कल मैंने एक सवाल पूछा था...आदिवासियों का नेता कौन...कोई साफ़ जवाब नहीं आया...ले दे कर एक नाम गिनाया गया शिबू सोरेन...तो जनाब शिबू सोरेन के नाम में ही सब कुछ छुपा है...क्या ये अपने आप में ही भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा प्रहसन नहीं है कि शिबू सोरेन को आदिवासियों का रहनुमा माना जाता है...ये वही शिबू सोरेन है जिन पर नब्बे के दशक के शुरू में नरसिंह राव की सरकार बचाने के लिए जेएमएम के सांसदों की करोड़ों में बोली लगाने का आरोप लगा था...ये वही शिबू सोरेन हैं जो सत्ता में बने रहने के लिए कभी बीजेपी तो कभी कांग्रेस से हाथ मिलाते हैं...झारखंड छोड़ना भी चाहते हैं तो सिर्फ इसी शर्त पर कि केंद्र में खुद कैबिनेट मंत्री बन जाएं और झारखंड में सीएम की गद्दी बेटे हेमंत सोरेन को मिल जाए...पॉलिटिकल सर्कस में उनकी इन कलाबाज़ियों से बेचारे आदिवासियों का कितना भला होता है, आप खुद ही अंदाज़ लगा सकते हैं...
और शिबू सोरेन को अकेले ही क्यों दोष दें, आज़ादी के बाद ऐसी कौन सी पार्टी है जिसने आदिवासियों के हक पर डाका नहीं डाला...इसमें सबसे पहला नंबर तो कांग्रेस का ही आता है...आदिवासी का देश में क्या मायने होता है, इसके लिए हमें सबसे पहले संविधान के पांचवी समवर्ती सूची (फिफ्थ शेड्यूल्ड एरिया) को समझना होगा....संविधान निर्माताओं को पहले से ही अंदेशा था कि आदिवासियों को उनका वाजिब हक देने में राज्य सरकारें आनाकानी करेंगी, इसलिए उन्होंने साफ कर दिया था कि फिफ्थ शेड्यूल्ड एरिया के प्रशासन के लिए राज्य सरकारों को निर्देश देने का केंद्र सरकार को अधिकार है...यानि संविधान निर्माता मानते थे कि आदिवासियों के हितों के खिलाफ़ काम होगा और सरकारों का रवैया उनके प्रति असंवेदनशील रहेगा...देश में छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड वो राज्य हैं जिनमें फिफ्थ शेड्यूल्ड यानि आदिवासी इलाके आते हैं...एक नज़़र इस पर डालिए कि यहां किन-किन पार्टी की सरकारें हैं...कांग्रेस, बीजेपी, एनसीपी, जेडीयू, बीजेडी, वाम मोर्चा, जेएमएम...यानि राजनीति की कोई ऐसी धारा नहीं बचती जो इन राज्यों में कहीं न कहीं सरकार न चला रही हो...लेकिन इन सभी राज्यों में एक कॉमन फैक्टर है कि आदिवासी हर जगह बदहाल हैं...यानि और किसी मुद्दे पर हो न हो आदिवासियों को बदहाल रखने पर देश में अघोषित तौर पर राजनीतिक सहमति है...
करीब डेढ़ दशक पहले केंद्र सरकार ने पंचायत (एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरिया) एक्ट यानि पेसा एक्ट के तहत पूरे देश में आदिवासी इलाकों के प्रशासन को एकसूत्र में बांधने की कवायद की...इस एक्ट को अपनी-अपनी विधानसभाओं में राज्य सरकारों ने मंज़ूरी भी दी...लेकिन ये सब कागज़ी खानापूर्ति के लिए ही हुआ...जब आदिवासियों को हक देने का सवाल उठा तो सभी राज्य सरकारे कन्नी काट गईं...और केंद्र भी कानों में तेल डालकर सोता रहा...ये हक़ीक़त है कि माओवादियों का जहां जहा भी असर है वो सभी फिफ्थ शेड्यूल्ड वाले यानि आदिवासी इलाके ही हैं...आदिवासियों पर मार दुधारी है...एक तरफ सरकार ने उन्हें विकास से वंचित रखा...दूसरी तरफ माओवादी अपने हितों के लिए उन्हें ढाल की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं...अगर ऐसा न होता और माओवादी सच में ही आदिवासियों के खैरख्वाह होते तो नक्सली हिंसा में आम आदमी या सीआरपीएफ के आधे-अधूरे ट्रेंड जवान ही निशाना क्यों बनते...माओवाद से प्रभावित छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में राजनेता, उद्योगपति, खनन मालिकों का धंधा बेरोकटोक क्यों चलता रहता है...आरोप ये लगते रहे हैं कि इन इलाकों में कोई भी चुनाव बिना माओवादियों की मदद लिए जीता नहीं जा सकता...ज़ाहिर है इसके लिए पर्दे के पीछे कोई सौदेबाज़ी होती होगी...नोटों का मोटा खेल होता होगा...छत्तीसगढ़ के बस्तर से ही एक सांसद के पुत्र को माओवादियों ने अपनी गोली का निशाना बनाया...उसके पीछे भी राज़ यही बताया जाता है कि कहीं सांसद की ओर से माओवादियों से चुनाव के वक्त किए गए समझौते का उल्लंघन हुआ था...
अब बताता हूं कि पेसा एक्ट के तहत आदिवासियों के लिए क्या प्रावधान किया गया है...इसके तहत भारत निर्माण, मनरेगा (महात्मा गांधी नेशनल रोज़गार गांरटी योजना), गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, पंचायत कार्यक्रम आदि के लिए जो भी केंद्र सरकार से पैसा मिलता है उसका एक तिहाई हिस्सा फिफ्थ शेड्यूल्ड यानि आदिवासी इलाकों को मिलना चाहिए...आज की तारीख़ में ये रकम जोड़ी जाए तो पूरी पचास हज़ार करोड़ रुपये बैठती है...यानि आदिवासी इलाकों की बदहाली दूर करने के लिए केंद्र सरकार आज की तारीख़ में एक भी पाई अलग से न दे, बस फिफ्थ शेड्यूल्ड एरिया के हक का पैसा ही उन्हें दे दिया जाए तो समूचे देश के आदिवासी इलाकों की तस्वीर बदल सकती है...इस पैसे के ज़रिए होने वाला विकास ही माओवादियों के मुंह पर सबसे करारा तमाचा होगा...आदिवासियों की एक बड़ी शिकायत है कि अंग्रेज़ों के ज़माने के इंडियन फारेस्ट एक्ट 1927 से लेकर आधुनिक भूमि सुधार कानून भी उनके खिलाफ है जबकि सारे कानून खनिज संसाधनों को बटोरने में लगी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हक में है..आदिवासियों को लेकर जब संविधान की अनदेखी की जा रही है तो फिर किस मुंह से सरकार खुद को आदिवासियों की रहनुमा बताती है और अपनी सारी कार्रवाई माओवादियों के खिलाफ़ होने का दावा करती है...
कल आपको बताऊंगा आदिवासियों के जंगलमहल का सच...
भैया....बहुत ही सम-सामयिक पोस्ट.... चिंतन युक्त.....
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
ये कड़वा सच है कि आदिवासियों को जहां मुख्य राजनीतिक पार्टियों ने छला..वहीं उनके अपने नेता भी कम नहीं हैं। कोई भी आदिवासी नेता ऐसा नहीं है जिसका प्रभाव अपने जिले या आधे भी राज्य में भी हो...कोई एक नेता है ही नहीं तो नाम किसका लिया जाए....सत्ता में आते ही आदिवासी नेताओं में वही कमियां आने लगती है जो बाकी नेताओं में होती है। पैसा बनाओ, सत्ता में बने रहने के हथकंडे ढ़ंढों....
जवाब देंहटाएं@ शिबू सोरेन
शिबू सोरेन को देखकर र्धतराष्ट्र की याद आती है। पुत्र मोह में पड़े तथाकथित गुरूजी सभी आदिवासियों के साथ जबरदस्त धोखा कर रहे हैं। जबकि वो खुद विधानसभा चुनाव हार चुके हैं औऱ इस बार हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे हैं विधानसभा चुनाव लड़ने की। जबकि शिबू सोरेन चाहते तो पूरे राज्य को आज देश का सबसे अमीर राज्य बना सकते थे। आदिवासियों में उनकी पकड़ जितनी थी..वो चाहते तो उसका इस्तेमाल करके आदिवासियों और झारखंड का कायापल्ट कर सकते थे..पर सत्ता मोह..औऱ पुत्र मोह....दोनो ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा . न आदिवासियों के नेता रहे. औऱ अब अपनी ही पार्टी से उनकी पकड़ खत्म होती जा रही है..जो हाल ही में बीजेपी के साथ समझौते के बाद पार्टी में विरोध के कारण खुलकर सामने आ गया......
तो आखिर किसका नाम लैं....
जवाब देंहटाएंइन आदिवासियों के प्रति भारत सरकार का वही रवैया रहा जो कभी ब्रिटिशर्स का भारतीय कॉलोनी के था । अपने शोषण के प्रति जागरूक होते ही उनकी ओर से विरोध के स्वर उठने लगे । नतीज़ा चाहे जो भी हो, पर आदिवासियों पर दोहरी मार पड़ी ।
जब वह इसके लिये सरकार का मुँह देखते, सुनवाई न हुई तो उनकी निराशा को नक्सवादियों के जरिये हल होने की आशा दिखी । इस तरह की तैयार ज़मीन ( पृष्ठभूमि ) को माओवादियों ने हड़प लिया ।
आज हालात यह हैं कि इधर जाओ तो माँ ( सरकारी तँत्र ) मारती है, उधर जायें तो उनका स्वयँभू बाप ( माओवाद की उपज ) मारता है ।
इस तरह निरीह आदिवासी मार खा रहा है, जिसको नेपाली तँत्र का अप्रत्यक्ष समर्थन है । और.. हम शाँति के मसीहा बने रहने का ऎसा ठेका लिये बैठे हैं कि अपने घर के पिटते बच्चे को दो झापड़ और लगा कर चुप कराना चाहते हैं.. क्योंकि हमें पड़ोसी से सँबन्ध जो सुधारना है !
चल आज तेरे श्लॉग ओवर की कमी अपने कमेन्ट कवर से पूरी कर देता हूँ..
नेपाल में ढाई दशक पहले नारा दिया गया,
" हम दो हमारा दो "
सवाल उठा " श्री पाँचको सरकार, क्या कोरेगा हम दो के बाद ?"
" दो के बाद वाले बिहार और झारखँड भेज दो"
यह राहुल जो रोजाना नोटंकी करता है चुनाव के दिनो मै, कभी किसी के झोपडे मै सोने की कोशिश करता है तो कभी कही, इसे बोलो अगर भारत की सच्ची खोज करनी है तो जाओ इन आदिवासियो के प्रदेश मै देखॊ उन का दुख, फ़िर बिताओ वही राते, ओर खाऒ जो वो खाते है. आप का लेख पढ कर ओर उस से पहले समचार पत्रो मै नकसल वाद के बरे पढ कर लगता है इन लोगो के साथ कोई अन्याय हो रहा है, तो कब तक यह सोते रहेगे?????
जवाब देंहटाएंधन्यवाद इक दर्द महसुस हुआ आज आप की इस पोस्ट मै, अपने देशवासियो के प्रति
@ boletobindas
जवाब देंहटाएंपुत्र मोह में कौन नहीं है, वत्स ?
परिवारवाद को गरियाने वाले मुलायम सिंह !
हठात देशसेवा में जुट गया (?) करूणानिधि का कुनबा !
बहुत से उदाहरण हैं, वह तो शुक्र मनाइये की घोषित रूप से अटलबिहारी अविवाहित थे ।
असल धृतराष्ट्र देश की जनता, हम सब हैं । चुनावों में अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं, या आँखों देखी मक्खी निगल कर अपनी मज़बूरी को रोते हैं । ईमान से पूछिये तो कितने बुद्धिजीवी कोई सामाजिक दायित्व निभाने को सामने आते हैं ?
बहुत अच्छा आलेख. आगे जंगलमहल का इन्तजार रहेगा.
जवाब देंहटाएं@ डॉ.अमर.....कहीं हाम दो के बाद वाला तो नाही हाय ......झारखण्ड में.....!!
जवाब देंहटाएं:)
:)
ओइसा बोलेगा तो हाम तो फिफ्टी पारसेंट आदिवासी हाय.....
बहुत अच्छा आलेख....
यदि सरकारें आदिवासियों की थोड़ी भी चिंता कर लेतीं तो आज इस नक्सलवाद के पैर इतनी मजबूती से नहीं जमते |
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी,
जवाब देंहटाएंएक लम्बी टिप्पणी तो रास्ते में कहीं खो गई।
केवल आदिवासियों का नहीं देश में कोई जननेता है ही नहीं। कोई दिखाई देने लगता है तो उस का रंग कुछ ही समय में निकल जाता है और सामने सियार नजर आता है। वैसे ही जैसे कथित धार्मिक पुरुषों का हो रहा है। सब के सब देशी-विदेशी पूंजीपतियों की दलाली में जु़ट जाते हैं। भारतीय जनतंत्र किस दिशा में जा रहा है यह समझा जा सकता है। वहाँ कोई इन का दलाल हो कर ही संसद में पहुँच पाता है। किसी तरह बिना रंगा पहुँच भी गया तो जल्दी ही रंग दिया जाता है। खुदा पर से तो भरोसा बहुत पहले उठ चुका था। अब तो जनता का ही भरोसा है, देखते हैं वह कब अपने रंग में आती है।
बहुत ही उम्दा विवेचना ,दरअसल हमारा अपने स्वार्थ के इर्द गिर्द घूमना और उससे बाहर जनहित के कल्याण के बारे में नहीं सोचना आज के भ्रष्ट नेताओं की असल पहचान बन गयी है और यही सारे समस्याओं का जड़ है ,नहीं तो आदिवासी में भी गंभीर सोच और चिंतन वाले लोगों की कमी नहीं है |
जवाब देंहटाएंतथाकथित आदिवासी नेता ही आदिवासियों का शोषण कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंगंभीर चिंतन वाली पोस्ट, अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंबहुत गंभीर...चिंतनीय लेख ....सारे नेता एक ही थैली के चट्टे - बट्टे हैं ....आपनी झोली भरे तो दूसरों की सोचें...
जवाब देंहटाएंगंभीर चिंतन वाली पोस्ट, अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंखुशदीप भाई .......................इन नेतायों को खुद से फुर्सत मिले तो यह देश के बारे में सोचे ना ! सब के सब लगे हुए है दोनों हाथों से देश को लूटने में !
जवाब देंहटाएंउत्तम आलेख। लोग अभी भी सोचते हैं, ख़ुशी की बात है।
जवाब देंहटाएंअकेले नेताओ को ही दोष क्यों दिया जा रहा है क्या नौकरशाह भी बराबर के भागीदार नहीं है सारा पैसा नेता ही नहीं गटकते आधा तो सरकारी बाबुओ के पेट में भी जाता है | और ये सब पुरे भारत में हो रहा है क्या किसानो की करोडो की जमीने ले कर बिल्डरों और एस सी जेड के लिए उद्योगपतियों को कौड़ियो के भाव नहीं दी जा रही है | अभी हाल ही में नोयडा विकाश प्राधिकरण किसानो से कौड़ी के भाव में जमीन ले कर फार्मिंग के लिए ही अमीरों को ऊँचे भाव में बेचा रही थी | जब राजधानी के इतने करीब नेताओ और नौकरशाहो की मिली भगत से ये सब हो सकता है तो दूर जंगल में आदिवासियों के साथ जो हो रहा है अब वो हमारे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए
जवाब देंहटाएंएक बात और नेता कभी किसी का नहीं होता वो सिर्फ खुद के भले के लिए नेता बनता है किसी और के भले के लिए नहीं | इसलिए उससे किसी के भले के लिए काम करने की उम्मीद करना छोड़ दीजिए |
जवाब देंहटाएंखुशदीप भाई,
जवाब देंहटाएंलिखा तो एकदम सटीक ही है..... समस्या तो हो गयी ही है.... कैसे समाधान होगा मालूम नहीं.... भेड़ चाल है...
सच ! अभी पुरुष में इतनी ताकत नहीं, जो मेरा सामना करे, किसमें है औकात ? http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/05/blog-post_31.html मुझे याद किया सर।
जवाब देंहटाएंसमस्या गंभीर है..और चिंतनीय भी पर समाधान....? नेताओं से तो कोई उम्मीद नहीं
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