यूसुफ़ ख़ान के तौर पर पेशावर के फल-कारोबारी गुलाम सरवर खॉन के यहां 11 दिसंबर 1922 को जन्मे दिलीप कुमार छह भाइयों और छह बहनों में तीसरे नंबर की संतान है...
पेशावर के साथ-साथ दिलीप कुमार के पिता के महाराष्ट्र के देवलाली में भी फलों के बागीचे थे...मुंबई से 200 किलोमीटर दूर देवलाली कैंट स्टेशन में स्कूली पढ़ाई के दौरान दिलीप कुमार का पहला प्रेम फिल्में नहीं फुटबॉल था...देवलाली में दिलीप कुमार आठ साल रहे और इस दौरान उन्होंने एक भी फिल्म नहीं देखी...
देवलाली से पढ़ाई पूरी करने के बाद बोरी बंदर के अंजुमन-ए-इस्लाम हाई स्कूल में दाखिला किया...स्कूली किताबों से ज़्यादा दिलचस्पी फुटबॉल, क्रिकेट और हॉकी में रही...हर इम्तिहान से पहले दिलीप कुमार का एक सहपाठी उन्हें टिप्स दिया करता था जिससे उनकी नैया पार लग जाती...दिलीप साहब आज तक इस राज़ का पता नहीं लगा सके है कि वो सहपाठी कहां से उन टिप्स का जुगाड़ करता था...
मैट्रिक करने के बाद दिलीप कुमार ने विल्सन कॉलेज से आगे की पढ़ाई की...कॉलेज की पूरी पढ़ाई के दौरान उनकी एक भी गर्ल-फ्रैंड नहीं थी...और यही दिलीप कुमार आगे चलकर मैटिनी आइडल बना...
कॉलेज के टाइम दिलीप कुमार फुटबॉल के अलावा अंग्रेजी में बेहतरीन निबंध लिखने के लिए भी जाने जाते थे...1941 में एक बार क्रिसमस पर निबंध में उन्होंने लिखा...क्रिसमस पर विशेष फिल्मों का आकर्षण किसी की जे़ब से बची-खुची रकम भी झटक लेता है...दिलीप साहब के इस निबंध को उनके एक दोस्त ने आज तक संभाल कर रखा है...
कालेज के दिनों से आज तक दिलीप कुमार ने अपना हेयर-स्टाइल नहीं बदला...माथे पर झूलते पफ में सात दशक बाद भी कोई फर्क नहीं आया है...
दिलीप साहब को कालेज के दिनों में अंग्रेज़ी फिल्में देखने का बड़ा शौक था,..सिनेमा हाल के लेफ्ट में सबसे कार्नर वाली सीट को दिलीप साहब फिल्म देखने के लिेए सबसे बढ़िया एंगल मानते हैं
विल्सन कॉलेज और फिर खालसा कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद दिलीप साहब ने पुश्तैनी धंधा अपनाने की जगह खुद की पहचान बनाने का फैसला किया...उस वक्त तक फिल्में दिलीप कुमार के ज़ेहन में दूर-दूर तक नहीं थी...
दिलीप कुमार ने मुंबई से पुणे आकर ब्रिटिश आर्मी में कैंटीन मैनेजर की नौकरी कर ली...इस नौकरी के लिए दिलीप कुमार को 35 रुपये वेतन मिलता था...जल्दी ही दिलीप कुमार को आर्मी मेस में रिफ्रेशमेंट रूम चलाने का ठेका मिल गया...धंधा चल निकला और आमदनी 800 रुपये हर महीने से ऊपर जा पहुंची...उस वक्त 800 रुपये बहुत मोटी रकम मानी जाती थी...
