संसद मौन है...खुशदीप

संसद और मौन...आप कहेंगे या तो मैं हिल गया हूं या संसद की छुट्टी होगी...न तो मैं हिला हूं और न ही संसद की छुट्टी थी...17 साल पुरानी छह दिसंबर 1992 की अयोध्या की घटना पर जस्टिस लिब्रहान की रिपोर्ट पर लोकसभा में मंगलवार को बहस अंजाम पर पहुंची... साथ ही बहस पर गृह मंत्री पी चिदंबरम का जवाब आया...जैसे ही चिदंबरम ने बोलना शुरू किया तो विरोधी खेमे ने इतना बावेला मचाया कि चिदंबरम की आवाज़ दब कर रह गई...चिदंबरम क्या बोले ये बाद में टेक्स्ट जारी होने से ही पता चल सका...

पता क्या चला, न कांग्रेस अपने रुख से टस से मस हुई...और न ही बीजेपी ने अपनी सोच में किसी बदलाव का संकेत दिया...यानी ढाक के तीन पात...सत्रह साल, चले अढ़ाई कोस...और लिब्रहान आयोग पर ही खर्चा हो गया नौ करोड़...संसद का कीमती टाइम हंगामे की भेंट चढ़ा, उसकी कीमत भी करोड़ में...

जब राजनीतिक सहमति से देश में कुछ होना ही नहीं है तो फिर सत्रह साल पुरानी काठ की हांडी को चुनावी भट्टी पर बार-बार चढ़ाने की कोशिश क्यों की जाती है...जब अदालत के फैसले पर ही सब टिका है तो फिर क्यों संसद में सत्रह साल से इस नाटक का मंचन हो रहा है...क्यों करदाताओं की कमाई को सांसदों की बौद्धिक जुगाली पर लुटाया जा रहा है...

आम आदमी को दाल-रोटी तक जुटाना भारी पड़ रहा है....अरबों के कर्ज की माफ़ी का ढिंढोरा पीटे जाने के बावजूद किसानों का सूली पर लटकने का सिलसिला बदस्तूर जारी है...देश की 77 फीसदी आबादी बीस रुपये की मामूली रकम पर दिन काटती है...वहीं संसद की एक घंटे की कार्यवाही का खर्च 15 लाख बैठता है...अब जितना वक्त माननीय सांसद तू-तू मैं-मैं में हंगामे की भेंट चढ़ाते हैं...उस पर कितनी पैसे की बर्बादी होती होगी, आप खुद अंदाज लगा सकते हैं...गरीब के लिए आज सबसे बड़ा सपना है रोटी...





नेता के लिए सबसे बड़ी हसरत है कुर्सी...पहले तो कुर्सी तक पहुंचने के लिए कसरत...एक बार कुर्सी तक पहुंच गए तो फिर फेविकोल लगाकर उस पर हमेशा बैठे रहने की मशक्कत...कुर्सी तभी खाली करेंगे जब बेटा-बेटी उसे संभालने की स्थिति में पहुंच जाएंगे...रोटी और कुर्सी के इसी विरोधाभास को धूमिल ने क्या खूब पकड़ा था...


एक आदमी रोटी बेलता है


एक आदमी रोटी खाता है


एक तीसरा आदमी भी है


जो न रोटी बेलता है


न रोटी खाता है


वो सिर्फ रोटी से खेलता है


मैं पूछता हूं


ये तीसरा आदमी कौन है


मेरे देश की संसद मौन है...



स्लॉग चिंतन

नज़र बदलो, नज़ारे बदल जाएंगे


सोच बदलो, सितारे बदल जाएंगे


कश्ती बदलने की ज़रूरत नहीं


दिशा बदलो, किनारे बदल जाएंगे

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18 टिप्पणियाँ
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  1. आदरणीय खुशदीप जी...आपकी आज कि पोस्ट ने कई विचारणीय प्रश्न उठाए हैँ कि...
    जनता के खून-पसीने की गाढी कमाई को कब तक यूँ ही बेसिर-पैर की बहस में फूंका जाता रहेगा?...
    कब तक हम कठपुतली बन हाथ पे हाथ धर ये संसदीय तमाशा देखते रहेंगे ?...
    जाते-जाते आपका स्लॉग ओवर भी अच्छी सीख दे गया

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  2. आज आपकी पोस्ट सही मायने में एक संजीदा पोस्ट है....
    सोचने को प्रेरित करती हुई...
    और स्लोग ओवर ..
    तो बस कमाल का है....!!
    में फिर आउंगी कमेन्ट करने...

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  3. खुशदीप जी आज की पोस्ट बहुत भारी है। मैं ने धूमिल की यह कविता मध्यप्रदेश के एक ढाबे में एक पोस्टर के रूप में टंगी देखी थी। वह दृश्य आज तक नहीं भूला हूँ।

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  4. लेकिन इनको रोटी से खेलने कौन देता है हम लोग ही न, नहीं...

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  5. "आम आदमी को दाल-रोटी तक जुटाना भारी पड़ रहा है...."

    अरे इसी बात को लोग सोचना छोड़ दे करके ही ये सब नाटक है!

    समन्ते नहीं हो यार!!

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  6. ये तीसरा आदमी कौन है
    मेरे देश की संसद मौन है...
    नज़र बदलो, नज़ारे बदल जाएंगे
    सोच बदलो, सितारे बदल जाएंगे
    कश्ती बदलने की ज़रूरत नहीं
    दिशा बदलो, किनारे बदल जाएंगे॥
    सच्चाई को बयान करती हुई उम्दा पंक्तियाँ! बहुत ही सुंदर, भावपूर्ण और संवेदनशील रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है! बधाई!

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  7. लगता है कहीं नींव की ईट रखते समय कोई भूल हुई है तभी यह सब हो रहा हैं।

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  8. नेता के लिए सबसे बड़ी हसरत है कुर्सी...पहले तो कुर्सी तक पहुंचने के लिए कसरत...एक बार कुर्सी तक पहुंच गए तो फिर फेविकोल लगाकर उस पर हमेशा बैठे रहने की मशक्कत...कुर्सी तभी खाली करेंगे जब बेटा-बेटी उसे संभालने की स्थिति में पहुंच जाएंगे....

    BAHUT BAHUT SAHI KAHA AAPNE....SAARTHAK POST KE LIYE AABHAR..

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  9. आज की पोस्ट बहुत कुछ सोचने के लिये बाध्य करती है. बहुत सटीक कहा आपने.

    रामराम.

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  10. अरे भाई, नेताओं के लिए ऐसा मत बोलो , हम भी नेता बनने की सोच रहे हैं।
    वैसे आजकल कवियों का असर काफी दिखने लगा है।
    जल्दी ही मिलना पड़ेगा।

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  11. सत्रह साल चले ,अढाई कोस..कहाँ??..ये तो वहीँ के वहीँ खड़े हैं और लफ्फ्ज़ी गुलछर्रे उड़ा रहें हैं....इन्हें अपनी कुर्सी और अपनी सात पुश्तों के ऐशो आराम का इंतज़ाम करने के अलावा किसी चीज़ में कोई दिलचस्पी नहीं..ये तो मौन ही रहेंगे.
    स्लोग ओवर बहुत बढ़िया

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  12. नज़र बदलो, नज़ारे बदल जाएंगे
    सोच बदलो, सितारे बदल जाएंगे
    कश्ती बदलने की ज़रूरत नहीं
    दिशा बदलो, किनारे बदल जाएंगे॥
    खुशदीप जी आज संसद की बात छोडो आज तो स्लागओवर ने ही पूरा ध्यान खीँच लिया आप इतना अच्छा लिखते हैं कि क्या कहूँ। इन चन्द पँक्तोयों मे जावन का सार है मानो। अगर हम अपने लिये, देश या समाज के लिये कुछ करना चाहते हैं तो आपका यही मन्त्र कारगार है । वैसे राज नीति पर भी आपकी पकड बहुत अच्छी है। एक ब्लाग संसद के नाम से खोलिये उस पर इन्हें कुछ नसीहत दीजिये। वर्ना सभी ब्लाग पढने का नेताओं के पास समय कब होता है अपने नाम से चुठा खुला हुया शायद कभी इन की नज़र मे आ जाये। शुभकामनायें।

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  13. दो दिनों से असाधारण कहूँगा... आज तो धूमिल को शामिल कर आपने मुझे भांग पिला दी वो भी कच्चा...

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  14. खुशदीप जी आपका स्लोग ओवर तो कमाल का है ...रोटियों से खेलने वालों से जाकर कोई कह दे की हमारे देश की आबादी का बड़ा हिस्सा अपनी भूख को अपनी अंतड़ियों में दबा कर सोता है ...उनके बच्चों को चाँद कोई खिलौना नहीं रोटी नज़र आता है ... ऐसे देश की संसद को मौन व्रत रखने से काम नहीं चल सकता ... इस देश के नेताओं को सचमुच अपनी अपनी नदियों के रुख बदलने की जरूरत है ...एक बार दिशा बदलकर देखें तो सही ...

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  15. खुशदीप जी आपका स्लोग चिंतन दिल की गहराई तक पहुंच गया।

    धूमिल जी की यह पंक्तियां कहीं पढ़ी थीं पेशे नजर कर रहा हूं:

    मुझसे कहा गया कि संसद
    देश की धड़कन को
    प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
    जनता को
    जनता के विचारों का
    नैतिक समर्पण है
    लेकिन क्या यह सच है?
    या यह सच है कि
    अपने यहां संसद -
    तेली की वह घानी है
    जिसमें आधा तेल है
    और आधा पानी है
    और यदि यह सच नहीं है
    तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
    अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
    जिसने सत्य कह दिया है
    उसका बुरा हाल क्यों है?

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  16. यह तो लोकतंत्र का मखौल है जो साढे-पांच सौ राजा लोग खेल रहे हौर और एक खरब गुलाम झेल रहे हैं :(

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  17. धूमिल की इतनी अच्छी कविता के बाद कुछ भी कहना बेकार है .. मै आप्के विचारो के लिये आपको सलाम करता हूँ खुशदीप भाई । जीवन यदु की दो पंक्तियाँ आपको समर्पित कर रहा हूँ " पहले गीत लिखूंगा रोटी पर फिर लिखूंगा तेरी चोटी पर " यही है हम सब का पहला स्वप्न ।

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