हंगामा है क्यूं बरपा फ़ैज़ की नज़्म ही तो पढ़ ली है...खुशदीप



हम देखेंगेनज़्म क्या वाकई हिन्दू विरोधी या इससे डर की वजह कुछ और?


फ़ैज़ अहमद फ़ैज- फोटो आभार: विकीमीडिया 



फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म ‘’व-यबक़ा-वज्ह-ओ-रब्बिक (हम देखेंगे)में बुत हटाने के मायने क्या वाकई हिन्दू धर्म और उसे मानने वालों के ख़िलाफ़ थे? क्या इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, कानपुर (IIT-K) में फ़ैज़ की इस नज़्म गाए जाने का विरोध करने वालों ने इसका यही मतलब लगाया तो सही किया?

इन सवालों के जवाब जानने से पहले ये समझना ज़रूरी है कि आख़िर फ़ैज़ की 1979 में लिखी ये नज़्म अब क्यों भारत में सुर्खियों में है? इसके लिए आपको इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी- कानपुर (IIT-K) के परिसर में 17 दिसंबर 2019 को हुई एक घटना पर गौर करना होगा. उस दिन IIT-K में करीब 300 स्टूडेंट्स इकट्ठा हुए. उन्होंने जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी (दिल्ली) में नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) का विरोध करने वाले छात्र-छात्राओं के ख़िलाफ़ पुलिस की कार्रवाई पर नाराज़गी जताई. इस मौके पर एक छात्र ने फ़ैज़ की हम देखेंगे नज़्म भी सुनाई.

IIT-K के उपनिदेशक मनींद्र अग्रवाल के मुताबिक इस मामले की जांच के लिए कमेटी बनाई गई है. मनींद्र अग्रवाल ने इस विषय में कहा- ‘’ऐसी कुछ मीडिया रिपोर्ट आईं कि IIT-K  ने जांच इसलिए बिठाई है कि फ़ैज़ की नज़्म हिन्दू विरोधी है या नहीं.  इस तरह की रिपोर्ट भ्रामक हैं. असलियत ये है कि इंस्टीट्यूट को समुदाय के कुछ वर्गों से शिकायत मिली थीं कि स्टूडेंट्स के विरोध मार्च के दौरान कुछ खास कविताएं (नज़्म) पढ़ी गईं. बाद में सोशल मीडिया पर कुछ पोस्ट भी ऐसी आईं जो भड़काऊ थीं. ऐसे में इंस्टीट्यूट ने इन सारी शिकायतों को देखने के लिए एक कमेटी बनाई है.’’

फ़ैज़ की ज़िस नज़्म पर इतना हंगामा बरपा है, पहले उसे पढ़ लेना ज़रूरी है- 

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिरां
रूई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ऐ-ख़ुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो

नज़्म में कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका मतलब जाने बिना इसे ठीक से नहीं समझा जा सकता. मसलन,

लौह-ए-अज़ल: क़यामत तक का जहां सारा ज़िक्र है, वो तख़्ती, स्लेट  या दस्तावेज़
कोह-ए-गिरां: बड़े पहाड़
महकूमों: रियाआ, प्रजा
अहल-ए-हकम: हुक़ूमत चलाने वाले
अर्ज़-ए-ख़ुदा: सारी ज़मीन
अहल-ए-सफ़ा: पवित्र लोग
मरदूद-ए-हरम: वे लोग जिन्हें पाक़ जगहों पर जाने की इजाज़त नहीं
हाज़िर: मौजूद
मंज़र: नज़ारा
नाज़िर: देखने वाला
अनल-हक़: मैं ही ब्रहम हूं या मैं ही खुदा हूं या मैं ही सच हूं
ख़ल्क़ए-ख़ुदा: इनसान समेत खुदा की बनाईं सभी चीज़ें