अच्छा खासा बैंक बेलेंस जमा करने के बाद दिलीप कुमार मुंबई वापस आए....उन दिनों बॉम्बे टॉकीज सबसे बड़ा प्रोडक्शन हाउस हुआ करता था...बॉम्बे टॉकीज को सुंदर और अच्छी कद काठी वाले युवा चेहरों की तलाश थी...प्रोडक्शन हाउस के लोगों ने ही बॉम्बे टॉकीज की कर्ता-धर्ता देविका रानी से दिलीप कुमार की मुलाकात कराई...देविका रानी दिलीप कुमार की शख्सीयत और बोलने के अंदाज़ से इतनी प्रभावित हुईं कि बिना स्क्रीन टेस्ट ही उन्हें ज्वार भाटा (1944)के लिए साइन कर लिया...दिलीप कुमार की पहली हीरोइन मृदुला थीं...
तब तक दिलीप कुमार यूसुफ़ ख़ान ही थे...देविका रानी ने ही उनके स्क्रीन के लिए तीन नाम सुझाए थे...जंहागीर, वासुदेव और दिलीप कुमार....युसूफ़ खान को दिलीप कुमार तीनो नामों में सबसे कम पसंद था...लेकिन देविका रानी को यही नाम सबसे ज़्यादा पसंद आया...
ज्वार भाटा रिलीज़ होने के बाद दिलीप कुमार की मोतीलाल जैसे दिग्गज कलाकार ने तारीफ की थी और कहा था कि यही तेवर बनाए रखना, हिंदी सिनेमा तुम्हे सिर-आंखों पर बिठाएगा...बॉम्बे टाकीज से दिलीप कुमार का 625 रूपये महीने पर दो साल का कांन्ट्रेक्ट था,,,
1947-48 में आई मेला और जुगनू ने दिलीप कुमार को स्टार बना दिया...महबूब खान की फिल्म अंदाज (1949) से दिलीप कुमार को ट्रेजिडी कुमार का नाम मिला..अंदाज में दिलीप कुमार के साथ राजकपूर और नर्गिस सह-कलाकार थे...1961 में दिलीप कुमार ने भाई नासिर खान के साथ फिल्म गंगा जमुना का निर्माण किया..फिल्म हिट भी रही लेकिन उसके बाद दिलीप कुमार ने किसी फिल्म का निर्माण नहीं किया...
दुर्लभ चित्र में दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ
1962 में ब्रिटिश निर्देशक डेविड लीन ने लॉरेंस ऑफ अरेबिया में अहम रोल ऑफर किया था जिसे दिलीप कुमार ने स्वीकार नहीं किया...बाद में यही रोल ओमर शरीफ ने किया...
फिल्म ने रिकॉर्डतोड़ सफलता अर्जित की थी...
1966 में सायरा बानू से शादी के वक्त दिलीप कुमार 44 और सायरा बानू 22 साल की थीं...शादी के बाद दिलीप कुमार की एक संतान भी हुई लेकिन जीवित नहीं रह सकी...उसके बाद उनकी कोई संतान नहीं हुई...
1998 में आई किला दिलीप कुमार की आखिरी रिलीज फिल्म थी...1994 में मुगले-आजम और 1997 में नया दौर को कलर करने के बाद दोबारा रिलीज किया था...
धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन समेत तमाम कलाकारो के दिलीप कुमार रोल मॉडल रहे हैं...
दिलीप कुमार की नसीहत
करीब साढ़े पांच दशक के एक्टिव करियर मे दिलीप कुमार ने सिर्फ 61 फिल्मों में काम किया... दिलीप कुमार का हमेशा मानना रहा है कि कलाकार को गुलाब की पंखुड़ियों की तरह एक-एक करके खिलना चाहिए...ये नहीं कि एक ही बार में अपना सब कुछ दिखा दिया...यही वजह है कि दिलीप कुमार ने क्वाटिंटी से ज़्यादा क्वालिटी पर ध्यान दिया...लेकिन कलाकारों की आजकल की पीढ़ी के लिए पैसा ही ईमान है...पैसा मिले तो इन्हें शादियों में नाचने से भी गुरेज नहीं...
स्लॉग गीत
नैन लड़ गई रे मनवा मा कसक भई करी
प्रेम का छुटवत पटाखा धमक होई न करी
(फिल्म गंगा जमुना, गायक-मोहम्मद रफ़ी)
गाना देखने-सुनने के लिए यू-ट्यूब लिंक
पसंदीदा पोस्ट। इन तमाम नामों को मैं अक्सर याद करता हूं। इनकी फिल्मोग्राफी और दूसरे संदर्भ जुटाने की कोशिश रहती है। इसलिए नहीं कि इन पर लिखना है, बल्कि इसलिए कि अपने सोलह साल के बेटे को उसके पुरखों और विरासत की जानकारी दे सकूं।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
खुशदीप सहगल, अपना ईमेल आईडी बताने का क्या चार्ज करते हैं आप?
जवाब देंहटाएंहमेशा ब्लागर बाऊंस पर क्यो आपकी टिप्पणी आती है?
अच्छी जानकारी। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंअदाकारी के इस शहंशाह को हमारी भी शुभकामनाएँ ...
जवाब देंहटाएंस्लॉग गीत बहुत चुलबुला सा प्यारा सा गीत है ..इस गीत मे दिलीप जी का अक्खड़ गँवाई अंदाज बहुत लुभाता है ...!!
दिलीप कुमार का कोई जवाब नहीं। वे अभिनय के विश्वविद्यालय हैं और बने रहेंगे।
जवाब देंहटाएंदिलीप कुमार जी के सम्बन्ध में एक ही लेख में इतनी अधिक जानकारी पहले और कहीं नहीं मिली थी। बहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी, आपने लिखा है
"...प्रोडक्शन हाउस के लोगों ने ही बॉम्बे टॉकीज की कर्ता-धर्ता देविका रानी से दिलीप कुमार की मुलाकात कराई...देविका रानी दिलीप कुमार की शख्सीयत और बोलने के अंदाज़ से इतनी प्रभावित हुईं कि बिना स्क्रीन टेस्ट ही उन्हें ज्वार भाटा (1944)के लिए साइन कर लिया..."
यहाँ पर मैं यह भी जोड़ना चाहूँगा कि उन दिनों अशोक कुमार, जो कि बांबे टाकीज़ के हीरो हुआ करते थे, बांबे टाकीज़ छोड़ चुके थे और देविका रानी को एक नये हीरो की तलाश थी।
दिलीप कुमार के रूप में पूरा फिल्म इंस्टीट्यूट ऊपरवाले ने हमें बक्शा है...इसके लिए उनका बहुत-बहुत शुक्रिया...
जवाब देंहटाएंदिलीप कुमार..अभिनय की university हैं ..विश्वविध्यालय हैं..अभिनय के शहंशाह हैं...और यह अतिश्योक्ति नहीं है....
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट हमेशा की तरह शानदार है...
और इस गीत की तो बात ही क्या है...
होई गवा मन मा मोरी तिरछी नज़र का हल्ला...
दिलीपजी पर अच्छी चर्चा। कभी उन्हें ट्रेजेडी किंग कहा जाता था पर कोहेनूर जैसी फ़िल्मों में उन्होंने सिद्ध कर दिया कि वे कामेडी भी उसी अंदाज़ में कर सकते हैं॥
जवाब देंहटाएंदिलीप कुमार के बारे में कई सारी जानकारियाँ मिली...मुझे लगता था 'सगीना' भी उन्होंने ही प्रोड्यूस की है...पर आपको सही जानकारी होगी.
जवाब देंहटाएंयूँ तो मैं किसी का औटोग्राफ नहीं लेती पर जब एक बार दिलीप कुमार प्लेन में मिल गए.यह मौका मैं नहीं छोड़ सकती थी..एयरपोर्ट पर भागती हुई उनके पीछे गयी और ओटोग्राफ लिया...पर उनका सिग्नेचर बिलकुल समझ में नहीं आ रहा था...मैंने पूछा आपने "दिलीप के नाम से साईन किया है या युसूफ के नाम से?" उन्होंने कहा,"दिलीप के नाम से " और फिर मुस्कुरा कर पूछा "युसूफ के नाम से भी कर दूँ" मैंने कहा कर दीजिये ...और उन्होंने युसूफ के नाम से भी साईन किया....मुझे दोहरी ख़ुशी मिल गयी...औटोग्राफ के साथ उनसे दो
बात करने का मौका भी मिल गया.
उन्हें जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएं
रश्मि बहना,
जवाब देंहटाएंआप बड़ी तकदीर वाली है जो आपको दिलीप साहब जैसी अज़ीम हस्ती से रू-ब-रू होने का मौका मिला...रही बात सगीना की तो ये 1974 में रिलीज हुई थी...तपन सिन्हा इसके निर्देशक थे...फिल्म के निर्माता जे के कपूर थे...सगीना 1970 में बांग्ला में आई सगीना महतो का ही हिंदी वर्जन थी...
जय हिंद...
शुक्रिया खुशदीप जी,
जवाब देंहटाएंआपने तो सगीना की पूरी डीटेल्स दे डाली....मैं सचमुच मुगालते में थी...वैसे देखी नहीं है ये फिल्म...हाँ नाम बहुत सुना था...दिलीप जी से एक मिनट की मुलाकात तो यादगार ही बन कर रह गयी...बस ऐसे ही कहीं लता मंगेशकर मिल जाएँ :)
( BTW आपने लगता है मेरी पोस्ट नहीं पढ़ी...मुझे लगा,आप भी दिल्ली में खेल के मैदानों के ऊपर कुछ प्रकाश डालेंगे )
इस्स्स्स आप तो हद करने लगे... ! बीबीसी पर उनका प्रभावशाली इन्तेर्विएव सुना था... क्या अंदाज़ है बोलने का... वाह ! मदमस्त कर देता है... और "अरे कोई है भाई ! (उनके इस्टाइल में ) एक मुसलसल सा दर्द सालता हुआ... " यह जानकारी जी-आर्किव से लाये ? बहुत अच्छी लगी...
जवाब देंहटाएंहम तो भाई उनके जब से होश संभाला तब से फैन रहे हैं...उनकी अदा के दीवाने...कालेज में उनकी आवाज़ में नक़ल कर कर के बहुत शोहरत भी पायी...ऐसा कलाकार न कभी हुआ है और न कभी होगा...
जवाब देंहटाएंनीरज
आज किसी भी ब्लाग पर नहीं गयी एक दो को छोड कर इस आशा मे आपके ब्लाग पर आयी कि आप अपना जाने का फर्मान कब वापिस लेते हैं। मगर निराश हुई । अजीत जी के कमेन्ट पर भी ध्यान दे ज़ंरा आपके ई मेल के लिये हम भी पे करने को तयार हैं।वैसे फिल्मों , फोलमी सितारों और गीतों की जानकारी आपको खूब है। स्लाग गीत बहुत अच्छा लगा । शुभकामनायें मगर आपका स्पश्टी करण जरूर चाहिये कि आप कहाँ और क्यों जा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंवाह , खुशदीप ।
जवाब देंहटाएंदिलीप साहब के बारे में इतनी बढ़िया जानकारी !
हम तो हैरान रह गए, ये आपको मिली कहाँ से।
खैर, दिलीप साहब को जन्मदिन की मुबारकवाद और आपको इस प्रस्तुति पर।
बहुत बढ़िया रहा ये संसमरण। मैंने बचा कर रख लिया है , आगे के लिए।
दिलीप साहब से मुझे मिलने का सौभाग्य उनके घर पर ही हुआ...पाली हिल में उनका घर है...और उनके घर के लगभग सामने ही सायरा बनो का भी अपना घर है...दोनों घरों में मैं जा चुकी हूँ...
जवाब देंहटाएंबता नहीं सकती कितनी ख़ुशी हुई थी मुझे..
पसंदीदा कलाकार के बारे में इतनी सारी जानकारी देने के लिये आभार।
जवाब देंहटाएं"दिलीप कुमार अभिनेता के साथ-साथ अभिनय की यूनिवर्सिटी भी है" और हमें तो लगता है आप ज्ञान की यूनिवर्सिटी हैं।
जय हिंद...
बहुत सुंदर लिखा है सहगल जी...
जवाब देंहटाएंसगीना का वो गीत याद आ रहा है...
तुमरे संग तो रैन बिताई...
कहाँ बिताऊं दिन..........?
संक्षेप में सबकुछ
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुती।