मक्खन की बेबे (मां) गुम हो गई...खुशदीप

मक्खन के साथ बड़ी बुरी बीत रही है...मक्खन की बेबे (मां) गुम हो गई है...स्लॉग ओवर में उसकी कहानी बताऊंगा...लेकिन पहले बात गन्ने की...गन्ने का नाम लेते ही हमारा मुंह मीठा हो जाता है...लेकिन आज इसी गन्ने की कीमत मुंह पर लाते ही किसान के मुंह कुनैन क्यों घुल रही है...

आज दिल्ली में हज़ारों-हज़ारों किसानों के इसी दर्द को आवाज़ देने के लिए विपक्ष के नेता अपने सारे मतभेद भुला कर कंधे से कंधा मिलाते नज़र आए...विपक्ष की ऐसी एकजुटता बरसों बाद देखने को मिली...आप कहेंगे मैं ये कौन सा मुद्दा आज ले बैठा...लेकिन सच पूछिए तो ये हम सबसे जुड़ा मुद्दा है...

आज चीनी बाज़ार में 45 रुपये किलो मिल रही है...लेकिन केंद्र सरकार ने गन्ने की वसूली कीमत तय की है 129 रुपये 84 पैसे प्रति क्विंटल...यानि करीब 1 रुपये 30 पैसे प्रति किलो...एक अनुमान के मुताबिक दस किलो गन्ने से एक किलो चीनी बनती है...इस हिसाब से एक किलो चीनी के लिए ज़रूरी गन्ने के लिए किसान को 13 रुपये ही मिले...और बाजार में चीनी 32 रुपये ज़्यादा 45 रुपये किलो मिल रही है...ये 32 रुपये किसकी जेब में जाते है....मान लीजिए चीनी को बनाने की लागत पर भी कुछ रकम खर्च होती होगी...लेकिन ये रकम इतनी ज़्यादा होती है कि किसान को मिलने वाले मूल्य से लेकर चीनी बाज़ार तक आते-आते साढ़े तीन गुना महंगी हो जाती है...ज़ाहिर है इस कीमत में बाज़ार का मोटा मुनाफा भी जुड़ा है...

रही बात किसान की तो वो पहले फसल को उगाने के लिए खेत में पसीना बहाता है...फसल तैयार हो जाती है तो उसकी वाजिब कीमत के लिए सड़क पर नारे लगाने में पसीना बहाता है...यहां ये बताना भी ज़रूरी है जहां किसान संगठित है वहां उसे अपने गन्ने की अच्छी कीमत मिल जाती है...जैसे यूपी सरकार ने गन्ने का मूल्य 165-170 रुपये प्रति क्विंटल तय करने के साथ 20 रुपये प्रति क्विंटल बोनस का भी ऐलान किया है...पंजाब और हरियाणा में भी गन्ने की सरकारी कीमत 180 रुपये प्रति क्विंटल रखी गई है...लेकिन देश के दूसरे गन्ना उत्पादक राज्यों में गन्ने की कीमत कमोबेश वही है जो केंद्र सरकार ने पिराई के इस सीजन के लिए तय की है...यानि 129 रुपये 84 पैसे...

जाहिर है किसान की इस ताकत को भुनाने के लिए नेता भी पीछे नहीं रहते...पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के सांसद पुत्र अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल की तो पूरी राजनीति ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश की गन्ना बेल्ट पर ही टिकी हुई है...किसान के दर्द में नेताओं को चुनावी फायदे के लिए वोटों का टानिक नजर आता है...सोचना हमें है... हम 45 रुपये किलो चीनी खरीद रहे हैं लेकिन जो बेचारा किसान इसके लिए गन्ना उगाता है...उसकी जेब में क्या जा रहा है...वो फटेहाल क्यों हैं...महंगाई हमारे लिए इतनी ज़्यादा है तो देश के अन्नदाता किसान को गुज़र बसर करना कितना मुश्किल हो रहा होगा...इसका जवाब सरकार के पास होना चाहिए...लेकिन जो जाग कर भी सोने का बहाना करे, उसे कौन जगा सकता है...

