क्या आप अपने बच्चों को अच्छी तरह जानते हैं...खुशदीप

क्या आप अपने बच्चों को अच्छी तरह जानते हैं...उनके दिमाग में हर वक्त क्या रहता है, आप उसे पढ़ना जानते हैं...मुझे आज ये मुद्दा उठाने के लिए मजबूर किया है ऐसी कुछ उम्मीदों ने जो हक़ीक़त बनने से पहले ही दम तोड़ गईं...इन उम्मीदों को बचाया जा सकता था...इन छोटे-छोटे सपनों का दम निकालने के लिए कौन ज़िम्मेदार है...सबसे आगे रहने की अंधी दौड़...एजुकेशन सिस्टम या खुद आप और हम...

मध्य प्रदेश के देवास में दसवीं की छात्रा सपना चौहान ने स्कूल में ही सल्फास खाकर खुदकुशी कर ली...सपना ने सुसाइड नोट में बड़ा-बड़ा लिखा "I QUIT"...ठीक वैसे ही जैसे फिल्म थ्री इडियट्स में हॉस्टल में रहने वाला एक छात्र गले में फंदा डालकर जान देने से पहले लिख कर छोड़ जाता है...बताया जाता है कि सपना को स्कूल के एक टीचर ने एक ही दिन में साइंस प्रैक्टीकल की कॉपी पूरी करने के लिए धमकाया था...सपना दबाव में टूट गई और जान देकर अपने मां-बाप के सपनों को भी तोड़ गई...

कोल्हापुर का दशरथ पाटिल, मुंबई के माटुंगा में बीकॉम फर्स्ट इयर की छात्रा शिवानी सेठ, विरार में दसवीं का छात्र सूरज, नासिक की प्रियंका और धनश्री पाटिल....कई नाम हैं खुदकुशी करने वाले छात्र-छात्राओं की फेहरिस्त में...अकेले महाराष्ट्र मे पिछले 12 दिन में 25 युवा उम्मीदें दम तोड़ चुकी हैं...क्या बच्चों में आगे निकलने की होड़ का चेहरा इतना ख़ौफनाक हो गया है कि बच्चों को दबाव सहने की जगह खुदकुशी में ही छुटकारा नज़र आने लगा है...ऐसी स्थिति लाने के लिए ज़िम्मेदार कौन है...आज ज़रा बच्चों की दिनचर्या पर ज़रा नज़र दौड़ाइए...स्कूल में पढ़ाई, ट्यूशन में पढ़ाई, घर पर पढ़ाई...और अगर रिलेक्स होने के लिए थोड़ा ब्रेक लेते हैं तो कंप्यूटर, टीवी या वीडियो गेम...और किसी काम के लिए घर से बाहर निकलना तक नहीं...आउटडोर खेलने के लिए जाएं तो जाएं कहां...कहीं पार्क बचे ही नहीं...और अगर कहीं हैं भी तो वहां इतनी बंदिशें लगा दी जाती हैं कि बच्चे उन्हें दूर से ही राम-राम कर लेना बेहतर समझते हैं...

इंटरनेट, आरकुट ने बच्चों की ऐसी साइट्स तक भी पहुंच बना दी है जहां तनाव, अवसाद को बढ़ावा देने वाले लेख भरे रहते हैं...ये सब बच्चों को शारीरिक दृष्टि से तो नुकसान पहुंचा ही रहा है उनकी मनोस्थिति पर भी बुरा असर डाल रहा है...कहते हैं न अच्छी चीज़ सीखने में उम्र बीत जाती है और बुरी चीज़ पकड़ने में दो मिनट नहीं लगते...कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ देने वाली फिल्म थ्री इ़डियट्स को सपना चौहान की खुदकुशी के लिए कटघरे में खड़ा किया जा सकता है...लेकिन क्या वास्तव में सारा कसूर फिल्म का ही है...फिल्म में दबाव से बचने के लिए खुदकुशी का रास्ता कहीं नहीं दिखाया गया है...फिल्म में तो यही संदेश दिया गया है कि सिर्फ अच्छे मार्क्स ही कामयाबी की गारंटी नहीं होते...दूसरा बहुत कुछ भी ज़रूरी होता है आदमी की सक्सेस के लिए...

