भारत को आखिर ठीक कौन करेगा...खुशदीप

अजित गुप्ता जी ने अपनी पोस्ट पर बड़ा ज्वलंत मुद्दा उठाया- पता नहीं हम अपने देश भारत से नफरत क्‍यों करते हैं? ...बड़ी सार्थक बहस हुई...एक से बढ़ कर एक विचार कमेंट्स के ज़रिए सामने आए...अजित जी ने भारत की तुलना ऐसे राजकुमार से की जो अनेक रोगों से ग्रसित हो गया और राजकुमारी (ब्रिटेन) जितना लूट सकती थी, उसे लूट कर भाग गई...अब बड़ा सवाल ये है कि इस लुटे-पिटे राजकुमार की सेहत को फिर से कैसे दुरूस्त किया जाए...मेरा मानना है सिर्फ उपदेश की शैली में भाषण झाड़ने से बात नहीं बनेगी...

अजित जी और उनकी पोस्ट पर आए विचारों को पढ़कर मेरा ये विश्वास मज़बूत हुआ है कि हिंदी ब्लॉगिंग ने सार्थक दिशा की ओर बढ़ना शुरू कर दिया है...मेरा मानना है कि अजित जी के इस प्रयास को अंजाम तक पहुंचाने के लिए हम बाकी सब ब्लॉगर्स भी अपनी भूमिका निभाएं...मेरे विचार से एक-एक कर हम सब अपनी पोस्ट पर देश के मुंहबाए खड़े किसी मुद्दे को उठाए और विचार मंथन करे कि उसके निदान के लिए क्या-क्या किया जा सकता है...इस दिशा में आज मैं अपनी ओर से वो मुद्दा उठा रहा हूं जिसे मैं भारत की हर समस्या (गरीबी, भूख, भ्रष्टाचार, आतंकवाद) का मूल मानता हूं...ये मुद्दा है शिक्षा का....मेरी समझ से अगर इस मुद्दे पर आज ठीक से ध्यान दिया जाए तो उसका फल बीस-पच्चीस साल बाद मिलना शुरू होगा...लेकिन कभी न कभी तो पहल करनी ही होगी...

देश में शिक्षा पर सबसे ज़्यादा निवेश किया जाना चाहिए...इस निवेश का फायदा आज नहीं तो कल ज़रूर मिलेगा...देश के हर बच्चे को शिक्षा दिलाने की ज़िम्मेदारी सरकार ले...इसके लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाए....किसी हकीम ने थोड़े ही कहा है कि हर बच्चा ग्रेजुएट बनने के बाद ही सम्मान का हकदार हो सकता है...देश में ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं अपनाई जाती जिसमें बिना जाति, मजहब, देखे छोटी उम्र में ही बच्चों की स्क्रीनिंग कर ली जाती...ये क्यों नहीं तय कर लिया जाता कि आखिर बच्चे में कितनी प्रतिभा है और वो किस फील्ड में ज़्यादा बेहतर कर सकता है...मान लीजिए ये तय हो गया कि किसी बच्चे में एथलीट बनने के लिए अच्छा पोटेंशियल है...तो फिर उसे क्यों नहीं दिन रात उसके खेल की विधा की प्रैक्टिस कराई जाती...किताबी शिक्षा उसे उतनी ही दी जाए जितने में वो अपना रोज़मर्रा का काम चला सके...उसका मुख्य ध्येय अपने खेल में ही अव्वल बनने का होना चाहिए...विदेश की तरह ही छोटे बच्चों को शिक्षा से पहले पंचर, फ्यूज़ लगाना, नल ठीक करना जैसे व्यावहारिक कार्य सिखाए जाएं...

