर्शियल सेंटर है...उस वक्त हॉन्डा बाइक (हीरो हॉन्डा नहीं) नई नई आई थी...अपुन को भी उसकी सवारी गांठने का बड़ा शौक था...उस पर चढ़ कर खुद को मुकद्दर का सिकंदर के अमिताभ से कम नहीं समझते थे...हॉन्डा पर मतलब से या बेमतलब शहर में घूमने का बड़ा शौक था...पूरे शहर में तन कर निकलते थे...लेकिन शहर में एक हिस्सा ऐसा भी था कि जब वहां से गुजरते तो सारी हेकड़ी न जाने कहां फुर्र हो जाती थी...उस एरिया से निकलते हुए आंखें बस नीचे सड़क को ही निहारती रहती थीं...मज़ाल हैं कि आंख ऊपर उठा कर देख भी लें...भले ही सामने किसी से भिड़ जाएं...वो एरिया था कबाड़ी बाज़ार...मेरठ का रेड लाइट एरिया...नीचे हॉर्डवेयर की होलसेल मार्केट...और ऊपर की मंज़िलों पर बाईजियों के कोठे... कभी उस एरिया से पास होना बहुत मजबूरी हो जाती थी तो सांस रोककर वहां से निकलना पड़ता था...कभी भूल से निगाह ऊपर उठ भी जाती तो छज्जों एक जैसा नज़ारा ही दिखता...सुबह दस-ग्यारह बजे भी सजी-संवरी सेक्स-वर्कर्स...नीचे से गुज़रने वालों को ऊपर आने के इशारे करती हुईं...उस वक्त ऐसा लगता था कि न जाने खुद से कौन सा पाप हो रहा है जो यहां से गुज़रना पड़ रहा है...
वहां का पूरा माहौल बड़ा रहस्यमय लगता था...उसी एरिया की सड़क से कुछ दूसरी कॉलोनियों में रहने वाली भले घरों की लड़कियों को भी स्कूल-कालेज जाने के लिए पास होना पड़ता था...मैं तब यही सोचा करता था कि जब लड़का होने के बावजूद मेरी हालत यहां से निकलते हुए खराब हो जाती है तो इन भले घरों की लड़कियों को यहां से पास होते हुए कैसा महसूस होता होगा...इस सवाल का जवाब उस वक्त तो नहीं मिला था...
लेकिन आज ब्लॉग पर एक पोस्ट पढ़ने के दौरान मिला...इस पोस्ट में नई छप कर आई किताब औरत की बोली का ज़िक्र है...किताब को लिखा है पत्रकारिता-लेखन की जाने मानी हस्ताक्षर और ब्लॉगवुड की सम्मानित सदस्य गीताश्री ने....
सामयिक प्रकाशन से छपी किताब के एक अंश को प्रभात रंजन जी ने अपनी पोस्ट में जगह दी है...गीताश्री की इस मुद्दे पर बेबाक बानगी की झलक के लिए किताब की कुछ पंक्तियों को यहां दे रहा हूं...