क्या आपने नोट किया है कि बच्चे फेसबुक, आरकुट पर वर्चुअल में अपने को एक्सप्रेस करते हुए पूरा दिन बिता सकते हैं...लेकिन किसी अनजान आदमी या परिचित से भी फोन पर भी बात करनी हो तो कन्नी काटने की कोशिश करते हैं...दरअसल बच्चों ने अपनी ही एक दुनिया बना ली है...छोटी उम्र, बड़ी उम्मीदें...सक्सेस के लिए शार्टकट की उधेड़बुन में ये अपरिपक्व मस्तिष्क न जाने क्या-क्या सोच लेते हैं...और अगर इन्हें उस सोच के मुताबिक असल ज़िंदगी में होता नहीं दिखता तो ये अतिरेक में कोई भी कदम उठाने  का भी दुस्साहस कर सकते हैं...हमारी दिक्कत ये है कि हम अपनी उम्र के हिसाब से सोचते हैं...और बच्चों से भी यही उम्मीद रखते हैं कि वो भी वैसा ही सोचें...ऐसा करते हुए आप ये भूल जाते हैं कि आप भी एक झटके में इस स्थिति में नहीं पहुंचे...क्या-क्या पापड़ नहीं बेले...आपके पास तज़ुर्बा दर तज़ुर्बा बनी सोच है...बच्चों के पास जब वो तजु़र्बा ही नहीं है तो ये कैसे मुमकिन है कि आप जैसे नज़रिए से ही दुनिया को समझने लगे...आज काउसलिंग की भी बड़ी वकालत की जाती है...लेकिन बच्चे को जो काउंसलिंग माता-पिता या घर के दूसरे सदस्यों से मिल सकती है वो बाहर से हर्गिज़ नहीं मिल सकती..


ये सही है कि सभी बच्चों का आईक्यू एक-सा नहीं हो सकता...लेकिन ये भी सच है कि अगर बच्चा पढ़ाई में ज़्यादा तेज़ नहीं है तो उसमें कोई न कोई हुनर ऐसा ज़रूर होगा, जिसमें वक्त बिताना उसे अच्छा लगता होगा....बच्चे में छिपी इन छोटी-छोटी क्वालिटी को पहचानिए...उसे प्रोत्साहित कीजिए...साथ ही ये बताना शुरू कीजिए कि करियर के लिए अब बेशुमार अवसर उपलब्ध हैं...अब वो ज़माने लद गए जब बच्चा इंजीनियरिंग या मेडिकल एंट्रेस में सफल नहीं होता था तो उसे बेकार मान लिया जाता था...आज हर फील्ड में संभावनाएं हैं...बच्चे में हुनर कैसा भी है उसे निखार कर करियर की शेप देने वाले संस्थान बाज़ार में मौजूद है...बच्चों को बस ये समझाना है कि अगर एक रास्ता बंद होता है तो सौ रास्ते और खुल जाते हैं...दिल्ली में आजकल बीए, बीकॉम, बीएससी कराने वाले कॉलेजों में भी प्लेसमेंट के लिए कंपनियां आने लगी हैं....बच्चों को बताया जाए कि अगर वो ज़िंदादिली के साथ चुनौतियों का सामना करते हैं तो किसी भी तरह की पढ़ाई के बाद शानदार करियर बना सकते हैं...दसवीं, बारहवीं में परसेंटेज का पहाड़ न खड़ा कर पाने या एंट्रेस एग्ज़ाम में कामयाबी न मिलने से ही दुनिया नहीं रुक जाती...




बच्चों को उन महान हस्तियों की नज़ीर दी जा सकती हैं जिन्होंने नाकामी पर नाकामी झेलने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी और उन ऊंचाइयों तक ही पहुंच कर दम लिया जहां से सारी दुनिया बौनी नज़र आती है..सिर्फ एक उदाहरण देता हूं...अमिताभ बच्चन का...जिन्हें उनके पिता हरिवंश राय बच्चन ने कभी नैनीताल में शेरवुड स्कूल में नसीहत दी थी...मन का हो तो अच्छा और न हो तो और भी अच्छा...वही अमिताभ बच्चन युवावस्था में रेडियो पर नौकरी मांगने गए तो उनकी आवाज़ को फेल कर दिया गया था...बाद में उसी आवाज़ का पूरा देश दीवाना हुआ...अमिताभ के करियर की शुरुआत में एक के बाद एक दर्जनों फिल्में पिटी लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी...अपने अंदर की आग़ को बुझने नहीं दिया...इसी का नतीज़ा रहा...ज़ंज़ीर, दीवार, शोले का एंग्री यंगमैन...जो वनमैन इंडस्ट्री बन गया...लेकिन इन्हीं अमिताभ बच्चन के लिए नब्बे के दशक में फिल्मों की असफलता के साथ ऐसा बुरा दौर भी आया कि उनकी कंपनी एबीसीएल का भट्ठा बैठ गया...गले तक अमिताभ को कर्ज़ में डुबो दिया...लेकिन हिम्मत अमिताभ ने यहां भी नहीं हारी...कठिनाइयों से लड़े और कौन बनेगा करोड़पति के ज़रिए फिर मुकद्दर का सिकंदर बन कर दिखाया....