स्लॉग ओवर

मक्खन की बेबे (मां) की मौत हो गई...भाईया जी (पिता) पहले ही दुनिया छोड़ कर जा चुके थे...मक्खन का बेबे से बड़ा जुड़ाव था...बेबे के बिना उसे दुनिया ही बेकार लगने लगी...अपने में ही गुमसुम रहने लगा...इसी तरह एक साल बीत गया...मक्खन के जिगरी ढक्कन से मक्खन की ये हालत देखी नहीं जा रही थी...लेकिन करे तो करे भी क्या...

तभी उसे किसी ने बताया कि शहर में कोई सयाना आया हुआ है...ढक्कन ने सोचा मक्खन को सयाने जी के पास ही ले जाता हूं...शायद वो ही उसे ठीक कर दें...मक्खन ने सयाने को अपना दर्द बताया...सयाना भी पहुंची हुई चीज़ था...उसने मक्खन को ठीक करने के लिए एक तरकीब सोची...उसने मक्खन से कहा...बच्चा, तेरी बेबे से पिछले जन्म में अनजाने में कोई बड़ी भूल हो गई थी...इसलिए ऊपर वाले ने बेबे को सजा के तौर पर इस जन्म में श्वान (कुत्ती) बना कर भेज दिया है...लेकिन जल्द ही तेरी बेबे से मुलाकात होगी...इसलिए परेशान मत हो...मक्खन सुन कर मायूस तो बड़ा हुआ लेकिन बेबे से जल्द मिलने की सोच कर ही थोड़ी तसल्ली हुई...बाहर निकले तो ढक्कन उसे खुश करने के लिए जलेबी की दुकान पर ले गया...दोनों जलेबी खा ही रहे थे कि एक कुत्ती वहां आ गई... और जलेबी के लालच में मक्खन को देख कर ज़ोर ज़ोर से पूंछ हिलाने लगी...मक्खन का कुत्ती को देखकर माथा टनका...सयाने जी के बेबे के बारे में बताए शब्द उसके कानों में गूंजने लगे...मक्खन ने जलेबी का एक टुकड़ा डाल दिया...कुत्ती ने झट से टुकड़ा चट कर लिया...और उचक-उचक कर मक्खन की टांगों पर पंजे मारने लगी...मक्खन ने सोचा हो न हो...ये मेरी बेबे ही लगती है...

मक्खन घर की ओर चला तो कुत्ती जी (सॉरी...बेबे) पीछे पीछे...मक्खन का भी मातृसेवा का भाव अब तक पूरी तरह जाग चुका था...बेबे को साथ लेकर ही मक्खन अपने घर में दाखिल हुआ और मक्खनी को आवाज़ दी...सुन ले भई...तूने बेबे को पहले बड़ा दुख दिया था...लेकिन इस बार बेबे जी को कोई तकलीफ हुई तो तेरी खैर नहीं...मक्खनी भी मक्खन के गुस्से की सोच कर डर गई...लो जी बेबे जी की तो अब मौज आ गई...कहां गली-गली नालियों में मुंह मारते फिरना...और कहां एसी वाला बढ़िया बेडरूम...बेबे जी के लिए बढ़िया बेड बिछ गया...बेड पर पसरे रहते और बढ़िया से बढ़िया खाना वहीं आ जाता...
 
मक्खन भी काम पर आते-जाते बेबे जी के कमरे में जाकर मिलना नहीं भूलता...एक दिन मक्खन काम से घर वापस आया तो आदत के मुताबिक बेबे जी के कमरे में गया...लेकिन ये क्या...बेड पर उसे बेबे जी नहीं दिखे....ये देखते ही मक्खन का पारा सातवें आसमान पर...चिल्ला कर मक्खनी को आवाज़ दी....बेबे जी कहां हैं...तूने फिर कोई उलटी सीधी हरकत की होगी...और वो नाराज़ होकर चली गई होंगी...इस पर मक्खनी ने कहा....नाराज़ न होओ जी...ओ आज शामी बेबे जी नू घुमाण लई भाईया जी आ गए सी, ओन्हा नाल ही सैर ते गए ने...(आज शाम को बेबे जी को घुमाने के लिए भाईया जी आ गए थे...उन्हीं के साथ सैर पर गई हैं...)

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24 टिप्पणियाँ
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  1. चलिये पहईया जी का दिल भी तो बिना बेबे के नही लगता, अभी तो मखन के भाई बहिन भी आयेगे:)
    किसानो के बारे पढ कर बहुत दुख हुया, किसान सारा दिन मेहनत करता है, लेकिन लाला( आढती) एसी मै बेठा आराम से उस मेहनत का मजा लेता है

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  2. खुशदीप भाई, आज गर्व महसूस कर रहा हूँ आपको भाई कहते हुए.. ऐसा मुद्दा उठाया है आपने.. अगर आप और हम जैसे लोग चाहें तो ब्लॉग्गिंग एक जबरदस्त माध्यम हो सकता है समाज सुधार का.. बस थोड़े प्रयास की जरूरत है...
    एक थोड़ी सी अलग बात ये की ''लोग कहते हैं की थोड़ा ऊपर उठिए... लेकिन मैं आपसे नीचे जाने का निवेदन करता हूँ.. वो इसलिए की बड़े मुद्दे सभी देखते हैं.. हमें छोटे और निचले स्तर पर भ्रस्ताचार, घूसखोरी, गुंडागर्दी और आतंक आदी को उजागर करना है... वो भी उन छुटभैये बदमाशों और भ्रष्ट, घूसखोरों के नाम सबको बता बता के.. जिससे की जब लोग उनके बारे में खुले आम जानें तो वो अपनी गर्दन हम सबके सामने ऊंची ना रख सकें.... हमारे आस पास ऐसे कई नमूने मिल जायेंगे जो उनके कारनामों समेत ब्लॉग पर लाये जा सकते हैं...''
    स्लोग ओवर भी मस्त रहा...
    जय हिंद...

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  3. बेचारा मक्खन......बेचारा किसान...........दोनों की ही दुःख भरी दास्तां !

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  4. खैर, गन्ने शक्कर का अर्थशास्त्र जरा गहराई में उतर कर समझना पड़ेगा लेकिन बेबे अच्छा निकली ली घूमने!! :)

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  5. राजनीति में किसान का मुद्दा एक स्थाई और कारगर भाव है !

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  6. केवल गन्ना ही नहीं और भी वस्तुएँ हैं जैसे कि नमक मिट्टी के भाव की चीज सोने के भाव में बिक रही है, और सब लोग तमाशा देख रहे हैं।

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  7. समर्थों के पक्ष में यानि व्‍यवसायियों के पक्ष में रहती है सरकार .. अन्‍नदाता कहे जानेवाले लोग ही आज दाने दाने के लिए मुंहताज हैं .. बढिया पोस्‍ट लिखा !!

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  8. Aaj ki post ki jitni bhi tareef ki jaye kam hai....samaajik sarokaar se paripurn hai aapki post....



    aur makhkhan ka aaj ka slog over to bahut hi badhiya raha .... pairon ko gardan mein baandh kar hans raha hoon....abhi tak......hahahahahahahahahahahaha


    JAI HIND

    JAI HINDI

    JAI BHARAT...

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  9. हा-हा-हा ... BTW: ये भैया जी कौन थे भाई साहब ?

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  10. आदरणीय खुशदीप जी...आपकी आज की पोस्ट को अब तक की आपकी सभी पोस्टों में से सबसे बढिया कहा जा सकता है...आपने जो मुद्दा उठाया है...वो सच में काबिले तारीफ है...किसानों की शोचनीय दशा के बारे में जानकर बहुत दुख हुआ कि उन्हें उनकी मेहनत का वाजिब दाम नहीं मिल रहा है...
    इस सब के पीछे बाज़ारवाद का वो कलुषित सिद्धांत...वो विचार लागू होता है कि किसी भी कीमत पे अपने से निचले तबके को कुचल के भारी से भारी मुनाफा कमाया जाए...
    सरकार मुनाफाखोरों से मिली हुई है...दालें जल्द ही सौ रुपए किलो के आंकड़े को पार कर लेंगी....आटा है तो...उसकी कीमतें भी आसमान को छू रही हैँ...
    आखिर हमारे देश में सस्ता है ही क्या?...मोबाईल फोन और कम्प्यूटर...ना?...लेकिन उससे पेट कैसे भरेगा?...पेट तो अन्न से ही भरेगा...आज हम बात कर रहे हैँ कि किसानों को उनकी मेहनत का याने के के उनकी फसल का उचित मूल्य मिले लेकिन सिर्फ गन्ने और गेहूँ के या फिर किसी भी अन्य फसल के समर्थन मूल्य को बढाने से क्या होगा?...माना कि किसानों को कुछ पैसे ज़्यादा मिल जाएँगे..लेकिन उससे भी उनकी स्तिथि में कोई खास फर्क पड़ेगा...ऐसा कहना मुश्किल है क्योंकि जब बाकी ज़रूरी चीज़ों के दामों में ही आग लगी हुई होगी तो ज़रा सी राहत क्या फायदा करेगी?"...