खैर.. रानी बाई ने नाचना गाना शुरु किया..."चाल में ठुमका, कान में झूमका...कमर पे चोटी लटके..हो गया दिल का पुरजा पुरजा"। लगे पचासो झटके। शामियाने में जोर से सिसकारियां गूंजी। कोने से कोई उठा गाता हुआ..वो तेरा रंग है नशीला,,अंग अंग है नशीला...पैसे फेंके जाने लगे, बलैया ली जाने लगीं। रानी बाई के साथ और भी लड़कियां थीं, वो भी ठुमक रही थीं, फिर देखा, रानी बाई किसी रसूखदार से दिखने वाले बंदे के पास गईं और अपने घूंघट से दोनो का चेहरा ढंक लिया। जब लौटी तो पैसो की बरसात होने लगी। शामियाने में हर कोई पैसे लुटा रहा था। साजिंदे और सहयोगी लड़कियां पैसे चुने और ठुमके लगाएं। विचित्र सा था सब कुछ। जीवन में पहली बार ये सब देख रही थे। गाना, बजाना, नाच और वो बाई! वो जितनी अच्छी लग रही थी, उतना ही बुरे लग रहे थे शामियाने में जमघट लगाए बैठे लोगों का व्यवहार। चुपके-चुपके हम लोग देख रहे थे वो सब। हमारे लिए वो सब बेहद नया था, लेकिन बड़ों की नजर में यही गुनाह था। कोई देखता तो हमारी पिटाई तय थी। मेरे साथ इस 'चोरी' में शामिल चचेरी बहनो ने कई बार कहा भी कि चल अब चलते हैं..और वो चली भी गईं। मैं अकेली नाच में डूबी सोचती रही कि अंदर लड़कियां नाच रही हैं तो हमें देखने से क्यो मना कर रहे हैं। तभी मुझे तलाशती हुई चाची आई। एक थप्पड़ जमाया और घसीटती हुई ले चलीं। वह बड़बड़ा रही थीं..."अगर चाचा ने देख लिया तो मार डालेंगे। चल अंदर शादी हो रही है, वहां बैठ...।" उस महाआंनद से वंचित होने से चिढी हुई मैंने पूछ ही लिया..."क्यों, लड़कियां ही तो नाच रही हैं, मैं क्य़ो नहीं देख सकती?" " वे लड़कियां नहीं, रंडी हैं,रंडी...समझी। रंडी की नाच हमारे यहां औरतें नहीं देखती। ये पुरुषों की महफिल है, जहां इनका नाच होता है। देखा है किसी और को,है कोई औरत वहां..सारे मरद हैं-" चाची उत्तेजना से हांफ रही थी। मेरे दिल का पुरजा पुरजा हो गया था। मैं मंडप के पास बैठी सोचती रही। फिर अपने हमउम्र चचेरे भाई से जानकारी बटोरी तो पता चला वे मुजफ्फरपुर से आई हैं, जहां एक पूरा मोहल्ला उन्हीं का है। इनके कोठे होते हैं, वे शादियों में नाचती गाती है, यही उनका धंधा है...आदि आदि....।
तस्वीर का पूरा रुख जानने के लिए आपको प्रभात रंजन जी के इस लिंक पर जाना होगा...
शहर छूटा, लेकिन वो गलियां नहीं!
वहां का पूरा माहौल बड़ा रहस्यमय लगता था...उसी एरिया की सड़क से कुछ दूसरी कॉलोनियों में रहने वाली भले घरों की लड़कियों को भी स्कूल-कालेज जाने के लिए पास होना पड़ता था...मैं तब यही सोचा करता था कि जब लड़का होने के बावजूद मेरी हालत यहां से निकलते हुए खराब हो जाती है तो इन भले घरों की लड़कियों को यहां से पास होते हुए कैसा महसूस होता होगा...इस सवाल का जवाब उस वक्त तो नहीं मिला था...
लेकिन आज ब्लॉग पर एक पोस्ट पढ़ने के दौरान मिला...इस पोस्ट में नई छप कर आई किताब औरत की बोली का ज़िक्र है...किताब को लिखा है पत्रकारिता-लेखन की जाने मानी हस्ताक्षर और ब्लॉगवुड की सम्मानित सदस्य गीताश्री ने....
सामयिक प्रकाशन से छपी किताब के एक अंश को प्रभात रंजन जी ने अपनी पोस्ट में जगह दी है...गीताश्री की इस मुद्दे पर बेबाक बानगी की झलक के लिए किताब की कुछ पंक्तियों को यहां दे रहा हूं...
