1987 से 1997 के दौर में ही देश ने मंडल-कमंडल की राजनीति को पूरे उफ़ान पर देखा..
16 जुलाई 1987 को पूर्व वित्त मंत्री आर वेंकटरमन देश के अगले राष्ट्रपति बने। वेंकटरमन के कार्यकाल के दौरान 1989 में आम चुनाव के बाद किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। सबसे बड़े दल के रूप में कांग्रेस उभरी। लेकिन बहुमत से काफ़ी दूर थी। वेंकटरमन के सामने मुश्किल थी कि सरकार बनाने के लिए किसे न्योता दें। ऐन वक्त पर राजीव गांधी ने खुद ही ऐलान कर दिया कि कांग्रेस विपक्ष में बैठेगी।
वेंकटरमन ने फिर राष्ट्रीय मोर्चा के नेता वीपी सिंह को न्योता दिया। हालांकि उस वक्त भी सरकार की स्थिरता को लेकर राष्ट्रपति निश्चित नहीं थे। बीजेपी और लेफ्ट जैसे दो परस्पर विरोधी धुर वीपी सिंह को बाहर से समर्थन दे रहे थे लेकिन सरकार में शामिल होने को तैयार नहीं थे। वहीं हुआ जिसका अंदेशा था। डेढ़ साल बाद ही बीजेपी ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। लेकिन वीपी सिंह ने अल्पमत में आने के बावजूद इस्तीफ़ा नहीं दिया। यहां राष्ट्रपति वेंकटरमन के लिए बड़ी नाज़ुक परिस्थिति थी।
वेंकटरमन ने वीपी सिंह को सदन में बहुमत साबित करने के लिए कहा। विश्वास मत में वीपी सिंह सरकार हार गई और वी पी सिंह को इस्तीफ़ा देना पड़ा। जनता दल एस के नेता चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनने के लिए कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देना स्वीकार किया। लेकिन मार्च 1991 में ही चंद्रशेखर सरकार ने बजट पेश करने से पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया। इससे अभूतपूर्व सांविधानिक संकट खड़ा हो गया। बजट या लेखानुदान (vote of account) के बिना सरकार का चलना संभव ही नहीं हो सकता। इस्तीफा देने की वजह से चंद्रशेखर सरकार को लेखानुदान पारित कराने का अधिकार ही नहीं था। उस वक्त ये सुझाव भी सामने आया था कि अगर लोकसभा लेखानुदान पारित कराने में नाकाम रहती है तो राष्ट्रपति अनुच्छेद 123 के तहत खुद अध्यादेश के ज़रिए ऐसा कर सकते हैं। लेकिन संविधानविदों की राय के अनुसार संविधान इसकी इजाज़त नहीं देता। ऐसे में राष्ट्रपति वेंकटरमन ने फैसला किया कि लेखानुदान पारित हो जाने के बाद ही लोकसभा को भंग किया जाएगा।
16 जुलाई 1992 को डॉ शंकर दयाल शर्मा देश के नवें राष्ट्रपति बने। मई 1996 में ग्यारहवें आम चुनाव के बाद राष्ट्रपति शर्मा की ओर से बीजेपी को सरकार बनाने के लिए न्योता दिए जाने के फैसले पर काफ़ी सवाल उठाए गए थे। तेरह दिन में ही अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार गिर गई थी। लेकिन संविधान के अनुसार राष्ट्रपति शर्मा ने सबसे बड़ी पार्टी को न्योता देकर सही निर्णय लिया था। संविधान के अनुच्छेद 75 (1) में साफ है कि राष्ट्रपति का अधिकार और दायित्व है कि वो सबसे ज्यादा जनादेश की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री बनने के लिए न्यौता दे। अब ये उस नेता पर निर्भर करता है कि वो लोकसभा में अपना बहुमत साबित कर पाता है या नहीं। वाजपेयी ने 1996 में सदन में बहुमत साबित करने की मियाद खत्म होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था।
शर्मा से ही जुड़ा एक मज़ेदार किस्सा है कि सांविधानिक सुधारों को लेकर एक प्रतिनिधिमंडल उनसे मिलने आया। प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ने शर्मा से कहा कि वो सुधारों की पहली प्रति उन्हें इसलिए सौंप रहे हैं क्योंकि राष्ट्रपति भगवान गणेश की तरह है जिनकी सबसे पहले स्तुति की जाती है और कामना की जाती है कि वो सारे विघ्नों को दूर करेंगे। इस पर चुटकी लेते हुए शर्मा ने कहा था कि वो तो सिर्फ 'गोबर गणेश' हैं।
क्रमश:
16 जुलाई 1987 को पूर्व वित्त मंत्री आर वेंकटरमन देश के अगले राष्ट्रपति बने। वेंकटरमन के कार्यकाल के दौरान 1989 में आम चुनाव के बाद किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। सबसे बड़े दल के रूप में कांग्रेस उभरी। लेकिन बहुमत से काफ़ी दूर थी। वेंकटरमन के सामने मुश्किल थी कि सरकार बनाने के लिए किसे न्योता दें। ऐन वक्त पर राजीव गांधी ने खुद ही ऐलान कर दिया कि कांग्रेस विपक्ष में बैठेगी।
वेंकटरमन ने फिर राष्ट्रीय मोर्चा के नेता वीपी सिंह को न्योता दिया। हालांकि उस वक्त भी सरकार की स्थिरता को लेकर राष्ट्रपति निश्चित नहीं थे। बीजेपी और लेफ्ट जैसे दो परस्पर विरोधी धुर वीपी सिंह को बाहर से समर्थन दे रहे थे लेकिन सरकार में शामिल होने को तैयार नहीं थे। वहीं हुआ जिसका अंदेशा था। डेढ़ साल बाद ही बीजेपी ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। लेकिन वीपी सिंह ने अल्पमत में आने के बावजूद इस्तीफ़ा नहीं दिया। यहां राष्ट्रपति वेंकटरमन के लिए बड़ी नाज़ुक परिस्थिति थी।
वेंकटरमन ने वीपी सिंह को सदन में बहुमत साबित करने के लिए कहा। विश्वास मत में वीपी सिंह सरकार हार गई और वी पी सिंह को इस्तीफ़ा देना पड़ा। जनता दल एस के नेता चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनने के लिए कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देना स्वीकार किया। लेकिन मार्च 1991 में ही चंद्रशेखर सरकार ने बजट पेश करने से पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया। इससे अभूतपूर्व सांविधानिक संकट खड़ा हो गया। बजट या लेखानुदान (vote of account) के बिना सरकार का चलना संभव ही नहीं हो सकता। इस्तीफा देने की वजह से चंद्रशेखर सरकार को लेखानुदान पारित कराने का अधिकार ही नहीं था। उस वक्त ये सुझाव भी सामने आया था कि अगर लोकसभा लेखानुदान पारित कराने में नाकाम रहती है तो राष्ट्रपति अनुच्छेद 123 के तहत खुद अध्यादेश के ज़रिए ऐसा कर सकते हैं। लेकिन संविधानविदों की राय के अनुसार संविधान इसकी इजाज़त नहीं देता। ऐसे में राष्ट्रपति वेंकटरमन ने फैसला किया कि लेखानुदान पारित हो जाने के बाद ही लोकसभा को भंग किया जाएगा।
16 जुलाई 1992 को डॉ शंकर दयाल शर्मा देश के नवें राष्ट्रपति बने। मई 1996 में ग्यारहवें आम चुनाव के बाद राष्ट्रपति शर्मा की ओर से बीजेपी को सरकार बनाने के लिए न्योता दिए जाने के फैसले पर काफ़ी सवाल उठाए गए थे। तेरह दिन में ही अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार गिर गई थी। लेकिन संविधान के अनुसार राष्ट्रपति शर्मा ने सबसे बड़ी पार्टी को न्योता देकर सही निर्णय लिया था। संविधान के अनुच्छेद 75 (1) में साफ है कि राष्ट्रपति का अधिकार और दायित्व है कि वो सबसे ज्यादा जनादेश की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री बनने के लिए न्यौता दे। अब ये उस नेता पर निर्भर करता है कि वो लोकसभा में अपना बहुमत साबित कर पाता है या नहीं। वाजपेयी ने 1996 में सदन में बहुमत साबित करने की मियाद खत्म होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था।
शर्मा से ही जुड़ा एक मज़ेदार किस्सा है कि सांविधानिक सुधारों को लेकर एक प्रतिनिधिमंडल उनसे मिलने आया। प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ने शर्मा से कहा कि वो सुधारों की पहली प्रति उन्हें इसलिए सौंप रहे हैं क्योंकि राष्ट्रपति भगवान गणेश की तरह है जिनकी सबसे पहले स्तुति की जाती है और कामना की जाती है कि वो सारे विघ्नों को दूर करेंगे। इस पर चुटकी लेते हुए शर्मा ने कहा था कि वो तो सिर्फ 'गोबर गणेश' हैं।
क्रमश:
वाह!
जवाब देंहटाएंखूब स्मरण कराया गोबर गणेश का।
संक्रमण के वर्ष।
जवाब देंहटाएंक्या खूब चुटकी ली शर्मा जी ने..
जवाब देंहटाएंशर्मा जी की चुटकी में ... उनका दर्द भी दिखता है !
जवाब देंहटाएंजय हिंद !
एक ओर देश के प्रथम नागरिक होने का गौरव। लेकिन अन्तर्मन की पीड़ा छुपाई न जा सकी। कमोबेश आज भी सेम टू सेम………
जवाब देंहटाएंशर्मा झी की चुटकी आज सभी पर सटीक बैठती है जो चाह कर भी कुछ कर नही पा रहे। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंबहुत सही...याद दिलाया.
जवाब देंहटाएंवाजपेयी पहले १३ दिन , फिर १३ महीने और अंत में साढ़े चार साल प्रधान मंत्री रहे ।
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी बधाईयां देशनामा की टीआरपी बहुत अच्छी है अब तो पार्टी बनती है बधाई
जवाब देंहटाएं@सर्जना जी,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया...
वैसे दिल बहलाने को ग़ालिब ख्याल अच्छा है...
जय हिंद...
शर्मा जी ने कुछ गलत नहीं कहा ..
जवाब देंहटाएंसर्जना की बात पर भी गौर किया जाये :)