हां, मैंने बढ़ाई थी अपनी पसंद...

आज दो अक्टूबर है...दो हस्तियों का जन्मदिन...एक सत्य का पुजारी...दूसरा ईमानदारी की मिसाल...एक गांधी, दूसरा शास्त्री...इस पावन दिन पर मैं अपना गुनाह कबूल कर अपने दिल का बोझ हल्का कर रहा हूं...औरों की मैं जानता नहीं, अपने पर अपना बस चलता है...इसलिए दो अक्टूबर से ही पहल कर रहा हूं...घर की सफ़ाई करनी है तो सबसे पहले अपने से ही शुरुआत क्यों न की जाए...मन साफ़ होगा तभी तो हम दूसरों को कोई नसीहत देने का हक रख सकते हैं...

आज से करीब 25-30 साल पहले अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा और जीनत अमान की एक फिल्म आई थी दोस्ताना...इस फिल्म मे मॉड लड़की बनी ज़ीनत अमान इंस्पेक्टर बने अमिताभ बच्चन से थाने में शिकायत करने पहुंचती हैं कि उन्हें किसी राह चलते मनचले ने छेड़ा है...अमिताभ मनचले की तो खबर लेते ही हैं लेकिन जीनत अमान के कम कपड़ों को देखकर कहते हैं...अगर कोई घर खुला रखकर छोड़ेगा तो फायदा उठाने वाले तो आएंगे ही... ऐसा ही कुछ अभी ब्लॉगवाणी के पसंद प्रकरण में भी हुआ...

आपने एक ऐसा ज़रिया छोड़ रखा है जिसका कोई भी अपने स्वार्थ के लिए बेजा इस्तेमाल कर सकता है...कौन ब्लॉगर चाहेगा कि उसकी पोस्ट एग्रीगेटर पर दूसरी पोस्टों के अंबार के नीचे दबी रहे...उसकी ख्वाहिश यही रहेगी कि कि उसने जो लिखा है उसे ज़्यादा से ज़्यादा पाठक पढ़ें...अब एग्रीगेटर पर पोस्ट के अंबार में दबे न, इसके लिए सबसे अच्छा तरीका है या तो ज़्यादा पसंद वाले साइड कॉलम में अपनी पोस्ट को जल्दी से जल्दी जगह मिल जाए...या फिर ज़्यादा पढ़े वाले कॉलम में पोस्ट का टाइटल आ जाए...ज्यादा टिप्पणियों वाला कॉलम दूसरे पाठकों पर निर्भर करता है, इसलिए वहां मैनीपुलेशन की तभी गुंजाइश हो सकती है जब आप किसी सिंडीकेट से जुडे हों, अन्यथा वहां कोई स्कोप नहीं बचता...रही बात ज़्यादा पढ़े या ज्यादा पसंद वाले कॉलम की तो यहां भी ज़्यादा पसंद वाला कॉलम बेहद अहम हो जाता है...क्योंकि इस कॉलम में एंट्री के लिए आपको दो या तीन पसंद के चटकों की ही ज़रूरत होती है...फिर अपनी एंट्री को कॉलम में ऊपर ले जाने के लिए आप को और पसंद की ज़रूरत होती है...

अब ब्लॉगिंग में कोई नया आता है तो उसकी कोशिश भी यही होती है कि उसकी पोस्ट का टाइटल कम से कम दिखता तो रहे जिससे उसे पढ़ने वाले मिलते रहें...बस यही से स्वार्थ का खेल शुरू होता है...मैं भी कबूल करता हूं कि शुरू-शुरू में मैंने भी अपने लैपटॉप को तीन-चार बंद करके पसंद को तीन-चार बार बढ़ाया था...कोशिश यही होती थी कि जल्दी से जल्दी पसंद वाले कॉलम में पोस्ट को जगह मिल जाए...इससे ज़्यादा कुछ नहीं...क्योंकि ऐसा कम ही हुआ कि असली-नकली पसंद को मिलाकर भी मेरा आंकड़ा कभी दहाई की संख्या के पार पहुंचा हो...यानि ये सारी कवायद बस पसंद के कॉलम में पहुंचने तक ही सीमित थी...लेकिन में ये भी देखता था कि कुछ पोस्ट को 30-40 तक पसंद मिल जाती हैं...अब ये सारी पसंद असली ही होती हैं, यकीन के साथ कैसे कहा जा सकता है...

अवधिया जी ने इस प्रकरण के दौरान अपनी टिप्पणियों और पोस्ट में बड़ा सही जुमला उछाला है- स्वार्थ की मानसिकता...वो विरले ही होंगे जो इस मानसिकता को अपने ऊपर हावी न होने दे...इंसान छोटा होता है तो स्कूल की क्लास में उसका सपना होता है वो सब बच्चों में अव्वल रहे...सारा खेल नंबरों का होता है...अगर बच्चा 95-96 प्रतिशत अंक भी लाए लेकिन दूसरे-तीसरे नंबर पर रहे तो भी बच्चे के मां-बाप को मलाल रहेगा कि बाकी एक-दो बच्चों के अंक कैसे ज़्यादा आ गए...यहीं से कभी-कभार बच्चे में अपराध की भावना भी घर करने लगती है...नकल जैसे अनुचित तरीके भी उसे नज़र आने लगते हैं...

आप कितने भी बड़े क्यो न हो गए हों, सिर से अगर किसी कटी पतंग की डोर निकल रही हो तो एक बार तो आपके हाथ उसे लपकने के लिए ऊपर हो ही जाएंगे...आपके सामने से गन्ने से लदी कोई ट्रैक्टर-ट्राली या भैंसा-बुग्गी जा रही है....औरों को वहां से गन्ने निकालते देख आपका भी मन हो उठता है, एकाध गन्ना मुफ्त में खींचने का...ऐसा ही पसंद के गन्नों के मांमले में किसी के साथ भी हो सकता है...स्वार्थ भी इंसान की फितरत का एक हिस्सा है...ऐसे ही अगर पसंद की शक्ल के गन्नों में से तीन-चार मैंने भी खींचने की कोशिश की, तो मैं निश्चित तौर पर गुनहगार हूं...

लेकिन सवाल फिर वही,पसंद का ऐसा लूपहोल छोड़ा ही क्यों गया है, जिसका औरों को दुरुपयोग करने का मौका मिलता रहे...ब्लॉगर भाई राकेश सिंह ने अपनी पोस्ट पर ब्लॉगवाणी में किए जा रहे कुछ बदलावों को लेकर शंका जताई है...उनकी इस शंका से मैं भी सहमत हूं कि अगर नापसंद का कॉलम शुरू कर दिया गया तो क्या ज़रूरी नहीं कि एक-दूसरे की टांग खिंचाई और स्कोर सैटल करने की नीयत से उसका गलत इस्तेमाल किया जाने लगे...मैं तो फिर ज़ोर देकर कहना चाहूंगा कि कम से कम पसंद वाला कॉलम तो खत्म कर ही दिया जाए...इसकी जगह मेरी पहले की पोस्ट...ताकि फिर उंगली न उठ पाए...में दिए रोटेशन के सुझाव को आजमाया जा सकता है...बाकी ये सब सुझाव ही सुझाव है... मानना न मानना सब एग्रीगेटर के हाथ में है...

ये सवाल भी उठाया जाता है कि अगर आप अच्छा लिखेंगे तभी आपको पाठक मिलेंगे...लेकिन क्या ये देखा नहीं जाता कि बहुत अच्छे आलेख भी यूंही दबे रहते हैं...उन्हें पाठक ही नहीं मिल पाते...क्यों...क्यों कि सिस्टम ही ऐसा है... पसंद मे या ज़्यादा पढ़े वाले कॉलम में आएंगे तभी उनकी टीआरपी बढ़ेगी...यानि जो ज़्यादा दिखता है...वही बिकता है...और फिर मेरा एक सवाल और है नापसंद के विकल्प को भी छोड़ दो...अगर सिर्फ पसंद का ही कॉलम रहता है...ब्लॉगवाणी के सतर्क होने के बाद लॉबिंग के चलते कोई दूसरे ब्लॉगर को नीचा दिखाना चाहता है...तो क्या ये संभावना नहीं हो सकती कि बार बार उस ब्लॉगर विशेष की पोस्ट पर खुद ही नकली पसंद के चटके लगाने शुरू कर दिए जाए...ऐसा करने से वो ब्लॉगर विशेष निश्चित रूप से ब्लैक लिस्ट में आ जाएगा..जबकि उसका कोई कसूर भी नहीं होगा...

मैं तो पसंद पर अपना गुनाह कबूल कर हल्का महसूस कर रहा हूं...आप भी ऐसी कोई दिल की बात कहना चाहते हैं तो बिंदास कह डालिए...यकीन मानिए खुद को लाइट अनुभव करेंगे...

स्लॉग ओवर
ढक्कन...यार मक्खन, एक बात तो बता...ये जंबो जेट प्लेन पर पेंट करने में कितना सारा पेंट लग जाता होगा...ट्रकों के हिसाब से ही पेंट लगता होगा...

मक्खन...तू रहा झल्ला का झल्ला...ओ बेवकूफा...पहले हम जंबो जेट को उड़ाते हैं...वो आसमान में उड़ते-उड़ते चिड़ी जितना छोटा रह जाता है...तो झट से पकड़ कर उस पर कूची मार देते हैं...है न पेंट की बचत ही बचत...

