पंजाब के नवांशहर ज़िले के धांदुहा गांव में नवजात लड़कों के साथ कुछ मां...यहां छह महीने में सिर्फ एक लड़की ने जन्म लिया...(पूरी स्टोरी पढ़िए आउटलुक में )
मैं यहां खास तौर पर पंजाब की बात करता हूं...यहां समस्या ससुराल में ही नहीं मायके में भी लड़की के जन्म से ही मान ली जाती है...कन्या भ्रूण हत्या की वजह से पंजाब का लिंग-अनुपात सबसे ज़्यादा बिगड़ा हुआ है...यहां लड़के की चाहत बहुत होती है...इसलिए सारे अधिकार भी लड़के के लिए रख दिए जाते हैं...लड़की की शादी करते ही उसका घर से सारा हक खत्म समझ लिया जाता है...ऐसा क्यों...क्या वो अपने भाइयों की तरह पिता की संतान नहीं है...फिर उसका क्यों कुछ हक नहीं...अगर खुशी से लड़की को कुछ दिया जाता है तो उसे भी बड़ा अहसान मान लिया जाता है...
अब आता हूं लड़के वालों पर...खास तौर पर पंजाबियों में यही कहा जाता है कि हमें सिर्फ लड़की चाहिए...हमारी कोई डिमांड नहीं...असली दोहरे चेहरे वाले ये लोग होते हैं...अब अगर लड़की वाले कुछ खास नहीं कर पाते तो पूरी ज़िंदगी बेचारी लड़की को ताने मिलते रहते हैं...किन कंगलों से रिश्ता जोड़ लिया...अरे कुछ नहीं देना था तो न सही, बारातियों की खातिरदारी तो ढ़ंग से कर देते ...इससे अच्छा तो फिर मैंने मेरठ में बनिया परिवारों में देखा है...वहां पहले ही साफ साफ तय कर लिया जाता है कि शादी पर इतना पैसा खर्च किया जाएगा...अब इसे जिस रूप में चाहे खर्च करा लो...ऐसी स्थिति में लड़की को कम से कम कोसा तो नहीं जा सकता...
सबसे आइडियल तो ये है कि बिना किसी भेद-भाव के लड़की को पढ़ाई से इतना समर्थ बनाया जाए कि अगर शादी के बाद विपरीत स्थिति आए भी तो वो बिना किसी सहारे के अपने पैरों पर खड़ी रह सके...क्योंकि शादी के बाद ऊंच-नीच होने पर भी लड़की मायके आ जाए तो उसे न तो घर से और न ही समाज से पहले जैसा सम्मान मिल पाता है...ये सब गलत है...लेकिन समाज में प्रचलित हैं, क्या किया जा सकता है...
ये मेरी ऑब्सर्वेशन है, हो सकता है कि मैं गलत हूं...बस इतना मानता हूं कि लड़कियां चाहे मायके में रहे या ससुराल में घर की भाग्यदेवी होती हैं, और जहां उनका सम्मान नहीं होता, मेरी नज़र में वो घर भूतों के डेरे से कम नहीं...इस विषय में आप क्या कहते हैं...इसे विमर्श का रूप दें तो और भी अच्छा...
आखिर में पिंजर का ये गीत भी सुन लीजिए...
चरखा चलाती मां, धागा बनाती मां, बुनती है सपनों के खेस रे...
बहुत बढ़िया विषय खुशदीप भाई !
जवाब देंहटाएंमेरा स्पष्ट विचार है की लड़की को हर हालत में अपने पिता की हर चीज पर उतना ही हक़ है जितना उसके भाई का ! शादी से पहले या शादी के बाद उसके साथ दोनों जगहों पर किसी न किसी रूप में भेदभाव रहता ही है ...इसका तीव्रतम विरोध होना चाहिए ! लडकी ही वह बच्चा है जो दो दो घरों में रहने के लिए अपने आपको ढालती है, मगर दोनों जगह सकुचाई और झिझक के साथ पूर्ण सहयोग की तलाश करते करते ही जिंदगी काटनी पड़ती है !
हाँ, बहिन भाई के प्यार को देखते हुए, बेटी पैत्रक घरों को बंटवारे से बचाए रखने में अपना योगदान देती रहे तो शायद उसे मायके में उसे सम्मान अधिक मिलेगा जिसकी उसको अक्सर आवश्यकता पड़ती है !मगर यह स्थिति और सहयोग भाई के स्नेह पर निर्भर रहता है !
सादर !
जितने ज़्यादा हम अपने आप को सभ्य आधुनिक और विचारवान बानाते जा रहे हैं उतने ही इन रूढियोँ के दलदल में धँसते जा रहे हैं इसलिये कि यह दोहरा मापदंड भी हमीने बनाया है ,हम ही नियामक है, हम ही वकील और हम ही जज ,सजा इसकी किसे मिलती है ? क्या केवल लड़की को या उसके माँ बाप को भी ? लड़की का पिता होने से बचना कोई उपाय नही है इसलिये कि अगर लिँग अनुपात बिगडने का अर्थ हम अब भी न समझ पाये तो वक़्त फिर इसे समझने का न मौका देगा न इज़ाज़त . और यह ज़िम्मेदारी भी फकत माँ बाप की नही है कि बेटी को अपने पैरोँ पर खडे रहने लायक बना दे इसलिये कि अब जिस तरह बेटा अपने कैरियर की चिंता कर रहा है बेटियाँ भी कर रही हैं , हम उनके चुनाव मे बाधा न बने इतना ही कर लें तो काफी है . लेकिन जब तक यहाँ वर्गभेद है तब तक ऐसा कुछ संभव प्रतीत होता नहीं दिखाई देता और न ही दूर तक इस वर्गभेद के दूर होने के आसार नज़र आते है । शिक्षा एक मात्र उपाय हो सकता है इस्लिये कि जिन राज्योँ मे शिक्षा का समुचित प्रसार हुआ वहाँ की बेटियोँ ने यह दीवारेँ तोड दी हैं , केरल और पश्चिम बंगाल इसके उदाहरण हैं । यह एक लड़ाई है और इसे लडना ही है ..पंजाब के कवि पाश की पँक्तियाँ हैं ... हम लड़ेंगे साथी / गुलाम इच्छाओँ के खिलाफ / हम लडेंगे साथी / उदास मौसम के खिलाफ / हम लड़ेंगे कि अब तक लड़े क्यों नही / हम लड़ेंगे कि अभी लडने की ज़रूरत बाकी है ....
जवाब देंहटाएंहर बुराई को समाज की रूढि मान लेना उचित नहीं .. बाजारवाद के दौर में जहां हर चीज बिकती है .. दुल्हा क्यूं न बिके ??
जवाब देंहटाएंऔर लडकी के मां बाप इतने लडकों को दूर से ही छांटते चले जाते हैं उसका क्या ??
सच तो यह है कि अपने बेटियों के अति मोह से ग्रस्त सुविधाभोगी मानसिकता ने दहेज प्रथा को जन्म दिया है !!
इस देश में भूतों के डेरे बहुत हैं। पर ऐसे घरों में तो भूत भी डर के मारे रहने नहीं जाता। लड़की समर्थ तब होगी जब समाज अपना दोहरा चरित्र त्याग करेगा..और समाज को बनाने में महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। तो पहले घर में लड़की का स्वागत, बहु का स्वागत सास महिला ही करे दिल से। न की तानों से। और यही नई समर्थ होती महिला को समझना होगा। सास का मतलब मुसीबत नहीं होती हमेशा।
जवाब देंहटाएं----........इंसान को जन्म से ये पता नही होता है कि उसने किसके यहाँ जन्म लिया है? कौन उसका पिता है या कौन उसकी माँ?.......वो लडका है या लडकी ?......किस धर्म या जाति का है ?.......ये तो हम उसे बताते है ..और वो वही सच मान लेता है जो उसे बार-बार बताया जाता है ..........अब ये जिम्मेदारी हमारी होती है .........जिसके यहाँ उस बच्चे का जन्म हुआ है .........वह चाहे तो उसे लडकी माने या लडका............किसी एक धर्म या मज़हब की वर्षों पुरानी मान्यताओ कि सीमाओं मे अपने साथ उसे भी बांधकर रखे ...............या फ़िर --------अपनी सोच को विस्तार देकर ......वही बताए जिसे किया जाना जरूरी हो .........---
जवाब देंहटाएंये अंश है मेरे लेख के जो याद गए--(परिकल्पना पर-- आजादी के मायने)
खुशदीप भाई मैं केवल इसी मुद्दे पर अपनी बात को केन्द्रित करूंगी कि माता-पिता की सम्पत्ति पर बेटी का हक कितना जायज है? हमारे समाज की संरचना में पुत्र वारिस होता था क्योंकि पुत्री बहु बनकर दूसरे के घर जाती थी। लेकिन आज कानून के व्यवस्था परिवर्तन किया है लेकिन तब भी देखने में आता है कि अधिकांश पुत्रियां अपना हिस्सा नहीं मांगती हैं। इसके मूल में प्रेम भाव ही रहता है। लेकिन अविवाहित पुत्री को अधिकार मिलता है और पूर्व में भी उसकी उचित व्यवस्था रहती थी।
जवाब देंहटाएंरही बात दहेज की तो मैं तो इस बात की गहराई से अनुभव करती हूँ कि यदि कन्या पक्ष चाहे तो दहेज की प्रथा एकदम ही समाप्त हो सकती है। आज देखने में आ रहा है कि विवाह बच्चों की पसन्द से हो रहे हैं और जाति के बंधन टूट गए हैं लेकिन विवाह के खर्चे बढ गए हैं। अपनी पसन्द से विवाह करने वाली लड़कियां भी दहेज के मामले में चुप रहती है बल्कि अधिकतर वे ही माता-पिता का खर्चा कराती हैं। संगीता जी ने इस ओर इशारा भी किया है। हमारा समाज दोहरी मानसिकता का नहीं रहा है लेकिन वर्तमान में हमने दोहरी मानसिकता का नकाब ओढ़ लिया है। आज भी जितने पुराने परिवार हैं वहाँ कोई कठिनाई नहीं हैं लेकिन जैसे-जैसे हम आधुनिक हो रहे हैं वैसे-वैसे हमारी समस्याएं बढ़ रही हैं क्योंकि आधुनिक होने से हमारा लालच कम नहीं हो रहा है। पैसे के प्रति मोह बढ गया है इस कारण सारी समस्याएं पारिवारिक प्रेम को बिसराकर केवल अर्थ पर आ टिकी है।
kखुशदीप जी मेरी लघु कथा का जिक्र हुया मुझे खुशी हुयी।लेकिन उस लघु कथा मे विषय ये नही था कि दहेज लिया दिया जाये य नही मै तो बस ये कहना चाहती थी कि लोगोहरी नीति अपनाते हैं जब समाज की बात आती है तो ये कुरीति बन जाती है जब अपने घर की बात आती है तो ये जायज़ है। आपकी पोस्ट से मन मे एक विचार आया है कि जिस जगह भी कुछ लचीला पन रहा है वहीं लोग अपने स्वार्थ के लिये राह तलाश लेते हैं। या तो ये प्रथा हो य न हो। दो ही विकल्प इस झगडे को खत्म कर सकते हैं। अब आपकी पोस्ट पर ही मै एक पोस्ट अपने दूसरे www,veeranchalgatha.blogspot
जवाब देंहटाएंपर डालूँगी। कल इसे जरूर पढियेगा। ये एक तरह से चर्चा ही होगी। निस्संकोच सभी अपने विचार रख सकते हैं। क्योंकि आपकी पोस्ट से कई प्रश्न उठे हैं। मुझे खुशी होती है कि आप मेरी पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया पोस्ट को पढ कर देते हैं बहुत बहुत धन्यवाद अपना ये प्रेम बनाये रखें। बहुत बहुत आशीर्वाद।
यह तो आपने बिलकुल सही कहा की पिता की हर चीज़ पर बेटी का हक होना चाहिए, वैसे भी हर पिता के अधिक नज़दीक बेटियां ही होती हैं..... फिर उन्हें उनके हक से वंचित क्यों किया जाए?
जवाब देंहटाएंलड़की को बोझ मानने की समस्या का जो समाधान आप लोग दे रहे है उसका प्रभाव कितना है मै एक खबर के माध्यम से आप को बताती हु |
जवाब देंहटाएंमामला आज से ढाई साल पहले का है तब ये खबर टीवी पर समाचार पत्रों में चर्चित हुआ था | मुंबई में एक महिला ने तेरहवी मंजिल से कूद कर अपनी छ: महीने की बेटी के साथ जान दे दी थी वजह ये थी की लड़की का विवाह एम बी बी एस करने के दौरान कर दी गई पर उसने अपनी पढाई जारी रखी फिर उसके बाद उसके मना करने के बाद भी उसे माँ बनने पर मजबूर किया गया (शायद एस उम्मीद में की वह प्रेगनेंसी की तकलीफों के कारण पढाई छोड़ देगी ) पर फिर भी उसने अपना मेडिकल पूरा कर लिया डिलेवरी के बाद उसने कहा की वो आगे की पढाई करेगी तो उसे ना केवल मना किया गया बल्कि ये तक साफ कहा दिया गया की वो प्रेक्टिस भी नहीं करेगी | जब काफी मनाने के बाद भी घर वाले नहीं माने तो अंत में उसने अपनी बेटी के साथ आत्महत्या कर ली | उसका मायका और ससुराल दोनों ही काफी पढ़ा लिखा और काफी पैसे वाला था | ये एक अकेली घटना नहीं है ऐसा पूरे भारत में हो रहा है मेडिकल, इंजीनियरिंग, मनेजमेंट जैसे उच्च शिक्षा पाने के बाद भी उनको बाहर निकल कर काम नहीं करने दिया जाता है बाकि छोटे मोटे प्रोफेसनल कोर्सो की लड़कियों के साथ क्या होता होगा | जब लड़कियों को प्रोफेशनली शिक्षित होने के बाद भी काम नहीं करने दिया जाता है तो वो और ज्यादा दुखी और डिप्रेशन में चली जाती है वो हालत तो और भी बुरी हो जाती है उनके लिए | आपने सही कहा की बनिया परिवारों में पहले ही मुह खोल कर सब कुछ मांग लिया जाता है पर इसके बाद भी उनको ताने सुनने ही पड़ते है क्योकि ये मांगे सारी जिंदगी जारी रहते है और ऐसा भी नहीं की उनको पढ़ी लिखी लड़की नहीं चाहिए उनका मैट्रोमोनी विज्ञापन कुछ ऐसा होता है " कान्वेंट एजुकेटेड होमली लड़की चाहिए "| अब इसका क्या करेंगे | हम सब को अपनी सोच बदलनी होगी सिर्फ कन्या शिक्षा इसका समाधान नहीं है |
बहुत चिंतनीय सामाजिक मुद्दा उठाया है आपने.
जवाब देंहटाएंआपका यह कहना कि लड़की को पढ़ना चाहिए बहुत ही अच्छा सुझाव लगा.. इससे उसे दुनिया वालों से लड़ने का जज्बा भी मिलेगा और अपने हकों के बारे में भी पता चलेगा..
जवाब देंहटाएंआज एक और लेख पढ़ रहा था जहाँ एक स्वयं-सेवक बस्तियों में लोगों के उत्थान के लिए जाता है.. उसने बताया कि कुछ दिनों पहले ही उसकी मुलाक़ात एक ऐसी ही महिला से हुई जिसकी ४ लडकियां हैं पर उसका पति जो कि रिक्शावाला है, चाहता है कि लड़का हो.. महिला परेशान है पर कुछ कर नहीं सकती है.. एक तरफ गरीबी ने मार रखा और दूसरी तरफ निरक्षरता ने..
सुझाव मांगे गए हैं कि इस स्थिति में क्या किया जाना चाहिए पर अभी तक कुछ पुख्ता नहीं मिल सका है...
अगर आपके पास कोई सुझाव है तो http://aidgurgaon.blogspot.com/2010/09/after-4-daughters-pressure-to-bear-yet.html पे जा कर ज़रूर दें..
आभार
खुशदीप जी,
जवाब देंहटाएंकितने ही विचार रख दें हम सब मगर जब तक मानसिकता नही बदलेगी तब तक कितना भी आन्दोलन कर लो , कितना ही छींटाकशी कर लो ……………कोई असर नही होने वाला सब चिकने घडे बन चुके हैं…………ये बीज तो जन्म घुट्टी मे घोट कर पिला दिया जाता है कि बेटा नही तो कुछ नही मगर कोई पूछे उसे पैदा करने वाली तो एक औरत ही है ना वो ना होती तब क्या होता मगर सिर्फ़ इतना सा इंसान नही सोच पाता……………बस यही सोच बदल जाये तो हालात बेहतर बन सकते हैं।
sir,
जवाब देंहटाएंaadmi jitna padh likh raha hai utna jyada anpadh ho raha hai,
kyoki hamein sirf technology, management, aur administration hee padhaya jaa raha hai.
Lekin LIFE-MANAGEMENT, HAPPYLOGY,
PRIDE-NATION, SABHYATHA-SHASTRA jaise subject padane waala koi nahi hain
विचारोत्तेजक पोस्ट. खुशदीप जी, हमारे देश में तो ये हाल है कि लड़की को पढाने लिखाने और उसकी शादी में हुए खर्चे को ही लड़की का हिस्सा मान लिया जाता है. बाद में प्रॉपर्टी में से हिस्सा देने की बात न भाई को अच्छी लगती है, न भाभी को. वही भाभी, जिसे अपने घर में हिस्सा लेने में अच्छा लगेगा, अपनी ननद को देने में कतरायेगी. स्थितियां बहुत जटिल हैं खुशदीप जी बहुत जटिल.
जवाब देंहटाएंकानून जो अधिकार हैं वो आज कल सब लडकियां ले लेती हैं लेकिन उन मे से बहुत सी ये अधिकार अपने पति के कहने से लेती हैं यानी उनका शैक्षिक ज्ञान बहुत कम हैं .
जवाब देंहटाएंसवाल हैं मानसिकता हैं , सवाल हैं समान अधिकार बेटे और बेटी के जो संविधान और कानून से मिलते हैं ना की सामाजिक सोच से .
गलत प्रथाओं और अंधविश्वासों का विरोध होना ही चाहिए :)
जवाब देंहटाएंसबसे आइडियल तो ये है कि बिना किसी भेद-भाव के लड़की को पढ़ाई से इतना समर्थ बनाया जाए कि अगर शादी के बाद विपरीत स्थिति आए भी तो वो बिना किसी सहारे के अपने पैरों पर खड़ी रह सके..
जवाब देंहटाएंसौ बातों की एक बात यही है ।
बेटा बेटी में कोई भेद भाव नहीं ।
लेकिन औलाद को भी अपना फ़र्ज़ नहीं भूलना चाहिए ।
Female foeticide is disgusting .
जवाब देंहटाएं१०० बात कि एक बात भाईसाब, सबसे ज्यादा ज़रूरत है अपनी मानसिकता को बदलने की. लड़कियों को लेकर हमारी सोच में परिवर्तन होना चाहिए ....
जवाब देंहटाएं१) सबसे पहले जो माँ स्वयं स्त्रीजाति का नेतृत्व करती है खुद अपने दिल में बेटा पाने की ही इच्छा रखती है ...कही कही पढ़ाई लिखाई के कारन स्थिति बदली भी हो ...लेकिन छोटी छोटी जगह पर अक्सर खुद औरतों की यही मानसिकता है .
२) शादी के वक्त .....मांगने के तरीके अलग अलग हो सकते है लेकिन अभी भी अधिकांश यानं तक की पड़े लिखे लोग संपन्न लोग भी दहेज़ की मंशा में मुह खोलते है .....कही साफ बात तय हो जाती है इतने लाख खर्च करना ही है , कही बात तय हो जाती है इतना सम्मान तो देना ही है , कही कहते है हमें तो कुछ नहीं चाहिए जो देना है अपनी बेटी को दीजिये ....लेकिन लालच सभी का वाही होता है .
इन सब के बड़ भी direct या indirect रूप से लड़की को सुनना ही पड़ता है . दुखद तो यह है की सुनाने वालों में सास भी बड़ चढ़ कर हिस्सा लेती है जो की खुद एक लड़की ही रही
३) एक लड़की के लिए इससे ज्यादा पीड़ादायी और क्या होगा की जन्म से लेकर शादी तक जिस आँगन को वो अपना मानती है शादी के बाद न सिर्फ वो आँगन वहां के लोग भी उसके लिए पराए ही हो जाते है ....चाहे हर जगह यह स्थिति ना हो लेकिन बहुत जगह है . शादी के बाद उसके अपने ही लोग उसके लिए जो करे उस पर अहसान होता है .....बेटों की तरह बेटियां आपने ही घर में खुल कर वो अधिकार दिखा ही नहीं सकती जो वास्तविकता में बेटों के ही जितना उसका भी है ....
लेकिन लोग खुल कर लड़कियों के पक्ष में बोलेंगे और वाही लोग ऐसी मानसिकता भी रखते है .....एक इंसान के इतने चहरे होते है . मुझे तो बहुत आश्चर्य भी होता है . इस पर मुझे अपनी ही ग़ज़ल का एक शेर याद आया वाही कह दे ती हूँ ....
एक चहरे पर कई चहरे लगाए रखते है लोग
सच्चाई को कितने पर्दों में छुपाए रखते है लोग