संध्या का सवेरा...रूई का बोझ...तीसरी किस्त...खुशदीप

कल मैं थोड़ा विचलित हुआ...लेकिन फिर संभला...मैं अहम नहीं हूं...मुद्दा अहम है...इसलिए सीधे मुद्दे पर ही आ रहा हूं...मुद्दा ये है कि हर इनसान को वृद्ध होना है...ज़माना जिस रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, समाज की मान्यताएं और नियम जिस तरह टूट रहे हैं, उसमें आने वाला वक्त और भी चुनौती भरा है...


मेरठ में हमारे परिवार के एक परिचित एलआईसी के बड़े अधिकारी थे...अच्छी सेलरी थी...कमीशन भी अच्छा खासा बन जाता था...घर में चार बेटे थे...लेकिन उन जनाब ने कभी अपना मकान बनाने की कोशिश नहीं की...हमेशा किराए के मकान में ही गु़ज़ारा किया...हां चारों बेटों की पढ़ाई पर पूरा ध्यान दिया...एक वक्त ऐसा आया कि चारों बेटों को अच्छे जॉब मिले...चारों ने ही अपने अपने मकान बना लिए...पिता फिर भी किराए के मकान पर ही रहते रहे...हां उन्होंने खुद नौकरी करते वक्त इतना ध्यान ज़रूर रखा कि वृद्धावस्था के लिए अच्छा निवेश होता रहे...आर्थिक रूप से वो रिटायर होने के बाद भी किसी बेटे पर आश्रित नहीं हुए...इस सब का असर ये हुआ कि चारों बेटे ही लालायित रहते थे कि माता-पिता उनके पास कुछ दिन आकर रहें...सब सेवा भी पूरी करते थे...लेकिन उन्होंने अपने अलग घर में रहना नहीं छोड़ा...एक दिन मेरे पापा से उन्होंने बातचीत के दौरान बताया था कि अगर मैं अपना मकान बना लेता तो शायद आज मेरे चारों बेटों के अपने मकान नहीं होते...हो सकता था कि वो चारों उसी में हिस्से के लिए आपस में भिड़ते रहते...बचपन से ही वो निश्चिंत हो जाते कि रहने के लिए अपना मकान तो है ही... वो अंकल मज़ाक में ये भी कहते थे कि बेवकूफ़ मकान बनाते हैं और समझदार उसमें रहते हैं...वाकई उन्होंने रिटायर होने के बाद भी अपना वक्त बड़ी शान से गुज़ारा...जब जी आता था, कहीं भी चले जाते थे...उनके घर में जब सारा परिवार इकट्ठा होता था तो रौनक देखते ही बनती थी...अंकल की इस कहानी पर वो कहावत पूरी सटीक बैठती थी- पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय...


खैर इस सच्चे किस्से के बाद अपने मूल विषय पर आता हूं...बुजुर्गों की बात कर रहा हूं तो ऐसा नहीं है कि सारी संतान गलत ही होती हैं...अब भी ऐसे कई बेटे-बेटियां मिल जाएंगे जो जीवन की इस रफ्तार में भी वक्त निकाल कर माता-पिता का पूरा ध्यान रखते हैं...लेकिन हमारे महानगरों में सामाजिक दृश्य तेज़ी से बदल रहा है...यहां चाह कर भी लोग अपने बुज़ुर्गों के लिए वक्त नहीं निकाल पा रहे हैं...दिल्ली में ऐेसे कई बूढ़े मां-बाप मिल जाएंगे जिनके बच्चों ने अच्छे करियर की तलाश में सात समंदर पार जाकर आशियाने बना लिए हैं...अब उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है...ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं जहां ऐसे बुज़ुर्ग दंपत्तियों को आसान टारगेट मानकर अपराधियों ने अपना शिकार बना लिया...

इसके अलावा भी आजकल हर कोई अपना जीवन अपने हिसाब से जीना चाहता है...रोक-टोक किसी को आज बर्दाश्त नहीं है...इसलिए घरों में तनातनी बढ़ रही है...ये भी नहीं कि हर जगह संतान ही गलत हो...कई जगह बुज़ुर्ग भी नई परिस्थितियों में खुद को ढाल नहीं पाते...वो समझ नहीं पाते कि उनकी संतान को कितनी आपाधापी और गलाकाट माहौल में अच्छे जीवन के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है...उन्हें खुद अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ रही है...कई जगह बुज़ुर्ग ये नहीं समझ पाते कि जैसे उन्होंने अपनी औलाद के लिए सब कुछ सहा, वैसे ही अब वो भी तीसरी पीढ़ी के लिए मशक्कत कर रहे हैं...दूसरी तरफ़, संतान भी पूरे दिन में पांच मिनट भी बूढ़े मां-बाप के लिए नहीं निकाल सकती...उनके पास शांति से बैठकर हंस-बोल नहीं सकती...

घर में झगड़े न भी हों, फिर स्वावलंबन में कोई बुराई नहीं है...बुज़ुर्गों को सब कुछ आंखें मूंद कर औलाद को सौंपने से पहले ऊपर बताई सब परिस्थितियों का भी ध्यान रख लेना चाहिए...जो मैं लिख रहा हूं, उसी संदर्भ में मैं आपको नोएडा में वृद्धों के लिए चलाए जा रहे एक आश्रम का हवाला देता हूं...



आनंद निकेतन नाम से चल रहा ये आश्रम मेरी नज़र में वृद्धों की समस्या का श्रेष्ठ उपलब्ध समाधान है...इस आश्रम में सौ से ज़्यादा बुज़ुर्ग रह रहे हैं...कुछ जोड़े भी हैं जिन्हें अलग रूम दिए गए हैं.कुछ को यहां घर में तनाव के चलते आना पड़ा तो कुछ राजी खुशी ही यहां आकर रह रहे हैं...आनंद निकेतन शांतिप्रिय लोकेशन और पॉश सेक्टर के बीच बना हुआ है....बिल्डिंग के दोनों तरफ विशाल लॉन हैं...यहां प्रति बुज़ुर्ग चार से पांच हज़ार रुपये महीना चार्ज किया जाता है...लेकिन जो सुविधाएं दी जाती हैं उसकी तुलना में ये रकम कुछ भी नहीं है...समय से नाश्ता, दोनों टाइम का भोजन...भजन-कीर्तन, योगा से लेकर हर चीज़ का टाइम फिक्स है...आश्रम के खुद के डॉक्टर होने के साथ यहां हर वक्त एंबुलेंस की भी व्यवस्था रहती है...थोड़े-थोड़े वक्त बाद हर बुजुर्ग का चेकअप होता रहता है....इन सभी बुज़ुर्गो ने यहां रिश्तों की एक अलग दुनिया ही बना ली है...अपनों से अलग होने का दर्द तो है लेकिन मलाल नहीं है...इन सबका आपस में बहुत अच्छा वक्त पास हो रहा है...यहां कई ऐसे बुजुर्ग भी है जिनके बच्चे विदेश चले गए हैं...अब वो आश्रम में अपनी मर्जी से रह रहे हैं...अकेले किसी कॉलोनी में रहते तो हमेशा सिक्योरिटी का डर सताता रहता...ऐेसे बुज़ुर्ग भी दिखे, जो तमाम दुश्वारियां सहने के बाद भी अपने बच्चों को दुआ ही देते हैं...एक महिला ऐसी भी दिखी जिनका पुत्र उन्हें यहां इसलिए छोड़ गया है क्योंकि उसकी पत्नी धमकाती रहती थी कि अगर ये घर में रही तो वो खुदकुशी कर लेगी...एक बुज़ुर्ग ऐसे भी थे जिनके बेटे के पास एक बेडरूम का ही मकान था...इसलिए घर में पर्याप्त जगह न होने की वजह से बुज़ुर्ग खुद ही अपनी इच्छा से आश्रम में आ गए....


मेरा ये सब बताने का मतलब यही है कि ऐसे आश्रम में भी रहना है तो आपको आर्थिक रूप से थोड़ा मज़बूत तो होना ही पड़ेगा...इसलिए सीनियर सिटीजन बनने से पहले ही ऐसी अवस्था के लिए थोड़ा धन बचाते रहने में कोई बुराई नहीं है...अगर संतान आपकी सम्मान करने वाली है तो इससे अच्छी तो कोई बात ही नहीं हो सकती...एक-दूसरे की ज़रूरतों का ध्यान रखते हुए साथ रहना सबसे आदर्श स्थिति है...लेकिन दुर्भाग्यवश ये स्थिति न हो तो आपको एक-दो विकल्प हमेशा हाथ में ज़रूर रखने चाहिए...किसी पर आश्रित होने की जगह अपने हाथ जगन्नाथ पर ही सबसे ज़्यादा भरोसा करने में समझदारी है...

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16 टिप्पणियाँ
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  1. खुशदीप जी, जिन सज्जन की बात आप कर रहे हे, उन्होने सही फ़ेंसला किया, मकान ना बना कर, हमे थोडा पेसा अलग से भी जोडना चाहिये ओर बच्चो को अच्छि से अच्छी शिक्षा भी दिलानी चाहिये,लेकिन उन्हे शुरु से ही एहसास करवा देना चाहिये कि जीवन के अंत तक हम तुम्हारे सहारे की इच्छा नही रखते, ओर उन की शादी व्याह के बाद उन की जिनद्गी मै भी ज्यादा नोंक झोंक नही करनी चाहिये,अगर बच्चे अच्छे निकले तो ठीक वरना वेसे भी ठीक ही होगा, मैने बहुत से लोग देखे हे, अपना ओर बच्चो का पेट काट कर मकान बनाते हे, बेंक बेलेंस बनाते हे,ओर फ़िर बच्चे उन की कोई कदर नही करते..... फ़िर तो यही कहेगे कि....पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय...

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  2. यह सोचकर पहले से कि पुत्रादि किस प्रकार भविष्य में निभायेंगे, माँ-पिता एक उपयोगी आधार बना कर जाते हैं।
    वृद्धाश्रम में रहने से मन तो अवश्य लगेगा, पर परिवार का विशेष महत्व है सबके जीवन में।

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  3. खुशदीप भाई ,
    दूसरा पहलू यह भी है कि क्या हम अच्छे माँ बाप हैं ? क्या हमने अपने बच्चे के लिए वह सब किया जो हमें करना चाहिए ! मैं ऐसे बहुत से माँ बाप को जानता हूँ जिन्होंने बेटे की तुलना में बेटी के लिए कुछ नहीं किया शायद यही सोंच कर कि बेटा काम आएगा मगर कई बार इसका उल्टा होता है ! नैतिक मूल्यों का हर जगह ह्वास ही देखने को मिलता है !
    खैर बढ़िया और आवश्यक लेख के लिए आभार !

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  4. सन्तान यदि बुजुर्गों का ध्यान रखने में रुचि न लेती दिखे और पिता के पास अपना खुदका बनाया मकान भी हो तो पिता द्वारा द्वारा उस मकान पर बैंक से रिवर्स माडगेज लोन लेकर अपने व अपनी पत्नि के जीते जी प्रति माह एक निश्चित धनराशि स्वयं के खर्च हेतु बैंक से प्राप्त कर अपना शेष जीवन सुविधापूर्वक जी सकने के विकल्प पर आप क्या सोच रखेंगे ?

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  5. सुशिल जी की बात से सहमत होते हुए मैं भी यही कहना चाहूँगा कि अपने बुढ़ापे का इंतजाम खुद ही करना चाहिए । पिता का फ़र्ज़ बच्चों को पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाकर पूरा हो जाता है । उसके बाद उनकी अपनी मेहनत ही काम आती है ।

    आजकल रिवर्स मोट्गेज एक अच्छा जरिया है , बुढ़ापे को आर्थिक रूप से सुरक्षित करने का ।
    यदि आप आर्थिक रूप से सुरक्षित हैं और अपने मकान में रह रहे हैं तो औलाद भी आपकी कद्र अवश्य करेगी । क्यों बच्चों पर बोझ बनना है । आखिर सबको अपनी जिंदगी जीने का हक़ है ।

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  6. भाई!
    वे एलआईसी के अधिकारी थे। बचत के बारे में उन से अधिक समझने वाला कौन हो सकता है?
    लेकिन देश में अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें बचत का अवसर कैसे भी नहीं मिलता। वे अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए ही चुक जाते हैं। उन का क्या?

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  7. जब तक आपके हाथ में पैसे की ताकत है और मन में स्‍वाभिमान की, आप सुखी रहेंगे। विदेशों में वृद्धजन सरकार की जिम्‍मेदारी हैं इसलिए सरकार उन्‍हें अच्‍छी पेंशन देती है लेकिन भारत में अभी तक वृद्धजन परिवार की जिम्‍मेदारी हैं इसलिए यह कठिनाई आ रही है। अभी भी जहाँ परिवार व्‍यवस्‍था सुदृढ़ हैं वहाँ वृद्धजनों का सम्‍मान सुरक्षित है।

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  8. -हर किसी को बुज़ुर्ग होने से पहले सचेत हो जाना ज़रूरी है
    -बच्चों को शिक्षित और सक्षम करना हर किसी की प्राथमिकता होनी चाहिए किन्तु अपना जीवन भी अपनी तरह से जीने के बारे में नहीं भूलना चाहिए...
    -सार्थक लेख
    -सलाह है कि उन बुजुर्गों को नेट और ब्लोगिंग से परिचय करवाएं.. अनुभवों की बहुमूल्य धरोहरें समय की गर्त में डूबने से बचाने का अनुपम तरीका है ये

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  9. सबसे पहले नमन जोशी जी को कि उन्होंने बड़ी धांसू टिप्पणी की. यह गुण मैं भी सीखना चाहूंगा.
    कहावत बिल्कुल ठीक है. मकान तो अब वैसे भी कोई म्ध्यम आय वाला माई का लाल एक नम्बर से तो नहीं बना सकता क्योंकि मात्र ३९ लाख से फ्लैट मिल रहे हैं..
    आपकी पोस्ट से एक सीख कि एक बी प्लान तैयार रखना चाहिये.

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  10. कुछ कह सकने की स्थिती मे नही क्योंकि बेटियों वालों को तो रहना ही अकेले पडता है। इस उम्र मे जब बेटे बेटियों मे फर्क की बात करते हैं तो फर्क नज़र आता है। सभी बेटे एक जैसे नही होते लेकिन ऐसे केस देख कर लगता है कि अच्छा हुआ बेटा नही है। वैसे बेटी वालों को तो जरूरत रहती है वृ्द्ध आश्रम की , हमारे लिये भी एक कमरा बुक करवा दो ना। जब हाथ पाँव रह जायेंगे तो वहीं जाना पडेगा। आँखें नम सी हो गयी पता नही क्यों। आशीर्वाद।

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  11. ्सही कह रहे हैं खुशदीप जी आज के ज़माने मे भविष्य के प्रति तो सोचना ही चाहिये और हाथ मे पैसा तो होना ही चाहिये बिना पैसे के तो इंसान एक कदम नही चल सकता।

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  12. ऐसे कई बुज़ुर्ग हैं जो कहते हैं कि अंत में पैसा ही काम आता है । हमारे देश में वृद्ध जन भिन्न भिन्न परिस्थितियों में जीवन यापन करते हैं , गाँवों मे और शहरों में अलग अलग जीवन पद्धति है। इसका अर्थ यह नहीं है कि गाँवों में रहने वाले वृद्ध जन अपनी वृद्धावस्था में सुखी रहते हैं । वहाँ अर्थाभाव एक प्रमुख कारण होता है । लेकिन वृद्ध जनों के प्रति व्यवस्था की भी कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं जो तय होनी चाहिये ।

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  13. बहुत ही प्रासंगिक मुद्दा उठाया है खुशदीप जी, आपके ब्लॉग पर हमेशा ही आता हूँ पर इस बार इन ३ कड़ियों को पढ़ने के बाद यहां कुछ कह जाने कि इच्छा हुई.

    वृद्धावस्था जीवन कि सांझ है, इस सांझ को खुशनुमा बनाना औलाद के ही हाथ है. यह रिश्ता दो पटरियों के सामान है, जहाँ एक दूसरे के साथ कुछ दूरी बनाते हुए संतान तथा माता-पिता एक दूसरे के पूरक हों तो ज़्यादा अच्छा.

    मनोज

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