क्या शरीर के कैंसर को छुपाने से कैंसर मिट जाता है...क्या चोरी पकड़े जाने पर बिल्ली के आंखें बंद कर लेने से उसकी चोरी माफ हो सकती है...कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन को लेकर मेरी कुछ ऐसी ही राय है...दिल्ली का विकास और कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन दोनों अलग मुद्दे हैं...लेकिन सरकार ने अपनी सब कमज़ोरियों पर पर्दा डालने के लिए खूबसूरती के साथ दोनों को एक-दूसरे से जोड़ दिया...
ये बात सही है कि दिल्ली का विकास पिछले दस-पंद्रह साल में जितना हुआ, उतना पहले कभी नहीं हुआ...साथ ही ये भी सच है कि दिल्ली में प्रति व्यक्ति 65,000 की औसत आय देश में सर्वाधिक है...क्या जो पहले से ही चमके हुए हैं, उन्हें और चमकाने से देश चमक जाएगा...क्या भारत का मतलब सिर्फ दिल्ली है...कॉमनवेल्थ गेम्स दिल्ली में न होते तो भी दिल्ली में विकास का घोड़ा तेज़-रफ्तार से दौड़ रहा था...कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर क्या एप्रोच होनी चाहिए थी, इसकी बेहतरीन मिसाल ब्रिटेन ने 2002 के मानचेस्टर गेम्स के आयोजन के दौरान दी...ब्रिटेन ने लंदन में सारा इन्फ्रास्ट्रक्चर होने के बावजूद ये खेल मानचेस्टर में कराए....वहां उस वक्त युवाओं मे बेरोज़गारी की समस्या चरम पर थी...मानचेस्टर को कॉमनवेल्थ गेम्स मिलने से वहां विकास के साथ रोज़गार के असीमित अवसर पैदा हुए...आज मानचेस्टर में वॉलमार्ट जैसे स्टोर खुले हुए हैं, जहां 18,000 युवाओं को रोज़गार मिला हुआ है...
हमारे यहां क्या हुआ...दिल्ली के लिए गेम्स मिले...उस दिल्ली को जिसका पहले से ही पेट भरा हुआ है...दिल्ली में जो भूखे पेट सोने को मजबूर थे, उन्हें तो पहले ही ताकीद कर दिया गया कि कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान कहीं नज़र भी न आना..सही है गरीबी नहीं मिटा सकते तो गरीब ही मिटा दो...क्योंकि हमारा मकसद जगमग दिल्ली दिखाकर विदेशियों की वाहवाही लूटना था, अपनी बुनियादी कमजोरियों को दूर करना नहीं...
कॉमनवेल्थ गेम्स पहले के वादे के मुताबिक बवाना जैसे दिल्ली के ही पिछड़े इलाके में कराए जाते तो भी बात कुछ समझ आ सकती थी...लेकिन वादे तो होते ही टूटने के लिए हैं...ये कुछ कुछ वैसा ही है जैसे उत्तराखंड की राजधानी बनाने का वादा पहले गैरसैंण से किया गया, लेकिन नौकरशाहों के दबाव के चलते देहरादून को ही राजधानी का दर्जा मिल गया...तर्क दिया कि देहरादून में इन्फ्रास्ट्रक्चर मौजूद है...ऐसे ही दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए भी दलील दी गई....
पर्यावरण के सारे नियमों को ताक पर रखकर यमुना बेड पर कॉमनवेल्थ विलेज बनाया गया...अच्छी बात है लेकिन ये खेल निपटने के बाद इस विलेज के आलीशान फ्लैट्स का क्या होगा, उसके बारे में क्या सोचा गया...यही कि करोड़ों खर्च करने वालों को ये फ्लैट्स बेच दिए जाएंगे...दिल्ली के विधायकों ने तो दावा तक ठोंक दिया कि इन फ्लैट्स पर सबसे पहली दावेदारी उनकी बनती है, इसलिए उन्हें ही बेहद रियायती दरों पर ये फ्लैट्स मुहैया कराए जाएं...क्या ये अच्छा नहीं होता कि कॉमनवेल्थ विलेज को हॉस्टल जैसा रूप देकर बनाया जाता...जिससे गेम्स निपटने के बाद उसे दिल्ली यूनिवर्सिटी को सौंप दिया जाता...एक झटके में उन छात्रों की मुसीबत खत्म हो जाती जो देश के दूर-दराज के इलाकों से बड़ी तादाद में दिल्ली पढ़ने के लिए आते हैं और हॉस्टल के लिए मारे-मारे फिरते हैं...हर साल की इस परेशानी से छुटकारा मिल जाता...
