सबसे नीचे के बायीं ओर के तीन ज़िले-पुरुलिया, बांकुरा, मिदनापुर
इसी जंगलमहल में झारग्राम का इलाका भी आता है जहां पिछले शनिवार हावड़ा से मुंबई जा रही ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस त्रासदी में 158 लोगों की मौत हो गई...सैकड़ों घायल हो गए...परिवार के परिवार तबाह हो गए लेकिन राजनीति अपना नंगा नाच कर रही है...
आज इस पोस्ट में मैं सिर्फ जंगलमहल की ही बात करूंगा...नक्शे पर जंगलमहल को देखने से किसी को ये नहीं पता चलेगा कि ये देश के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है...चंद लोगों को छोड़ दिया जाए तो यहां की सारी आबादी ही बीपीएल यानि गरीबी रेखा से नीचे है...आदिवासी बहुल इस इलाके में जंगल ही जीने का साधन रहा है..लेकिन इस जंगल की संपदा को भी टिंबर माफिया ने प्रशासन की साठगांठ से लूटना शुरू किया तो आदिवासियों को जीने का ही संकट हो गया...विकास किस चिड़िया का नाम होता है, यहां के किसी बाशिंदे को नहीं पता...पीने का साफ़ पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं, तालीम, बिजली, सड़क तो बहुत दूर की कौड़ी है, यहां लोगों को दो वक्त की रूखी-सूखी रोटी और तन ढकने को लंगोटी ही मिल जाए तो ये अपने को राजा से कम नहीं समझते...
जंगलमहल के आदिवासियों में से शायद ही कुछ खुशकिस्मत होंगे, जिनके पास राशनकार्ड होंगे...इनके लिए राशनकार्ड की वही अहमियत होती है जैसे अमेरिका में बसने की चाहत रखने वालों के लिए ग्रीन कार्ड की..आदिवासी, दलितों के राशनकार्ड बने भी हैं तो उन्हें राशनकार्ड डीलर्स ने ज़बरन अपने कब्जे में कर रखा है...बताता चलूं कि राशनकार्ड डीलर सत्ताधारी दल के अनुकंपा प्राप्त कार्यकर्ता ही बनते हैं...राशन डीलर्स इन राशन कार्ड के दम पर सरकार से पूरा सस्ता गल्ला उठाते हैं और खुले बाज़ार में उसे बेचकर चांदी कूटते हैं...जिस पेट को सबसे ज़्यादा अन्न की ज़रूरत होती है, उसे भूखे पेट ही सोने को मजबूर होना पड़ता है...
जो आदिवासी कभी जंगलमहल में ज़मीन के मालिक हुआ करते थे, वो अब खेतों में मज़दूरी के मोहताज हैं...दिन भर बदन तोड़ने के बाद भी सिर्फ नाम का ही इन्हें मेहनताना मिलता है.. सरकारी कागज़ों में जंगलमहल के तीन ज़िलों- पुरूलिया, बांकुरा और पश्चिमी मिदनापुर- के लिए विकास और कल्याण योजनाओं की भरमार है, लेकिन इनका रत्ती भर भी लाभ लोगों तक नहीं पहुंच रहा...मसलन...
बीपीएल के लिए बुज़ुर्ग पेंशन स्कीम के मामले में पश्चिमी मिदनापुर बंगाल के 19 ज़िलों में सबसे पिछड़ा है...
राष्ट्रीय फैमिली बेनिफिट स्कीम में घर के मुखिया की मौत पर सरकार की ओर से दस हज़ार रुपए की मदद एकमुश्त दी जाती है...आलम ये है कि पुरुलिया की दो ग्राम पंचायतों में एक भी परिवार को ये लाभ कभी नहीं मिला...
स्वर्णजंयती ग्राम स्वरोज़गार योजना में बीपीएल परिवारों को सरकारी अनुदान के साथ छोटे कर्ज़ दिेए जाते हैं...लेकिन यहां इस योजना में कोई रजिस्टर्ड ही नहीं है...इसलिए बैंक किसी को भी ये कर्ज देने की ज़ेहमत नहीं उठाते...
इंदिरा आवास योजना के लिए बांकुरा में जितना सरकारी फंड आया, उसमें से दो तिहाई बिना इस्तेमाल हुए ही सरकार को वापस चला गया...
जंगलमहल में विकास से ज़्यादा ज़िंदा रहने का महत्व है...उन्हें सुख-सुविधाएं नहीं बस रोटी चाहिए...और ये रोटी उन्हें कितनी मिलती है, इसका अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि जंगलमहल की 85 फीसदी महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं...
अब आप बताएं, देखना चाहेंगे जंगलमहल...सरकार तो सब कुछ देखकर भी आंखें मूदे हुए है...सोए को तो आप उठा सकते हो लेकिन जो जानबूझकर सोने का नाटक करे, उसे कौन उठा सकता है...
खुशदीप भाई,
जवाब देंहटाएंसोते को जगाना आसान है, जागे को जगाना मुश्किल है... जंगल महल के लिए सरकारी अनुदान भी आता होगा.. मगर उसे कुर्ता पैजामा मिल बांट कर खा जाता होगा...
सहमत हूं भैया
जवाब देंहटाएंकैसे हो खुशदीप जी आजकल तो बहुत ही चोखा लिख रहे हो.. लिखते रहो। दादाजी खुश हुए।
जवाब देंहटाएंमेरे बेटे को खोजने में थोड़ा मेरी मदद करो.. मैंने सुना है कि आपकी पहुंच बहुत ज्यादा है।
जवाब देंहटाएंयह तो सच है, जबकि इस पोस्ट में महाज़नों के शोषण का जिक्र नहीं हैं ।
सन में जनसत्ता में एक लेख पढ़ कर मैं झाबुआ के इलाकों में घूम आया । लोमहर्षक था यह देखना कि कैसे गुस्साये आदिवासी रात में मशालें जला कर इँदौर अहमदाबाद हाईवे पर आने जाने वाली गाड़ियों पर पहाड़ी से शोर करते हुये पत्थर बरसाते थे । यदि कोई गाड़ी फँस गयी तो लूट में एक मफ़लर या बनियान मिल जाना ही उनकी अपार खुशी का कारण हो जाता था । प्रशासन उन्हें तो खदेड़ता था, किन्तु हाट के उन बनियों की तरफ़ से आँख मूँदें रहता था, जो दिन उजेले इनको जँगल के बीन कर लायी चिरौंजी के बदले उतने ही वजन का आटा, या दोगुना वजन में नमक या वजन का आधा हिस्सा गुड़ पकड़ा देता था । अधिकाँश आदिवासियों का मुख्य भोजन गड़ारू ( एक प्रकार का कँद ) ही होता था ।
पिछली अप्रैल में राँची परिमँडल में माड़वाड़ी आढ़तियों का खेल देखा और इसी वर्ष जनवरी में पिपरडीहा ( तेलँगाना क्षेत्र ) में औरतों बच्चियों की बोली लगती देखी । ताज़्ज़ुब नहीं कि..मन में प्रश्न उठ पड़े
" क्या यह जगह भूमध्य रेखा के पास है
क्यों यहाँ की धरती दिल्ली से नहीं दिखती
क्या यूँ ही यह अचानक घिर आये ख़ौफ़ का देश है
जहाँ कहीं भी, कभी भी कोहराम बरस जाता है अचानक
और हवाओं में अनाम उमस बनी रहती है, अक्सर "
बहुत अच्छी तथ्यात्मक पोस्ट !
पर, यह दादा जी अचानक किस कब्र से उठ कर चले आये
खुदग़र्ज़ी देखो कि असल समस्या भूल चुन्नु चुन्नु गोहराये
कृपया सुधार कर पढ़ें
जवाब देंहटाएंसन में जनसत्ता में = सन 1992 में जनसत्ता में..
खुशदीप जी,
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक प्रविष्ठी है आपकी...
इस प्रविष्ठी को और मजबूती दे रहे हैं.डॉ. अमर....उनकी तथ्यात्मक बातों ने और भी जानकारी दी है....
दरअसल ऐसी ही टिप्पणियों का इंतज़ार रहता है ....
आपका और डॉ. साहेब का हृदय से आभार...
पुनः आभार आपका इस आलेख के लिए. यह सारी जानकारी आमजन को मालूम होना ही चाहिये. तस्वीर का एक रुख ही नजर आता है अन्यथा.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख खुशदीप भाई
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी तथ्यात्मक पोस्ट !
बहुत ही सार्थक पोस्ट !
जवाब देंहटाएंsaamyik v sateek.....sadhuwad
जवाब देंहटाएंयह हाल वहाँ का है जहाँ पिछले 33 वर्ष से वामपंथी सरकार चल रही है। निश्चित ही वे सभी वामदल जो इस सरकार में सम्मिलित हैं। इस के दोषी हैं, शायद कभी न कभी इस की सजा भी पाएँ। वहाँ यदि नक्सलवाद पनपता है तो इस का दोष उन पर न्यूनतम है जिन्होंने इसे संगठित किया। अधिकतम दोष उस व्यवस्था का है जिन्होंने इस जंगलमहल को जंगलमहल भी न रहने दिया। वहाँ शोषकों की उस जमात को पहुँचाया जो स्थानीय निवासियों का रक्त वर्षों से लगातार चूस रहे हैं। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि सशस्त्र नक्सलवाद इन स्थितियों की स्वाभाविक परिणति है। निश्चय ही भगतसिंह इस सब के लिए तो शहीद न हुए थे। अब इस असमान विकास और अमानवीय शोषण से मुक्ति का मार्ग क्या है? उसे तलाशना चाहिए। लगता है अभी रोशनी बहुत दूर है।
जवाब देंहटाएंविकास की चिंता किसे है ।
जवाब देंहटाएंयहाँ तो सब कुर्सी की चिंता में लीन हैं ।
आँख खोलने वाले सत्य तथ्य प्रस्तुत किये हैं आपने ।
सार्थक आलेख ।
रोटी ना मिले तो आदमी क्या करे..क्रांति और बग़ावत के बजाय कोई और रास्ता नही बचता और उसमें कई और का नुकसान होता है..विकास का कार्य तो दूर अगर सरकार उन्हे २ जून की रोटी की सही से दिला सके तो बहुत बड़ा काम है...पर कब तक पता नही..खुशदीप भैया बहुत बढ़िया चर्चा....अपने देश का एक रूप यह भी है..धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक पोस्ट
जवाब देंहटाएंKhushdeep jee!! Jinda rahne ki liye sabse aham vastu roti kapra aur makan....sayad ye mil jaye to mujhe lagta hai adhiktar aise log apne desh ke mukh dhara me shamil rahen......!! lekin kab ye sambhav hoga......pata nahi!!
जवाब देंहटाएंJindagi ko rubaru karati aapki post!!
बहुत सार्थक लेख....वहाँ की परिस्थिति से मैं भी थोडा थोडा वाकिफ हूँ...आदिवासी इलाके की स्थिति स्वयं देखी हुई है...मन द्रवित हो जाता है उनको देख कर......अपना गुज़ारा वो मांड पी कर करते हैं...कभी कभी वो भी नहीं जुटा पाते.....बहुत दयनीय हालत है .
जवाब देंहटाएंउफ़ त्रासद है ...lबेहद सार्थक आलेख ..सोच कर ग्लानी होती है आलीशान माल्स और हाई क्लास लाइफ स्टाइल पर इंडिया इज शाइनिंग का नारा लगाने वाले इन बेचारों की लाश पर आशियाने खड़े करते हैं
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी आप ने बहुत अच्छा लेख लिखा, कहां सोये है हमारे ईमान दार प्रधान मत्री सरदार मन मोहन जी, क्या उन्हे नही दिखता यह सब?वो इस देश का खाते है इस देश के प्रति वफ़ा दारी दिखाये, लोगो को बहुत उम्मीद थी जब मन मोहन सिंह इस गद्दी पर बेठे, लेकिन एक नालायक पुत्र की तरह सब को उदास कर दिया, इन आदि वासियो को अगर हम दे नही सकते तो उन का कुछ छीन लेने का भी हमे हक नही, इन सब पर यहां डाकुमेंट्री फ़िल्मे दिखाई जाती है, यानि विदेशो मै भी सब को पता है बस हमारे नेताओ को ही नही पता...
जवाब देंहटाएंइस समस्या से तो हम सभी परिचित है पर इसके समाधान क्या है क्या हम सब इस पर लिखने और चर्चा करने के अलावा जमीनी रूप से कुछ कर सकते है यदि हा तो क्या ?
जवाब देंहटाएंबढिया जानकारी मिली आपकी पोस्ट से. डा. अमरकुमार जी जिस जगह का (झाबूआ) जिक्र कर रहे हैं वो हमारे पास ही है और उस घाट का नाम माछलिया घाट है, जिसे पार करने में आज भी वही हालत है, कानवाई की शक्ल मे घाट पार करवाया जाता है.
जवाब देंहटाएंरामराम
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
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जवाब देंहटाएं@ सलीम भाई..
मैं किस को रोऊँ ?
मेरे तो नाम के साथ
एम. बी. तो जुड़ा ही है,
साथ ही कमबख्तों ने मेरे मत्थे बी. एस. और मढ़ दिया ।
बड़ी मुश्किल से एम. डी. ( महाधूर्त ) बन अपनी लाज़ बचायी है ।
नासपीटा एम.बी.बी.एस. फिर भी पीछा नहीं छोड़ता !
मैं किस को रोऊँ, सलीम भाई.. ?
आँखें खोलने वाले इस खोजपरक लेख के लिए आभार भैया..
जवाब देंहटाएं@सलीम भाई,
जवाब देंहटाएंमैं अब भी आपके लिए भाई का ही इस्तेमाल कर रहा हूं...क्योंकि मेरे संस्कारों ने मुझे यही सिखाया है...लेकिन मुझे ये सोच कर हैरत हो रही है कि आप इतने दिनों से ब्लॉगिंग में है और आप किसी के नाम का गलत इस्तेमाल कर टिप्पणी करने के खेल के बारे में नहीं जानते...एक बार राज कुमार ग्वालानी जी की पोस्ट पर ब्लॉगवुड के हर ब्लॉगर के नाम से उलटी सीधी टिप्पणियां की गई थीं...मुझे भी इस खेल का तभी पता चला...अगर आपके कमेंट वाले बॉक्स में बेनामी कमेंट करने का ऑप्शन खुला है तो उसे बंद कर दीजिए...नहीं तो ऐसे ही गलतफहमी का शिकार आगे भी होते रहोगे...सही टिप्पणी में फोटो आती है और आरेंज-ग्रीन कलर से भी असली-नकली टिप्पणी का फर्क आसानी से समझा जा सकता है...लेकिन आपने बिना सोचे समझे अपने मुखारबिन्दु से मेरे लिए सदवचनों का इस्तेमाल किया...और अगर आप समझते हैं कि आप की वजह से ही मेरा थोड़ा बहुत नाम हुआ है तो आपका बहुत बहुत आभार प्रकट करता हूं...आशा है अपनी ऊर्जा मेरे पर खर्च करने की जगह रचनात्मक लेखन में लगाएंगे...
जय हिंद...
आपने सही कहा खुशदीप भाई, मैंने झूठ फरेब न जानता हूँ न करता हूँ, इसलिए बेनामी के ज़रिये आपका नाम जो इस्तेमाल हुआ और मुझे जो गाली दी उससे मैंने उसको तुरंत जवाब दे दिया! अभी मुझे शाहनवाज़ भाई के ज़रिये पता चला कि यह वो कर रहें है जो वास्तव में सलीम ख़ान के खिलाफ है... वे कोई भी हो सकते हैं!
जवाब देंहटाएंमुझे बहुत दुःख हुआ कि आपने मुझे गाली दी (हक़ीक़तन वह आप नहीं थे) और मैंने भी आपको कुछ कह दिया. यह नहीं होना चाहिए. अब मैं सतर्क हो गया हूँ कि राक्षस सभी जगह है!!
कुल मिला कर जो हुआ उसे मैं तो भूल ही गया अब आपके जवाब का इंतज़ार करूँगा.
जागो सोने वालों...
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