ईश्वर, आज मैं आपसे बहुत खास मांगने जा रहा हूं...हो सके तो मुझे टेलीविजन बना दीजिए...मैं उसकी जगह लेना चाहता हूं...उसी की तरह घर में जीना चाहता हूं...सबसे अहम स्थान पर मैं बैठा रहा हूं और सारा परिवार मेरे इर्द-गिर्द रहे...मैं जब बोलूं तो सब मुझे गंभीरता से सुनें...मैं ही सबके आकर्षण का केंद्र रहूं और बिना कोई रोक-टोक या किसी के सवाल किए अपनी बात कहता रहूं...जब मैं किसी वजह से काम करना बंद कर दूं तो मुझे वैसी ही देखभाल मिले जैसे कि टीवी के काम बंद कर देने पर उसे मिलती है...फौरन उसकी नब्ज़ देखने के लिए मैकेनिक (या डॉक्टर) बुलाया जाता है या उसे ही रिपेयर शॉप (नर्सिंग होम) भेज दिया जाता है...मेरा बेटा काम से थक-टूट कर आने के बाद भी जिस तरह टीवी को कंपनी देना नहीं भूलता, वैसे ही मुझे भी दे...मुझे टीवी की तरह ही लगे कि मेरा परिवार कभी कभी मेरे लिए अपने और सब ज़रूरी काम भी छोड़ सकता है...और सबसे बड़ी बात...मुझे लगे कि मैं अपनी बातो से अपनों को खुश रख सकता हूं, उनका दिल बहला सकता हूं...
आभार गूगल
सर्वश्रेष्ठ विचार किस बुज़ुर्ग ने भेजा था, ये जानने के लिए आयोजकों ने लिस्ट से नंबर के अनुसार बुज़ुर्ग का नाम और पता पढ़ा...
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अब चौंकने की बारी शहर के बड़े कारोबारी की थी...नाम और पता, उसके पिता और खुद के घर का था...
Ise hi deep tale andhera kahte hain shayad bade bhaia..
जवाब देंहटाएं'jise hans samajhte rahe doston wahi hai kaua nikla..
jo lagate the sharab virodhi naare unhin ki jeb se pauwa nikla..'
main bhi yahi kahne waali thi jo Dipak ne kaha DEEPAK TALE HI ANDHERA hota hai...pahle apna ghar vyavsthi kiya jaay fir auron ka...'CHARITY BEGINS AT HOME'.
जवाब देंहटाएंhamesha ki tarah dhoowaandhaar pravishthi..
badhaii....
वैसे हर घर की यही कहानी है।
जवाब देंहटाएंउम्दा पोस्ट।
सामाजिक सरोकार और पत्रकारीय नज़र वाली ब्लागरी में आपकी शैली अनूठी है खुशदीप। बहुत बधाई....
मार्मिक
जवाब देंहटाएंशायद हम सब जानते हुए वही करते जाते हैं
रिश्तो के सरोकार विचलित होते जा रहे हैं
सुन्दर और निर्बाध रचना
nice
जवाब देंहटाएंहर बुजुर्ग यही अहसास रहा होगा..कितनी मिलती जुलती रही होंगी सभी की कापियाँ.
जवाब देंहटाएंखुशदीप भाई हर दिन पोस्ट लिखना और हर दिन उसमें कुछ न कुछ कह जाना सबके बस की बात नहीं होती । आपकी इस पोस्ट ने बहुत कुछ कह दिया है । आज हालात यही होते जा रहे हैं ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही दिल को छूती हुई पोस्ट. आजकल रिश्तों में दूरियां बढ़ रही है.
जवाब देंहटाएंवर्तमान सामाजिक परित्स्थियों में ऐसे चौंकने के अवसर मिलते रहते हैं ...
जवाब देंहटाएंसामाजिक सरोकार के प्रति आपका समर्पण उल्लेखनीय है ...!!
बुजुर्गवार को ऐसा ही महत्व प्राप्त था। बस अब एकल परिवारों में समस्या हो चली है।
जवाब देंहटाएंयही हाल है कुछ लोग ही है जो शहर की चकाचौंध में अपने माँ-बाप के साथ पर्याप्त समय दे पाते है..बाकी तो सब औपचारिकता ही करते रहते है....बहुत बढ़िया आलेख...धन्यवाद खुशदीप भाई
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है । बुजुर्गों को बस थोडा सा प्यार और अटेंशन चाहिए , जो आजकल की भाग दोड़ की जिंदगी में बच्चे दे नहीं पाते । हालाँकि समय अनुसार यह करना वास्तव में बड़ा मुश्किल काम है ।
जवाब देंहटाएंलेकिन मुश्किलों से घबराकर न करना भी तो सही नहीं ।
आने वाले समय मे टी.वी. भी उठाकर फ़ेंक दिए जाएंगे........आज माता-पिता अपने बच्चों के लिए समय नही निकाल पाते तो भविष्य मे ये बच्चे ......
जवाब देंहटाएंकितना सही है यह
जवाब देंहटाएंसमाज सेवा की ओर कदम बढाने से पहले अपने घरों में भी झांक लेना चाहिए .. कहीं वहीं तो आपकी सबसे अधिक जरूरत नहीं !!
जवाब देंहटाएंझा जी से सहमत हूँ !
जवाब देंहटाएंआभार !
इस पोस्ट से बुजुर्गों के मन की वेदना चित्रित कर दी....अच्छी पोस्ट
जवाब देंहटाएंबहुत सटीकता से बात कही है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
प्रेरक...शहरों में परिवार के सदस्यों विशेषकर बुजुर्गों से बढ़ रही दूरियों की ओर ध्यान दिलाती कहानी.
जवाब देंहटाएंएकदम अलग तरह की पोस्ट होती है आपकी. अलग और अनूठी. बधाई.
जवाब देंहटाएंaaj ki haqeeqat bayan kar di .
जवाब देंहटाएंसच मे दिया तले अंधेरा ही है.
जवाब देंहटाएंलाजवाब पोस्ट .......आज के समय का सबसे बड़ा सच है .
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी ...आपकी बात सही है कि आज के ज़माने में हमारे युवाओं और बुजुर्गों में आपसी ताल-मेल और सोहाद्र की काफी कमी है....बुज़ुर्ग चाहते हैं कि बच्चे उनके कहानुसार चलें....उनके लिए समय दें और बच्चे हैं कि उन्हें इस बेफिजूल के काम के लिए वक्त को खर्च करना बिकुल भी गवारा नहीं
जवाब देंहटाएंयहाँ बात आ जाती है जेनरेशन गैप कि...बुज़ुर्ग अपने बच्चों को अपनी तरह से..अपने मनमुताबिक...अपनी इच्छा से निर्धारित दिशा में..आँखों पर पट्टी बाँध कर हांकना चाहते हैं और आज के युवा हैं कि वो खुले दिमागे से ...स्वच्छंद हो के बिना किसी मोह-माया या बंधन के खुले गगन में स्वछन्द हो के विचरण करना चाहते हैं...
अगर हमारे बुज़ुर्ग भी ये सोच के थोडा-बहुत समझौता कर लें कि वक्त के साथ-साथ बदलते ज़माने में उन्हें भी थोड़ा-बहुत अपने आपको बदलना होगा...तो मेरे ख्याल से ऐसी नौबत आए ही नहीं कि हमारे बुज़ुर्ग अपने बच्चों के साथ के लिए तरसें ...
ये नहीं है कि आज के युवा ये नहीं जानते हैं कि आज वो जो फसल बो रहे हैं...कल को वही उन्हें काटनी भी पड़ेगी ...दरअसल हर नस्ल यही सब अपने बुजुर्गों के साथ होते और करते हुए देखती आई है और अनजाने में खुद(अपने भविष्य से अनजान)उसी नक्शे कदम पर चल रही है
इस सवाल से सब वाकिफ हैं....पर सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर सब जानते हुए भी लोग इस कुछ करते क्यों नहीं..
जवाब देंहटाएंBAHUT SATIK BAT
जवाब देंहटाएंWAQAY ME
सच मे दिया तले अंधेरा ही है
.लाजवाब पोस्ट .......आज के समय का सबसे बड़ा सच है .
SHEKHAR KUMAWAT
http://kavyawani.blogspot.com/
बहुत ही अच्छा पत्र।
जवाब देंहटाएंमार्मिक
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