दंगों की कमीज़ किसकी ज़्यादा काली...खुशदीप

किश्तवाड़ से भड़की सांप्रदायिक हिंसा की आंच ने पूरे जम्मू संभाग को झुलसा दिया...करीब हफ्ते भर से वहां कर्फ्यू लगा है...अब राजनीति अपना काम कर रही है...अगले साल लोकसभा चुनाव है...जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव भी दूर नहीं है...किश्तवाड़ के दौरे के लिए बिना वक्त गंवाए अरुण जेटली की अगुआई में बीजेपी प्रतिनिधिमंडल पहुंचा तो उमर अब्दुल्ला सरकार ने उसे जम्मू से ही लौटा दिया...बीजेपी ने दंगाग्रस्त इलाके में सेना को तैनात करने में देरी पर उमर अब्दुल्ला सरकार को कठघरे में खड़ा किया...उमर सरकार के गृह राज्य मंत्री और स्थानीय विधायक सज्जाद अहमद किचलू की दंगे के दौरान किश्तवाड़ में मौजूदगी को लेकर खास तौर पर सवाल उठाए गए...किचलू को इस्तीफ़ा ज़रूर देना पड़ा लेकिन उमर अब्दुल्ला और उनके पिता केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला ने बीजेपी पर जमकर पलटवार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी...

उमर और फारूक ने गुजरात में 2002 के दंगों का हवाला देते हुए सवाल दागा कि वहां नरेंद्र मौदी सरकार को सेना को तैनात करने में दो दिन क्यों लग गए थे...यानि यही सिद्ध करने की कोशिश कि हमारी कमीज़ तुम्हारी कमीज़ से कम काली कैसे ?
ये देश में पहली बार नहीं हो रहा...राजनेता अपने गुनाहों और ख़ामियों को छुपाने के लिए अपने विरोधियों के दामन पर लगे दाग़ो को गिनाने लगते हैं...जब कांग्रेस गुजरात दंगों को लेकर नरेंद्र मोदी और बीजेपी को पानी पी-पी कर कोसती है तो बीजेपी भी जवाबी प्रहार में 1984 के सिख विरोधी दंगों का हवाला देने से नहीं चूकती...साथ ही भागलपुर, मेरठ और भिवंडी के साम्प्रदायिक दंगों का हवाला देती है...
क्या दूसरों के दाग़ गिनाकर अपने दाग़ धोए जा सकते हैं...क्या इस तरह कभी दो माइनस मिलकर प्लस हो सकते हैं...दूसरों की खामियों को गिनाने की जगह ये राजनीतिक दल अपने गुनाहों के लिए क्यों शर्मिंदा नहीं होते...क्यों नहीं इनके नेता सामने आकर माफ़ी मांगते,,,ये नेता गलती कबूल कर ये वादा क्यों नहीं करते कि भविष्य में इस तरह की घटनाओं से लोकतंत्र को शर्मसार नहीं होने दिया जाएगा...अगर ये ऐसा करें तो शायद हमारे गणतंत्र के लिए भला होगा....लेकिन बांटने की राजनीति से अपने लिए वोटों का गुब्बारा फैलाने में लगे ये राजनीतिक दल और इनके नेता ऐसा कभी नहीं करेंगे...
अंत में मेरा एक प्रश्न...गुजरात के दंगों को लेकर मोदी सरकार पर निशाना साधने वाले कांग्रेसी जवाब दें कि जब हिंसा हो रही थी, उस वक्त ये कांग्रेसी कहां सोए हुए थे....क्यों नहीं आगे आकर निर्दोंषों को बचाने के लिए प्रयास किया...इसी तरह बीजेपी के कर्णधार जवाब दे कि जब 1984 में बेगुनाह सिखों का कत्ले-आम हो रहा था तो क्यों नहीं उन्होंने सड़कों पर अपने कार्यकर्ताओं के साथ निकलकर दंगाइयों का विरोध किया...अगर 2002 में गुजरात में एक भी कांग्रेसी नेता या 1984 में सिखों को बचाते हुए एक भी बीजेपी नेता अपनी कुर्बानी दे देता तो इन् पार्टियों को ज़रूर आज लंबे चौड़े बयान देने का अधिकार होता...
इसी संदर्भ में अगले लेख में आपको 1947 के अतीत में ले चलूंगा...गांधी से मिलवाऊंगा...गांधी आख़िर क्यों गांधी थे....

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13 टिप्पणियाँ
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  1. बढिया सामयिक विषय लिया आपने , यह आवश्यक था , मगर राजनीतिज्ञों से उम्मीदें रखना बेकार हैं !

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  2. Rajpal Tyagi said on my FB wall-

    I am 100% with but who is listening us...

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    1. You agree, that is enough for me...If India wants to become real super power, then everybody should listen that...

      Jai Hind...

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  3. राजनैतिक पार्टियां जनता को चिकन समझती हैं, इन्हें इंसान मरते हुये चिकन से ज्यादा कुछ नही लगते. ये बेशर्म उल्लू के पठ्ठे, एक दूसरे को सिर्फ़ इतना बताना चाहते हैं कि मैने तो इतनी ही मुर्गियां कटवाई थी और तूने इतनी कटवा दी हैं.

    जनता जब तक अपने आपको इस मुर्गीपने से बाहर नही निकालेगी तब तक यूं ही मुर्गी-अंडों की तरह हलाल होती रहेगी.

    स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ.

    रामराम.

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    1. ताऊ जी,

      जब तक ये देश साम्प्रदायिकता, जात-पात, प्रांतवाद जैसी दकियानूसी बातों से जकड़ा रहेगा, ये विश्व का सिरमौर नहीं बन सकता...हमारे पास दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनने के लिए पर्याप्त प्रतिभा और योग्यता है लेकिन जब तक संकीर्ण सोच की बेड़ियां हमारे पैरों को जकड़े रखेंगी, हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे...

      जय हिंद...

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    2. आपकी बात से पूर्णतया सहमत.

      रामराम.

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  4. राजनेताओं से कुछ भी उम्‍मीद करना व्‍यर्थ है ..
    बडी संख्‍या में जनता की एकजुटता के लिए विचार करना आवश्‍यक होगा ..
    ताकि हम अपने हाथ में सबकुछ लेकर माहौल को सुखारने का प्रयास करें !!

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  5. चुप हैं क्षद्म धर्मनिरपेक्षी!

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