कपिल सिब्बल देश की शिक्षा पद्धति में क्रांतिकारी सुधार लाना चाहते हैं...पूरे देश में एक सिलेबस कर देना चाहते हैं...मेडिकल, आईआईटी में दाखिले के इम्तिहानों का फॉर्मेट बदल देना चाहते हैं...लेकिन सिब्बल साहब के साथ दिक्कत ये है कि देश के बहुत बड़े वकील होने की वजह से इन्हें अभिजात्य वर्ग से माना जाता है...एक सिलेबस क्या इस देश में मौजूदा हालात में संभव है...बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव का बच्चा भले ही दिमाग से कितना तेज़ हो लेकिन क्या अंग्रेज़ी बोलने में दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों के पांचसितारा स्कूलों के बच्चों के सामने टिक सकता है...मेरी राय से सिब्बल साहब को देश के दूरदराज के गांवों में जाकर पहले ज़मीनी हक़ीक़त से रू-ब-रू होना चाहिए...फिर शिक्षाविदों और समाजशास्त्रियों के साथ बैठकें कर देश की शिक्षा का विज़न तैयार करना चाहिए...हड़बड़ी में कदम उठाने की जगह ठोकबजा कर आगे बढ़ना ही बुद्धिमत्ता होगी...वरना वही हाल न हो जाए चौबे जी छ्ब्बे जी बनने चले और दूबे जी रह गए....

अब मैं ब्लॉगजगत के सामने एक सवाल रखता हूं...क्या देश में हर बच्चे को ग्रेजुएट बनाना ज़रूरी है...हमारे देश के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों से जिस तरह के ग्रेजुएट निकल कर आ रहे हैं, उससे देश का क्या भला होने जा रहा है...हमारे देश में कितनी नौकरियां हैं जो ग्रेजुएशन करते ही हमारे नौजवानों को मिल जाएं... पहले ही देश में विश्वविद्यालयों की कम भरमार थी जो अब सरकार विदेशी विश्वविद्यालयों को भी देश में पैर जमाने के लिए न्यौता देना चाहती है...




मैं आपको मेरठ का अनुभव बताता हूं...आसपास कृषि प्रधान भूमि होने की वजह से गांव-कस्बों से बच्चे बड़ी संख्या में मेरठ कालेज या दूसरे कालेजों में पढ़ने आते हैं...मुझे अच्छी तरह याद है कि कुछ लड़के उस भले वक्त में किसान पिता से कहते थे कि ब्लॉटिंग पेपर की ज़रूरत है, इसलिए पांच सौ रुपये भेज दो...अब बेचारा किसान पिता किसी तरह भी पेट काटकर बेटे को पैसे का इंतज़़ाम कर भेजता...गांव से एक बार बच्चा शहर की हवा में पढ़ने आ जाए तो फिर वो गांव लौटकर किसानी या फार्मिंग करने की नहीं सोचता...उसे ग्रेजुएट या पोस्टग्रेजुएट होने के बाद शहर में ही कोई बढ़िया नौकरी चाहिए...बेशक इम्तिहान किसी भी तरीके से पास किया गया हो...ऐसी डिग्रियों की नौकरी की रेस में कोई वैल्यू नहीं होती...देश में नौकरियां आखिर होती ही कितनी हैं, जो ढंग की नौकरियां हैं वो ढंग के विश्वविद्यालयों से ढंग की पढ़ाई करने वाले छात्र ही पाते हैं...फिर थोक के भाव से निकलने वाले निम्न स्तर के विश्वविद्यालयों से निकले छात्र कहां जाए...शहर आकर बाइक, मोबाइल, जींस और पैरों में स्पोर्ट्स शू जैसे चस्के भी लग जाते हैं...आखिर पिता भी कब तक पैसे की फरमाइश पूरी करते रहें...रोज़गार मिलने से रहा...ऐसे में एक सी सोच के कुछ बेरोज़गार लेकिन बेहद एंबिशियस दिमाग मिलते हैं तो रातों रात कामयाब बनने के लिए अपराध के रास्ते में भी कोई बुराई नज़र नहीं आने लगती...ऐसी रिपोर्ट आती रहती हैं कि पढ़े लिखे जवान ही गैंग ऑपरेट करने लगते हैं...ऐसा हो रहा है तो ये सरकार, सिस्टम के साथ हम सब की भी हार है....हम इस सिस्टम से अलग नहीं है, इस सिस्टम में खामियां हैं तो उन्हे दूर भी हमें ही करना है...कोई बाहर वाला नहीं आएगा हमें इस अंधे कुएं से निकालने के लिए...कृपया सभी सुधी ब्लॉगर जन खुलकर इस मुद्दे पर अपनी राय रखें, साथ ही अपनी-अपनी पोस्ट में बहस के लिए इसी तरह के मुद्दे उठाएं, जिससे ब्लॉगजगत का एक अलग ही चेहरा देश को देखने को मिले..

