फ़र्क सिर्फ़ इतना सा था...खुशदीप

ये नज़्म है, ग़ज़ल है...क्या है मैं नहीं जानता...किसने लिखी है, उसे भी मैं नहीं जानता...ई-मेल पर भेजने वाले ने शायर का नाम नहीं लिखा..आपको पता हो तो बताइएगा...लेकिन जिसने भी लिखी है, उसके हाथ चूमने को जी करता है...





तेरी डोली उठी


मेरी मय्यत उठी




फूल तुझ पर भी बरसे


फूल मुझ पर भी बरसे




फ़र्क सिर्फ़ इतना सा था


तू सज गई


मुझे सजाया गया






तू भी नए घर को चली


मैं भी नए घर को चला






फ़र्क सिर्फ़ इतना सा था


तू उठ के गई


मुझे उठाया गया






महफ़िल वहां भी थी,


लोग यहां भी थे






फ़र्क सिर्फ़ इतना सा था


उनका हंसना वहां


इनका रोना यहां






काज़ी उधर भी था, मौलवी इधर भी था


दो बोल तेरे पढ़े, दो बोल मेरे पढ़े


तेरा निकाह पढ़ा, मेरा जनाज़ा पढ़ा






फ़र्क सिर्फ़ इतना सा था


तुझे अपनाया गया


मुझे दफ़नाया गया




स्लॉग गीत

ये गीत जब भी मैं सुनता हूं, न जाने मुझे क्या हो जाता है...आप भी सुनिए...


जब भी ये दिल उदास होता है


जाने कौन आस-पास होता है...

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31 टिप्पणियाँ
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  1. खुशदीप जी शायर के जज़्बे को दिल से सलाम करता हूँ..क्या भाव पिरोया गया है बस थोड़े से फ़र्क में जिंदगी की एक अहम पल को कितनी खूबसूरती से पेश किया गया....दिल से दुआ और आप को भी इस गीत को पढ़वाने के लिए बहुत बहुत आभार

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  2. honthose waah nikalti hai aur dil se aah nikalati Doli aur Zanaze main yah tulana samanata asamata sabhi sidhi andar utar jaati hai....likhane wale ne dard ke samndar ko khud me samaya hoga!!
    Aapko bahut bahut dhanywaad padaane ke liye.

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  3. Hats off to the poet जरा से फर्क से क़ायनात बदल जाती हैं

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  4. वाह! जिसने भी कहा, बहुत खूब कहा!

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  5. नज़्म/ग़ज़ल जो भी है अच्छी है ...
    जनाजा और डोली उठने में फर्क ही कितना है ...मैं नहीं ...आपका कवि कह रहा है ...
    स्लॉग गीत तो मेरा पसंदीदा है ...!!

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  6. maine to pahli bar hi padjhi.. ab kya kahoon. lekin hai sach me dard bhari..
    geet lajwab
    Jai Hind...

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  7. काफी पहले एक ईमेल में इसे पढ़ा था..तब भी मुंह से 'वाह' निकला था और अब भी 'बाह' ही निकला है...:-)
    हाँ!...हाथ चूमने के बारे में तो फिलहाल अभी सोचा नहीं है...जैसे ही मूड बनता है...आपको ज़रूर बताऊंगा...
    :-)

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  8. बहुत हृदयग्राही रचना है ! निकाह और मैयत के बाल भर के फर्क को बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है ! शायर को सलाम !

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  9. फ़र्क सिर्फ़ इतना सा था


    तुझे अपनाया गया


    मुझे दफ़नाया गयाnice

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  10. नज़्म --ग़ज़ल --जो भी है , लिखी तो बहुत अच्छी है।
    पर सुबह सुबह पिटे हुए आशिक की ये दास्तान पढ़कर अच्छा लगा , ये कैसे कहें।

    स्लोग गीत तो हमें भी पसंद है भाई।

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  11. jisne bhi likhi hai bahut acchi likhi hai.....

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  12. वाह!

    निकला मेरा जनाजा उठी तेरी डोली
    वज़ूद हुआ फ़ना मेरा तू अपने साजन की हो ली

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  13. बहुत बढ़िया खुशदीप भाई , पुराना शायराना अंदाज़, बड़े दिन बाद कुछ यादें जगाने में में आप कामयाब है !

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  14. बहुत जबरदस्त है ये रचना. जो भी रचियता है उसको नमन और आपका आभार.

    रामराम.

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  15. अमां खुशदीप भाई ..ये शायराना हो रिए हो...ये तो ठीक है मगर उसके साथ ये मुतमईन आशिकाना वाला एंगल ...आप तो बस मक्खन खिलाते रहो ...उसमें ज्यादा आनंद आता है ...वैसे कहा लिखा जिसने भी है दमदार है ..इसमें कोई शक नहीं
    अजय कुमार झा

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  16. लेखक को हमारा सलाम। बहुत ही नेक नज्‍म है। आप गीत आडियो ही लगाया करें। वीडियो रेंग-रेंग के खुलता है और सारे गीत का मजा किरकिरा कर देता है।

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  17. शाश्वत सत्य....
    लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से
    http://laddoospeaks.blogspot.com

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  18. लगभग 30-40 साल पहले इस तरह की रचनायें बहुत लिखी गईं । कुछ सूफियाना अन्दाज़ में भी इस तरह की रचनायें की गईं जिसमें आत्मा से परमात्मा के मिलन की बात कही गई । यह मृत्यु के उत्सव का गीत भी हो सकता है और एक आशिक के दिल का गुबार भी । कुछ इसी तरह की गज़ल एक और थी .."मेरी मय्यत पड़ी की पड़ी रह गई उनकी डोली को कान्धा लगाया गया .." इनके शायरों की तलाश भी करनी चाहिये ।

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  19. ye mail mere pass bhi aaya tha aur maine bhi padha tha ........wakai dil ko chhoone wali rachna hai aur geet to wo mere khyal se sabka hi pasandida hoga.

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  20. बहुत बहुत बहुत बहुत सुंदर जी, चलो दोनो का काम हो गया , यह कविता मेने भी कही फ़ोरम मै पढी है

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  21. बहुत ही ख़ूबसूरत नज़्म है...जिसने भी लिखी हो...
    ये गीत तो शायद सबका पसंदीदा है...सुनवाने का शुक्रिया...

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  22. रचनाकार को नमस्कार और आपका आभार
    हम तक पहुंचाने के लिये

    प्रणाम

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  23. जिसने भी लिखी, अद्बत लिखी।

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  24. ये कविता पहले कही पढ़ी है...और वो गाना मुझे बहुत पसंद है.

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  25. खुशदीप जी ,

    बहुत अच्छी पोस्ट है....ये नज़्म का रूप लेकर आज यहाँ पढ़ा है...वैसे इसको शेर के रूप में मैंने अपने कॉलेज के वक्त में यानि कि 1970-1971 में पढ़ा होगा...एक और शेर उसी समय का याद आ गया है --
    मेरे ज़नाजे के साथ सारा जहाँ निकला
    पर वो ना निकले जिनके लिए ज़नाज़ा निकला ...

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  26. खुशदीप जी मैं भाई शरद कोकास की बात से सहमत हूं। मुझे भी कभी-कभी एक रचना परेशान करती है। रचना है-जा रही थी एक पगली सड़क पर क्या बकते हुए। एक और रचना है जिसमें एक प्रेमिका अपने आशिक से कहती है कि तू मेरे लिए क्या कर सकता है। लड़का कहता है कुछ भी। प्रेमिका उसे मां का कलेजा लाने के लिए कहती है। लड़का कलेजा ले आता है तो फिर प्रेमिका उसे यह कहकर ठुकरा देती है कि जो अपनी मां का नहीं हुआ वो मेरा क्या होगा। सूफियाना अन्दाज सबको अच्छा लगता है। आपने अच्छी बात उठाई। मैं तो बचपन में लौट गया। मैं अपने बचपन को याद कर पाया इसके पीछे आपकी भूमिका है। आपको धन्यवाद।

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  27. khushdeep ji,
    maine comment kiya tha ji...kahan gaya wo...
    dekh lijiyega aaj kal comment ki badi chori ho rahi hai...log bahut pareshaan bhi hain...

    is kavita ki tareef mein kya kahun...
    hamari zabaan taalu se chipak gayi..

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