गोरखपुर के सरकारी बीआरडी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में
क्या हुआ, क्या नहीं होना चाहिए था, इन सब बातों का पोस्टमार्टम चल रहा है...कितने बच्चे मरे...कितने दिन में
मरे...औसतन कितने रोज मरते हैं...ये सब सवाल और इन पर सरकार की ओर से आ रहे जवाब
बेमायने है...
मासूमों की जान जाने के लिए ऑक्सीजन सप्लाई रुकना
कारण था या नहीं ये राजनीतिक बहस का विषय हो सकता है...न्यूज चैनलों की डिबेट्स का
बौद्धिक चारा हो सकता है...लेकिन इसका नतीजा क्या निकलेगा, हम सब जानते हैं...ये पहली बार नहीं कि देश में ऐसी घटनाएं हुई हैं...हाल
में मध्य प्रदेश में भी ऐसा ही मामला हुआ था लेकिन वो वहां की सरकार के पुख्ता
मीडिया मैनेजमेंट की वजह से अधिक सुर्खियां नहीं बटोर सका था...
गोरखपुर जैसी घटनाएं भविष्य में ना हो इसके ठोस उपाय
ढूंढने की जगह मौतों के आंकड़े को ज्यादा तूल दिया जा रहा है...चलिए मान लीजिए कि इन
जैसे हालात में सिर्फ एक ही बच्चे की मौत होती तो क्या मामला कम गंभीर हो
जाता...लापरवाही से हुई एक भी ऐसी मौत पूरी की पूरी सरकारी चिकित्सा व्यवस्था पर
तमाचा है...
ये सब देखकर यही लगता है कि सरकारें आती जाती रहती
हैं लेकिन सिस्टम अपने ढर्रे से ही चलता है...गरीब-गुरबों के लिए कोई फर्क नहीं
पड़ता...उनके हालात नहीं बदलते...सरकारी अस्पतालों में वहीं जाता है जिसके पास
निजी डॉक्टरों की महंगी फीस, दवा, टेस्ट आदि
का खर्च उठाने की क्षमता नहीं होती...वो सरकारी अस्पताल में इस भरोसे के साथ जाते
हैं कि उनका सही से इलाज होगा...लेकिन इस भरोसे का क़त्ल होता रहता है जब जब
गोरखपुर जैसी घटनाएं सामने आती हैं...ऐसे में वेलफेयर स्टेट की धारणा क्या सिर्फ
कागज़ी शोभा बढ़ाने के लिए है...क्या चुनाव से पहले किए जाने वाले सारे लंबे चौड़े
वादे सिर्फ जुबानी जुगाली के लिए होते हैं...
आज कुछ और लिखने के लिए बैठा था, लेकिन गोरखपुर जैसी दिल को दुखाने वाली घटना का ज़िक्र खुद-ब-खुद आ
गया...दरअसल, आज मुझे आपको एक डॉक्यूमेंट्री ‘In
The Name Of Mother’ के बारे में बताना था...
ये डॉक्यूमेंट्री युवा पत्रकार अल्पयु सिंह ने
बनाई है...अल्पयु के साथ मैं दो न्यूज चैनल्स में काम कर चुका हूं...मुझे उनकी
क्रिएटिविटी ने शुरु से ही बहुत प्रभावित किया...साथ ही अल्पयु में मुझे सार्थक
पत्रकारिता के लिए हमेशा एक ललक दिखी...पत्रकारिता के इस टीआरपी युग में कुछ
सकारात्मक करने की छटपटाहट ने ही अल्पयु को कुछ अलग करने के लिए प्रेरित
किया...इसी का नतीजा है उनकी ये पहली डॉक्यूमेंट्री...और इस डॉक्यूमेंट्री को
देखकर मैं ताल ठोक कर कह सकता हूं कि मुझे इस युवा पत्रकार पर गर्व है...
अल्पयु ने अपनी पहली डॉक्यूमेंट्री के लिए पहलू खान को आधार बनाया...पहलू खान को आप भूले तो नहीं होंगे...वही पहलू खान जिन्हें 1 अप्रैल को कथित गोरक्षकों ने राजस्थान के अलवर में पीट-पीट कर मार डाला था...अल्पयु ने पहलू के घर जाकर उनके घर के एक-एक सदस्य की मनोदशा को बारीकी से पकड़ा...और भी बहुत कुछ है इस डॉक्यूमेंट्री में, जिसे आप खुद देखने के बाद ही अच्छी तरह समझ पाएंगे...अल्पयु के साथ इस डॉक्यूमेंट्री को बनाने में उज्ज्वल गांगुली (कैमरा), अभिनव दीक्षित (एडिटिंग) और आरती सहगल (सब टाइटल्स) का योगदान भी प्रशंसनीय है...मुझे उम्मीद ही नहीं पूरा यकीन है कि अल्पयु और उनकी टीम आगे भी इसी तरह सच को उजागर करने वाले सकारात्मक और सार्थक प्रयास करती रहेगी...
अब और कुछ नहीं कहता, आप खुद ही देखिए-
‘In The Name Of Mother’
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
भेद गई भीतर तक,,,,अब कई दिन नीद मे सतायेगी
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (14-08-2017) को "छेड़छाड़ से छेड़छाड़" (चर्चा अंक 2696) (चर्चा अंक 2695) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'