याद रखिए...

न अमीरों से बदलेगा, न वज़ीरों से,
ये ज़माना बदलेगा तो बस हम फ़कीरों से...

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26 टिप्पणियाँ
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  1. शिक्षा पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यक्ता है।
    आज शिक्षा, ज्ञान व कौशल प्राप्त करने की जगह मात्र अंक अर्जित करने का माध्यम बन गई है,क्योकि योग्यताएं प्रमाणपत्रों की मोहताज़ है।

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  2. ग्रेजुएट होने और शिक्षित होने में बहुत फरक है. शायद शिक्षा प्रणाली और सोच में ही परिवर्तन की आवश्यक्ता है. उपयोग के लिए पढ़ाई और पढ़ाई की उपयोगिता का भेद करना सीखना होगा. जल्द ही पोस्ट लिखते हैं.

    आवश्यक विमर्श है.

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  3. जहां तक खेती की बात है...खेती तो आज कोई भी नहीं करना चाहता. (अलबत्ता खेती करवाना अलग बात है).

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  4. १-क्या देश में हर बच्चे को ग्रेजुएट बनाना ज़रूरी है
    @ नहीं कोई जरुरी नहीं बच्चे की प्रतिभा के हिसाब से उसे उसके लायक शिक्षा देनी चाहिए अगर कोई बच्चा पढने में कमजोर है तो उसे कालेज के बजाय पोलिटेक्निक में कोई तकनिकी शिक्षा देनी चाहिए |
    २-.हमारे देश के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों से जिस तरह के ग्रेजुएट निकल कर आ रहे हैं, उससे देश का क्या भला होने जा रहा है
    इससे देश का कोई भला नहीं हो रहा बल्कि इस तरह की डिग्रियां बेरोजगारों की भीड़ बढ़ा रही है
    ३-हले ही देश में विश्वविद्यालयों की कम भरमार थी जो अब सरकार विदेशी विश्वविद्यालयों को भी देश में पैर जमाने के लिए न्यौता देना चाहती है
    @ ये भी अभिभावकों को और ज्यादा लूटेंगे

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  5. आज शिक्षा का असल मतलब ही बदल गया है शिक्षा जो कभी चरित्र का विकाश,इंसानी सम्बेद्नाओं की जानकारी तथा बुराइयों को देश व समाज से मिटाने की संकल्प हुआ करता था वही शिक्षा आज सारी बुराइयों के सहारे दुकानों सा व्यवहार करते हुए विद्यालयों के रूप में चल रहें है ,जहाँ बच्चों और अभिभावकों को हर तरीके से ठगा जाता है और यह ठगी का धन का किसी न किसी रूप में अपने फायदे के रूप में उपभोग इस देश के शिक्षा मंत्री ,प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति तक के सम्मानीय पदों पर बैठे व्यक्ति भी कर रहें हैं | यह सब पदों पर बने रहने का लालच व देश व समाज के लिए कुछ करने के बाद पदों पर बने रहने में आने वाले खतरे को नहीं उठाने की कमजोरी के वजह से हो रहा है | आज शिक्षा मजबूत चरित्र नहीं बल्कि जोड़-तोर सिखा रही है ,ईमानदारी नहीं बल्कि ठगी और बेईमानी सिखा रही है | हमारे देश के शिक्षा और शिक्षा निति का यही हाल रहा तो आने वाले दस वर्षों में अशिक्षित लोग ज्यादा चरित्रवान व इमानदार होंगे और ऐसे लोगों पर ही देश व समाज को नाज होगा |

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  6. ..मेरे विचार से एक-एक कर हम सब अपनी पोस्ट पर देश के मुंहबाए खड़े किसी मुद्दे को उठाए और विचार मंथन करे कि उसके निदान के लिए क्या-क्या किया जा सकता है..

    बहुत सराहनीय विचार है खुशदीप जी आपका, धन्‍यवाद.

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  7. हम सब एक अंडे में बंद हैं, खोल तोड़ने के लिए तो खुद ही चोंच मारनी होगी।

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  8. विषय का चुनाव ऐसा किया है आपने कि इसमें एक लम्बे बहस की जरूरत है. अभी तक जो चर्चा सामने आई, वह सार्थक है. विचार सराहनीय व अनुकरणीय हैं.

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  9. खुशदीप जी पहले तो आपका बहुत आभार। मेरा बहुत दिनों से यही प्रयास था कि हम ब्‍लागिंग पर सार्थक चर्चा करें, आपने इस बात को समझा और बात को आगे बढाया। भारत में शिक्षा की आवश्‍यकता है इससे किसी को भी एतराज नहीं होगा। लेकिन शिक्षा के साथ ज्ञान बहुत जरूरी है। हमारी शिक्षा व्‍यवहारिक हो ना कि हम ऐसी शिक्षा दें जो अन्‍य देशों के लाभ की हो। हमारे कुटीर उद्योग आज बन्‍द हो गए हैं यदि हम ग्रामीण शिक्षा को कुटीर उद्योग के लिए विकल्‍प के रूप में लागू करें तो बहुत ही अच्‍छे परिणाम आएंगे। जैसे हमारे यहाँ पूर्व में शिक्षा प्रणाली थी रोजगार आधारित वैसे ही आज करना होगा। निरर्थक बीए कराने से कुछ नहीं होगा। खैर यह बहुत लम्‍बी बहस का विषय है और क्रान्तिकारी परिवर्तन की आवश्‍कता है। राजस्‍थान के जनजातीय ग्रामों में एक प्रयोग हुआ है कि वहाँ कि पढी-लिखी दसवीं पास बहु को टीचर बनाया जाएगा। यहाँ के शिक्षा का प्रतिशत रातो-रात बदल गया है। अब हर लड़की पढ़ रही है और हर गाँव वाले पढी-लिखी बहु को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। इसी के साथ कुटीर उद्योग, पशुपालन पर भी ध्‍यान दिया जाए तो हमारे देश की तस्‍वीर रातो-रात बदल सकती है।

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  10. हर कोई ग्रेजुएट होकर तीर नहीं मार लेगा वरन बेरोजगारी ही बढेगी।

    कम पढा वो हल से गया,
    ज्यादा पढा वो घर से गया।

    रोजगार मूलक पाठ्यक्रमों से बेरोजगारी दूर होगी।

    रोजगार के अधिकार को संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों में सम्मिलित किया जाए। जिससे स्वयंरोजगार को बढावा मिलेगा।

    बाकी तो अजित गुप्ता जी की पोस्ट पर कह आया था।

    जय हिंद

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  11. बहुत बढ़िया लेख खुशदीप भाई ,
    आधी समस्याओं की जड़ अशिक्षा है , अभी हालत यह है कि लोग अखबार में छपी किसी भी नसीहत को ब्रह्मवाक्य मान लेते हैं ! "कहीं लिखा हुआ दिखाओ तो माने " बहुत प्रचलन में हैं हम सबके घरों में ! अब लिखने वाले कैसे कैसे हैं यहाँ ये खुशदीप भाई आप खूब जानते हैं !
    अजीत गुप्ता जी हमेशा से ही प्रभावित करती रही हैं !
    शुभकामनायें !

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  12. हमारे देश में अपनी स्वयं की शिक्षा नीति ही कहाँ है? मैकॉले की बनाई हुई बाबू बनाने वाली शिक्षा ही तो आज भी दी जा रही है। ऐसी शिक्षा का क्या फायदा जो किसान के बेटे को किसानी से, लोहार के बेटे को लोहारी से अर्थात् ऐसे कार्यों से जिन्हें करने से अपना स्वाभिमान बना रहे, विमुख कर दे?

    हमारी प्राचीन शिक्षा नीति में तो कृष्ण को भी सुदामा के साथ लकड़ी काटने की शिक्षा दी जाती थी ताकि यदि कभी दुर्दिन आ जाये तो भी वह अपनी आजीविका चलाने में समर्थ रहे।

