अब तो अपना डेबिट कार्ड भी ताक पर रख दिया है....डेबिट कार्ड जेब में हो तो आदमी अपने को किसी शहंशाह से कम नहीं समझता...ऐसे खरीददारी करता है जैसे सब बाप का माल हो और कभी भुगतान करना ही नहीं पड़ेगा...और इन एमएनसी और माल की बॉय वन, गेट वन फ्री ऑफर के चलते जेब में कितना बड़ा सुराख होता है, इसका अहसास तब होता है जब चिड़िया खेत चुग गई होती है...अब तो जेब में जितने पैसे होते है, उतनी ही खरीददारी करते हैं...कैश से भुगतान करते वक्त आदमी बस ज़रूरत की ही चीज़ें खरीदता है...
सवाल है कि समस्या हैं कहां...देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अर्थशास्त्र की समझ पर कौन ऊंगली उठा सकता है...वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी हो या गृह मंत्री पी चिदंबरम ( पूर्व वित्त मंत्री) या फिर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया...सभी जानेमाने अर्थशास्त्री...इन सभी पर सरकार की ओर से देश के नागरिकों को राहत पहुंचाने की ज़िम्मेदारी है...लेकिन अजीब तो तब लगता है जब यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को चिट्ठी लिखकर कहना पड़ता है कि महंगाई से आम आदमी त्रस्त है और हालात पर काबू पाने के लिए ज़रूरी कदम उठाए जाने चाहिए...
(साभार- राजेंद्र पुरी)
ज़ाहिर है मनमोहन सिंह के कंधों पर सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी हैं और सोनिया और राहुल को कांग्रेस की राजनीतिक ज़मीन को देखना है...कांग्रेस आम आदमी के बढ़ते कदम, हर कदम पर भारत बुलंद के नारे के साथ लगातार दूसरी बार दिल्ली की गद्दी तक पहुंची है...सोनिया की प्रधानमंत्री को चिट्ठी का मतलब क्या है...क्या सरकार और कांग्रेस अलग-अलग हैं...या सोनिया कहना चाहती हैं जो गलती है वो सरकार के पार्ट पर है कांग्रेस तो दूध की धुली है...
सवाल उठ सकता है कि महंगाई को लेकर सरकार के हाथ इस तरह बंधे क्यों है...सही पूछो तो सरकार के पास कीमतों के बारे में जो भी जानकारी आती है वो थोक बाज़ार या होलसेल इंडेक्स पर ही टिकी होती है...यानि रीटेल कीमतों की सही स्थिति जानने के लिए सरकार के पास सिस्टम ही नहीं है...और आपका-हमारा थोक से नहीं सिर्फ रीटेल कीमतों से ही वास्ता होता है...इस थोक और रीटेल के बीच ही महंगाई की सारी जड़ छुपी हुई है...सरकार की आर्थिक नीतियां आम आदमी की ज़रूरत से नहीं बाज़ार के मुनाफ़े-घाटे से प्रभावित होती हैं...यानि आम आदमी यहां भी बाज़ार से ही मात खाता है...
अर्थशास्त्र की मान्यता है कि कीमतें बाज़ार में डिमांड और सप्लाई के सिद्धांत से तय होती हैं..लेकिन देश में महंगाई का जो दौर चल रहा है वो किसी दूसरे खेल की ओर ही इशारा करता है...बाज़ार में स्टोर खाने-पीने या रोज़ाना इस्तेमाल की ज़रूरी चीज़ों से अटे पड़े हैं...पर खरीददार गायब हैं...अगर हैं भी तो उनकी जेब में पर्याप्त माल नहीं है...यानि बाज़ार में ज़रूरी सामान की सप्लाई तो बदस्तूर जारी हैं....अगर किल्लत नहीं है तो फिर कीमतें बढ़ती जाने की असली वजह क्या है...ऐसी बात नहीं कि मानसून अच्छा नहीं होने की वजह से फसलें बिल्कुल चौपट हो गई हैं...आज ही खबर आई है कि हरियाणा में धान की बंपर फसल हुई है...
फिर कौन सी ताकतें है, इस खेल के पीछे...बाज़ार खोलने की उदार नीति का दोनों हाथों से फायदा उठाकर क्या ये ताकतें आज इतनी निरंकुश हो चुकी हैं कि सरकार भी इनके आगे खुद को बेबस महसूस कर रही है...ये किसी से छुपा नहीं है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में विश्व की अर्थव्यवस्था है...अंधाधुंध मुनाफा कमाने की गरज से ये कंपनियां कीमतों में लगातार इज़ाफ़ा करती रहती हैं...एक सोची समझी रणनीति के तहत ये बहुराष्ट्रीय कंपनिया देश के पूरे रीटेल बाज़ार को अपने कब्ज़े में लेना चाहती है...ये आर्थिक उपनिवेशवाद ठीक उसी तरह है जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में आकर धीरे-धीरे पूरे देश को गुलाम बना लिया था...
सरकार की ओर से ये भी तर्क दिया जाता है कि कीमतें बढ़ना आज सिर्फ भारत की नहीं, दुनिया के तमाम देशों की समस्या है...लेकिन भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आज आम आदमी को खाने के लिए रोटी ही नहीं नसीब हो पा रही है...मुझे देश के इस हालात में आने की सबसे बड़ी वजह जो नज़र आती है...वो है आर्थिक सुधारों के दो दशकों में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बहुराष्ट्रीय कंपनियो की कठपुतली बना दिया गया है...महंगाई पर काबू पाने के लिए आज किसी रॉकेट साइंस की नहीं बल्कि ठेठ देसी नुस्खों की ज़रूरत है...
रचना अच्छी लगी ।
जवाब देंहटाएंbada zor se laga ji................
जवाब देंहटाएंdhnyavaad !
"एक सोची समझी रणनीति के तहत ये बहुराष्ट्रीय कंपनिया देश के पूरे रीटेल बाज़ार को अपने कब्ज़े में लेना चाहती है..."
जवाब देंहटाएंवो तो चाहेंगे ही पर हम और हमारी सरकार उनकी चाहत को पूरा करने का अवसर क्यों देती हैं?
सही पूछो तो सरकार के पास कीमतों के बारे में जो भी जानकारी आती है वो थोक बाज़ार या होलसेल इंडेक्स पर ही टिकी होती है...यानि रीटेल कीमतों की सही स्थिति जानने के लिए सरकार के पास सिस्टम ही नहीं है...और आपका-हमारा थोक से नहीं सिर्फ रीटेल कीमतों से ही वास्ता होता है...इस थोक और रीटेल के बीच ही महंगाई की सारी जड़ छुपी हुई है...
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी,
आपने सही नब्ज़ पकड़ी है.....देश के नेताओं को बात ही समझ में नहीं आती....और आये भी कैसे एक तो गोरी ऊपर से वेट्रेस ...दीमाग तो होता ही नहीं है....
और बाकि कसर उनके रिश्तेदार पूरी कर दे रही हैं...बहुराष्ट्रीय कंपनियों ....मतलब की एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा....
हमेशा की तरह..जबरदस्त लिखा है जनाब आपने....अब तो तारीफ करने के लिए भी शब्द ढूंढना पड़ता है ...कभी कभी थोडा कम अच्छा भी तो लिखा कीजिये न हुजुर.....हा हा हा
चांटा लगा...हाय लगा.....हाय लगा...
जवाब देंहटाएंआप पुराने रिकार्ड खंगाल कर देख लीजिए...कांग्रेस जब भी सत्ता में आई है...अपने साथ बढती मँहगाई को लाई है..उसकी नीति ही यही है कि तुम भी खाओ...हम भी खाएँ...बस...जनता कुछ ना खा पाए.. जब बहु राष्ट्रीय कंम्पनियाँ हमारे यहाँ ..भारत में.. वजूद में नहीं थी...तब इसने बड़े पूंजीपतियों से हाथ मिलाया हुआ था..जो अपनी सुविधाअनुसार सरकारी कानूनों को अपने हित में बदलवा लिया करते थे ...किस चीज़ पर कितना टैक्स लगाना है? और किस चीज़ से ड्यूटी को हटवाना है?...ये सब उनके बाएँ हाथ का खेल था...धीरु भाई अम्बानी इसके साक्षात उदहारण हैँ...उनके द्वारा लाँच किए गए प्राडक्टस का लाईसैंस जैसे पोलिएस्टर वगैरा को आयात करने का...उसका निर्माण करने का..सिर्फ उन्हीं को मिलता था...याने के प्रतियोगिता में कोई नहीं...अपना आराम से देश की जनता को जी भर के लूटो.. अब चूंकि कांग्रेज़ में राजीव गाँधी के बाद युवा सोच का उद्भव हो चुका है ...इसलिए उसने पुराने दकियानूसी तरीके याने पूंजीपतियों को गले लगाने के बजाए..बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से हाथ मिला लिया है(सुना है कि गले लगाने और हाथ मिलाने से ऐड्स नहीं होता) ..देश की जनता तब भी लुट रही थी...अब भी लुट रही है...और आगे भी लुटती ही रहेगी ...
इसलिए...चैन से सोना है तो अभी जाग जाईए....और कांग्रेस के बजाए....
आमीन
"एक सोची समझी रणनीति के तहत ये बहुराष्ट्रीय कंपनिया देश के पूरे रीटेल बाज़ार को अपने कब्ज़े में लेना चाहती है...ये आर्थिक उपनिवेशवाद ठीक उसी तरह है जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में आकर धीरे-धीरे पूरे देश को गुलाम बना लिया था..."
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही बात ! आभार ।
बिल्कुल सही कहा आपने. ये दिनोंदिन परतंत्रता की तरफ़ बढते कदम हैं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
आपकी एक एक बात से सहमत । कहीं सच मे हम फोर से गुलामी की ओर तो नहीं जा रहे? ए सी लमरों के अन्दर बैठ कर क्या हमारे नेता देसी नुस्खे की बात कर सकते हैं। बहुत बडिया पोस्ट है आज । मगर एक बात समझ नहीं आयी आज इतने सीरियस क्यों हैं आप ? शायद मंहगाई का ही असर है शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंखुशदीप भाई-यही तो महाप्रलय आने वाला 2012 को, कि्सी भी आदमी जेब में पैसा नही रहेगा। सारा लुट के स्विसबैंको मे पहुंच गया है और भी पहुंचाया जा रहा है। ये मंहगाई का महाप्रलय होगा। जब दुकानदार चावल के दा्ने तौलकर नही गिन कर देगा। आज स्लाग ओवर नही है। आपने बड़ा गंभीर माहौल बना दिया। भाई हम तो हर परिस्थि्यों मे जीने वाले लोग है। अब मौत पर भी हंसना सीख गये हैं।
जवाब देंहटाएंखुशदीप भाई,
जवाब देंहटाएंबात तो आपकी बिल्कुल ठीक है ...और इसमें कोई शक नहीं कि आज महंगाई ने सब कुछ बिगाड के रख दिया है ....मगर जब मैं बडे बडे देशों की अर्थव्यवस्थाओं को चरमराते हुए देखता हूं तो लगता है कि शुक्र है कि हम अभी बचे तो हुए हैं इन सबसे ॥ वैसे चिंताजनक तो है ही स्थिति ..॥
सचमुच स्थिति बहुत ही चिंताजनक है...और आपने इतनी अच्छी तरह और विस्तार से बताया है कि एक layman भी समझ जाए.जनता की किसे फिकर है...थाली में कटोरियों की गिनती घटती घटती...एक दिन कटोरियाँ ही गायब हो जाएँगी और नमक रोटी से गुजारा करना पड़ेगा...पर सरकार का क्या...उनके नुमाईंदों का पेट तो भरा है,ना बस.
जवाब देंहटाएंबांकी जो बची वो मंहगाई मार गयी...
जवाब देंहटाएंभाई
जवाब देंहटाएंअच्छा लेख .........अंत वाकई विचारपूर्ण है मगर कोई माने तब तो !
अपने मस्तिष्क का सोमेटोसेंसरी एरिया सक्रिय हो गया ।
जवाब देंहटाएंएक अच्छी खबर ये भी है की किसानों की आत्महत्या की रेट में कमी आई है।
जवाब देंहटाएंकुछ तो सुधार भी हो रहा है।
बाकि तो --एक रोटी और कम खाना शुरू कर देते हैं।
वैसे भी हम शहरी लोगों को खाना चाहिए ही कितना।
सच महंगाई तो सर के ऊपर निकल रही है -अच्छा विचारा है आपने !
जवाब देंहटाएंमनमोहन सिंह हो या मोन्टेक सिंह- अपने तो बारह बज गए जी :)
जवाब देंहटाएंमहफ़िल कैसे सजे, यहाँ तेल खरीदने की कूबत नहीं
जवाब देंहटाएंमहंगाई के आगे हार गए कितने रईस नवाब देखो...
मेरे पास ऐसे कई देसी नुस्खे हैं.... कोई सरकार से बोले ........
जवाब देंहटाएंजय हिंद....
गम्भीर स्थिति को विस्तार से एवं आसान शब्दों में समझाने के लिये आभार। वैसे हिन्दी चीनी भाई भाई के बारे मैं क्या ख्याल है आपका?
जवाब देंहटाएंस्लाग ओवर का न होना बता रहा है आज सीरियस हैं आप।
अदा जी की इस बात से तो हम भी सहमत हैं "हमेशा की तरह..जबरदस्त लिखा है जनाब आपने....अब तो तारीफ करने के लिए भी शब्द ढूंढना पड़ता है ..."
जय हिंद।
आज ही वापस लौटा हूं डेढ हज़ार किलोमीटर से ज्यादा सफ़र करके।इस बार सफ़र अपनी सफ़ारी की जगह अपने पार्टनर की मारुती रिट्ज़ मे किया एवरेज के चक्कर में।शायद मंहंगाई का कांटा लगा है।
जवाब देंहटाएंविचारणीय पोस्ट लिखी है।
जवाब देंहटाएंहाँ....काँटा तो लगा ही है।
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