मोदी मैजिक की जेके-झारखंड में असली परीक्षा...खुशदीप

ब्रह्मास्त्र के लिए भी मुश्किल मोर्चे...

जम्मू-कश्मीर और झारखंड में चुनाव का बिगुल बज चुका है। इन दोनों राज्यों में 25 नवंबर से 20 दिसंबर तक पांच चरणों में चुनाव होंगे। वोटों की गिनती 23 दिसंबर को होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से दो दिन पहले दीपावली के दिन श्रीनगर पहुंच कर जता दिया था कि उनका अगला निशाना कहां है। मोदी और उनके ‘भाग्यशाली सिपहसालार’ अमित शाह जम्मू-कश्मीर और झारखंड फतह करने के लिए अपने तरकश का हर तीर आजमाएंगे।

शायद यही वजह है कि बीजेपी जब हरियाणा-महाराष्ट्र की जीत पर जश्न में डूबी थी, मोदी ने जम्मू-कश्मीर जाने का ‘मास्टरस्ट्रोक’ खेला। कहा गया कि वह बाढ़ की आपदा से गुजरे घाटी के लोगों के बीच जाकर उनका दर्द बांटना चाहते हैं। यह अलग बात है किश्रीनगर में वे कुल जमा चार घंटे ही रुके और राजभवन में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधिमंडलों से अलग-अलग मुलाकात करने के बाद दिल्ली लौट आए। राहत-शिविरों में रह रहे हजारों लोग इंतजार ही करते रह गए कि पीएम उनके आंसू पोंछने आएंगे।



कसौटी पर छवि
घाटी में सैलाब ने सब कुछ तबाह कर दिया है। गरीबों की बात छोड़िए, श्रीनगर के पॉश इलाकों में भी कुदरत की मार ने लोगों को कहीं का नहीं छोड़ा है। ऐसे में वहां प्राथमिकता राहत और पुनर्वास के काम को युद्धस्तर पर आगे बढ़ाने की है। संवैधानिक बाध्यता के चलते चुनाव को अधिक समय तक टाला नहीं जा सकता था। लेकिन लोकतंत्र के इस पर्व में व्यापक हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए ‘लोक’ को सबसे पहले त्रासदी के अवसाद से निकाला जाना चाहिए था।

बहरहाल, जम्मू-कश्मीर में सत्तारूढ़ नैशनल कॉन्फ्रेंस को छोड़कर मुख्यधारा के सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव कार्यक्रम का स्वागत किया है। नैशनल कॉन्फ्रेंस ने कहा है कि लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए वह चुनाव में हिस्सा लेगी, लेकिन यह वक्त इलेक्शन के लिए उपयुक्त नहीं है। जहां तक अलगाववादी संगठनों का सवाल है तो उनके लिए जम्मू-कश्मीर के लोगों के हित से ऊपर हमेशा अपना अजेंडा ही रहता है। इसलिए हर बार की तरह वे इस बार भी बहिष्कार का हथकंडा अपनाएंगे।

जम्मू-कश्मीर और झारखंड में एक साथ चुनाव कराना सुरक्षा एजेंसियों के लिए बेहद चुनौतीपू्र्ण होगा। जम्मू-कश्मीर लंबे समय से अलगाववादी आतंकवाद से ग्रस्त है, जबकि झारखंड के अधिकतर हिस्से नक्सलवाद की चपेट में हैं। इसे देखते हुए पांच चरणों में मतदान के चुनाव आयोग के फैसले को ठीक ही कहा जाएगा। दोनों राज्यों के राजनीतिक समीकरणों की बात की जाए तो बीजेपी की कोशिश रहेगी कि यहां भी महाराष्ट्र-हरियाणा की तर्ज पर नरेंद्र मोदी की छवि को आगे रखकर चुनाव लड़ा जाए।

दोनों जगह किसी नेता को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने से बीजेपी परहेज ही करेगी। वह जानती है कि जम्मू-कश्मीर की 87 सीटों वाले विधानसभा चुनाव की चुनौती अधिक मुश्किल है। इसीलिए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने यहां मिशन 44 के तहत पिछले कई महीनों से आक्रामक चुनावी अभियान छेड़ रखा है। राज्य में बीजेपी का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2008 विधानसभा में रहा था, जब पार्टी ने 11 सीटें जीती थीं। पांच महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में जम्मू और लद्दाख में 41 विधानसभा क्षेत्रों में से 27 पर बीजेपी ने बढ़त कायम की थी। लेकिन घाटी की 46 सीटों में एक पर भी बीजेपी को बढ़त नहीं मिल सकी थी। घाटी में वोट पारंपरिक तौर पर नैशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस और पीडीपी में बंटते रहे हैं। इस बार अगर वहां नेशनल कॉन्फ्रेंस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर चलती है, तो इसका सबसे ज्यादा फायदा पीडीपी को मिलने की उम्मीद है।

चंद महीने पहले तक कांग्रेस राज्य की सत्ता में नैशनल कॉन्फ्रेंस के साथ थी। इसलिए राज्य में भ्रष्टाचार, कुशासन और बेरोजगारी को लेकर लोगों की नाराज़गी का खामियाजा कांग्रेस को भी भुगतना पड़ सकता है। बीजेपी जम्मू-लद्दाख में अपनी पूरी ताकत झोंकने के साथ घाटी में भी इस बार अपनी दमदार दस्तक देना चाहती है। मोदी का मैजिक यहां कारगर रहता है या नहीं, यह तो 23 दिसंबर को वोटों की गिनती के बाद ही साफ होगा। जहां तक झारखंड का सवाल है तो वहां स्थिरता एक बड़ा चुनावी मुद्दा है। वर्ष 2000 में राज्य बनने के बाद यहां 12 बार सरकारें बनी और बिगड़ी हैं। मौजूदा झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार भी कांग्रेस की बैसाखियों पर चल रही है।

महागठबंधन की आस
केंद्र में जिस तरह बीजेपी को अकेले अपने बूते बहुमत की सरकार बनाने में सफलता मिली, स्थिरता का वही नुस्खा वह झारखंड के लोगों के सामने भी पेश कर रही है। उसने बिना किसी गठबंधन के राज्य की सभी 81 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान किया है। दूसरी पार्टियां भी बीजेपी को कड़ी चुनौती देने के लिए बिहार की तर्ज पर महागठजोड़ के लिए कमर कस रही हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू साथ मिलकर अपनी चुनावी नैया पार लगाने की कोशिश में हैं। बीजेपी बनाम सेकुलर राजनीतिक दलों का यह प्रयोग बिहार उपचुनाव की दस सीटों पर कामयाब रहा था, लेकिन समूचे राज्य के लिए इसका इस्तेमाल पहली बार झारखंड में हो रहा है। देखना होगा कि झारखंड में यह अस्त्र कारगर रहता है या नरेंद्र मोदी का जादू चलता है?

मूलत: प्रकाशित- नवभारत टाइम्स, 28 अक्टूबर 2014

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