मैं आज़ादी के बाद देश में सबसे बड़ा विकास का जो काम मानता हूं, वो दिल्ली मेट्रो है...इस ख्वाब को हकीकत में बदलने का सारा श्रेय मेट्रोमैन ई श्रीधरन को जाता है...2002 में दिल्ली में पहली बार जब मेट्रो शुरू हुई तो कॉमनवेल्थ गेम्स का कहीं नामोंनिशान तक नहीं था....कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी नवंबर 2003 में दिल्ली को मिली थी...इसलिए कॉमनवेल्थ गेम्स दिल्ली में न भी होते तो भी मेट्रो ऐसे ही दौड़ रही होती और लाखों लोगों को रोज़ मज़िल तक पहुंचा रही होती...
ये बात भी सही है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए 70,000 करोड़ का जो खर्च है उसमें से 66,000 करोड़ अकेले दिल्ली के फेसलिफ्ट के लिए है...विशुद्ध खेल गतिविधियों पर 4,000 करोड़ ही खर्चे जाने हैं...लेकिन यहां मैं कहना चाहूंगा कि टैक्सपेयर से मिलने वाली इतनी बड़ी रकम जो दांव पर लगाई गई, क्या उस पर कड़ी निगरानी रखना हमारी सरकार का फर्ज नहीं था...क्यों एक ही आदमी (सुरेश कलमाडी) डेढ़ दशक तक इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन का सर्वेसर्वा बना रहता है...सरकार ने कलमाड़ी से सवाल पूछना तभी शुरू किया जब मीडिया ने भ्रष्टाचार को उजागर करना शुरू किया...
ये साफ हो चुका है कि लंदन में क्वीन बैटन समारोह को लेकर आयोजन समिति में मोटी बंदर-बांट हुई...जो टैक्सी लंदन में सौ-डेढ सौ पाउंड में आसानी से मिल जातीं, उन्हीं के लिए दिल्ली से निर्देश आया कि टैक्सियां को किराए पर लेने की कीमत साढ़े चार सौ पाउंड दिखाई जाए...अब सोचिए ये पता चलने के बाद लंदन की नज़र में हमारा कितना सम्मान बढ़ा होगा...अब अगर इस भ्रष्टाचार को उधेड़ना देशद्रोह है तो ऐसा देशद्रोह बार-बार करना चाहिए...
कॉमनवेल्थ गेम्स के इतिहास में आज तक छोटे से छोटे सदस्य देश का भी राष्ट्रप्रमुख कभी बैटन लेने लंदन में रानी के दरबार में नहीं पहुंचा...लेकिन पिछले साल हमारी राष्ट्रपति पहुंची...किसने और क्यों ये फैसला किया, ये अलग बात है...लेकिन महामहिम के लंदन प्रवास के दौरान आयोजन समिति की ओर से भ्रष्टाचार की खिड़की खोली गई...क्या इससे हमारा मान दुनिया की नज़रों में बढ़ा...हर्गिज़ नहीं...
हां, मैं तारीफ करूंगा इंदिरा गांधी की जिन्होंने दो साल के नोटिस पर ही दिल्ली में 19 नवंबर से 4 दिसंबर 1982 तक सफलतापूर्वक एशियन गेम्स करा कर गवर्नेंस की नई लकीर खिंची थी...यहां मैं इंदिरा के दौर और अबके दौर की एप्रोच का फर्क साफ करना चाहूंगा...
1982 में एशियन गेम्स की ज़िम्मेदारी स्पेशल ऑर्गनाइजिंग कमेटी (एसओसी) के हेड के तौर पर राजीव गांधी ने संभाल रखी थी...19 नवंबर को एशियन गेम्स के शानदार उद्घाटन के बाद राजीव गांधी प्रगति मैदान में अपने ऑफिस में बैठे थे...बाहर तेज़ बारिश हो रही थी...तभी किसी नौकरशाह ने आकर जानकारी दी कि एशियाड सेंटर में वेटलिफ्टिंग हॉल की छत रिसने लगी है और हॉल में पानी आ गया है...ये सुनते ही राजीव उठे और तत्काल एशियाड सेंटर पहुंच गए...तब तक रात के दस बज चुके थे...उस वक्त दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर जगमोहन थे....देखते ही देखते एक हज़ार मजदूरों को एशियाड सेंटर पहुंचाया गया...राजीव पूरी रात वहीं जमे रहे...सुबह जब सब कुछ ठीक होने का अच्छी तरह भरोसा हो गया, राजीव तभी घर लौटे...
आज राहुल गांधी में लोग राजीव गांधी का अक्स देखते हैं...लेकिन कॉमनवेल्थ पर इतना हल्ला होने के बाद भी राहुल ने इस पर कभी एक शब्द भी बोला...हर मुद्दे पर बोलने वाले राहुल यहां क्यों चुप रहे...सिर्फ इस वजह से कि उनकी पार्टी के ही लोग इस सारी गफलत के लिए ज़िम्मेदार हैं...राज्यं में विरोधी दलों की सरकारों को कोसना बहुत आसान है लेकिन अपनी ही सरकार की कमजोरियों पर निशाना साधने के लिए जो हिम्मत चाहिए, उसका परिचय अभी तक राहुल ने नहीं दिया है...ऐसे में मैं मणिशंकर अय्यर को साधुवाद देता हूं...कम से कम अपनी पार्टी को ही उन्होंने कॉमनवेल्थ का चटका आईना दिखाने की कोशिश तो की...ये सही है कि हमें हर वक्त अपनी खामियों का ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए...लेकिन इसका क्या ये मतलब निकाला जाए कि अपने शरीर के कैंसर को दूर करने के लिए खुद का इलाज ही नहीं किया जाए...
शरीर के कैंसर को छिपाओगे या इलाज करोगे...खुशदीप
26
मंगलवार, सितंबर 28, 2010
बहुत उम्दा विश्लेषण और विचारणीय आलेख...
जवाब देंहटाएंलेकिन इसका क्या ये मतलब निकाला जाए कि अपने शरीर के कैंसर को दूर करने के लिए खुद का इलाज ही नहीं किया जाए
-बिल्कुल सहमत हूँ आपकी सोच से.
बात एकदम सही है कि भरा पेट आखिर कितना भरा जाएगा। मगर मुश्किल ये है कि लोग सिर्फ हल्ला मचाना जानते हैं, कोई काम नहीं करना चाहता। लोगो से बात करो तो कहते हैं कि मीडिया दिनभर कॉमनवेल्थ की बात करता है, पर यही लोग भष्टाचार को गरियाने में सबसे आगे होते हैं। गरीबों की बात करते हैं अगर उनकी तरफ उंगली उठे तो मीडिया को दोषी ठहरा देते हैं। दिल्ली का विकास जरुरी था क्योंकि ये देश की राजधानी है और राजधानी किसी देश का मस्तक होती है। पर सवाल ये है कि दिल्ली में विकास क्या हुआ इन खेलों की नजर से....देखा जाए तो सिर्फ बनी हुई चीजों को नए रंग में रंगा गया है औऱ कुछ नहीं।
जवाब देंहटाएंKhushdeep ji...
जवाब देंहटाएंbahut hi acchi baat kahi hai aapne...
log hindustaan ka matlab Delhi hi samajhte hain...
bahut hi umda post...
acchee post......dhyan rahe ki cancer ka ilaj oncologist se hee karwana padega.......Plastic surgeons kisee kaam ke nahee ........
जवाब देंहटाएंsahee hai. Par ilaj hain brasht adhikariyon ki pol kholana Unhe saja dilwana. Ye kaise hoga?
जवाब देंहटाएंइस आयोजन पर सरकार जो धन खर्च कर रही है वह न तो खेलों के विकास के लिए है ,न दिल्ली के विकास के लिए , न देश की इज्जत चमकाने के लिए ,न गरीबों को रोजगार देने के लिए !
जवाब देंहटाएंये सब अपनी पार्टी के लोगों की जेबें भरने के लिए है जो पहले से भरी है पर अभी भी भूखी है | अभी घटिया निर्माण कर घोटाले कर रहे है फिर इस घटिया निर्माण के टूटने पर इसकी मरम्मत के नाम पर कमाएंगे !!
बढ़िया लेख और विचारों के लिए पूरी तौर पर सहमत हूँ खुशदीप भाई , मगर मेहमानों के सामने अपने घर में कुश्ती ठीक नहीं ....
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
खुशदीप जी आपकी बातें सही हैं ।
जवाब देंहटाएंलेकिन क्या क्या हो सकता था और क्या क्या नहीं होना चहिये था -यह एक अलग सवाल है ।
१९८२ में भी खेलों की वज़ह से दिल्ली में विकास हुआ था । अब भी हुआ है । यह सच्चाई है । इससे मूंह नहीं मोड़ा जा सकता । सबसे पहले और सबसे ज्यादा विकास --देश की राजधानी में क्यों नहीं होना चाहिए ?
जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है --यहीं मिडिया का रोल सबसे अहम हो जाता है । कुत्ते और सांप दिखाने की बजाय, इस मुद्दे के पीछे पड़कर यदि इसे एक तर्कसंगत और न्यायसंगत अंज़ाम तक पहुँचाया जाये , तो मैं मिडिया की दाद दूंगा ।
हम तो मणि शंकर अय्यर भी नहीं बन सकते । सरकार ने छुट्टियों पर रोक जो लगा दी है ।
जवाब देंहटाएंलेकिन कोई ग़म नहीं । बल्कि गर्व है ।
भ्रष्टाचार एक अलग मुद्दा है और देश की छवि मीडिया द्वारा बिगाडना दूसरा मुद्दा है। राष्ट्रपति का रानी के सामने जाना तीसरा मुद्दा है और चौथा मुद्दा है राजकुमार और राजमाता का मौन। कुछ चित्र कल दराल साहब ने दिखाए थे और कुछ चित्र बीबीसी ने प्रसारित किए। बीबीसी के चित्र ही यदि इस देश का सच है तो गेम्स तो क्या बेचारे गरीबों का सम्मेलन भी यहाँ नहीं हो सकता। इसलिए ऐसे चित्रों को दिखाकर इस देश की गरिमा पर कुठाराघात करना अपराध है। परसो मणिशंकर अय्यर का साक्षात्कार ले रहे थे दीपक चौरसिया। यह वहीं चौरसिया है जो अभी कुछ दिन पहले राखी सावंत का साक्षात्कार तूतू मैंमै करके ले रहे थे। मणिशंकर अय्यर ने कहा कि सबसे ज्यादा कसूरवार तो तुम हो, जब मैंने बात कही थी तब मीडिया खामोश था लेकिन आज ही क्यों चिल्ला रहा है? मतलब साफ है कि मीडिया को कम पैसा पहुंचा है। इस देश के स्वाभिमान तो जब राष्ट्रपति ही नहीं रख सकी तो किसको कहे? जिन्हें सम्पूर्ण देश की जनता अपना भविष्य कह रही हैं वे ही खामोश है तो क्या कहें? कलमाडी एण्ड कम्पनी ने कुछ दिन पूर्व ही पुणे में भी इसी प्रकार का खेल खेला था लेकिन तब भी सब चुप है और सौ बात की एक बात जब राजमाता और युवराज ही चुप हैं तो हम सबको भी चुप ही रहना चाहिए। यह देश उनका है उन्हें लूटने का पूरा अवसर दीजिए।
जवाब देंहटाएंराष्ट्रमंडल ? हम अब भी मन से गुलाम हैं!!!!
जवाब देंहटाएंमेहमानों के सामने अपने घर में कुश्ती ठीक नहीं ....
जवाब देंहटाएंभारतीय मीडिया को सकारात्मक रोल अदा करना चाहिए खास तौर पर जब हमें बाहर वाले शक की नज़र से देख रहे हूँ ! रह गयी बात एक्सिडेंट की , तो विश्व में ऐसा कोई देश नहीं जहाँ कार्य होते समय दुर्घटनाएं नहीं घटती हों , आप गूगल पर सर्च कर इमेज देख लें ! जिस पैमाने पर देश में विकास कार्य हो रहे हैं उसमें एक दो एक्सिडेंट होने मामूली कहलाये जायेंगे ! मानवीय गलतियाँ कहाँ नहीं होती !
हम बुरे हैं हम बुरे हैं कहते रहिये .... पहले से ही भयभीत विदेशी आपके देश में झांकेंगे भी नहीं और आपके दुश्मनों को आपका मुंह काला करने का मौका आसानी से मिलेगा !
भ्रष्टाचार पर निर्ममता से चोट करना चाहिए इसका विरोध कौन नहीं करेगा ? मगर विदेशियों का इससे क्या लेना !
शुभकामनायें
चलिए जी बहुत देशभक्ति हो गयी दोनों पक्षों कि. होना वही है जो सत्तापक्ष को मंजूर है. थोड़ी मलाई विपक्ष वाले भी पा जायेंगे.
जवाब देंहटाएंबस रह जाएगी बेबस जनता.
भारतीय संचार व्यवस्था में अभूतपूर्व योगदान करवाने वाले आदरणीय सुखराम जी कि आत्मा को शांति पहुचे. आदरणीय लालू जी "चारा मामले वाले" कि देशभक्ति कायम रहे. उनके ललुआ फलें फूले और अगले खेलों के आयोजन का जिम्मा उन्हें मिले ताकि वो भी कुछ देशभक्ति कर पायें. इस विषय पर मैं तो अब बस आदरणीय सुरेश कलमाड़ी जी को सरकार द्वारा खेलों के सफल आयोजन पर सम्मान दिए जाने के बाद ही अपनी जबान खोलूँगा.
इस विषय पर ज्यादा बक **** अब अपने बस में नहीं.
खुशदीप भाई,
जवाब देंहटाएंयहाँ मैं सतीश भाई की बातों से पूरी तरह सहमत हूँ, यह सब हमारे देश को नीचा दिखने का विदेशी मीडिया का घृणात्मक खेल है जिसमे केवल हमारा मीडिया ही नहीं बल्कि आम हिन्दुस्तानी नागरिक भी बेवक़ूफ़ बन रहे हैं. मानता हूँ भ्रष्टाचार है और ज़बरदस्त भ्रष्टाचार है, लेकिन मैं इसको दूर करने का उपाय खुद से शुरुआत करने को मानता हूँ. आज भ्रष्टाचार हिन्दुस्तान में कहा नहीं है? जो यहाँ सरकार को भ्रष्ट कह रहे हैं, वह खुद भी उतने ही भ्रष्ट हैं. जब हमाम में सभी नंगे है. हम खुद ठीक हो जाएं, अपने समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए कार्य करें तभी यह भ्रष्टाचार नामक दानव समाप्त हो सकता है.
मैं खुद फ़ुटबाल विश्वकप के समय सियोल में मौजूद था, और इसलिए कह सकता हूँ की हमारे स्टेडियम उनके स्टेडियमों से कम नहीं बल्कि कहीं-कहीं तो उनसे भी बढ़कर हैं. ज़रा देखिये तो सही हमारा खेल गाँव, आस्ट्रेलिया का भी ऐसा नहीं था. हमारे देश की टीम को यूनिवर्सिटी में रहना पढ़ा था.
आप सभी को राष्ट्रमंडल के आयोजन स्थलों का नज़ारा करने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर अवश्य जाना चाहिए और फिर फैसला करना चाहिए कि हमें गर्व करना चाहिए या शर्म आनी चाहिए.
दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 (4)- CWG-2010
सतीश भाई,
जवाब देंहटाएंइस उम्मीद के साथ लिख रहा हूं कि इस बार शनिवार या इतवार को साथ चाय ज़रूर पिएंगे...
गुस्ताखी माफ़, इन विदेशियों की नज़र पहले भी भारतवर्ष पर पड़ी थी...नतीजा सदियों की गुलामी सहनी पड़ी...सोने की चि़ड़िया माने जाने वाले इस देश से विदेशी इतना कुछ लूट कर ले गए कि यहां के लोग दीन-हीन दरिद्र बन कर रह गए...
मनमोहनी इकोनॉमिक्स एक बार फिर मल्टीनेशनल कंपनियों को आर्थिक उपनिवेशवाद की जड़े जमाने के लिए खुला मैदान दे रही है...ये निवेश कोई भारत प्रेम के चलते नहीं कर रहे...इनके अपने बाज़ार सैचुरेट हो गए हैं...इन्हें अपना
माल खपाने के लिए नया बाज़ार चाहिए...भारत से बढ़िया इन्हे और कुछ नहीं दिखता...आने वाले दिनों में सब कुछ मॉल्स में मिलेगा...आलू-प्याज भी हम ठेले पर सब्ज़ी वाले से नहीं खरीदते, मॉल्स में जाकर खरीदते हैं...उस सब्ज़ी वाले का रोज़गार छिनेगा तो वो क्या करेगा...पढ़ा-लिखा वो है नहीं जो कुछ और कर सके...या तो वो खुदकुशी कर लेगा या फिर सबको सबक सिखाने के लिए कट्टा-तमंचा हाथ में पकड़ लेगा...हम क्यों विदेशियों के निवेश के लिए मरे जाते हैं...नेहरूवियन मॉडल की जगह हमने ग्राम अर्थव्यवस्था का गांधियन मॉडल अपनाया होता तो शायद हम ज़्यादा सुखी होते...ये फर्क भी नहीं दिखाई देता कि मुकेश अंबानी दो-तीन साल में ही दुनिया के सबसे अमीर आदमी बनने जा रहे हैं और दूसरी तरफ पिछले एक दशक में ही दस करोड़ से ज़्यादा लोग और गरीबी रेखा के नीचे आ गए...
जय हिंद...
एक दो दुर्घटनाए तो वास्तव में आम बात है जैसे फुट ओवर ब्रिज का गिर जाना तकनिकी गड़बड़ी मान सकते है पर हर रोज कही ना कही कि सड़क धस जा रही है उए आम दुर्घटना नहीं है भ्रष्टाचार की पोल है जो धस रही है | किस विकाश की बात कर रहे है अच्छी खासी सड़को, फुटपातो और सड़क किनारे बनी दीवारों को फिर से तोड़ कर बनाया गया जो अब धस रही है क्या ये विकाश है | जितने करोड़ में जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम की मरम्मत की गई सिर्फ मरम्मत उससे काफी कम पैसे में एक नया स्टेडियम बन जाता क्या ये विकाश है | जितने में एक नया ट्रेड मेल खरीद सकते है उससे दस गुना ज्यादा में उसे किराये पर मंगाया गया क्या ये खेलो का विकाश है और क्या क्या गिनाया जाये | सही है की हम सभी भ्रष्टाचारी है हर जगह ये व्याप्त है तो क्या सिर्फ इसलिय हम चुप रहे क्या इसको सहते रहे क्योकि ये सब जगह हो रहा है हभी तो शुरुआत करनी ही बढेगी इसको रोकने के लिए तो आज ही क्यों नहीं जब हमारे पास मौका है | मेहमानों के सामने ये सब ना करे देश की इज्जत ख़राब होगी, वो तो हो चुकी है मेहमान खुद यहाँ आ कर हालत देख चुके है और कई तो डर के मारे यहाँ आने से भी इंकार कर चुके है फेनेल ने तो कह दिया की आगे से किसी गेम की मेजबानी भारत को देने से पहले कई बार सोचना पड़ेगा अब कौन सी इज्जत बची रह गई और जो नेता हमें देश की इज्जत का हवाला दे कर चुप रहने को कह रहे है उनकी बोलती तब क्यों बंद थी जब उनके बगल में बैठ कर फेनेल ये सब बोल रहे थे और इन सब के लिए सरकार तक को दोषी करार दे रहे थे | इन नेताओ की तरफ से इज्जत वाली बात सिर्फ इस लिए हवा में फैलाई जा रही है ताकि ये बच कर निकल सके |
जवाब देंहटाएंअपकी बाकी सब बातें सही हैं मागर शाह नवाज़ की बातों मे दम है क्योंकि आज सुबह ही अखबार की सुर्खियां ये बता रही थी कि आस्ट्रेलिया ,क्प्निया स्काटलैंड, दक्षिणी अफ्रीका के खिलाडिओं ने इन्तज़ाम देख खुशी व सन्तुष्टी जताई है। ये दैनिक भास्कर की खबर है। मिलखा सिंह के ब्यान मे भी सच्चाई है मगर हमारे मीडिया को आदत पड गयी है कि केवल बुराई करनी है अच्छी बात नही बतानी। सब कुछ भी वैसा नही है जैसा मीडिया दिखा रहा है । भ्रष्टाचार तो हमारी जडों मे कैंसर की तरह फैल गया है। सरकार के बस मे भी शायद नही रहा। जब तक ये है कोई भी सरकार आये काम ऐसे ही होंगे। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंsahnawaz ji ke diye links ko dekh kar hairan hoon......agar ye vastav me sahi hai .....to
जवाब देंहटाएंmidia ke dwara manupulate kiye hue public ko
thora ....sochana chahiye.....
thanks.
pranam.
अखबारों में सुंदर मॉडल्स और फूलों के चित्र छापे जाते हैं...आंखों को बड़ा सकून देते हैं...
जवाब देंहटाएंउजले चेहरे से ज़रा पर्दा हटा कर देखें तो असली खबर दिखाई देती है...
दिल्ली से आठ लाख गरीबों को कॉमनवेल्थ गेम्स के चलते हटाया गया है...७५ हज़ार रेहड़ी-फेरी लगाने वालों की रोज़ी-रोटी छिनी है...एक लाख से ज़्यादा भिखारी दिल्ली से बाहर किए गए हैं (वो देश के किसी दूसरे हिस्से में तो पहुंचे होंगे ही)...साथ ही ये खबर भी कि दिल्ली की सड़कों से ढाई लाख कुत्तों समेत सांड, गाय, बंदर आवारा घूमने वाले पशुओं को साथ लगते राज्यों में छोड़ा गया है...गोया कि सरकार की नज़र में गरीब इनसान और कुत्ते-बंदर में कोई फर्क नहीं है...
ऐसा नहीं कि मुझे चमक-दमक अच्छी नहीं लगती...या सरकार के पॉजिटिव कामों को मैं सराहता नहीं...मुझे नफरत है सरकार और अधिकारियों के दोगले चेहरे और नीतियों से...यूपीए सरकार ढोल तो आम आदमी के कदम बुलंद करने का दावा करती है, नीतियां सभी अंबानी, टाटा, बिरला को फायदा पहुंचाने वाली बनाती है...अच्छे चेहरे की बात करें तो आज देश में हर व्यक्ति के पास मोबाइल आता जा रहा है...लेकिन इसी फील्ड में संचार मंत्री ए राजा पर टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में हज़ारों करोड़ के घोटाले का आरोप लगा...हमारे देश में मेडिकल फील्ड में काबिल डॉक्टरों के बल पर मेडिकल टूरिज़्म का नया अवेन्यू खुला है...लेकिन क्या इसी तर्क के चलते एमसीआई के पूर्व चेयरमैन केतन देसाई को करोड़ों रुपये डकारने की छूट दिए जाना न्यायसंगत है...
सवाल कई हैं, जवाब कम...अपने चारों तरफ गुडी-गुडी देखकर देश की सारी समस्याओं के खत्म हो जाने का भ्रम मैं नहीं पाल सकता...
जय हिंद...
अच्छा विश्लेषण
जवाब देंहटाएंयहाँ भी पधारें:-
ईदगाह कहानी समीक्षा
यह हमारा देश है यहाँ इन्हे राह दिखाने वाला कौन है ये खुद आकंठ डूबे हुए हैं । इन्हे बीमार भी तो नही कह सकते ?
जवाब देंहटाएंबहुत ही जायज़ सवाल उठाय है आपने. पर ये सब सवाल दिल्ली वालों के दिमाग में भी दही बन कर जाम रहे हैं. - इन सवालों का जवाब क्या मोटी चमड़ी वाले नेता देंगे ?
जवाब देंहटाएंनहीं देंगे. और ये तय है कि इनका बाल भी बांका नहीं होगा.
पिछले ७ सालों में इन्होने इंतना भ्रष्टाचार किया है कि इनकी ७ पुश्ते तर गयी. एक पीड़ी जेल भी चली जायेगी तो क्या फर्क पड़ता है.
राम राम साब
ईमान दार प्रधाण मत्री के होते हुये लोग बेशर्मो की तरह से निडर हो कर देश को ळुट रहे है, हद है....... ओर गुलामी की सारी हदे इस सरकार ने तोड दी, इन गोरो के आगे बिछ कर... यह देश की इज्जत बना रहे है चमचा गिरी कर के? या इज्जत से खेल रहे है?
जवाब देंहटाएंभैया ... आज की पोस्ट तो बहुत ही एनालिटिकल है... काफी कुछ पता चला...वैरी इन्फौर्मेटिव........ एंड नौलेजेबल ......
जवाब देंहटाएंजय हिंद..........
dil mein ghaav ki tarah tis de rahe hai ye games..bas bhaarat ki beizzati naa ho.... Amen
जवाब देंहटाएं.
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आदरणीय खुशदीप जी,
आज तो दिल खुश कर दिया आपने...
यह भी खूब रही...खेलों के नाम पर उल्टे उस्तरे से जनता को मूँडा गया है... अब कराह रहे हैं और छिला सर दिखा रहे हैं तो कहा जा रहा है कि चुप रहो और यह तिरंगी टोपी पहन लो...विदेशी क्या कहेंगे!
पर मैं यहाँ पर एक अपील भी करना चाहूँगा...
"पर्यावरण के सारे नियमों को ताक पर रखकर यमुना बेड पर कॉमनवेल्थ विलेज बनाया गया...अच्छी बात है लेकिन ये खेल निपटने के बाद इस विलेज के आलीशान फ्लैट्स का क्या होगा, उसके बारे में क्या सोचा गया...यही कि करोड़ों खर्च करने वालों को ये फ्लैट्स बेच दिए जाएंगे...दिल्ली के विधायकों ने तो दावा तक ठोंक दिया कि इन फ्लैट्स पर सबसे पहली दावेदारी उनकी बनती है, इसलिए उन्हें ही बेहद रियायती दरों पर ये फ्लैट्स मुहैया कराए जाएं..."
आईये हम सब यह माँग करें कि जनता के हक के पैसे से बनाये इस कॉमनवेल्थ विलेज के ११६८ फ्लैट्स और इससे जुड़ी सुविधाओं को राजनेताओं-नौकरशाहों-भ्रष्ट खेल प्रशासकों-धनकुबेरों का अपवित्र गठजोड़ हड़प न कर सके... खेल गाँव को हमारा खेल मंत्रालय जस का तस मेन्टेन रखे... भविष्य में होने वाले राष्ट्रीय, जूनियर राष्ट्रीय व सब जूनियर राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के लिये इसका इस्तेमाल हो... विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के लिये तैयारी करने के खिलाड़ियों के कैम्प यहाँ लगें... विदेश से अपनी इवेंट के सर्वश्रेष्ठ कोच यहाँ आकर रहें और कार्यशालायें आयोजित करें... कुल मिलाकर खेलगाँव व इससे जुड़ी सुविधायें केवल और केवल खेलों को बढ़ावा देने में भविष्य में प्रयोग हों...
पर क्या यह होगा ???...प्रभु लोग अभी से यह बंटवारा तक कर लिये होंगे कि कौन सा फ्लैट उनका होगा और कौन उनके बेनामी पप्पी का...
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