खैर.. रानी बाई ने नाचना गाना शुरु किया..."चाल में ठुमका, कान में झूमका...कमर पे चोटी लटके..हो गया दिल का पुरजा पुरजा"। लगे पचासो झटके। शामियाने में जोर से सिसकारियां गूंजी। कोने से कोई उठा गाता हुआ..वो तेरा रंग है नशीला,,अंग अंग है नशीला...पैसे फेंके जाने लगे, बलैया ली जाने लगीं। रानी बाई के साथ और भी लड़कियां थीं, वो भी ठुमक रही थीं, फिर देखा, रानी बाई किसी रसूखदार से दिखने वाले बंदे के पास गईं और अपने घूंघट से दोनो का चेहरा ढंक लिया। जब लौटी तो पैसो की बरसात होने लगी। शामियाने में हर कोई पैसे लुटा रहा था। साजिंदे और सहयोगी लड़कियां पैसे चुने और ठुमके लगाएं। विचित्र सा था सब कुछ। जीवन में पहली बार ये सब देख रही थे। गाना, बजाना, नाच और वो बाई! वो जितनी अच्छी लग रही थी, उतना ही बुरे लग रहे थे शामियाने में जमघट लगाए बैठे लोगों का व्यवहार। चुपके-चुपके हम लोग देख रहे थे वो सब। हमारे लिए वो सब बेहद नया था, लेकिन बड़ों की नजर में यही गुनाह था। कोई देखता तो हमारी पिटाई तय थी। मेरे साथ इस 'चोरी' में शामिल चचेरी बहनो ने कई बार कहा भी कि चल अब चलते हैं..और वो चली भी गईं। मैं अकेली नाच में डूबी सोचती रही कि अंदर लड़कियां नाच रही हैं तो हमें देखने से क्यो मना कर रहे हैं। तभी मुझे तलाशती हुई चाची आई। एक थप्पड़ जमाया और घसीटती हुई ले चलीं। वह बड़बड़ा रही थीं..."अगर चाचा ने देख लिया तो मार डालेंगे। चल अंदर शादी हो रही है, वहां बैठ...।" उस महाआंनद से वंचित होने से चिढी हुई मैंने पूछ ही लिया..."क्यों, लड़कियां ही तो नाच रही हैं, मैं क्य़ो नहीं देख सकती?" " वे लड़कियां नहीं, रंडी हैं,रंडी...समझी। रंडी की नाच हमारे यहां औरतें नहीं देखती। ये पुरुषों की महफिल है, जहां इनका नाच होता है। देखा है किसी और को,है कोई औरत वहां..सारे मरद हैं-" चाची उत्तेजना से हांफ रही थी। मेरे दिल का पुरजा पुरजा हो गया था। मैं मंडप के पास बैठी सोचती रही। फिर अपने हमउम्र चचेरे भाई से जानकारी बटोरी तो पता चला वे मुजफ्फरपुर से आई हैं, जहां एक पूरा मोहल्ला उन्हीं का है। इनके कोठे होते हैं, वे शादियों में नाचती गाती है, यही उनका धंधा है...आदि आदि....।
तस्वीर का पूरा रुख जानने के लिए आपको प्रभात रंजन जी के इस लिंक पर जाना होगा...
शहर छूटा, लेकिन वो गलियां नहीं!
कभी मेले तो कमलेश्वर की "एक सड़क सत्तावन गलियाँ" पढ़ना... उनमें मैनपुरी के धुर ग्रांमीण इलाके में ऎसी महफ़िलों का लोमहर्षक वर्णन है ।
जवाब देंहटाएंआज ही पढ़ा था वो अंश...कोशिश रहेगी किताब पढ़्ने की.
जवाब देंहटाएंदेश के कई इलाकों में शादी व्याह में मनोरंजन के लिए नाच प्रथा थी..अब इसमें बहुत कमी आई है... वरना बिना पतुरिया नाचे शादी ब्याह में रौनक ही कहाँ होती थी.....
जवाब देंहटाएंकहीं यह पुस्तक मिलेगी तो जरुर पढेंगे...
नाच की महफिलें आज भी हैं बस अन्तर इतना है कि कल तक वे केवल पुरुषों के लिए थी और आज सार्वजनिक हो गयी हैं। आज शादी-विवाह के अवसरों पर मल्लिका शेरावत जैसी नर्तकियों को बुलाया जाता है। इन महफिलों में भी सब कुछ वैसा ही है जैसा कल था। जिसे शर्म आती है, वे धीरे-धीरे सरकते जाते हैं। मुझे याद है एक बार की घटना, जब हमारे मामाजी के यहाँ विवाह था और बारात के आगे नाचने वालियां नाच रही थी तो हमने बारात से बायकाट कर दिया था लेकिन आज?
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी,
जवाब देंहटाएंएक समय ऐसा भी था जबकि इन गानेवालियों समाज का अंग माना जाता था। इस बारे में आचार्य चतुरसेन लिखते हैं -
बाल-बच्चेदार रईस, नवाब रंडियाँ, नटनियाँ रखते, खुल्लमखुल्ला घरों पर नाच-मुज़रे होते, छोटे-बड़े सभी उनमें भाग लेते, नशा-पानी होता। होली-दीवाली का हुर्दंग होता। नटनियाँ, वेश्याएँ, जो ताबे होतीं, रईसों के घरों पर आती-जातीं। घर के बच्चे उनसे वही रिश्ता रखते जो घर की स्त्रियों से होता है। कोई शर्म-झिझक न थी। चाची, मामी का रिश्ता और वही सुलूक। बड़े घर की अमीरज़ादियाँ खातिरख्वाह इन कसबियों को भीतर जनाने में बुलातीं, खातिर करतीं, इनाम देतीं, पास बिठातीं। इस प्रकार ये नटनियाँ, कंजरियाँ, पतुरियाँ, डेरेवालियाँ, डोमनियाँ भी सभ्य समाज का एक अंग थीं। उनके बिना समाज सूना था, उदास था।
देखें मेरा यह पोस्ट - सत्तर की उम्र और नटनी से आशनाई
आजकल इन नाचने वाली बाई से ज्यादा बेशर्म औरत तो हर जगह हर गली मुहल्लों में दिख जाएगी आपको...बेशर्मी में जबरदस्त इजाफा हुआ है चाहे औरत हो या मर्द.....पहले जिस गलती पर लोग बाद में शर्मिंदा होते थे आज उसके किस्से बरे गर्व से सुनाते हैं लोग जैसे कोई बहादुरी भरा कारनामा किया हो ...यही तो तरक्की हुयी है हमारे देश की मनमोहन सिंह,मायावती व सोनिया गाँधी जैसों के नेतृत्व में...भगवान बचाये ऐसे तरक्की से जीना हराम है बेशर्मों की बस्ती में...इस बेशर्मी के कारणों की विवेचना किये जाने की जरूरत है....
जवाब देंहटाएंगीताश्री जी की किताब के बारे मे जानकर अच्छा लगा……आभार्।
जवाब देंहटाएंअजीत गुप्ता जी ने काफी सहा कहा है ..है तो अब भी सबकुछ वही बस रूप बदल गया है. अब सब सार्वजानिक है.
जवाब देंहटाएंयह किताब किसी दिन पढना चाहूंगा खुशदीप भाई ! शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंसुना तो बहुत है....ऐसी प्रथाओं के बारे में...
जवाब देंहटाएंइस किताब को पढ़कर विस्तार से इस विषय में जानने का मौका मिलेगा.