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  13. खुशदीप जी, सर्वप्रथम तो ब्लॉगजगत में आपका और अजित जी का ये एक वाकई सार्थक प्रयास है. समय मिलते ही मैं भी इस पर अपने कुछ विचार अवश्य लिखूंगा. जैसा कि कई सुधि पाठकों ने कहाँ है शिक्षित होना और समझदार होने में फर्क है. शिक्षा से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है लेकिन उस ज्ञान को व्यक्ति कैसे उपयोग करता है इससे उस व्यक्ति की समझदारी झलकती है. देश में आज Civic Sense की कमी है. हर कोई इस आपाधापी में लगा है कि दुरसे को उल्लू बना कर अपना उल्लू सीधा कैसे किया जाये. आज देश में इतने शिक्षित लोग है लेकिन क्या भ्रष्टाचार पर लगाम लगी ? मेरे विचार से देश को अगर ठीक रास्ते पर लाना है तो :
    १. नेताओ की और सरकारी कर्मचारियों की जवाबदेही तय हो. अगर वो उस मापदंड पर या चुनाव से पहले किये हुए अपने किये हुए अपने वादों को पूरा नहीं कर पाते तो उस व्यक्ति या उसके परिवार में किसी को पुन सरकारी नौकरी या नेता के टिकट के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाए.
    २. न्यायलय संगीन / भ्रष्टाचार के मामलो के निपटारे में एक निश्चित समय सीमा निर्धारित करे. गलत सबूत पेश करने पर और झूठी गवाही देने वालो पर और उन्हें दिलवाने वाले वकील पर नकेल कसी जाए.
    ३. व्यावसायिक शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया जाए ताकि पढ़ लिख कर युवा नौकरी का मुंह ताकने की बजाये खुद एक छोटा मोटा उद्यमी बन सके.

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  14. @ bhavesh ji ki baaton se shat-pratishat sahmat hun...
    isi vishay par maine bhi kuch kahne ki koshish ki hai..
    aapka aabhar..

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  15. बहुत ही सही मुद्दा उठाया है आपने ...
    हमारी शिक्षा नीति पर ध्यान केन्द्रित करने की जरुरत है ...सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं , व्यवहारिक ज्ञान भी दिया जाना चाहिए जिससे हम अकर्मण्यों की फौज तैयार ना करें ...
    इस दिशा में कई स्वयंसेवी संस्थाएं बहुत अच्छा कार्य कर रही हैं मगर उनकी सीमायें है ..यदि यह सरकार स्तर पर हो तो ज्यादा लोग लाभान्वित होंगे ..
    शिक्षा के क्षेत्र में लर्न बाय फन के संस्थापक श्री पुरुषोत्तम अग्रवाल जी (इंदौर )इस दिशा में सार्थक प्रयास कर रहे हैं ..
    रचनात्मक पोस्ट ...अच्छी बहस ...
    ब्लॉगजगत में इस तरह की शुरुआत शुभ संकेत है ...!

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  16. CHOTI-CHOTI BATON SE KHUSHI DENE WALE
    KHUSDIP BHAIJEE KO KUCHH JARURI MUDDE
    PAR VAICHARIK SAMARTHAN DENE WALA BLOGGERS
    COMMENTORS AUR PATHAK KO SACHHE HRIDYA SE
    PRANAM

    SHAILENDRA JHA
    CHANDIGARH

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  17. खुशदीप भाई, बहुत ही बेहतरीन मुद्दा उठाया है आपने, केवल हमारे देश ही को नहीं बल्कि पूरी मानवजाति को हमेशा से ही शिक्षा की ज़रूरत रही है. हम तो शिक्षा के मामले में विश्व गुरु थे, लेकिन आज की शिक्षा पद्धति ने सब गुड गोबर कर दिया है. आज किताबी शिक्षा के साथ-साथ व्यवहारिक शिक्षक की भी अति-आवश्यकता है. हमारे बच्चो के अन्दर डिसिप्लिन तथा रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के सम्बंधित विषयों का ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है. इतनी सार्थक सोच और गंभीर विषय को सबके सामने लाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. इस पर अवश्य ही सभी ब्लोगर बंधुओं को विचार करना चाहिए.

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  18. "भारत की हर समस्या (गरीबी, भूख, भ्रष्टाचार, आतंकवाद) का मूल मानता हूं...ये मुद्दा है शिक्षा का.."
    पर मुझे नहीं लगता है की शिक्षा से इनमे से कुछ भी मिटने वाला है जो जितना ज्यादा पढ़ा लिखा जीतनी ऊँची पोस्ट पर वो उतना ही ज्यादा भ्रष्ट ,रही बात आतंकवाद की तो एक समय था जब अनपढ़ गवार को बहका के आतंकवादी बना दिया जाता था अब तो पुरे विश्व में एक से एक पढ़े लिखे लोग आतंकवादी बनते जा रहे है वो तो अपनी पढाई का प्रयोग ही इस क्षेत्र में कर रहे है और गरीबी तथा भूख शिक्षा से नही जाने वाली वो तो और बेरोजगारी बढ़ा रही है | हमारे देश में एक ग्रेजुएट खुद को किसी बैरिस्टर से कम नहीं समझता भूखे मरने की नौबत जब तक ना आ जाये तब तक शारीरिक श्रम वाला रोजगार नहीं करता | ये स्नातक जिनको "परजातंत्र " और लोकतंत्र का अर्थ न पता हो ( इस विषय पर मैंने एक पोस्ट लिखी थी ) वो क्या देश सुधार सकते है |
    "छोटी उम्र में ही बच्चों की स्क्रीनिंग कर ली जाती...ये क्यों नहीं तय कर लिया जाता कि आखिर बच्चे में कितनी प्रतिभा है और वो किस फील्ड में ज़्यादा बेहतर कर सकता है...मान लीजिए ये तय हो गया कि किसी बच्चे में एथलीट बनने के लिए अच्छा पोटेंशियल है...तो फिर उसे क्यों नहीं दिन रात उसके खेल की विधा की प्रैक्टिस कराई जाती.."
    इस प्रतिभा को पहचनाने की प्रतिभा किसमे है जो शिक्षक कक्षाओ में न जाता हो जाता हो तो बस किताब बाच कर चला जाता हो जिसमे खुद कोई ज्ञान न हो वो दुसरे को क्या सिखाएगा | ये शहरों की हालत है गावो में तो टीचर सिर्फ वेतन लेने के लिए ही स्कुल जाते है | सरकार जितना शिक्षा पर खर्च कर रही है और जीतनी योजनाए चला रही है यदि वो सारी भी भ्रष्टाचार से मुक्त हो कर पुरा हो तो वो भो काफी है देश में शिक्षा के प्रसार के लिए यानी घूम के बात फिर वही भ्रष्टाचार पर आ गई |
    पर बात शिक्षा की हो रही है तो पहले तो हमारे देश के शिक्षको को शिक्षित किया जाये फिर शिक्षा पद्यति को सुधार जाये फिर शिक्षा दी जाये तब शायद बात बन सकती है |

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  19. इस पर मै अपने बेटे वत्सल के विचार रखना चाहती हूँ....जो उसने इस पोस्ट पर व्यक्त किए....http://joshiarpit.blogspot.com/2010/06/technical-education-in-gujarat-present.html

    vatsal said...

    Hello Arpit,

    Nice article, even loved the comments that are flowing and the direction that the conversation is heading ...I personally am of a totally different opinion altogether...


    let me take you there step by step..

    Step 1. I am in KG ... I learn abcd I learn drawing.I definitely don't know what I am going to do with my life.

    Step 2. I am in Third. I learn logo
    ...I am in love with my Bi-cycle ...I still don't know what i am going to do with my life but my grandpa says I ll be an engineer.

    Step 3. I am in fifth I learn kho-kho and learn tabla ...I still love my Bi-cycle ...Oh yes I want to be like my mama ...

    Step 4. I am in sixth I learn dancing ...I learn Karate...Computers are my first love now. I want to kick like bruce lee.

    Step 5. I am in ninth I learn swimming...we do some crafty project in science and won ...
    I am confused what I am going to be.

    Step 6. I just barely passed my tenth...so basically everyone counsels me to take science because there is no one to guide me otherwise at home ...I decide so to opt for science and computers... of course you can't forget your childhood love...

    Step 7. I am in twelfth, I learn Volley-Ball, I am cultural head of my school I do dance for my "yellow house " I do painting for my school I even went far to actually conduct assembly and give speeches I also am half drowsy at my coaching which apparently takes my whole day...Oh and not to mention I am into one of those computer project with friends.

    Step 8. I passed 12 ( thankfully )...
    now everybody around me says i think you should take a drop and you have capabilities you can make it through tier 1... I say ...um why not ...
    now I am in Mumbai trying to fulfill my family's dream...

    Step 9. Reality Check ..I don't get through...was sent to Delhi to study at some very expensive college to become a "quality engineer"...I am happy about it.

    Step 10. I realize I am bad at being an engineer I try finding my space within the scenario I joined the creative team went on to become creative head ... Also got chance to play Volley-Ball again..loved it went to play for college a lot of times...


    Step 11. I am in Third Year I realize I have done nothing with the purpose I came here for yet...Lets try and fix everything about it ... now a self assessment what i am good at that fits the current scenario { MBA , M.Tech., Job }*{ India, Abroad }...


    Step 12. I give my full effort in qualifying to one of those ...
    Ah! I got job now at least for a while everybody will be happy about it ...

    Step 13. I realize I have been playing around with my life all along ...I try finding my true passion ...now I am standing on a two sided sword any which way one thing or the other ...


    So coming down to what I was trying to say is all that instead of targeting the engineering colleges which would be quick fix solution a general mass communication process needs to be installed for the parents and their children on a regular basis so as to learn the child's behavior and provide for the best opportunities that he can afford. So basically something like since no child is same a customized curriculum based on the behavior of the child must be introduced ( I haven't thought this through since this idea just came into my mind ) ...I am no revolt but under the current system a regular counselling session can be made compulsory for a better growth I believe that if I learn what I love I will love to share it and teach it to the next generation with even more passion because I know that how much excitement I felt every-time I try and learn painting.. :)

    I am working as a Graphic Designer, Artist, SEO Manager and a Developer at ZinkID Media, Delhi ...
    June 24, 2010 1:07 AM

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  20. अफ़सोस तो तब होता है जब सुशिक्षित लोग भी कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए अनुशासनहीनता का परिचय देते हैं ।
    यहाँ विकास की कमी नहीं है , कमी है तो सही सोच की । जिसके लिए हम खुद तो जिम्मेदार हैं ही , साथ ही प्रशासनिक कमजोरी भी ।

    जल्द सुधार की आशा न रखें । लेकिन प्रयास जारी रहे ।

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  21. विचारणीय कथन, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  22. सिर्फ़ सुनहरा दिल होना ही काफी नहीं है - कहीं पढा था कि सुनहरा दिल तो उबले हुए अंडे का भी होता है। भारतीय संस्कृति में तप और कर्म पर इतना ज़ोर होते हुए भी हम सिर्फ दिमागी हिसाब-किताब मे उलझे हैं। भागीरथ ने अपने अथक श्रम और प्रयास (तप) से गंगा की धार मोड दी और परशुराम ने ब्रह्म्पुत्र की। 1857 में देश के लिये जान देने वाले वीरों में सबसे बडे तांत्या टोपे की आयु भी 40 की नहीं थी, अन्य सभी शहीद तो 19-25 वर्ष के थे। हमने इतने सालों में स्वयम क्या सार्थक किया? या फिर रचनात्मकता के लिये मार्ग बिछाने के लिये क्या किया? हर दो महीने में रक्तदान कर सकने योग्य युवा भी बस नेत्रदान का फार्म भरके अपने मन में खामोख्वाह गौरवांवित हो लेते हैं - इतने भर से पहाड तो क्या एक गिट्टी भी हिलने वाली नहीं है।

    खुशी की बात यह है कि आज भी अधिकांश भारतीय देश की उन्नति चाहते हैं। विचार कर्म का बीज है लेकिन एक दिन उसे क्रियान्वित तो करना ही पडेगा... दिल्ली में अपनी आंखों से देखा है कि सारा ट्रैफिक दुर्घटना मे घायल पडे मानवों को नज़रन्दाज़ करके सामान्य रूप से चलता रहता है। वे घायल लोग भी भारत का अंग हैं। अगर हम उन्हें दो मिनट नहीं दे सकते हैं तो देश के प्रति हमारी किसी बयांबाज़ी से कोई फायदा नहीं है। कोई गंगा में डूबें तो हम उन्हेंक्या बचायेंगे क्योंकि हमें तो खुद ही तैरना नहीं आता है - कब सीखेंगे? अपने लिये नहीं तो देश के लिये सही - जिन्हें आता है उनमें से कितने ऐसे है जो हर रविवार यमुना किनारे जाकर झुग्गी-झोंपडी के बच्चो को तैराकी सिखाने को समय देने वाले हैं? देश को उठाने के लिये कर्मशील, तपस्वी, त्यागी बनना पडेगा, दूसरा कोई रास्ता नहीं होता - कोई शॉर्ट्कट नहीं।

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