क्या वाकई इस नज़्म में कुछ ऐसे शब्द हैं जिनसे हिन्दू समुदाय की भावनाएं आहत हो सकती हैं? फ़ैज़ तमाम उम्र फिरकापरस्ती, कट्टरपंथ, तानाशाही और पीछे की ओर ले जाने वाले कदमों का विरोध करते रहें. इसलिए उन्हें अपने ही मुल्क़ में एंटी-इस्लाम, एंटी-पाकिस्तान का तमगा देने वालों की कमी नहीं रही. उनसे सबसे ज्यादा परेशानी पाकिस्तान के फौजी हुक्मरान जिया उल हक़ को हुई. इसलिए उनके दौर में हम देखेंगे नज्म पर ही बैन लगा दिया गया था.

ये फ़ैज़ का ही कमाल था कि उन्होंने तानाशाही, ज़ुल्म करने वाली हुकूमत पर प्रहार करने के लिए हम देखेंगेनज़्म में प्रतीकों के तौर पर ऐसे कई शब्दों का सहारा लिया जिनका कट्टरपंथी ख़ूब इस्तेमाल करते रहे थे.

हम देखेंगेनज़्म को ठीक से समझने से पहले फ़ैज़ के बारे में ये जानना ज़रूरी है कि फ़ैज़ का मुल्क़ पाकिस्तान ज़रूर रहा लेकिन उन्होंने अपनी उम्र का आधा हिस्सा पाकिस्तान के बाहर ही बिताया. पचास के दशक में वो पांच साल तक जेल में भी रहे. जिस नज़्म विशेष हम देखेंगेकी बात की जा रही है, वो उन्होंने 4 दशक पहले 1979 में पाकिस्तान के फौजी हुक्मरान जिया उल हक़ के तानाशाह दौर के ख़िलाफ़ लिखी थी. फ़ैज़ का इंतकाल 20 नवंबर 1984 को लाहौर में हुआ. फ़ैज़ की हम देखेंगेनज़्म शख्स-शख्स की ज़ुबान पर तब चढ़ी जब मशहूर गायिका इक़बाल बानो ने इसे अपनी आवाज़ बख़्शी. इक़बाल बानो ने 13 फरवरी, 1986 को फ़ैज़ के जन्मदिन वाले दिन इस नज़्म को लाहौर के अल-हमरा आर्ट काउंसिल परिसर में करीब 50,000 लोगों के सामने गाया. जिया उल हक़ के तमाम ख़ौफ़ से बेपरवाह इस आयोजन को फ़ैज़ मेले का नाम दिया गया.

दरअसल तब जिया उल हक़ ने अपने एक फ़रमान के तहत औरतों के साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दी थी. इसी पर ऐतराज़ जताने के लिए इकबाल बानो ने काली साड़ी पहन कर ये नज़्म गाई.  
आइए अब जानते हैं कि फ़ैज़ इस नज़्म के जरिए कहना क्या चाहते थे-

हम देखेंगे, हमारा वो दिन देखना तय है जिसका कि वादा है, जो अनंतकाल तक की तख़्ती पर लिखा है. जब ज़ुल्म और सितम के घने पहाड़ रूई की तरह उड़ जाएंगे. तब हम रियाआ (प्रजा) के पैरों के नीचे धरती धड़ धड़ धड़केगी और हम पर राज करने वाले लोगों के सिर पर बिजली कड़ कड़ कड़केगी. जब इस दुनिया से झूठ की पहचान वाले सारे लोग (जो खुद को खुदा समझ बैठे हैं) हटाए जाएंगे. फिर हम जैसे साफ़ लोग जिन्हें पाक़ जगहों से दूर रखा गया, उन्हें बड़े गद्दों पर बिठाया जाएगा. सब ताज उछाले जाएंगे. सब तख़्त गिराए जाएंगे. नाम रहेगा अल्लाह का जो गायब भी है और हाज़िर भी. दृश्य भी है और इसे देखने वाला भी. यहां अल्लाह शब्द का इस्तेमाल ख़ालिस या पवित्रता के लिए हुआ. इसे किसी एक मज़हब से से जोड़ कर देखना बेतुका है. यहां किसी भी धर्म के ईष्ट का इस्तेमाल किया जा सकता था. फ़ैज़ खुद नास्तिक थे और वो अपने लिखे में आवाम को ही सबसे ऊपर बताते थे. अगर उनकी ये नज़्म एक ही मज़हब से जुड़ी होती तो 41 साल बाद भी ताकतवरों की मनमानी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए इतना बड़ा ज़रिया नहीं बनी होती.   

हम देखेंगे नज़्म की सबसे अहम पंक्तियां आगे हैं और इन्हें ठीक से समझना बहुत ज़रूरी है.

उठेगा अनल हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ऐ-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

मशहूर लेखक-गीतकार जावेद अख़्तर का कहना है कि इस नज्म में 'अनल हक़' का ज़िक्र है. इसका शाब्दिक अर्थ है- अहम ब्रह्म यानि मैं ही खुदा हूं या मैं ही सच हूं. अनल हक़ सूफ़ी परम्परा या भक्ति की कबीर जैसी निर्गुण धारा के करीब है. जावेद अख्तर के मुताबिक ये अद्वैतवाद है. जिसमें क्रिएटर और क्रिएशन यानि सृष्टिकर्ता और उसकी बनाई गई चीज़ों को एक ही माना गया है. जबकि इस्लाम, ईसाई और यहूदी धर्मों में क्रिएटर और क्रिएशन को अलग माना जाता है. अनल हक़ का नारा बुलंद करने की वजह से ही मुगल तानाशाह शासक औरंगजेब ने सूफी सरमद का सिर कटवा दिया था. जिस 'अनल हक़' को औरंगजेब ने इस्लाम और अपनी हुकूमत के खिलाफ माना वो अब भला हिन्दू भावनाओं को आहत करने वाला कैसे हो सकता है?

अनल-हक़ का नारा जब उठेगा यानि रियाआ के लोग भी खुद को हुकूमत करने वालों के बराबर ही मानेंगे. और फिर राज खुदा की बनाई हुई चीज़ें ही करेंगी जो मैं और तुम सब हो.

फ़ैज़ की ये नज़्म तानाशाही, शासकों की मनमानी के ख़िलाफ़ है और लोकतंत्र (जम्हूरियत) की सच्ची आवाज़ है. यही वजह है कि जिया उल हक़ जैसे हुक्मरान ने इसकी ताक़त को समझ कर इस पर बैन लगा दिया था. सीधी सी बात फ़ैज़ की ये नज़्म किसी मज़हब ख़ास के लिए नहीं है और ना ही फ़िरक़ापरस्ती से इसका कोई ताल्लुक़ है.

(#हिन्दी_ब्लॉगिंग)

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5 टिप्पणियाँ
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  1. सतीश सक्सेना भाई जी की टिप्पणी-
    वाकई फ़ैज़ की आवाज आम जनता की आवाज है , जन आवाज के लिए देश में एक फ़ैज़ अहमद होनी ही चाहिए ..
    अनूठे लेख के लिए आभार खुशदीप भाई

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  3. फ़ैज़ की ग़ज़ल साक्षी/द्रष्टा की साधना पर आधारित है..
    एक इशारा है..
    हम भी देखेंगे..
    अनल हक़..अहम ब्रह्ममास्मि.. उस साधना का चरमोत्कर्ष होता है.. यह एक योग की प्रक्रिया है..हिन्दू मान्यताओं में भी है और सूफ़ीसम में भी है।
    यह हिन्दू मुस्लिम पंथों से ऊपर का वास्तविक धर्म हैं जिस शिखर पर सब पंथ आकर मिल जाते हैं।

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  4. आप कुछ भी कहो, कहीं न कहीं कुछ आग तो है तभी तो धुआं उठ रहा है।

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