    हरियाणा,पंजाब और उत्तर प्रदेश किसान बाहुल्य राज्य हैँ तो यकीनन वहाँ के वोटों में भी सबसे बड़ा हिस्सा किसानों का ही है... इसलिए वहाँ कि सरकारों ने त्वरित राजनीति के चलते फसलों के समर्थन मूल्य को बढा ज़रूर दिया है लेकिन उसका खामियाज़ा तो पूरे देश को ही भुगतना पड़ेगा ना? ...

    हमारे एक तो बेरोज़गारी पहले ही देश के युवा वर्ग को निगले चली जा रही है...ऊपर से अगर खाने-पीने की चीज़ें भी मँहगी पर मँहगी होती चली गई तो वो दिन दूर नहीं होगा जब देश में हर आदमी हाथ में कट्टा...रामपुरी ...खुखरी या फिर माउज़र थामे नज़र आएगा...चारों तरफ लूट-खसोट की वारदातें बढ जाएँगी...अभी से राह चलती लड़कियों और महिलाओं के साथ आए दिन झपटमारी की वारदातें बढने लगी हैँ....उन्हें जबरन अगवा कर सामुहिक बलात्कारों को अंजाम दिया जाने लगा है...आप सोचेंगे कि मैँ यहाँ पर चल रहे मुद्दे से भटक गया हूँ लेकिन मेरे मित्र...युवा वर्ग में व्यापत इस कुंठा और मनोवृति की भी असली वजह यही है कि उनके पास करने के लिए कुछ नहीं है...खाने के लिए कुछ नहीं है...हर चीज़ के लिए पैसा चाहिए और इस मँहगाई के चलते पैसा किसी के पास है नहीं...

    देखा जाए तो हमारे देश में व्यापत हर समस्या चाहे वो शिक्षा की हो...प्रदूषण की...या फिर बढती बेरोज़गारी की.....हर एक की जड़ में हमारी दिन-प्रतिदिन बढती हुई जनसंख्या मौजूद नज़र आती है...जहाँ एक तरफ जिन देशों की आबादी कम है ...वहाँ सामान खरीदने वाले भी कम है...इसीलिए वहाँ पर कीमतों एक अंकुश सा लगा रहता है ...ठीक इसके विपरीत हमारे यहाँ अधिक जनसंख्या होने की वजय से जितना मर्ज़ी स्टॉक आ जाए...उसे गायब होने में देर नहीं लगती...



    आज प्रतियोगिता के चलते जैसे मोबाईल फोन का कॉल रेट दिन पर दिन घटता ही जा रहा है...जिस एक मिनट की कॉल को करने के लिए कभी हमें सोलह रुपए चुकाने पड़ते थे ..आज उसी को मोबाईल कम्पनियाँ एक पैसे या फिर आधे पैसे प्रति सैकेंड की दर से हमें मुहय्या करवा रही हैँ...याने के ज़्यादा से ज़्यादा साठ पैसे प्रति मिनट....तो क्या वो जानबूझ के अपना नुकसान और हमारा भला कर रही हैँ?...बिलकुल नहीं...ये सब इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि उन पर ट्राई जैसी संस्था लगातार निगरानी करते हुए उन्हें उनकी मनमानी नहीं करने दे रही है ...ठीक इसी प्रकार खाद्यानों और अन्य सभी ज़रूरी वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित एवं निर्धारित करने के लिए किसी ना किसी निष्पक्ष संस्था का होना बहुत ही ज़रूरी है....

    आज मुक्त बाज़ार की रणनीति के चलते हमारे देश में रोज़ाना नई कम्पनियाँ पदार्पण कर रही हैँ...वो अपने साथ उन विकसित देशों के तमाम प्राडक्टस को भी ला रही हैँ... जिनकी हमें कतई आवश्यकता नहीं है या जिनके बिना भी हमारा काम चल रहा था मसलन मँहगे फोन...होम थिएटर सिस्टम...बड़ी लग्ज़रियस कारें...ए.सी...वगैरा...वगैरा...एक तरफ वो देश के दिमागदार तबके को बहुत ही ऊँची तनख्वाहें दे कर अपनी तरफ कर लेती हैँ फिर उन्हें ही अपना मँहगा सामान बेच कर उनकी जेबें इस कदर खंगाल डालती हैँ कि वो बेचारे इतनी अधिक हैंडसम तनख्वाह होने के बावजूद हर महीने किश्तें भरते नज़र आते हैँ...

    इस सब से बचने का मुझे एक ही उपाय नज़र आता है कि हमें संयम से रहना सीखना होगा...

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  11. राजीव जी,
    आज तो आपने टिप्पणी में अपना एक दूसरा ही रूप दिखा दिया...एक कवि, एक व्यंग्यकार की देश के ज्वलंत मुद्दों पर इतनी गहरी सोच....साधु...साधु...

    हां, अजय कुमार झा भाई ने ज़रूर आपकी टिप्पणी की लंबाई को नापना शुरू कर दिया होगा...क्योंकि मुलाकात के दौरान आपकी पोस्ट को लेकर ही दो किलोमीटर-डेढ़ किलोमीटर पर बात अटक गई थी...अब टिप्पणी के लिए भी झा जी से लंबाई की अनुमति लेनी होगी...

    और हां, राजीव भाई...बेबे तो आपके कमेंट का इंतज़ार ही करती रह गई...

    जय हिंद...

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  12. अरे...मैँ तो आपकी मुख्य पोस्ट में लिखे गए ज्वलंत मुद्दे में ही खो कर आपके स्लॉग ओवर का जिक्र करना तो भूल ही गया...
    आपके स्लॉग ओवर में पँजाबियत का जो टच होता है...उसके तो कहने ही क्या? लेकिन कहे बिना रहा भी कहाँ जाता है?...वो खाने के बाद.."कुछ मीठा हो जाए" कहते हैँ ना...
    तो उस मीठे झोंके की तरह आपका स्लॉग ओवर एक ही झटके में सारा तनाव दूर करने में सक्षम होता है

    मज़ेदार रहा आपका इस बार का स्लॉग ओवर

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  13. बहुत खूब इस बार की स्लोग ओवर लाजवाब रही ।

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  14. बहुत शानदार टॉपिक... बेहतरीन मुद्दा... ज्वलंत मुद्दा... क्या traffic में फंसे थे क्या :)

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  15. हाय हाय किसान की हालत हा हा हा मक्खन दोनो बहुत बडिया लिखे हैं आज जल्दी मे बस शुभकामनायें

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  16. भाई खुशदीप, गन्‍ने और चीनी का मसला बेहद पेचीदा है। कुंए में चक्‍कर लगाकर समुद्र की गहराई को नहीं नापा जा सकता। किसानों की अपनी समस्‍याएं हैं, सरकार की अपनी और चीनी मिलें धंधा कर रहीं हैं जो किसानों से भी बैर नहीं ले सकतीं और सरकार की पूजा भी करना उनकी मजबूरी है।
    आपके लेख में कुछ तथ्‍यात्‍मक गलतियां हैं। पहली चीज उत्‍तर प्रदेश सरकार ने सिर्फ समर्थन मूल्‍य घोषित किया है बोनस नहीं। बोनस देना या समर्थित मूल्‍य से ज्‍यादा दाम देना चीनी मिलों के अधिकार क्षेत्र में है। सरकार ने एक समर्थन मूल्‍य घोषित कर दिया जिसका मतलब है कि उससे कम में अमुक कृषि उत्‍पाद नहीं खरीदा जा सकता। यानी उससे अधिक देने में कोई रोक नहीं है। अगर राजनीति गन्‍ने और किसानों को न भरमाती तो गन्‍ना दो सौ रूपये कुंटल से अधिक दामों पर बिक रहा होता क्‍योंकि इस साल खेतों में जितना गन्‍ना हे उतने गन्‍ने से चीनी मिलें दो महीने से ज्‍यादा चल ही नहीं सकतीं; लिहाजा डिमांड और सप्‍लाई के गैप में किसानों को हर हाल में चीनी मिलें अधिक दाम देतीं। आज किसान अपना गन्‍ना डेढ़ सौ रूपये प्रति कुंटल बेच रहा है। गेंहू की बुबाई का समय निकला जा रहा है, मिलें चलीं नहीं है, किसान को खेत खाली करना है लिहाजा वह अपना गन्‍ना डेढ़ सौ रूपये कुंटल में कोल्‍हू को बेच रहा है। अगर नेतागिरी के नाम पर दंबगई न हो तो किसान आज गन्‍ना लेकर लाइन में खड़ा हो जाए।
    रही चीनी के दाम की बात। अगर आज चीनी पैंतालीस रूपये कुंटल है तो दो साल पहले पंद्रह रूपये किलो भी थी। कारण उत्‍पादन मांग से अधिक था। तब सरकार ने या इन नेताओं को उत्‍पादन लागत से कम मूल्‍य पर गन्‍ना बेचने के एवज में कोई राहत दी थी क्‍या? क्‍या चीनी का प्रोडक्‍शन अधिक हो जाने पर चीनी के दाम इतने ही ऊपर बने रह सकते हैं। क्‍या अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले नेता बताएंगे कि मांग से कम उत्‍पादन होने पर चीनी कहां से आएगी। रॉ शुगर का आयात अगर नहीं होगा तो तैयार चीनी क्‍या और मंहगी नहीं पड़ेगी? क्‍या आप चाहते हैं कि चीनी साठ रूपये किलो हो जाए? कितने गन्‍ने से कितनी चीनी बनती है; ये गन्‍ने की सेहत पर और गन्‍ने की से‍हत जलवायु पर निर्भर है। इस वक्‍त गन्‍ने से चीनी की रिकवरी का प्रतिशत सात के आसपास है। यानी एक कुंटल गन्‍ने से सात किलो चीनी। अगर दो सौ रूपये का एक कुंटल गन्‍ना भी हो तो चीनी का भाव दो सौ रूपये की सात किलो यानी अठाइस रूपये के आसपास। इसमें पांच रूपये की लागत और फिर निवेशित पूंजी का ब्‍याज और प्रोफिट। ये रिकवरी अधिकतम दस से ग्‍यारह प्रतिशत के बीच में रहती है। कुछ दिन। अब आप बताईए कि इक्‍कीस रूपये की रॉ शुगर से चीनी के भाव क्‍या बैठेंगे। अब आप ये तर्क दे सकते हैं कि चीनी मिलें गन्‍ने से शीरा, शराब, बोर्ड, खाद जैसे सहउत्‍पाद भी बनाती है। लेकिन ये सुविधा बहुत कम चीनी मिलों के पास है क्‍योंकि उसमें भी पूंजीनिवेश होता है।
    मैं मानता हूं कि किसानों का दर्द जायज है। उसे कभी भी लाभकारी मूल्‍य नहीं मिला लेकिन एक समय था जब साहूकारों का कॉकस उसे मिल कर लूटता था लेकिन अब उनके पास एक सुरक्षा भी है। समर्थन मूल्‍य की सुरक्षा।
    आज हमें उत्‍पादकता और कृषि विकास दर पर ध्‍यान देने की जरूरत है। हमारी किसी भी सरकार ने आजादी के बाद कृषि पर उतना ध्‍यान नहीं दिया जितनी जरूरत थी। हम आठ और दस प्रतिशत विकास दर का रोना तो रोते हैं लेकिन हमारी कृषि विकास दर केवल ढाई प्रतिशत है। हम पांच एकड़ जमीन में खेती कर जो उत्‍पादन लेते हैं उतना उत्‍पादन ब्राजील और रंगून जैसे देश एक-दो एकड़ में ही प्राप्‍त कर लेते हैं। फिलहाल इतना ही। केवल इतना कहना चाहूंगा कि पत्रकार और नेता में कोई विशेष फर्क नहीं है क्‍योंकि दोनों ही अपने निहित स्‍वार्थों से ऊपर उठकर नहीं सोचते।

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  17. कहते हैं, करे कोई, भरे कोई.
    यानि---
    मेहनत करे कोई, तिज़ोरियाँ भरे कोई.

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  18. यह आपने बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है । आप्के और हरि जी की बात से पूरा चित्र साफ हो गया । अफसोस यह है कि विगत अनेक वर्षॉ मे महाराष्ट्र इस समस्या से जुझता रहा लेकिन सरकार द्वारा उत्पादन से लेकर मार्केटिंग तक कोई भी सही नीति नही बनाई गई ।

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  19. पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस रस्साकशी का लाभ गन्ना माफ़िया, साहुकार और गुड़ बनाने वाले क्रशर उद्योग ने खूब उठाया है। बिहार और नेपाल को गन्ना ट्रक पर लाद कर भेंजा जाता है और किसान को खेत में नगद भुगतान करके हफ़्ता-दस दिन में चीनी मिलों से साठ-गाँठ करके मोटी कमाई कर ली जाती है।

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  20. ओतेरे कि ..मैं सोच रहा हूं कि उडते उडते ये खबर सुनी थी ..कुछ बिलागर्स भी गन्ना किसान रैली में शामिल हुए थे ...इसमें से सब के सब दिल्ली के थे..अब धीरे धीरे पता चल रहा है कौन कौन थे ..ये मीठी मीठी पोस्टें ...सब गन्ने का कमाल है भैया....राजीव भाई ..अमां ये टीप थी कि टीपांग ...जो भी थी ..बहुत सटीक थी ...
    स्लौग ओवर तो हमेशा की तरह मेडेन विकेट रहा ..क्लीन बोल्ड जी

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  21. आज शक्कर का ज़ायका कडुआ हो गया है। सुगर लाबी बहुत मज़बूत है जो नेताओं का चुनाव समय ‘ध्यान’ रखती है। किसान की किस्मत में तो मेहनत और आत्महत्या ही लिखी है। नेता, अधिकारी और उद्योगपति की जय हो :)

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  22. खुशदीप भाई मूलतः मै भी किसान परिवार से हुं।हम लोग गांव के पाटिल हैं।बचपन से मैं पढता आ रहा हुं भारत एक कृषी प्रधान देश है।भारत की 75 % आबादी गांवो मे रहती है।मगर आज़ादी के इतने सालो बाद गांव की और कृषि की,गांव मे रहने वालों की,किसानो की तरक्की के लिये क्या किया गया?एक बार एक फ़ूड प्रोसेसिंग मिनिस्टर से मुलाकात हुई थी जब मैने उनसे पूछा कि आज़ादी के बाद से एग्रो बेस्ड इंडस्ट्रियल डेव्हलपमेंट क्यो नही किया गया तो उनके पास जवाब नही था?यंहा पत्थलगांव एक ईलाका है जंहा टमाटर की फ़सल इतनी ज्यादा होती है कि टमाटर का भाव ही नही मिलता।क्या वंहा सास या केचप बनाने की फ़ैक्ट्री नही लगनी चाहिये?क्या सरकार को खुद कोल्ड स्टोरेज की चेन नही खोलनी चाहिये?किसान अपना उत्पाद व्यापारी के गोदाम मे किराया देकर क्यों रखे?बहुत सी बात है खुशदीप भाई।किसान पीढी दर-पीढी छोटा होता जा रहा है,उसकी जमीन बंटवारे से हर बार आधी हो जाती है,मालगुज़ार ले दे के गुज़ारा कर रहे हैं।किसान इसलिये मर रहा है कि उसका कोई राजनितिक माई-बाप है ही नही।

    बहुत सही मुद्दा उठाया।इनके बारे मे सोचने की शायद किसी को फ़ुरसत भी नही है।

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  23. Bahut badhiya vishay aapne dhoondh nikaala hai..
    aur aapko daad de rahi hun...
    shukriya...

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  24. बाजार है ही इस लिए कि लोग मुनाफा कूटते रहें। तंगी की हालत में मुनाफा कुटाई भी अच्छी खासी हो लेती है।

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