बच्चों को ऐसे ही प्रेरक प्रसंग ढूंढ ढूंढ कर सुनाना चाहिए...किसी उपदेशक की तरह नहीं बल्कि उनका दोस्त बनकर...उसी उम्र में पहुंच कर जिस उम्र में आपके बच्चे हैं....और किसी भी तरह हफ्ते में एक बार ही सही बच्चों के साथ आउटिंग पर जाने की कोशिश कीजिए...चाहे घर के सबसे पास वाले पार्क में ही सही...बच्चों में यही विश्वास भरें कि वो कितने अहम हैं...घर के लिए भी और देश के लिए भी...मैंने खुद की गिरेबान में झांककर देखा तो बच्चों का सबसे बड़ा गुनहगार मुझे अपने में ही दिखा...अब पक्का ठान लिया है, छुट्टी वाले दिन कुछ भी हो जाए, बच्चों को साथ लेकर घर से बाहर मस्ती करने के लिए कहीं न कहीं ज़रूर जाऊंगा...



स्लॉग चिंतन

रेत अगर मुट्ठी से फिसलती है तो उसका भी एक मकसद होता है...ईश्वर उस मुट्ठी को इसलिए खाली कराता है क्योंकि वो वहां आसमान को उतारने के लिए जगह बनाना चाहता है...हर कोई चाहता है...इक मुट्ठी आसमान...

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29 टिप्पणियाँ
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  1. बहुत अच्छा सार्थक एवं विचारणीय आलेख.

    बच्चों को बस ये समझाना है कि अगर एक रास्ता बंद होता है तो सौ रास्ते और खुल जाते हैं..--यह बात शिक्षक और अभिभावक दोनों की जिम्मेदारी है.

    बच्चों के साथ घूमने जाना, समय बिताना और उन्हें यह विश्वास दिलाना कि हर सुख दुख वो आपको बता सकते हैं और आपकी सलाह ले सकते हैं निडरता से- यह हर अभिभावक का कर्तव्य है.

    निःसंदेह एक बेहतरीन आलेख.

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  2. जब एक किशोर आत्महत्या करता है /करती हैं, तो सभी प्रभावित होते हैं ... परिवार के सदस्य दोस्त-मित्र, पड़ोसी , और कभी कभी वो भी जो उन्हें जानते तक नहीं है ...इस दुःख में खुद को शामिल पाते हैं ...सभी दुःख, भ्रम और अपराध भाव से ग्रसित हो जाते हैं और यही सोचते हैं काश हम कुछ ऐसा कर पाते कि यह घटना घटती ही नहीं....
    हालाँकि किशोर आत्महत्या या आत्महत्या करने की कोशिश के पीछे कारण जटिल हो सकते हैं....
    आत्महत्या के प्रयास और आत्महत्या की दर किशोरावस्था के दौरान काफी बढ़ जाती है. ऐसा माना जाता है कि 15 - 24 साल के बच्चों में, आत्महत्या, असमय मृत्यु के लिए तीसरी प्रमुख वजह है ....
    यहाँ यह बताना चाहूंगी कि आत्महत्या कि कोशिश की दर लड़कियों में लड़कों कि अपेक्षा दुगुनी है ....क्यूंकि वो ज्यादा भावुक होती हैं....आम तौर पर लडकियां आत्महत्या करतीं हैं...नींद की गोली खाकर या ..हाथ काट कर....लेकिन आत्महत्या सेमृत्यु की दर लड़कों में लड़कियों की अपेक्षा चार गुनी है....वो शायद इसलिए क्योंकि लड़के ज्यादा घातक तरीका प्रयोग में लाते हैं .....जैसे फांसी, पिस्तौल या बन्दूक या फिर ऊँची जगह से छलांग लगाना....
    बहुत जरूरी है ऐसी घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करने की, उन शक्तियों को पहचानने की जो इन मासूमों को इस तरह कगार तक धकेल ले जाती है...और ऐसा कुछ करने की कि इस तरह की घटनाओं को समय से रोका जा सके....
    खुशदीप जी हमेशा कि तरह बहुत सार्थक आलेख..
    धन्यवाद...

    मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी...!!

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  3. खुशदीप भाई - आपसे सहमत हूँ। ११ जनवरी २०१० को को मेरे बहुत ही करीबी मित्र के २४ बर्षीय लड़के ने फाँसी लगा ली। उसी में आजकल उलझा हुआ हूँ। कारण था इन्जिनियरिं की परीक्षा मे दो पेपर मे बैक लगना।

    जो बन्दूक बाप नहीं चला पाता प्रायः वह बन्दूक अपने बेटे के कंधे पर रखकर चलाना चाहता है और बहुत से मामले में यह कारण भी जिम्मेवार है।

    आपने ठीक ही कहा कि - ...सक्सेस के लिए शार्टकट की उधेड़बुन में ये अपरिपक्व मस्तिष्क न जाने क्या-क्या सोच लेते हैं...

    short cut may cut short your life

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  4. ज्वलन्त विषय उठाया आपने . हम अपने बच्चो पर जो मानसिक अत्याचार कर रहे है उसके लिये दोषी है हम . जो हम बच्चो पर पढाई का बोझ डाल्ते है वह अपने स्वार्थ के लिये ही ,ज्यादा नम्बर से पास हो अच्छी नौकरी लगे और बुढापा सुख से बीते .
    खुशदीप भाई आप से एक निवेदन है और आप सक्षम भी है एक सर्वे करे जो यह बताये पिछ्ले १० साल के १०वी और १२वी के टापर बच्चे आज क्या कर रहे है और पिछ्ले १० सालो मे सिविल सर्विस ,आई आई टी ,आई आई एम करने वालो मे कितने है जो १० -१२ मे टाप करके आये है
    स्लाग चिन्तन का तो जबाब नही

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  5. इसमें कोई शक नहीं कि अभिभावकों की जो अपनी इच्छाएं अधूरी रह जाती हैं वे बच्चों के माध्यम से पूरी होते देखना चाहते हैं ....मगर इसे बच्चों पर थोपना नहीं चाहिए ....
    यदि अभिभावकों का अपने बच्चों से इतना जुडाव हो कि वे बिना डरे अपनी हर बात उनसे कह सके , और अभिभावकों में इतनी शक्ति और सामर्थ्य हो कि वे उनका हर सच स्वीकार कर सके तो इन मासूमों को आत्महत्या करने की कोई दरकार नहीं होगी ...
    आत्महत्या करने का कारण सिर्फ पढ़ाई में पिछड़ना ही नहीं है ...बच्चों की अपनी महत्वाकांक्षा भी जिम्मेदार होती है ...ऐसे समय में उन्हें मार्गदर्शक की आवश्यकता है जो सही और गलत , जरुरत और शौक , जरूरी और गैरजरूरी का फर्क बता और समझा सके ....
    सामाजिक मुद्दों पर जवाबदेही व्यक्त करती आपकी प्रविष्टि बहुत कुछ सोचने पर विवश करती है ..!!

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  6. आज के किशोरों को इस प्रकार के लेखों और पुस्‍तकों की बहुत आवश्‍यकता है .. आज के अभिभावक सचमुच अपने बच्‍चे को नहीं समझते .. दूसरों से तुलना करते वक्‍त मासूम के दिल का थोडा भी ख्‍याल नहीं करते .. असफलता बच्‍चों को बहुत भयावह दिखती है .. काश हम समझ पाते कि हर असफलता के पीछे ही सफलता की एक बडी कहानी छिपी है !!

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  7. एक सामयिक एवं सार्थक पोस्ट!

    बच्चों के जो विचार बनते हैं वे उनके संस्कार पर निर्भर होते हैं। मैं बार-बार दुहराया करता हूँ कि विचार संस्कार से बनते हैं और संस्कार शिक्षा से।

    प्रथम शिक्षक माता-पिता होते हैं (संयुक्त परिवार हो तो दादा-दादी तथा अन्य भी)। मैं अपना स्वयं का उदाहरण देता हूँ कि मेरे स्कूल में भर्ती होने से पहले भी मुझे मेरी दादी प्रतिदिन रामायण, भागवत आदि पौराणिक ग्रंथों के उद्धरण देकर प्रेरक तथा उपदेशपूर्ण कहानियाँ सुनाया करती थीं। वे मात्र कहानियाँ नहीं होती थीं बल्कि शिक्षा होती थीं मेरे लिये। एकलव्य की कथा पहली बार मुझे पहली बार मेरी दादी ने ही सुनाई थी जिसका परिणाम यह हुआ कि बचपन से ही मेरे अचेतन मस्तिष्क में यह बात घर कर गई कि यदि लगन हो तो सफलता अवश्य ही मिलती है।

    कितने माता पिता अपने बच्चों को समय देते हैं? क्या बचपन से ही वे अपने बच्चों के मस्तिष्क में, कथा-कहानी के जरिये ही सही, प्रेरक बातों को बिठाने का प्रयास करते हैं? कथा-कहानी का तो जमाना ही लद गया, टी.व्ही. चैनल निगल गई कथा कहानियों को। रामायण को वाल्मीकि के बदले रामानन्द सागर के नाम से जाना जाता है, महाभारत को वेदव्यास के बदले बी.आर. चोपड़ा के नाम से जाना जाता है।

    विदेशों से उधार ली गई हमारी शिक्षानीति अलग से बच्चों को बरबाद कर रही है। उन्हें अपनी भाषा और संस्कृति का तो ज्ञान ही नहीं हो पाता।

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  8. प्रेरक पोस्ट.
    स्लाग चिंतन तो बेहद अछा लगा.

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  9. खुशदीप भाई-हमारे शास्त्र कहते हैं।
    मातृमान् पितृमानाचार्य्वान् पुरुषो वेद। (शतपथ ब्राह्मण)
    अहो भाग्य उस मनुष्य का है जिसका जन्म से विद्वान माता-पिता और आचार्य से सम्बंध हो। तीनो ही मिलकर उसका निर्माण करते हैं।

    नीतिकारों ने स्पष्ट मार्ग सुझाया है, लेकिन जीवन की आपाधापी में लोग चाह कर भी ध्यान नही दे पाते। बच्चे के लिए उनके हृदय मे प्यार उमड़ते रहता है, ले्किन समय नही है।
    भौतिकता ने इस सुख को लील लिया है। प्यार होते हुए भी देने का समय नही है।
    बच्चों की तरफ़ विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है जब वे 13-20 साल तक के ना हो जाएं, उनके साथ स्नेह का भाव बनाने की जरुरत है।
    तभी सम्भव हो सकता हैं, पालक और पाल्य दोनो एक दुसरे पर विस्वास कायम करें। इसमे शिक्षक भी एक महत्वपुर्ण पात्र है।

    आज बहुत लिख गया। आभार

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  10. 3 Idiots ke 'I Quit' ko apnane ke liye to yahi kahoonga ki 'ye shama to jale roshni ke liye, is shama se koi jal jaaye to... ye shama kya kare...'
    aaj ye sandesh har maa baap ko dene ki jaroorat hai bhaia... aaj ke pariprekshya me nitant aavashyak lekh..
    Jai Hind...

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  11. मान-बाप अपने अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करते हुए उन्हें वो पढ़ने पर या वो करने पे मजबूर करते हैं जिसमें बच्चों की रुचि या दिलचस्पी नहीं है। इस चीज़ को मैंने खुद अपने लिए महसूस किया है...मुझे मजबूरन बिजनस में महज़ इसलिए धकेला गया क्योंकि पिताजी और बड़े भाई साहब सरकारी नौकरी करते थे और पुश्तैनी काम को संभालने के लिए एक गधा चाहिए था

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  12. बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षाएँ लादने की अपेक्षा उन के साथ जीना अधिक आवश्यक है। उन्हें समझने की कोशिश हर मां बाप को करनी चाहिए।

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  13. बेहद विचार योग्य पोस्ट लिखी है आपने. आजकल बच्चों के ऊपर अपनी सारी अपेक्षाएं मा-बाप ने लाद रखी हैं और उनकी परिणिती दिखाई देरही है.

    रामराम.

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  14. द्विवेदी सर,
    आपने तो कोटा में देखा होगा कि मां-बाप देश के कोने-कोने से आकर कैसे मासूमों को नवीं, दसवीं में ही इंजीनियरिंग और मेडिकल एंट्रेस की रैट-रेस में दौड़ाने के काबिल बनाने के लिए कोटा छोड़ जाते हैं...अजनबी शहर में उन बच्चों की व्यथा को द्विवेदी सर अगर आप किसी पोस्ट में पकड़ने की कोशिश करें तो यथार्थ से पर्दा भी उठेगा और शायद अभिभावकों के दिमागों की बंद खिड़कियां भी कुछ खुल सकेंगी...

    जय हिंद...

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  15. खुशदीप भईया इस बार आपने बेहद विचारणीय व सार्थक मुद्दे को सामने रखा है , आजकल के माँ और बाप बच्चे से वे सब उम्मीद करने लगते हैं जो कि उकसे शक्ति से बाहर है , और यहीं से शुरु होती है वह कहानी,, आखीर कैसे वह बच्चा वह सब माँ बाप को दे दे जो उसके बस में है ही नहीं , उधर बच्चा ये सोचते है कि माँ बाप के सपने को कैसे पूरा किया जाये, और मात्र एक असफलता बच्चे को तोड देती है , और वह वह कर बैठता है जो की उसे इस दबाव मुक्ति दिला देता है , ऐसा बच्चे को लगता है कि मेरा यह कदम मुझे आजाद कर देता है ।

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  16. बहुत बढ़िया और सामयिक लेख , हम वाकई इन मासूमों को उचित समय नहीं दे पाते हैं , और दुर्घटना के बाद रोते हुए सोचने को विवश होते हैं की काश मैंने उसे समझने की कोशिश की होती .....
    सादर शुभकामनायें !

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  17. बहुत ही श्रेष्‍ठ आलेख। यदि माता-पिता केवल एक घण्‍टा भी बच्‍चों के साथ गपशप करलें तब बच्‍चों में तनाव नहीं रहता। लेकिन जो माता-पिता नहीं कर पाए वे अपने सपने बच्‍चों के माध्‍यम से पूरा करना चाहते हैं। ऐसा ही लिखता रहें, शुभकामनाएं।

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  18. is duniya me bachche ko palna ek badi zimmedari hai.bachche ko sahi margdarshan dena zaruri hai. par mata pita ke paas aur bhi to bahut zimmedariya hoti hai jisase kabhi kabhi galti to ho hi jati hai.....kya kahe kisko kya kahe....

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  19. यह विषय मेरे दिल के बहुत करीब है...कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब यह ख़याल नहीं आता.मैंने भी दो पोस्ट इसी विषय पर लिखी हैं...महानगरों में तो आए दिन यह देखना पड़ता है...मैंने इतनी उम्र होने तक एक भी आत्महत्या का केस नहीं देखा थ....और आज मेरे बच्चे आस-पास ही ३ आत्महत्याएं देख चुके हैं,जिनेम एक उनका साथ खेलने वाला लड़का ही था...और वजह बिलकुल अलग..पिता ने गल्फ में दूसरी शादी कर ली,पैसे भेजने बंद कर दिए...मकानमालिक ने धमकी दी घर खाली करो और दूसरे दिन वह छत से कूद गया...रोज शाम को बिल्डिंग के सारे बच्चे,मिल कर रोते थे.

    कुछ समझ नहीं आता,ये पीढ़ी इतनी जल्दी हताश क्यूँ हो जाती है.....और एक ही हल उन्हें नज़र क्यूँ आता है??..मनोवैज्ञानिकों ने कहा है...इसे 'copy cat syndrome ' भी कहा जाता है.आपने बड़े विस्तार से समझाया है..आशा है लोग इस पर अमल करने की कोशिश करेंगे.

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  20. आपने कारन और निवारण दोनों बता दिए!!! बच्चों की रूचि को देखते हुए अगरुसी दिशा में आगे बढ़ने के प्रयास किये जाएँ तो ये दुर्घटनाए समाप्त हो सकती h !!!

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  21. वेहतरीन पोस्ट. आप से शब्द दर शब्द सहमत.
    समीर लाल जी की टिप्पणी की मेरी भी समझी जाय. इस बर्ष की सबसे बढिया पोस्ट.

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  22. khushdeep ji

    aaj ki sabse badi samasya yahi hai magar iske liye jimmedar kaun hain .........kya hum log khud nhi hain?hum apni mahttvakankshayein apne bachchon pa rlaad dete hain jo hum khud nhi kar pae wo bachchon ke madhyam se pana chahte hain, samaj mein apna status isi se ooncha hoga jab hamara bachcha engineer ya doctor hoga ye soch hi aaj is avastha ki janni hai ........agar aaj ka padha likha samaj bhi is andhi daud mein shamil hoga to sochiye phir aur kisse ummeed ki jaye .........aaj educated person hi jyada pareshan hain aur wo bhi apne halaton se nhi balki doosre ki oonchaiyon se , isiliye wo chahta hai ki wo mukaam use bhi hasil ho phir uske iye chahe koi bhi kimat kyun na chukani pade .......sara dosh shiksha ka nhi hai aur na hi system ka .......kahin na kahin hum khud iske liye jimmedar hain .........agar aaj hum bachchon par apni mahtavakankshayein nhi thopein to wo bhi sukun ki zindagi ji sakte hain aur aisa kadam nhi uthate ...........abhi to aaj ke parents ki soch ,unki mansikta ko badalna padega tab jakar ye silsila tham sakta hai nhi to iska ant kya ho nhi kah sakte.
    aap to baat bade bachchon ki kar rahe hain aaj ke parents play school se hi pareshan rahte hain aur itna paisa kharcha karte hain sirf isliye ki unke bachche ka admission kisi naam wale school mein ho jaye ..........ise kya kahenge ? kya isi se unki mansikta ka pata nhi chalta ? to sochiye aage wo kaisa dabab banate honge apne bachchon par kyunki unhein lagta hai ki unhone paisa kharch karke koi bahut hi bada kaam kiya hai aur uska result agar ye nikalta hai ki bachcha fail ho gaya ya wo nhi ban paya jo wo chahte to wo bachchon ko harass karte hain aur usi ka natija ye nikalta hai ki bachche aisa kadam uthane pa rmajboor ho jate hain.

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  23. तथ्यात्मक पोस्ट और टिप्पणियो मे सार्थक विमर्श.
    धन्यवाद खुशदीप भाई.

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  24. आपसे पूर्णत्याः सहमत।

    हम अपने सपने अपने बच्‍चों के माध्‍यम से पूरा करना चाहते हैं,बिना यह जाने कि हमारे बच्चे क्या चाहते हैं। ऐसा करते हुये असल में हम उनसे उनका बचपन भी छीन लेते हैं

    जय हिंद्

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  25. खुशदीप जी यही सच और स्वीकार करने वाली बात है आपनी राय थोपने के बजाय माँ-बाप को बच्चे को उसे अपने मनपसंद मार्ग चुनने दे और उसमें सहयोग करे तो निश्चित रूप से वह संतान एक दिन नाम करेंगा..बस मार्गदर्शन सही होती रहे..
    हवा के विपरीत जाने से आदमी को हर पल संघर्ष करनी पड़ती है और उपर से एक डर बना रहता है की कब कमजोर दीवारें गिर जाए तूफान के सामने..तो कुछ ऐसा करना चाहिए की हमारे राह और हमारे कदम को एक हवा मिले और रफ़्तार दुगुनी हो...खुशदीप भाई एक बेहतरीन और सार्थक बात उठाई आपने निश्चित रूप से इस प्रसंग को समझने की ज़रूरत है..धन्यवाद जी

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  26. खुशदीप जी मॉफ कीजियेगा थोडा बिलम्ब हुआ आने में सप्ताहांत की व्यस्तताएं थीं ...बहुत ही सार्थक और विचारणीय लेख लिखा है आपने ..और इस मुद्दे पर मेरी अक्सर अभिवावकों से बहस हो जाया करती है...अपने बच्चों को हम नहीं समझते ..बिलकुल ठीक कहा आपने ...हम उनकी परेशानी नहीं समझते,उनकी रुचियाँ नहीं समझते ..बस वो समझते हैं जो कि समझना चाहते हैं ..उस पर तुर्रा ये की education system ऐसा है ..साथ साथ नहीं चलेंगे तो पीछे रह जायेगा बच्चा....हम ये नहीं समझते की जब तक हम बच्चे के दिल में ये विश्वास नहीं बैठाएंगे की हम उसके साथ है ..उसके अपने हैं ...वो कैसे कोई भी काम खुले दिल ओ दिमाग से कर पायेगा...बहुत ही उम्दा लेख .बधाई स्वीकारें..

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