मेरे पास आती हैं वे जिन्हें समाज वेश्या कहता है और भले घरों की वे लड़कियाँ जो घर का ख़र्चा चलाने और अपना दहेज जुटाने के लिए कॉल गर्ल्स बन गई हैं। मेरे पास वे औरतें भी आती हैं जो विवाहेतर संबंध रखती हैं । सभी मुझसे एक भाई का या कभी कभी एक गुरू का रिश्ता रखती हैं ।
जवाब देंहटाएंहरेक के अंदर एक नेकी बड़े दर्जे पर मैंने पाई और हक़ीक़त में उनकी इस नेकी की तरफ़ मेरी तवज्जो मौलवी सिराज साहब ने दिलाई थी।
ये औरतें और लड़कियाँ अक्सर सोशल होती हैं और अपनी जान पहचान के लोगों के दुख दूर करने के लिए जो भी बन पड़ता है , वे ज़रूर करती हैं बिना किसी लालच के।
उनकी मुलाक़ातों से जो मैंने जाना है , उसे एक अफ़साने का रूप दिया है ।
उस गली से एक बार हम भी गुजरे थे रिक्शा में बैठकर , पत्नी के साथ ।
जवाब देंहटाएंलेकिन हमने तो खूब नज़र उठाकर देखा था । :)
नृत्य की परम्परा समाज के दोहरे मापदंड की सूचक है ।
उस समय उस मोहल्ले की ऒरते मजबुरी मे अपनी इज्जत का सोदा करती थी,लेकिन आज कल...? आज कल आमीर बनाने के लिये , अपना स्टेटस बानने के लिये, ऎशॊ आराम करने के लिये, यह खुद अपनी मर्जी से बिकती हे... उस समय की उन ऒरतो के लिये दिल मे इज्जत ओर दया थी आज की इन खास के लिये दिल मे नफ़रत भी नही हे...
जवाब देंहटाएंधीरे धीरे हमारी सामाजिक सोच संवेदनशील हो रही है और हम इस तरह के नाच गानों को प्रोत्साहित करने से बचते हैं। सुन्दर समीक्षा और आभार परिचय का।
जवाब देंहटाएंbahut sahi likha khusdeep bhai,yahan raipur me bhi beech bazar red light area tha naam tha babulal gali,babulal talkies jo bharat ke purani talkies me se ek hai bagal wali gali thi wo.sari ki sari sadak par aa jati thi aur wahan se guzarna azeeb sa lagta tha.magar guzarna bhi roz padta hi tha.shuru me to samajh me nahi aaya magar bad me red light ka matlad samjh me aaya aur shayad 1995 me use band kar diya gaya aur uske sath hi bagal ke rahmaniya chauk ki muzra galiyan bhi uzad gayi,
जवाब देंहटाएंsamay mila to kitaab zarur padhunga.
पुरुष प्रधान समाज के दोहरे मानकों का यथार्थ चित्रण है इस अंश में। लेखिका बधाई की पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंसुंदर समीक्षा।
जवाब देंहटाएं“अंटल…अंटल…मैं पास हो गया…लीजिए…मिठाई लीजिए"…
जवाब देंहटाएं“अरे!…वाह…चुन्नू बेटे…बहुत बढ़िया"…
“अंटल…अंटल…आपने प्रामिस किया था कि अगर मैं पास हो गया तो आप मुझे कंप्यूटर ले के देंगे"…
“हाँ!…बेटा…किया तो था लेकिन…
“कुछ लेकिन-वेकिन नहीं…आपने प्रामिस किया था अब उसे पूरा करो"..
“ओ.के…ओ.के बेटा…बताओ कौन सा कंप्यूटर चाहिए तुम्हें …विन्डोज़ वाला या फिर उबंटू?”…
“मुझे तो खुशदीप अंटल वाला चाहिए"…
“खुशदीप अंकल वाला?”…
“हाँ!…खुशदीप अंटल वाला"…
“लेकिन क्यों?”..
“उनका कंप्यूटर एकदम सोलिड है…इसलिए"…
“वो कैसे?”…
“वो पिछले सोलह साल से अपना कंप्यूटर तोड़ रहे हैं लेकिन वो इतना पक्का है कि टूटता ही नहीं"
मुजफ्फरपुर में रेडलाइट एरिया का नाम चतुर्भुज स्थान है,इसी मोहल्ले में प्रसिद्ध साहित्यकार जानकी बल्लभ शास्त्री जी का घर है। वहां की नाचनेवालियां इतनी नियम,कायदा,अदब,सलीका से रहती हैं की कुछ सीखा जा सकता है। मैं बचपन में काफी महफ़िल का लुत्फ़ उठाई हूँ। जैसा ऊपर पढ़ी वैसा नहीं देखी हूँ। पहलीबार आपके ब्लॉग में आई,अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएं