मूलत: प्रकाशित- नवभारत टाइम्स, 5 मई 2014.
-खुशदीप सहगल-
क्रिकेट में जब तक आखिरी बॉल नहीं हो जाती, नतीजे के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। हां, मैच बिल्कुल इकतरफा हो तो बात दूसरी है। बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी क्या इस लोकसभा चुनाव को ऐसा ही मैच मान रहे हैं, जिसमें उनकी जीत निश्चित है? शायद ऐसा मानकर ही उन्होंने कश्मीर जैसे पेचीदा मुद्दे को सुलझाने के लिए फील्डिंग जमाना शुरू कर दिया है। यही नहीं, पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने की दिशा में भी मोदी ने देश का 'पॉलिटिकल कैप्टन' चुने जाने से पहले ही सिक्का उछाल दिया है।
मोदी जिस भारतीय जनता पार्टी के अब 'सर्वे सर्वा' हैं, उसका दशकों से कश्मीर पर एक ही स्टैंड रहा है- इस राज्य को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म किया जाए। यह मुद्दा इस लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी के घोषणापत्र में शामिल है। पाकिस्तान को लेकर बीजेपी हमेशा कड़ा रुख दिखाती रही है। चुनावी रैलियों में पाकिस्तान को खबरदार करने वाली ललकार भी इसी कड़ी में होती है। लेकिन, बैकडोर चैनल्स से जो खबरें सामने आ रही हैं, उनके संकेत साफ हैं कि मोदी अगर सत्ता में आए तो विदेश नीति को लेकर व्यावहारिक रुख अपनाएंगे।
पाकिस्तान को उम्मीद
कश्मीर में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के चेयरमैन मीरवाइज फारूक हों या पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती, दोनों मानते हैं कि कश्मीर समस्या सुलझाने को लेकर जो गंभीरता वाजपेयी सरकार ने दिखाई थी, वह यूपीए के दस साल के शासन में नहीं दिखी। इसलिए केंद्र में 16 मई के बाद एनडीए सरकार आती है तो कश्मीरियों के लिए आज की तुलना में हालात बेहतर ही होंगे। कश्मीर के कट्टर अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने भी हाल में यह बयान देकर सबको चौंका दिया था कि मोदी के दो दूतों ने उनसे 22 मार्च को मुलाकात की थी। हालांकि बीजेपी और मोदी, दोनों ने ही गिलानी के पास दूत भेजने की रिपोर्ट को तुरंत खारिज किया।
चुनाव के बीच ऐसी रिपोर्टों को लेकर बीजेपी का सतर्क रुख समझा जा सकता है। लेकिन, यह सच है कि कश्मीर समस्या के शांतिपूर्ण समाधान को लेकर मोदी के दिमाग में कुछ ना कुछ जरूर चल रहा है। 26 मार्च को कठुआ के हीरानगर में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि यह उनका कर्तव्य है कि वाजपेयी द्वारा कश्मीर में शुरू की गई इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत की भावना को तार्किक नतीजे तक पहुंचाएं। मोदी ने पिछले साल जम्मू की एक रैली में यह बयान देकर सबको चौंका दिया था कि धारा 370 पर बात की जानी चाहिए, जबकि बीजेपी का हमेशा से यह स्टैंड रहा है कि कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली इस धारा को रद्द किया जाना चाहिए।
मोदी दूर की कौड़ी खेलते हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि उनके प्रधानमंत्री रहते अगर कश्मीर समस्या का शांतिपूर्ण समाधान निकल आता है तो इसके क्या मायने होंगे। 1947 में देश के बंटवारे के बाद से ही कश्मीर का मुद्दा भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में तनाव की जड़ बना हुआ है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इस पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। लेकिन कश्मीर समस्या का शांतिपूर्ण समाधान कश्मीरियों को भरोसे में लिए बिना नहीं निकल सकता, यह बात वाजपेयी अच्छी तरह समझते थे। अभी मोदी भी इसको समझ रहे हैं। लेकिन, इसके साथ ही मोदी यह भी जानते है कि एक स्टेट्समैन के तौर पर वाजपेयी की जो स्वीकार्यता देश-विदेश में थी, उसके करीब पहुंचने के लिए उनको अपने खाते में कोई बड़ी उपलब्धि दिखानी होगी। इस लिहाज से कश्मीर समस्या के शांतिपूर्ण समाधान से बड़ा दांव उनके लिए कोई और नहीं हो सकता।
एकै साधे सब सधै
मोदी अगर प्रधानमंत्री बनने के बाद कश्मीर पर कोई डील करने में कामयाब रहते हैं तो उन्हें देश में राजनीतिक तौर पर भी किसी खास विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा। वहीं अगर यूपीए सरकार कश्मीर पर कोई समझौता करती या पाकिस्तान के साथ शांति प्रकिया को आगे बढ़ाती तो मुख्य विपक्षी दल के रूप में बीजेपी पूरी ताकत के साथ उसका विरोध करती और आसमान सिर पर उठा लेती। मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर कश्मीर समस्या सुलझती है या पाकिस्तान से रिश्ते बेहतर होते हैं तो उनका अंतरराष्ट्रीय कद बढ़ेगा। ऐसा होता है तो मोदी को अपनी 'मुस्लिम विरोधी छवि' से भी काफी हद तक छुटकारा मिल सकेगा।
यही नहीं, बीजेपी को भी हमेशा के लिए यह कहने का मौका मिल जाएगा कि कांग्रेस जो काम 60 साल के शासन में नहीं कर सकी, वह मोदी ने एक ही कार्यकाल में कर दिखाया। यह बात और है कि कश्मीर पर मोदी के ब्लूप्रिंट का हकीकत में बदलना 16 मई को आने वाले लोकसभा चुनाव नतीजे पर निर्भर करेगा।
-खुशदीप सहगल-
क्रिकेट में जब तक आखिरी बॉल नहीं हो जाती, नतीजे के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। हां, मैच बिल्कुल इकतरफा हो तो बात दूसरी है। बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी क्या इस लोकसभा चुनाव को ऐसा ही मैच मान रहे हैं, जिसमें उनकी जीत निश्चित है? शायद ऐसा मानकर ही उन्होंने कश्मीर जैसे पेचीदा मुद्दे को सुलझाने के लिए फील्डिंग जमाना शुरू कर दिया है। यही नहीं, पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने की दिशा में भी मोदी ने देश का 'पॉलिटिकल कैप्टन' चुने जाने से पहले ही सिक्का उछाल दिया है।
मोदी जिस भारतीय जनता पार्टी के अब 'सर्वे सर्वा' हैं, उसका दशकों से कश्मीर पर एक ही स्टैंड रहा है- इस राज्य को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म किया जाए। यह मुद्दा इस लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी के घोषणापत्र में शामिल है। पाकिस्तान को लेकर बीजेपी हमेशा कड़ा रुख दिखाती रही है। चुनावी रैलियों में पाकिस्तान को खबरदार करने वाली ललकार भी इसी कड़ी में होती है। लेकिन, बैकडोर चैनल्स से जो खबरें सामने आ रही हैं, उनके संकेत साफ हैं कि मोदी अगर सत्ता में आए तो विदेश नीति को लेकर व्यावहारिक रुख अपनाएंगे।
पाकिस्तान को उम्मीद
भारत में पाकिस्तान के नवनियुक्त उच्चायुक्त अब्दुल बासित ने कहा है कि वह मोदी के एक इंटरव्यू के दौरान विदेश नीति को लेकर दिए गए बयान से उत्साहित हैं। इस इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि वह विदेश नीति पर वाजपेयी के सिद्धांत को ही आगे बढ़ाने के पक्षधर हैं। पाक उच्चायुक्त ने मोदी के जवाब को सकारात्मक बताया। साथ ही कहा कि उनका देश भारत में चुनाव के बाद स्थिर सरकार के साथ त्वरित, व्यापक और सार्थक वार्ता की उम्मीद करता है।
कश्मीर में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के चेयरमैन मीरवाइज फारूक हों या पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती, दोनों मानते हैं कि कश्मीर समस्या सुलझाने को लेकर जो गंभीरता वाजपेयी सरकार ने दिखाई थी, वह यूपीए के दस साल के शासन में नहीं दिखी। इसलिए केंद्र में 16 मई के बाद एनडीए सरकार आती है तो कश्मीरियों के लिए आज की तुलना में हालात बेहतर ही होंगे। कश्मीर के कट्टर अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने भी हाल में यह बयान देकर सबको चौंका दिया था कि मोदी के दो दूतों ने उनसे 22 मार्च को मुलाकात की थी। हालांकि बीजेपी और मोदी, दोनों ने ही गिलानी के पास दूत भेजने की रिपोर्ट को तुरंत खारिज किया।
चुनाव के बीच ऐसी रिपोर्टों को लेकर बीजेपी का सतर्क रुख समझा जा सकता है। लेकिन, यह सच है कि कश्मीर समस्या के शांतिपूर्ण समाधान को लेकर मोदी के दिमाग में कुछ ना कुछ जरूर चल रहा है। 26 मार्च को कठुआ के हीरानगर में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि यह उनका कर्तव्य है कि वाजपेयी द्वारा कश्मीर में शुरू की गई इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत की भावना को तार्किक नतीजे तक पहुंचाएं। मोदी ने पिछले साल जम्मू की एक रैली में यह बयान देकर सबको चौंका दिया था कि धारा 370 पर बात की जानी चाहिए, जबकि बीजेपी का हमेशा से यह स्टैंड रहा है कि कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली इस धारा को रद्द किया जाना चाहिए।
मोदी दूर की कौड़ी खेलते हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि उनके प्रधानमंत्री रहते अगर कश्मीर समस्या का शांतिपूर्ण समाधान निकल आता है तो इसके क्या मायने होंगे। 1947 में देश के बंटवारे के बाद से ही कश्मीर का मुद्दा भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में तनाव की जड़ बना हुआ है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इस पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। लेकिन कश्मीर समस्या का शांतिपूर्ण समाधान कश्मीरियों को भरोसे में लिए बिना नहीं निकल सकता, यह बात वाजपेयी अच्छी तरह समझते थे। अभी मोदी भी इसको समझ रहे हैं। लेकिन, इसके साथ ही मोदी यह भी जानते है कि एक स्टेट्समैन के तौर पर वाजपेयी की जो स्वीकार्यता देश-विदेश में थी, उसके करीब पहुंचने के लिए उनको अपने खाते में कोई बड़ी उपलब्धि दिखानी होगी। इस लिहाज से कश्मीर समस्या के शांतिपूर्ण समाधान से बड़ा दांव उनके लिए कोई और नहीं हो सकता।
एकै साधे सब सधै
मोदी अगर प्रधानमंत्री बनने के बाद कश्मीर पर कोई डील करने में कामयाब रहते हैं तो उन्हें देश में राजनीतिक तौर पर भी किसी खास विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा। वहीं अगर यूपीए सरकार कश्मीर पर कोई समझौता करती या पाकिस्तान के साथ शांति प्रकिया को आगे बढ़ाती तो मुख्य विपक्षी दल के रूप में बीजेपी पूरी ताकत के साथ उसका विरोध करती और आसमान सिर पर उठा लेती। मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर कश्मीर समस्या सुलझती है या पाकिस्तान से रिश्ते बेहतर होते हैं तो उनका अंतरराष्ट्रीय कद बढ़ेगा। ऐसा होता है तो मोदी को अपनी 'मुस्लिम विरोधी छवि' से भी काफी हद तक छुटकारा मिल सकेगा।
यही नहीं, बीजेपी को भी हमेशा के लिए यह कहने का मौका मिल जाएगा कि कांग्रेस जो काम 60 साल के शासन में नहीं कर सकी, वह मोदी ने एक ही कार्यकाल में कर दिखाया। यह बात और है कि कश्मीर पर मोदी के ब्लूप्रिंट का हकीकत में बदलना 16 मई को आने वाले लोकसभा चुनाव नतीजे पर निर्भर करेगा।
Keywords:Kashmir, Pakistan, Narendra Modi