मोइत्रा ने जो कहा, उस पर बाद
में आऊंगा. पहले उनका संक्षिप्त परिचय दे दिया जाए. 2017 लोकसभा चुनाव में महुआ ने
पश्चिम बंगाल के कृष्णानगर लोकसभा क्षेत्र से जीत हासिल की. राजनीति में आने से पहले
मोइत्रा लंदन में प्रख्यात बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंवेस्टमेंट बैंकर थीं. 2009
में नौकरी छोड़कर मोइत्रा भारत आईं और राजनीति से जुड़ गईं. 2016 में पश्चिम बंगाल
की करीमनगर विधानसभा सीट से टीएमसी के टिकट पर ही विधायक बनीं. मोइत्रा टीएमसी के
राष्ट्रीय प्रवक्ता के तौर पर टीवी डिबेट्स में पार्टी का पक्ष रखती रही हैं.
मोइत्रा ने 2017 में अमेरिका के
होलोकास्ट मेमोरियल म्यूजियम की मुख्य लॉबी में लगे एक पोस्टर का भी हवाला दिया.
इस पोस्टर में फासीवाद आने के शुरुआती संकेतों को दर्शाया गया था. मोइत्रा के
मुताबिक जिन सात संकेतों को उन्होंने अपने भाषण में गिनाया वो उस पोस्टर का भी
हिस्सा थे. ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वो पोस्टर अब भी होलोकॉस्ट
मेमोरियल म्यूज़ियम या उसकी गिफ़्ट शॉप में लगा है या नहीं. 2017 में पोस्टर की
तस्वीर किसी यूज़र की ओर से ट्विटर पर शेयर किए जाने की वजह से ये चर्चा में आया.
ज़ाहिर
है पोस्टर में फ़ासीवाद के जो कारण गिनाए गए वो कोई हाल-फिलहाल में सामने नहीं आए.
ये पुरानी लिस्ट है जो अब सबके सामने है. फ़ासीवाद या मेजोरिटेरियनिज़म में यही माना
जाता है कि हम जो सोचते हैं वही सही है बाक़ि सब ग़लत. यानि बहुसंख्यकवाद का
प्रभुत्व.
मोइत्रा ने जो अपने भाषण में कहा
सोशल मीडिया पर उसे कुछ यूजर्स ने उसे ‘स्पीच ऑफ द ईयर’ बताया. मोइत्रा मोदी सरकार पर तीखे प्रहार करने में मुखर
रहीं. ये भी सच है कि उन्होंने जो भी कहा, उसमें कुछ हद तक देश की सच्चाई भी है.
लेकिन मोइत्रा जिस टीएमसी का प्रतिनिधित्व करती है उसी का बंगाल में राज है. ममता
बनर्जी के शासन वाले बंगाल में टीएमसी का सिंडीकेट फलने फूलने और प्रोटेक्शन मनी वसूले
जाने के आरोप सामने आते रहे हैं. पॉन्जी स्कीम घोटाले भी टीएमसी के शासन में हुए.
मोइत्रा संसद में पहली बार
बोलीं, बहुत अच्छा बोलीं. लेकिन उन्हें अपनी पार्टी में भी ये आवाज़ उठानी चाहिए
कि हमें केंद्र सरकार के खिलाफ बोलने का पूरा नैतिक आधार तभी होगा जब हम बंगाल में
आदर्श शासन व्यवस्था की मिसाल पूरे देश के सामने पेश करें. ‘मां, माटी और मानुष’ के जिस नारे को आगे कर ममता लेफ्ट के ज़मींदोज़ शासन को
उखाड़ कर बंगाल की सत्ता में आई, उस नारे को पूरी तरह हक़ीक़त में भी बदल कर
दिखाएं.
आख़िर में उसी बात पर आता हूं,
जहां से इस लेख की शुरुआत की थी. क्या अब वाकई भारत में नरम फ़ासीवाद जैसे हालात
बन रहे हैं. ‘एक देश, एक चुनाव’ क्या उसी दिशा में बढ़ाया जाने वाला कदम है? पांच साल पहले मैंने यही लिखा था कि संघवाद के चलते फ़ासीवाद के
देश में सिर उठाने की संभावना कम ही है. ये तभी संभव हो सकता है कि केंद्र के साथ
करीब करीब सभी राज्यों में एक ही पार्टी या गठबंधन की सरकार स्थापित हो जाएं.
ऐसे में राज्यों में कठपुतली मुख्यमंत्री होने की वजह से किसी भी एजेंडे को लागू करना बाएं हाथ का खेल हो जाएगा. हां जब तक कई राज्यों में विपक्षी पार्टियों या विरोधी विचारधाराओं की सरकारें हैं और राज्यसभा में विपक्ष का हाथ ऊपर है, केंद्र में सत्तारूढ पार्टी के लिए अपना एजेंडा थोपना टेढ़ी खीर ही रहेगा. हां, जिस दिन इन बाधाओं को भी साध लिया जाएगा तो कट्टर फ़ासीवाद भी दूर की कौड़ी नहीं रहेगा.
ऐसे में राज्यों में कठपुतली मुख्यमंत्री होने की वजह से किसी भी एजेंडे को लागू करना बाएं हाथ का खेल हो जाएगा. हां जब तक कई राज्यों में विपक्षी पार्टियों या विरोधी विचारधाराओं की सरकारें हैं और राज्यसभा में विपक्ष का हाथ ऊपर है, केंद्र में सत्तारूढ पार्टी के लिए अपना एजेंडा थोपना टेढ़ी खीर ही रहेगा. हां, जिस दिन इन बाधाओं को भी साध लिया जाएगा तो कट्टर फ़ासीवाद भी दूर की कौड़ी नहीं रहेगा.
सारे संकेत इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि देश कट्टरपंथ या फिर फासीवाद की तरफ बढ़ रहा है, राष्ट्रवाद की आड़ में नफरत की राजनीति को हथियार बनाया जा चुका है।
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