धर्म की वजह से रोहिंग्या पर निर्वासन की तलवार?...खुशदीप

रोहिंग्या शरणार्थियों पर भारत सरकार की बोली बाक़ी दुनिया से अलग क्योंइस मुद्दे पर आने से पहले से बता दूं कि रोहिंग्या पर पहले दो पोस्ट विस्तार से लिख चुका हूं. जिन्होंने उन पोस्ट को नहीं पढ़ा, उनकी सुविधा के लिए लिंक ये हैं-.


अब इसी संदर्भ में विस्तार ये है कि आज यानि 11 सितंबर को इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई 15 सितंबर तक के लिए स्थगित हो गई है. दरअसल, भारत के गृह मंत्रालय की ओर कुछ समय पहले राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश जारी किए गए हैं कि वे टास्क फोर्स बना कर भारत में रह रहे अवैध रोहिंग्या प्रवासियों की पहचान करे जिससे कि उन्हें डिपोर्ट कर वापस म्यांमार भेजा जा सके. गृह मंत्रालय के ऐेसे निर्देशों के ख़िलाफ़ दो रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थियों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. वहीं चेन्नई के एक संगठन इंडिक कलेक्टिव और बीजेपी के पूर्व विचारक के एन गोविंदाचार्य ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर रोहिंग्या मुसलमानों की भारत में मौजूदगी को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया है, साथ ही इन्हें देश से निकालने की मांग की है. बता दें कि रोहिंग्या प्रवासियों में तकरीबन तकरीबन सारे मुसलमान हैं.     

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रमुख ने की भारत सरकार के रुख की निंदा

भारत सरकार के रुख, सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई से पहले सोमवार के एक और घटनाक्रम से आपको अवगत करा दूं. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रमुख जाएद राद अल हुसैन ने रोहिंग्या शरणार्थियों को लेकर भारत सरकार के रुख की निंदा की है. हुसैन ने एक बयान मे कहा कि वे भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों को निकालने के लिए उठाए जा रहे मौजूदा कदमों की निंदा करते हैं, वो भी ऐसे समय जब उन्हें अपने देश में भीषण हिंसा का सामना करना पड़ रहा है.

रोहिंग्या को समुद्र में फेंकने या शूट करने नहीं जा रहे : रिजिजू

दरअसल, 5 सिंतबर को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरन रिजिजू ने ऐसे टास्क फोर्स बनाने की बात कही थी जो भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों की पहचान करेगा जिससे कि उन्हें डिपोर्ट (निर्वासित) किया जा सके. रिजिजू ने रोहिंग्या को अवैध प्रवासी बताते हुए कहा कि इनको कानून के अनुसार डिपोर्ट किए जाने की ज़रूरत है. रिजिजू के मुताबिक किसी को भारत को ये लेक्चर नहीं देना चाहिए कि वो शरणार्थियों से किस तरह पेश आए. रिजिजू ने कहा कि भारत की महान लोकतांत्रिक परंपरा है और सरकार उन्हें समुद्र में फेंकने या शूट करने नहीं जा रही है.

सुप्रीम कोर्ट में दो रोहिंग्या शरणार्थियों की याचिका

गृह मंत्रालय के मुताबिक भारत में 40,000 रोहिंग्या रह रहे हैं. सबसे ज्यादा जम्मू, सांबा में करीब 10,000 हैं. इसके अलावा हैदराबाद, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली-एनसीआर और राजस्थान में भी रोहिंग्या प्रवासी रह रहे हैं. 

जम्मू में रोहिंग्या के कैंप का एक दृश्य :  फोटो साभार निशा मसीह/HT

भारत में रह रहे रोहिंग्या लोगों में से 14,000 ही संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (UNHCR) में रजिस्टर्ड हैं. सुप्रीम कोर्ट में याचिका देने वाले दोनों रोहिंग्या भी UNHCR में रजिस्टर्ड हैं. मोहम्मद सलीमुल्लाह और मोहम्मद शाकिर नाम के इन याचिकाकर्ताओं का कहना है कि रोहिंग्या प्रवासियों ने म्यांमार से भागकर यहां शरण ली है क्योंकि उन्हें वहां व्यापक भेदभाव, हिंसा और खूनखराबे का सामना करना पड़ रहा था. उन्होंने ये गुजारिश भी की है कि उन्हें और दूसरे रोहिंग्या प्रवासियों को भारत से निकाल कर फिर म्यांमार ना भेजा जाए. ऐसा किया गया तो उन्हें फिर म्यांमार फौज और बौद्ध अल्ट्रा नेशनलिस्ट्स के भारी ज़ुल्मों का सामना करना पड़ेगा. इन्हीं याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार से जवाब मांगा है.

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चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की बेंच इस मामले की सुनवाई कर रही है. जैसे कि संकेत मिल रहे हैं केंद्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट से कहा जा सकता है कि प्रवासियों के निर्वासन के लिए जो निर्देश जारी किए गए हैं वो सभी अनडॉक्यूमेंटेड शरणार्थियों के लिए हैं ना कि सिर्फ रोहिंग्या के लिए. गृह मंत्रालय के सूत्रों ने पहले ही संकेत दे दिया कि ऐसी कोई अंडरटेकिंग सरकार की ओर से नहीं दी जाएगी कि अवैध प्रवासियों का डिपोर्टेशन नहीं किया जाएगा. साथ ही ये भी आश्वासन नहीं दिया जाएगा कि अवैध प्रवासियों की पहचान करने के लिए गृह मंत्रालय के निर्देश पर राज्यों में बने टॉस्क फोर्स को खत्म कर दिया जाएगा.  

रोहिंग्या पर वैध दस्तावेज की बाध्यता

केंद्र ये भी कह सकता है कि ये पहला मौका नहीं है जब गृह मंत्रालय ने अवैध प्रवासियों को देश से निकालने पर कोई स्टैंड लिया है. पहले भी सरकार की ओर से अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों पर ऐसे निर्देश जारी किए गए हैं. सरकारी सूत्रों का कहना है कि जिन रोहिंग्या के पास वैध दस्तावेज होंगे (जैसे कि संयुक्त राष्ट्र की ओर से उपलब्ध दस्तावेज), उन्हें डिपोर्ट नहीं किया जाएगा. अब यहां ये सवाल उठ सकता है कि जो जान बचाने के लिए सिर पर पैर रख कर म्यांमार से भागे, जिनका सब कुछ वहां लुट गया वो वैध दस्तावेज कहां से साथ लाते?

रोहिंग्या याचिकाकर्ताओं की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पैरवी जानेमाने वकील प्रशांत भूषण कर रहे हैं. प्रशांत भूषण ने सरकार से आश्वासन मांगा था कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से याचिका के निस्तारण तक रोहिंग्या प्रवासियों के डिपोर्टेशन जैसा कोई कदम नहीं उठाया जाएगा. इस पर एडिशनल सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि वे सरकार की ओर से ऐसा कोई आश्वासन देने की स्थिति में नहीं है. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार का रुख जानकर सुप्रीम कोर्ट में रखने के लिए कहा.

रोहिंग्या का निर्वासन नॉन रिफाउलमेंट के सिद्धांत का उल्लंघन

याचिका में कहा गया है कि प्रस्तावित डिपोर्टेशन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 21 (जिंदगी और निजी स्वतंत्रता) के तहत सांविधानिक संरक्षणों के खिलाफ है. ये अनुच्छेद 51 (सी) के भी ख़िलाफ़ है जो हर व्यक्ति को समान अधिकार और स्वतंत्रता देता है. साथ ही ये नॉन रिफाउलमेंट के सिद्धांत का भी उल्लंघन करता है. भारत ने विभिन्न संधियों का अनुमोदन किया है जो नॉन रिफाउलमेंट के सिद्धांत को मान्यता देते हैं. इसके तहत शरणार्थियों को उस देश में नहीं भेजा जा सकता जहां उनकी जान को खतरा बना हो.

रोहिंग्या का मुद्दा बीती 25 अगस्त के बाद से पूरी दुनिया में छाया हुआ है. दरअसल, म्यांमार के राखिन प्रांत में रोहिंग्या चरमपंथियों के हमलों में 10 पुलिसकर्मियों और एक सैनिक की मौत के बाद म्यांमार की फौज ने बड़ा अभियान छेड़ रखा है. फौज पर पूरी रोहिंग्या आबादी पर भारी जुल्म बरपाने के आरोप लग रहे हैं. वहां दमन की जिस तरह की तस्वीरें अंतरराष्ट्रीय मीडिया में आ रही हैं वो विचलित करने वाली हैं. बीते दो हफ्ते में एक लाख से अधिक रोहिंग्या भाग कर बांग्लादेश पहुंच चुके हैं. बांग्लादेश में पहले से ही पांच लाख से ऊपर रोहिंग्या शरणार्थी हैं.

रोहिंग्या पर सरकार के सख्त रुख़ की वजह क्या?

भारत में जो रोहिंग्या हैं वो म्यांमार की ताजा हिंसा के दौरान वहां से भाग कर नहीं बल्कि पिछले 5 साल के दौरान आए हैं. रोहिंग्या के ख़िलाफ़ जिस तरह का रवैया म्यांमार की फौज और अल्ट्रा नेशनलिस्ट बौद्धों का है, उसकी दुनिया भर में भर्त्सना हो रही है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भारत का रुख हैरान करने वाला लग रहा है. बता दें कि म्यांमार में नब्बे के दशक के दौरान लोकतंत्र समर्थन आंदोलन और नोबेल विजेता आंग सान सू की की नज़रबंदी के दौरान वहां के हज़ारों नागरिकों और राजनेताओं ने फौजी हुकूमत के कोप से बचने के लिए भारत में शऱण ली थी.

म्यांमार को भी छोड़िए. बीबीसी की एक रिपोर्ट में शकील अख्तर लिखते हैं कि दलाई लामा के नेतृत्व में हज़ारों तिब्बती आधी सदी से भारत में शरण ले कर रह रहे हैं. श्रीलंका में गृहयुद्ध के दौरान लाखों तमिल शरणार्थियों ने भारत में पनाह ली थी. बड़ी संख्या में नेपाली भी भारत में रह कर आजीविका कमाते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि सवा अरब की आबादी वाले देश में सरकार को कुछ हज़ार रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों से ही दिक्कत क्यों है?

कुछ पर्यवेक्षकों का मानना ​​है कि मोदी सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों का विरोध कर 'हिंदू कार्डखेल रही है. उनका कहना है कि सरकार मुसलमानों को लेकर जब भी कोई सख्त कदम उठाती है या ऐसा कोई बयान सामने आता है तो इससे उसकी लोकप्रियता में वृद्धि होती है. क्या देश में ऐसे हालात की वजह से ही रोहिंग्या शरणार्थियों के सिर पर निर्वासन की तलवार लटकने लगी है?

भारत में इस वक्त मीडिया का एक वर्ग भी खुल कर सरकार के लिए बैटिंग कर रहा है. उसकी ओर से बहसों में रोहिंग्या शरणार्थियों को देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा क़रार दिया जा रहा है. बताया जाता है कि इन शरणार्थियों के अलकायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे चरमपंथी संगठनों से रिश्ते हैं और वे भारत में आतंकवाद का नेटवर्क फैला रहे हैं. ऐसे हालात में भारत के आम लोगों में भी रोहिंग्या प्रवासियों को लेकर संदेह पैदा हो रहे हैं.
रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए इन परिस्थितियों में जीवन और मुश्किल हो गया है. म्यांमार के राखिन प्रांत में ये अपना सब कुछ लुटाने के बाद किसी तरह जान बचाकर ये यहां पहुंचे थे. बुनियादी सुविधाओं के अभाव के बावजूद ये लोग भारत छोड़कर फिर मौत के मुंह में नहीं जाना चाहते.

भारत में धर्म कभी नहीं रहा शरण का आधार

रोहिंग्या शरणार्थियों के बारे में मौजूदा सरकार की नीति कोई हैरत की बात नहीं है. नरेंद्र मोदी ने साल 2014 में अपने चुनाव अभियान के दौरान असम में कहा था कि वे केवल हिंदू शरणार्थियों को देश में आने देंगे. गैर हिंदू शरणार्थियों को शरण नहीं दी जाएगी और जो ग़ैर-हिंदू अवैध शरणार्थी देश में हैंउन्हें यहां से निकाल दिया जाएगा. राजनयिक से राजनेता बने राज्यसभा के पूर्व सांसद मणिशंकर अय्यर ने हाल में अपने एक लेख में इस मुद्दे पर विस्तार से लिखा है. अय्यर के मुताबिक गृह मंत्रालय ने सितंबर 2015 में पासपोर्ट अधिनियम और विदेशी नागरिक अधिनियम के तहत जारी अधिसूचना में सामान्य प्रवेश और रिहाइशी प्रक्रियाओं के तहत जो छूट हिंदूसिखईसाईजैनपारसी और बौद्धों को पड़ोसी देशों में जुल्म का सामना करने की स्थिति में दी है वैसी मुस्लिमों के लिए नहीं है. ये संविधानखास तौर पर संविधान के अनुच्छेद 21(ज़िंदगी और आजादी के बुनियादी अधिकार से संबंधित) और अनुच्छेद 14 (समानता के बुनियादी अधिकार से संबंधित) की भावना से मेल नहीं खाता. ये दोनों अनुच्छेद किसी भी व्यक्ति के धार्मिक संबंद्धता का उल्लेख किए बिना ये अधिकार प्रदान करते हैं.

यहां ये बता देना भी ज़रूरी है कि भारत में 2014 से पहले धर्म कभी शरण लेने का आधार नहीं रहा. किसे शरण देनी है इसके लिए यही देखा जाता था कि किसी व्यक्ति या समुदाय को उनके देश में किस तरह के हालात का सामना करना पड़ रहा है. शरण देने के लिए ये देखा जाता था कि कहीं उन्हें अपने देशों में सरकारी दमनचक्र तो नहीं भुगतना पड़ रहा?

#हिन्दी_ब्लॉगिंग





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3 टिप्पणियाँ
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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-09-2017) को
    "कहीं कुछ रह तो नहीं गया" (चर्चा अंक 2726)
    पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. धर्म के नाम पर भेदभाव किसी भी तरह सही नहीं कहा जा सकता

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