मुलायम कुनबे की कलह में मौजूद है बॉलिवुड का पूरा मसाला...खुशदीप

समाजवादी पार्टी के कुनबे की कलह में बॉलिवुड की किसी पॉवर-पैक्ड इमोशनल फिल्म वाला पूरा मसाला मौजूद है. क्या नहीं है इस कहानी में- बाप-बेटे का टकराव, चाचा-भतीजे में हाथापाई, राजनीतिक विरासत के लिए लड़ाई, सौतेली मां-सौतेला भाई, सौतेली मां का अपनी कोख से जन्मे पुत्र के लिए मोह, 'आउटसाइडर्स' का परिवार में दखल जिन पर एक पक्ष विलेन होने का आरोप लगाता है. 

हालांकि रीयल लाइफ की इस स्टोरी का परिवेश दूसरा है लेकिन ये सत्तर के दशक की सुपरहिट फिल्म 'त्रिशूल' की याद दिलाता है. 1978 में रिलीज हुई 'त्रिशूल' की कहानी उस वक्त सलीम-जावेद ने लिखी थी, जिनका खुद का दर्जा सुपरस्टार्स से कम नहीं था. ये वो दौर था जब अमिताभ बच्चन की सिल्वर स्क्रीन के एंग्री यंगमैन के तौर पर पूरे भारत में तूती बोल रही थी. 'त्रिशूल' फिल्म की हाईलाइट पिता-पुत्र के तौर पर संजीव कुमार और अमिताभ का टकराव ही था.

'त्रिशूल' की तरह ही समाजवादी पार्टी कुनबे में भी परिस्थितियों ने पिता मुलायम सिंह यादव और बेटे अखिलेश यादव को आमने-सामने टकराव वाले मोड़ पर ला खड़ा किया. फिल्म में कारोबार को लेकर बाप-बेटा आमने सामने थे. तो मुलायम कुनबे में सियासी जमीन पर सुप्रीमेसी को लेकर बेटा बाप के सामने ताल ठोक रहा है. रील लाइफ और रीयल लाइफ के फर्क को जानने के लिए पहले संक्षिप्त में 'त्रिशूल' की कहानी जानना जरूरी है.

" फिल्म 'त्रिशूल' की कहानी राज कुमार गुप्ता (संजीव कुमार) और शांति (वहीदा रहमान) के लव-एंगल से शुरू होती है. राज बहुत महत्वाकांक्षी होता है इसलिए वो शांति को छोड़कर बड़े बिजनेसमैन की बेटी कामिनी (गीता सिद्धार्थ) से शादी कर लेता है. शांति पेट में राज की निशानी को लेकर राज की जिंदगी से दूर चली जाती है. शांति फिर बेटे विजय को जन्म देती है और हर तरह की कठिनाई सह कर उसे पढ़ा लिखा कर बड़ा करती है. विजय (अमिताभ बच्चन) दिल में इसी आग को लेकर जवान होता है कि उसके बाप ने सिर्फ अपनी खुदगर्जी के लिए उसकी मां के साथ धोखा किया.

विजय फिर पिता की सारी खुशियां छीन कर उसे बर्बाद कर देने के इरादे से दिल्ली आता है. दिल्ली में उसके पिता राज की कंस्ट्रक्शन कंपनी की धाक होती है. विजय अपनी कंपनी खड़ी कर  एक के बाद एक झटके देते हुए राज के कारोबार को खत्म कर देता है. ऐसा करते हुए विजय कहीं से राज को ये पता नहीं चलने देता कि वो उनका बेटा है. राज जब बिल्कुल अकेला रह जाता है तो विजय उसे अपना सच और मां शाति के बारे में बताता है. ऐसे में राज के सामने पश्चाताप की आग में जलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं होता." 

ये तो खैर फिल्म की कहानी थी. सलीम-जावेद की क्रिएटिविटी जितनी चाहे ड्रॉमेटिक-लिबर्टी ले सकती थी. लेकिन रीयल लाइफ में ये सब नहीं हो सकता. रीयल लाइफ में क्रिएटिविटी नहीं सब कुछ स्वत: (स्पॉन्टेनियस) होता है. जैसा कि मुलायम सिंह परि-'वार' में हुआ. इस रीयल स्टोरी में पिता के दूसरी महिला से संबंध काफी वक्त तक बेटे से ही छुपे रहे. यहां बेटा सियासत के ऊंचे मकाम यानी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा तो वो पिता की मेहरबानी से ही. लेकिन अब ये बेटा पिता की सरपरस्ती से अलग होकर अपनी पहचान खुद बनाना चाहता है. ऐसे सभी लोगों को दरकिनार करना चाहता है जिनके लिए वो समझता है कि वे सब पिता के कंधे पर बंदूक रखकर उस पर निशाना साध रहे हैं. साथ ही ये बेटा कैसे भूल सकता है कि पिता ने दूसरी महिला से संबंध जोड़कर उसकी मां के साथ नाइंसाफी की. 

1973 में अखिलेश यादव के जन्म से करीब 6 साल पहले ही मुलायम यूपी में विधायक बन चुके थे. राम मनोहर लोहिया को आदर्श मानने वाले मुलायम एक एक कर राजनीति की सीढ़ियां चढ़ते जा रहे थे. साथ ही घर में भी पत्नी मालती देवी के साथ उनके रिश्ते में कोई अड़चन नहीं थी. मुलायम जहां राजनीति में व्यस्त थे, वहीं मालती देवी घर पर इतने बड़े-यादव कुनबे की सरपरस्ती बखूबी कर रही थीं.

इस रीयल लाइफ स्टोरी में सब कुछ ठीक चल रहा था, इसमें नया मोड़ मुलायम सिंह के जीवन में साधना नाम की महिला के प्रवेश के बाद आया. मुलायम और साधना के बीच उम्र में 20 साल का अंतर था. तब तक मुलायम यूपी के कद्दावर नेता बन चुके थे. मुलायम सिंह और साधना की प्रेम कहानी कब शुरू हुई इस बारे में आधिकारिक जानकारी किसी के पास नहीं है. मुलायम सिंह की पहली पत्नी मालती देवी को झटका नहीं लगे इसलिए साधना से अपने रिश्ते को मुलायम ने  छुपाए रखा.

खास बात यह थी कि मुलायम की तरह खुद साधना भी शादीशुदा थी और उनकी शादी फर्रुखाबाद जिले के व्‍यापारी चुंद्रप्रकाश गुप्‍ता से हुई थी. मुलायम सिंह के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति वाले मामले की जांच के दौरान सीबीआई की स्टेट्स रिपोर्ट में दर्ज है कि साधना गुप्ता और चंद्र प्रकाश गुप्ता की शादी 4 जुलाई 1986 को हई थी. अगले साल 7 जुलाई 1987 को प्रतीक का जन्म हुआ था. उसके बाद साल 1990 में साधना और चंद्रप्रकाश के बीच औपचारिक तलाक हो गया.

नब्बे के दशक के अंतिम दौर में अखिलेश को साधना और प्रतीक  के बारे में पता चला, उन्हें यकीन नहीं हुआ, लेकिन बात सच थी. बहरहाल, 2003 में अखिलेश की मां मालती देवी का बीमारी से निधन हो गया. मुलायम और साधना के संबंध की जानकारी मुलायम परिवार के अलावा अमर सिंह को थी. मालती देवी के निधन के बाद साधना जोर देने लगीं कि मुलायम उन्हें अपनी आधिकारिक पत्नी मान लें, लेकिन पारिवारिक दबाव, ख़ासकर अखिलेश यादव के विरोध चलते मुलायम इस रिश्ते को कोई नाम नहीं देना चहते थे.

इस बीच साधना ने 2006 में अमर सिंह से संपर्क कर आग्रह किया कि वह नेताजी को रिश्ते की बात को सार्वजनिक तौर पर मानने के लिए मनाएं. लिहाज़ा, अमर सिंह के प्रयास के बाद 2007 में मुलायम सार्वजनिक तौर पर साधना को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए. इस घटनाक्रम से मुलायम परिवार में फिर हलचल तेज हो गई. अखिलेश के विरोध को नजरअंदाज कर मुलायम ने आय से अधिक संपत्ति से संबंधित मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दिया जिसमें उन्होंने साधना को पत्नी और प्रतीक को बेटे के तौर पर स्वीकार किया.

यकीनन अखिलेश को ये घटनाक्रम नागवार गुजरा. साधना की परिवार में एंट्री के लिए अखिलेश ने अमर सिंह को ही जिम्मेदार माना. कोई भी बेटा हो पिता के दूसरी महिला के साथ संबंध को अपनी मां के साथ अन्याय ही मानेगा. बताते हैं कि मार्च 2012 में मुख्यमंत्री बनने तक अखिलेश ने साधना को कोई तरजीह नहीं दी.

अखिलेश का ये रवैया मुलायम को पसंद नहीं आया. मुलायम के दखल पर अखिलेश को बैकफुट पर जाना पड़ा. साधना अपने चहेते अफसरों को मनपसंद पोस्टिंग दिलाने लगीं. द संडे गार्डियनने सितंबर 2012 में मलाईदार पोस्टिंग पाने वाले अफसरों की सूची छापी. बताया गया कि ये सारी पोस्टिंग साधना की सिफारिश पर ही हुईं. वहीं, साधना ने अपने बेटे प्रतीक के भी रियल इस्टेट कारोबार में जड़े जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. बताया जाता है कि साधना लीड्स यूनिवर्सिटी से पढ़े प्रतीक को राजनीति में भी लाना चाहती है. लेकिन प्रतीक अभी इसके लिए इच्छा नहीं दिखा रहे. हालांकि प्रतीक की पत्नी अपर्णा को जरूर समाजवादी पार्टी अगले विधानसभा चुनाव के लिए लखनऊ कैंट से अपना उम्मीदवार घोषित कर चुकी हैं.

मुलायम बेशक कह रहे हैं कि उनका परिवार एक है. लेकिन रिश्तों में जो दरार आ गई है, वो शायद ही कभी भर सके. मुलायम जहां छोटे भाई शिवपाल यादव और अमर सिंह की खुली तरफदारी कर रहे हैं. वहीं मुलायम के चचेरे भाई राम गोपाल यादव को राजनीतिक गलियारों में अखिलेश का चाणक्य माना जा रहा है. ये वहीं राम गोपाल यादव हैं जिनके लिए  मुलायम ने कहा है कि वो उनकी बात को कोई महत्व नहीं देते.

बॉलिवुड फिल्म की स्टोरी को ढाई-तीन घंटे में बांधा जा सकता है. लेकिन समाजवादी कुनबे की रीयल स्टोरी के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता.


यही कहा जाएगा...पिक्चर अभी बाकी है दोस्त....

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2 टिप्पणियाँ
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  1. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति मन्मथनाथ गुप्त और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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  2. You have lots of insights in political families..Now when results are out, People did not like all this!

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