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45 टिप्पणियाँ
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  1. काश पसंद को भी ऐसे ही किसी कूची की मदद से क्लिक कर दिया जाता। उसमें जितने ब्रश के बाल होते, उतनी पसंद एक बार में ही चटक जाती। टक टका टक।
    हे राम
    जय जवान जय किसान
    खुश रहो प्रसन्‍नता के दीप जलाओ

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  2. स्वीकारोक्तियों का चलन शुरू होनेवाला लगता है.

    बधाई, जो आपने स्वीकारने का सहस दिखाया. शायद और लोग आगे आयें.

    हमने तो ऐसा कभी नहीं किया. गूगल पेजरैंक, अलेक्सा, इंदीब्लौगर सभी में मेरा ब्लौग टॉप पर है लेकिन ब्लौगवाणी में बमुश्किल कभी सात-आठ पसंदें दिखी होंगीं. टिप्पणियां तो कभी भी 12 -15 से ज्यादा नहीं आईं. किसी-किसी पोस्ट पर तो एक भी नहीं.

    लाईट फील करने के लिए कहे देता हूँ की यदा-कदा बेनामी होकर कमेन्ट कर देता हूँ, केवल अपनी पहचान छुपाने के लिए:)

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  3. @ निशांत मिश्र

    तो अब देशनामा की पसंद ही क्लिक कर दो
    मेरी तरह।

    वैसे एक बात बतलाऊं
    बेनामी होकर कमेंट करने से अच्‍छा
    बेनामी होकर पसंद क्लिक करना है।

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  4. बहुत अच्‍छा लग रहा है ये स्‍वीकारोक्तियां देखकर। हिम्‍मत वाले लोग ही ऐसा कर पाते हैं। मैं भी हैरान होती हूं देखकर कि बेहद वाहियात पोस्‍टों पर अगर तीन कमेंट़स हैं तो कैसे 50 पसंद आ जाती हैं। पसंद का ऑप्‍शन नहीं होना चाहिए मेरा भी यही मानना है। जिसे पसंद हो कमेंट कर दे, या न भी पसंद है तो अपनी बात लिखकर कहे, बाकी ब्‍लॉगवाणी की मरजी।

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  5. आप तो कहकर हलके हो लिए.

    नौकरी लगने और शादी होने के बाद तो मैं काफी सुधर गया. अब तो वानप्रस्थियों की तरह व्यवहार करने लगा हूँ.

    सोचता हूँ 'मेरे गुनाह' या 'मेरी करतूतें' नाम से एक ब्लौग बना लूं और अपना अतीत सबके सामने धो डालूँ, लेकिन अभी इतनी हिम्मत नहीं जगी है और शायद कभी न जगेगी.

    आपकी पोस्ट अच्छी लगी. आज की बेहतरीन पोस्टों में से एक.

    मैं इसे दस बार पसंद करता हूँ!:)

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  6. ये हुई ना दमदारी।मन हल्का रहे,सुबह बाल संवारते समय आईने मे खुद को देख कर नज़रे झुक न जाये बस इससे ज्यादा और क्या चाहिये।सच को स्वीकार करने और कन्फ़ेशन के लिये बहुत बडा कलेजा चाहिये,तक़दीर वाले हैं आप जो आप के पास ये है।बहुत बहुत बधाई सच कहने की।

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  7. @ अविनाश जी,

    पसंद पर पहले ही क्लिक कर चुका हूँ.

    बेनामी कमेन्ट पर भी बहस की गुंजाईश है. कभी-कभी लोग केवल अपनी पहचान छुपाने के लिए बेनामी कमेन्ट करते हैं. दस में से कोई दो-तीन ही ऐसे होंगे जिन्हें बेनामी कमेन्ट करके गाली-गलौच की भड़ास निकलने में मज़ा आता हो, बाकी अपने को थोडा सेफ़ रखकर अपनी राय ज़ाहिर कर देते हैं. बेनामी कमेन्ट बहुत उपयोगी फीचर है. इसे सब-स्टैण्डर्ड नहीं मानना चाहिए.

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  8. achchha likhte rahiye pasand badhna na badhna bekar ki baat hoti hai . ham to aj tak kabhi jyada pasand wale blog ko pasand nahi kar paaye hain hame jo pasand aata hai uspe jyada pasand nahi hoti .
    jaise hamare apne blog par:-)

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  9. निशांत भाई, बधाई...बुरा जो देखन मैं चला, मुझसे बुरा न मिलयो कोई...आपने बेनामी कॉमेंट करने की बात स्वीकारी, इसके लिए साधुवाद...मेरा मानना है कि इंसान गलतियों का पुतला होता है...इंसान वही जो संभाल जाए...लेकिन जो जानबूझ कर गलतियों पर गलतियां करता जाए...स्वार्थ उसे अपनी कठपुतली बना ले तो स्थिति विकट हो जाती है...यहां अपने को हल्का करने की बात इसीलिए की है क्योंकि हम सभी की कोशिश है हिंदी ब्लॉग जगत उन ऊंचाइयों तक पहुंचे जिसका कि वो हकदार है...लेकिन इसके लिए दूसरों पर उंगली उठाने से पहले हमें खुद को आइने में देखना होगा...ऐसा हुआ तो हमें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता...एक दिन अंग्रेज़ी ही हिंदी ब्लॉग के पीछे खड़ी नज़र आएगी...

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  10. भाई खुशदीप, आप की स्वीकारोक्ति को सलाम। मुझे कोई एक साल पहले यह बताया गया था कि पसंद कैसे बढ़ाई जाती है,और उस का फायदा क्या है? कि आप की पोस्ट ऊपर ही दिखती रहती है। मैं ने उसे टेस्ट कर के देखा बात सही थी। पर इस से कोई लाभ नहीं खुद ही पसंद करो, और खुश होते रहो। यह शेखचिल्ली वाले खेल से अधिक कुछ नहीं था। फिर इस पर ध्यान देना छोड़ दिया। हाँ यह जरूर ध्यान रहा कि पसंद को कुछ लोग सब से अधिक खुदपसंद होने के खेल में मशगूल रहते हैं। लेकिन यह तो समय जाया करने वाला काम हुआ। जितना समय इस काम में लगा रहे हैं उतना समय कुछ लिखने पढ़ने में लगाएँ तो खुद में गुणात्मक परिवर्तन ला सकते हैं।

    यदि आप काउंटर पर जा कर अपने स्टेट्स देखें तो आप को पता लग जाएगा कि आप के यहाँ कितने पाठक एग्रीगेटरों से आ रहे हैं? वास्तविकता तो यह है कि साल भर निरंतर ब्लागिंग करने के बाद स्थिति यह बनती जा रही है कि दस प्रतिशत पाठक भी एग्रीगेटर के माध्यम से ब्लाग पर नहीं आते। आप को ब्लागिंग पसंद है, पोस्ट लिखते रहिए। आप अच्छा लिखेंगे तो आप के स्थाई पाठकों की संख्या स्वतः ही बढ़ती रहेगी।

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  11. स्‍वीकारोक्तियां भी हिम्मत वाले करते है, वेसे मेने तो यह पसंद वाला लगाया ही नही, ओर फ़िर मुझे तो इस खेल का पता भी नही कि यह है क्या??
    बहुत अच्छा लगा आप का लेख पढ कर,ओर आप की स्‍वीकारोक्तियां देख कर

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  12. द्विवेदी सर, आपकी बात बिल्कुल सही है...ये मैंने काउंटर पर चेक किया है कि मेरी कुछ पोस्ट को काउंटर के मुताबिक एक दिन में 500-550 तक क्लिक मिले...इनमें एग्रीगेटर से आई संख्या ज़्यादा से ज़्यादा 100 तक ही रहती थी...जिस दिन ब्लॉगवाणी ने ब्लैक आउट किया तो उस दिन भी मेरी पोस्ट...लो जी बम फट गया...को 350 से ज्यादा क्लिक और 31 कॉमेंट्स मिले थे...इसलिए ये पसंद का खेल हव्वे से ज़्यादा कुछ भी नहीं है...

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  13. स्लॉग ओवर मैं ज्यादा मजा आया | ये बढिया चलन होगा यदि हमलोग अपनी गलती मान लें | अब आते हैं काम की बात पे, मैंने आरम्भ मैं (३ महीने पहले) कंप्यूटर रिस्टार्ट करके पसंद बढानी चाही पर १ से ज्यादा नहीं बढ़ी | और आज भी कंप्यूटर रिस्टार्ट करके पसंद नहीं बढती है, कम से कम मेरे केस मैं तो नहीं बढती है, कोई और भी चेक करके देखे तो अच्छा रहेगा | यदि रिस्टार्ट करने के बाद ज्यादातर केस मैं पसंद बढती है तो हो सकता है की ब्लोगवाणी के कोड मैं कहीं fault हो (not sure) |

    टाईम्स ऑफ़ इंडिया मैं opinion voting का गलत उपयोग रोकने हेतु उन्होंने कई उपाय किये | कुछ हद तक काबू भी पाया पर इसे अभी भी १००% full proof नहीं बना पाया | और अभी भी थोड़े मिहनत से एक कंप्यूटर का जानकार १०-१२ वोटिंग आराम से कर सकता है | TOI के पास पैसे और संसाधन की कोई कमी नहीं पर इस चीज को नहीं रोक पा रहे हैं |

    खुशदीप जी थोडा-बहुत कंप्यूटर जानता हूँ और कोई बराबर hacking के खेल देखता रहता हूँ, इसलिए मैं ब्लोगवाणी (जिसके पास पैसे और संसाधन की प्रचुरता नहीं है) पे आक्षेप लगना नहीं चाहता |

    जो भी हो ... आपने बढिया लिखा है .. धन्यवाद

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  14. निशांत जी मैं anonymus टिप्पणी वाली बात से सहमत हूँ ... कई बार मैंने देखा है की सभी तरह की टिप्पणी के लिए ब्लॉग लेखक परिपक्वा नहीं होता | भले ही आप सही बोल रहे हों, ब्लॉग लेखक गलत होते हुए भी आपको पाठ पढाने लगता है | ऐसी स्थिति मैं anonymus comment काम की चीज होती है | पर गली-गलौज तो कदापि स्वीकार नहीं की जानी चाहिए ....

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  15. खुशदीप जी,

    मैं इस पसंद और नापसंद के ऊपर चटकों के प्रभाव में नहीं आता। अमूमन तो मैं सारी पोस्टों को ब्लॉगवाणी के जरिये देख पाता हूँ, पर जो पसंद आती हैं उन्हें बुकमार्क करके रखता हूँ या फ़िर फ़ीड सब्सक्राइब या फ़ोलो कर लेता हूँ।

    यह बात तो परम सत्य है कि अगर कुछ हल्का लिखते हैं तो ज्यादा टिप्पणियाँ और ज्यादा ट्राफ़िक और कुछ भारी याने कि साहित्यिक लिखते हैं तो कम ट्राफ़िक और कम और छोटी टिप्पणियाँ। अगर उदाहरण चाहिये तो मेरे ब्लॉग पर जाकर आप देख सकते हैं और ज्यादा नहीं केवल आखिरी दस चिट्ठों को देखेंगे तो माजरा समझ में आ जायेगा।

    हाँ स्थायी पाठक हमेशा हमारे पास हैं अगर कलम में ताकत है तो सब अपने आप आयेंगे। इसलिये एग्रीगेटर को जैसे कार्य करना है करने दो, केवल अपने लेखों की धार मजबूत बनाने में जुटे रहें तो देखिये कारवां बनता जायेगा।

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  16. खुशदीप भाई आपकी पोस्ट के साथ सभी मित्रों की टिप्पनियाँ भी पढ़ लीं आपकी स्वीकारोक्ति देख कर मुझे लग रहा है " कंफेशन बॉक्स " नाम से एक ब्लॉग शुरू करूँ और उसमे सारे लोगों को लिखने के लिये आमंत्रित करूँ ।

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  17. अच्छा किया. मन का हल्का रहना बहुत जरुरी है.

    वैसे: जब आप किसी सिंडीकेट से जुडे हों-ये सिंडीकेट से कैसे जुड़ते हैं. :)

    स्लॉगओवर याने पेंट की बचत का नुस्खा पसंद आया/

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  18. उड़न तश्तरी वाले गुरुदेव...
    मेरा कहने का तात्पर्य यही है कि पसंद-वसंद के खेल बेशक कर लिए जाएं लेकिन दूसरों को अपनी पोस्ट के लिए टिप्पणियां देने के लिए कतई मैनीपुलेट नहीं किया जा सकता...अगर कोई सिंडीकेट है भी तो आप ज्यादा से ज्यादा 5-10 टिप्पणियां ही अरेंज कर सकते हैं...
    बेशक कोई पसंद चटका चटका कर खुद के लिए नैनसुख का इंतज़ाम करता रहे...लेकिन ओरिजनल माल ओरिजनल ही होता है...मेरा दावा है कि आप जंगल के अंधेरे में छिपकर भी बैठ जाएं, लेकिन आपके चाहने वाले टिप्पणियों के चिराग के साथ ढूंढते ढूंढते वहां भी पहुंच जाएंगे...क्योंकि समीर लाल समीर नाम की तासीर ही कुछ ऐसी है...

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  19. अब अपने दही को खट्टा कैसे कहें?..इस नाते अपनी पोस्ट की पसन्द पर तो ज़रूर एक बार चटखा लगा दिया करता हूँ।हाँ!..कई बार कम्प्यूटर रिस्टार्ट करने पर या फिर मॉडम के हैंग हो जाने पर नैट को फिर से स्टार्ट किया तो दोबारा फिर से पसन्द को चटखा लगा कर देखा तो पसन्द बढ गई।
    मैँने अपना होम पेज ब्लॉगवाणी को बनाया हुआ है...अत: जितनी बार भी नैट को ऑन किया...ब्लॉग वाणी को ही सामने पाया...तो अपने जानकारों की पोस्टों को भी(बेशक बिना पढे ही) पसन्द का चटखा लगा दिया

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  20. पगली पसँद पर लटके हुये, चटके लगाते रहने वालों पर भली टार्च मारी । रँगा खुश हुआ !
    यह सब खुल्लम-खुल्ला स्वीकार कर आपने आज सच का एक दीप जलाया । रँगा बहुत खुश हुआ ।
    स्कारपियो ठहरा अपुन, स्टिंग मारा तुमिने.. कुदरत के इस इत्तेफ़ाक़िया मज़ाक पर, रँगा और भी खुश हुआ ।
    पण एक बात बरोबर, अगर हमारा लड़का लोग यह रिपोर्ट लगाया कि लिक्खा मूरख भाई ज्ञानी ने, प्राम्पट तुमने किया । तो रँगा नाखुश होयेंगा ।

    हसरत है कि, कम से कम एक बारि तो अपनी ब्लागिंग की पारी में ’ हम भी थोड़ा बेनामी हों जायें ’
    होने को नहीं सका, जिस कमरे में ब्लागिंग की मशीन रक्खी है, उधर को अपुन की अम्मा भी सोती है ।
    मशीन के बाँयें बाजू स्वर्गीय पप्पा फोटू में मुस्काते हमको देखते, अपुन बेनामी किस माफ़िक होयेंगा रे बाप ?

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  21. डॉ. अमर जी की टिपण्णी का मजा तब ज्यादा है जब आप उसे महान अभिनेता प्राण की संवाद अदायगी की तरह पढें.

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  22. अमर जी की टिप्पणी को प्राण की तरह पढने के अलावा देवानंद की तरह टर्न देने में भी मजा आएगा :)

    .....रोजी...तुम्हें पता नही है कि मार्को कि दुनिया ब्लॉगिंग से जुडी है और मेरी दुनिया तुमसे...मुझे रूसवा न करो रोजी......

    मैं कहता हूं रूक जाओ रोजी.....


    रोजी....


    ....चलो सुहाना भरम तो टूटा.....जाना कि हुस्न (पसंद) क्या है :)

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  23. अच्छे ख्यालात आपके।

    मिठास तो वैसे ही मिल जाती है अपने ब्लॉग पर सैकड़ों आने वालों से। फिर गन्नों की फसल क्या करनी, इसलिए मैंने अपने नियंत्राधीन सभी ब्लॉगों से ब्लॉगवाणी पसंद का विज़ेट, 30 सितंबर की रात से हटा लिया हैं। भूले भटके एकाध गन्ना रह गया हो तो सूचित करें, वह भी हटा लिया जायेगा। खेतों की ओर जाने वाला रास्ता तो वैसे ही रहेगा।

    मैंने सुना है कि गन्ने से पिटाई भी की जाती है जिसके निशान ही नहीं मिलते!

    बी एस पाबला

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  24. पाबला जी,
    गन्ने से पिटाई करने के लिए तो अपने अवधिया जी ही काफी है...अब तो वो वैसे ही शेर हो गए हैं...कश्मीर में एक विधवा उनके नाम अपनी सारी प्रॉपर्टी जो छोड़ गई है...

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  25. बढ़िया है जी। पसंद बढ़ाने के लिये जो लटके-झटके इस्तेमाल किये और बताये वो तो अच्छा किया लेकिन सफ़ाई के लिये जो इत्ते सारे उदाहरण दिये उससे लगता है कि आप चाहते नहीं कि आपकी बात को गलत समझा जाये। ब्लागवाणी या कोई और संकलक की सीमायें हैं। कोई इनका फ़ायदा उठाकर कित्ते दिन अपने आपको आगे रख पायेगा। सच तो यह है कि लोगों को पढ़ते-पढ़ते उसके लेखन के बारे में एक सहज धारणा बन जाती है। फ़िर उसकी पोस्टें जब भी पढ़ी जाती हैं तो उसके बारे में वह धारणा भी अपना काम करती हैं। अगर किसी की पोस्ट पसंद के हिसाब से ऊंची कर ली है किसी ने लटके-झटके से लेकिन पढ़ने से पता चला कि वो बस ऐं-वैं टाइप के मसाले से ही भरी है तो उसके लिखने वाले के बारे में पाठक के मन में रेटिंग और गिर जायेगी। अगली बार चाहे जित्ती ऊंची पसंद हो मन की मसंद उसको उत्ता भाव नहीं दे पायेगी।

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  26. पसंद बटन का उद्देश्य अच्छे ब्लॉग्स को आगे लाना ही है किन्तु इस तकनीक का गलत रूप से इस्तेमाल करके कुछ लोग अपने ब्लॉग को आगे लाने की कोशिश करने लग गये। पर जरा सोचिए, यदि मैं पसंद बटन का गलत इस्तेमाल करके यदि अपने ब्लॉग को आगे रखता हूँ तो क्या मेरा ब्लॉग अच्छा हो जायेगा? हाँ अधिक से अधिक लोग जरूर मेरे ब्लॉग में आने लगेंगे और मैं खुश हो जाउँगा। पर यदि मुझमें लेशमात्र भी बुद्धि है तो मैं यह अवश्य सोचूँगा कि अधिक से अधिक लोग मेरे ब्लॉग में आ तो रहे हैं पर वहाँ ठहर कर मेरे लिखे को पढ़ कितने लोग रहे हैं? यदि मैं इस प्रकार से विश्लेषण करूँगा तो मुझे यही पता चलेगा कि लोग ब्लॉगवाणी पसंद से मेरे ब्लॉग में आये और मात्र एक दो लाइन पढ़कर ब्लॉग को बंद कर देने वाले क्रास बटन को क्लिक कर दिया। यह तो खुद अपने आप को धोखा देना है।

    मैंने पहले भी कहा था और अभी भी कह रहा हूँ कि पसंद बटन बहुत अच्छी चीज है बिल्कुल अंग्रेजी के डिग बटन, जो कि अंग्रेजी ब्लॉग्स की लोकप्रियता का मानदंड बन चुकी है, के जैसा।

    यदि 'हम बुरा जो देखन मैं चला ...' को मान कर देखेंगे तो यही पायेंगे कि बुराई पसंद बटन में नहीं अपने आप में ही है।

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  27. आपने सच ही लिखा है कि विकल्‍प ही क्‍यूं खुला है? मैं ब्‍लागवाणी पर अभी कुछ ही दिनों से आ रही हूँ, नए-नए ब्‍लागर हैं तो अभी तो बहुत कुछ नहीं आता। ब्‍लागवाणी को देखा तो अपनी पसन्‍द भी दिखायी दी। मैंने प्रयोग के रूप में उसे क्लिक किया, उसका नम्‍बर बदल गया। अरे यह क्‍या? आप स्‍वयं ही नम्‍बर बदल सकते हैं? उस दिन से आज का दिन है मैंने उसे कभी देखा भी नहीं। इसलिए ऐसे विकल्‍प खुल छोड़े जी न जाएं।

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  28. यानी कि मामला अभी खत्म नहीं हुआ है?

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  29. माना की मंज़िल (स्वार्थ की मानसिकता बदलने
    व स्वीकारोक्तियों के चलन शुरू होने की )

    अभी बहुत दूर है...........

    लेकिन डगर पर साथ चल पड़े.........

    सैकड़ों क़दमों ने जज़्बे में जोश भरा है :)

    स्लॉग ओवर:बचत का नुस्खा बताने के लिये धन्यवाद !

    जै माता दी !

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  30. सही है इस साधन की जरूरत क्या है ! इसे तो प्रसाधन तक धकेल देना चाहिए!

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  31. आज भी यह २५ वें नंबर पर है ! कहीं अहिंसा दिवस पर भी तो ? हा हा!

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  32. .
    .
    .
    खुशदीप जी,
    २८ सितम्बर को मैंने आपसे पूछा था:-

    ब्लॉग वाणी ने अपनी सफाई में यह भी लिखा है:-

    "इन पसंदो का अध्ययन कर पाया गया कि नकली पसंद की IP में पैटर्न थे (जैसे सिर्फ आखिरी अंको का बदलना, आदि). एक सुरक्षा प्रोग्राम बनाया गया जो समय-समय पर चलकर इस पैटर्न को डिटेक्ट करके नकली पसंद निकालता है. अगर किसी ब्लाग पर निश्चित प्रतिशत से अधिक नकली पसंदे आयीं हों तो वह प्रोग्राम उस ब्लाग पर आने वाली पसंदे कुछ समय के लिये रोक देता है."

    कुछ कहेंगे आप ?
    September 28, 2009 1:37 PM


    और आप जवाब दिये थे:-

    @ प्रवीण शाह
    "आपका सोचना बिल्कुल सही है कि मैं अपना और सब काम छोड़कर बस एक ही काम में लगा रहता था कि नेट कनेक्शन बार-बार डिसकनेक्ट कर दोबारा लॉग ऑन किया और अपनी पसंद पर एक नया चटका और लगा दिया...यही नहीं अपने सब शुभेच्छुओं से भी मौका मिलने पर पसंद पर हाथ साफ़ करने के लिेए कह रखा था...और एक बात बताऊं मेरी पोस्ट को पढ़ने वाला भी एक बंदा नहीं है...वो तो मैं ही क्लिक-क्लिक कर सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाला आकंड़ा ज़्यादातर 100 से ऊपर पहुंचा देता था...और अपने समेत जो कमेंट्स आप मेरी पोस्ट पर देख रहे हैं वो भी सब फ़र्जी हैं...ये भी मेरे पास मौजूद एक ऐसे सॉफ्टवेयर का कमाल है कि मैं किसी का भी माइंडवाश कर अपने पोस्ट पर कमेंट लिखने के लिए मजबूर कर देता हूं...प्रवीण जी इसके अलावा और क्या-क्या पढ़ना आपको नैन-सुख दे सकता है, सुनने में आपको कर्णप्रिय लग सकता है, वो मैं सभी लिखने और कहने के लिए तैयार हूं.."

    September 28, 2009 7:42 PM

    गाँधी जयन्ती के इस पावन पर्व पर आपकी स्वीकारोक्ति सराहनीय है पर क्या आप नहीं मानते कि उस दिन मैं (प्रवीण शाह) भी सही बोल रहा था ?
    कुछ कहेंगे आप...आज...

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  33. प्रवीण जी, आपके उस प्रश्न ने ही मुझे सच बोलने की हिम्मत दी...इसके लिए आपका मैं आभारी हूं...

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  34. .
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    .
    खुशदीप जी,
    धन्यवाद!
    आज आप बहुत ऊँचे हो गये... अपनी और मेरी नजर में...

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  35. यह हुआ ना सच का सामना,सचमुच सराहनिय ।

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  36. आपकी ईमानदारी बहुत अच्छी लगी..सच्चाई भी यही है अगर किसी को कुछ भी आसानी से मिले तो हाथ तो मारेगा ही..

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  37. इस सवाल के ठीक ठीक जवाब के साथ आपने जीत लिये हैं...कुल एक सौ रुपये..इत्ते में दिवाली मनाईये..कपडे सिलवाईये..और बांकी बचे पैसे से दाल के व्यापार में इन्वेस्ट्मेंट किजीये...मुबारक हो...अब इसके बाद सवाल निजि होते जायेंगे..क्या आप तैयार हैं....सच का सामना करने के लिये..वैसे पोलीग्राफ़ी मशीन तो बिल्कुल तैयार है.....कह रही है....मैं तो फ़ंसा लूंगी..खुशदीप को....

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  38. झा जी, स्कूल के बच्चों के लिए 1000-1000 रुपए और मेरे लिए सिर्फ 100...बहुत नाइंसाफी है ये...

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  39. सत्य स्वीकारोक्ति की एक नईं परम्परा के आसार दिखाई देने लगे हैं.....

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  40. जो तुमको हो पसंद वही बात करेंगे। वाकई सच का सामना।

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  41. saadhu saadhu aapki sweekarokti par...

    Sach ka samna namak blog ki shuruaat kar do jaiye?

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  42. खुशदीप भाई,
    बहुत सही लिखा है आपने,पर ब्लॉग एग्रेगाटर की सीमाएं होती है.अच्छी पोस्ट का पता टिप्पणियों की गंभीरता से लग जाता है.मैं तो बस समर्थको की संख्या और टिप्पणियों से अच्छी पोस्ट को छाँट लेता हूँ फिर उन ब्लॉग को अनुसरण करने में डाल देता हूँ.और अच्छे ब्लॉग पर नई पोस्ट कभी निराश नहीं करती है.ब्लोग्वानी का उपयोग नए ब्लॉगर की पोस्ट पढने के लिए करता हूँ.पसंद नापसंद तो अपने लिए मायने नहीं रखती.मैं भी आपसे सहमत हूँ कि इसे हटा दिया जाना चाहिए.मैं तो छोटी टिप्पणियों के लेखको से भी अनुरोध करता हूँ कि अपनी टिप्पणी में कुछ दिमाग जरूर लगाएं.पोस्ट पढ़ी नहीं और लिख दिया उम्दा.बढ़िया!
    आपका ब्लॉग मेरी पसंद में शामिल है.और आपकी पोस्ट पढ़कर निराश नहीं होता.मेरी कई अच्छी पोस्ट इस पसंद के चटके न लगने से डूब गयी जिसका अफ़सोस होता है.पर आपकी पोस्ट पर चटका लगा देता हूँ.एक अच्छी पोस्ट को पसंद में नीचे नहीं आने दूंगा.
    पर यह क्या चक्कर है कि मेरे चटके को ब्लोग्वानी पसंद ने स्वीकार नहीं किया.

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  43. मुझे तो ऐसा लगता है कि खुशदीप जी ने

    स्वीकारोक्ति करके विष का प्याला पी लिया,

    शायद उन्होंने यही उचित समझा होगा ?? ??

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