प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुद्दों पर बुधवार को ऐसा नया कुछ नहीं कहा जो पहले न कहा हो...सिवाय इसके कि गलतियां हर इनसान से होती हैं, और उनसे भी हुई हैं...लेकिन उन्हें जितना दोषी प्रोजेक्ट किया जा रहा है, उतने वो हैं नहीं...प्रधानमंत्री के कहने का निचोड़ यही था जो भी गलत हुआ वो उनकी जानकारी में नहीं था...और जैसे ही जानकारी में आया करेक्टिव थिरेपी शुरू कर दी गई...ये बयान सबूत है एक विशुद्ध अर्थशास्त्री के खांटी राजनेता में तब्दील होने का...राजनीतिक मिज़ाज न होने के बावजूद राजनीतिक रंग में रमने को मनमोहन सिंह उस छात्र से जोड़ते हैं जो ज़िंदगी के फलसफे को ताउम्र सीखने की कोशिश करता है...
मनमोहन घुमा फिरा कर या लच्छेदार कहावतों के साथ बोलने के आदि नहीं है...सपाट-सीधी शैली में जवाब देते हैं...उन्होंने ये भी कहा कि राजनीति में होने वाले हर अनुभव को वो रैलिश (आनंद लेना) कर रहे हैं...उनके हाथ में अधूरा एजेंडा है इसलिए उसे पूरा करने से पहले इस्तीफ़ा देने का सवाल ही नहीं होता...आखिर चौतरफ़ा दबाव के बावजूद प्रधानमंत्री इतने निश्चिंत क्यों हैं...इसके लिए आपको पहले देश की राजनीति की ज़मीनी हक़ीक़त को समझना होगा...
मनमोहन बात-बात में गठबंधन धर्म की मजबूरी का हवाला बेशक दे रहे हों लेकिन कांग्रेस की मजबूरियों को भी वो अच्छी तरह समझते हैं...मिस्टर क्लीन को पता है कि कांग्रेस के पास तत्काल ऐसा कोई बी-प्लान मौजूद नहीं है जो उनके प्रधानमंत्री की गद्दी छोड़ने के बाद देश की कमान संभाल सके...युवराज राहुल गांधी राज्याभिषेक के लिए अभी कितने तैयार हैं, इसका सबूत पिछले साल बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की भद्द पिटने से मिल ही चुका है...2004 में सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया था तो सोच यही होगी कि सत्ता की ताकत भी मुट्ठी में रहेगी और राहुल गांधी को भविष्य के नेता के तौर पर तैयार भी किया जा सकेगा...इस बीच कांग्रेस को ऐसी स्थिति में लाया जाए कि वो अकेले दम पर ही सरकार बना सके...जिससे राहुल गांधी को ताजपोशी के बाद गठबंधन-धर्म जैसी किसी दिक्कत का सामना न करना पड़े...लेकिन सोनिया गांधी भी ये बात अच्छी तरह जानती हैं कि देश में अकेले दम पर किसी पार्टी को केंद्र की सत्ता मिलना दूर की कौड़ी है...
10, जनपथ की नज़र से चिदंबरम और प्रणब मुखर्जी की प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश भी छुपी नहीं है...चिदंबरम गवर्मेंट डेफेसिट और एथिकल डेफेसिट जैसे जुमले उछाल कर अपनी ही सरकार को निशाने पर लेते हैं तो मंशा यही जताने की होती है कि प्रधानमंत्री की गद्दी के लिए वो खुद भी सशक्त दावेदार हैं...ऐसे में मनमोहन के हटने का मतलब कांग्रेस में अंदरूनी टकराव को और हवा देना होगा...इन हालात में कांग्रेस आलाकमान की कोशिश यही रहेगी कि गठबंधन की बैसाखियों पर जब तक सरकार चले, मनमोहन सिंह ही कांग्रेस का चेहरा बने रहें...मनमोहन के हटने की स्थिति में प्रांतीय सहयोगी दलों के नए सिरे से ध्रुवीकरण की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता...
जहां तक बीजेपी जैसे विरोधी दलों की मिस्टर क्लीन पर हल्ला बोलने की बात है तो ये पहला मौका नहीं है जब मनमोहन सिंह इस तरह के तूफ़ान को झेल रहे हैं...यूपीए की पहली पारी में न्यूक्लियर डील पर लेफ्ट के समर्थन वापस लेने के बाद मनमोहन सरकार के गिरने की नौबत तक आ गई थी...लेकिन प्रधानमंत्री डील को खुद की प्रतिष्ठा से जोड़कर अपने रुख पर अटल रहे थे...उस वक्त कांग्रेस के पॉलिटिकल मैनेजरों ने मुलायम और मायावती से सौदेबाज़ी कर बेशक सरकार बचाई लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में मनमोहन के भले और ईमानदार इनसान की छवि ने भी कांग्रेस की नैया पार लगाने में खासी भूमिका निभाई थी...मनमोहन और कांग्रेस दोनों ही जानते हैं कि बीजेपी और लेफ्ट कितना भी शोर क्यों न मचाए लेकिन जब तक कांग्रेस को यूपीए के सहयोगियो का समर्थन मिल रहा है मनमोहन सरकार का बाल-बांका नहीं हो सकता...मनमोहन अगर महंगाई की कीमत पर भी आर्थिक एजेंडे को बढ़ाने और विकास दर नौ फीसदी लाने पर अड़े हैं तो उसके पीछे देश की राजनीति का यही सच है....सोनिया और राहुल आम आदमी की दुहाई देते हुए वेलफेयर सेक्टर के लिए बेशक ज़्यादा से ज़्यादा सरकारी पैसा खर्चने की वकालत करें लेकिन मनमोहन सिंह के अंदर के इकोनॉमिस्ट का पूरा ज़ोर इन्फ्रास्ट्रक्चर को धार देने पर है...शायद इसीलिए वो कहते हैं...मुझे अपनी ज़िम्मेदारियों का अच्छी तरह एहसास है....
मनमोहन घुमा फिरा कर या लच्छेदार कहावतों के साथ बोलने के आदि नहीं है...सपाट-सीधी शैली में जवाब देते हैं...उन्होंने ये भी कहा कि राजनीति में होने वाले हर अनुभव को वो रैलिश (आनंद लेना) कर रहे हैं...उनके हाथ में अधूरा एजेंडा है इसलिए उसे पूरा करने से पहले इस्तीफ़ा देने का सवाल ही नहीं होता...आखिर चौतरफ़ा दबाव के बावजूद प्रधानमंत्री इतने निश्चिंत क्यों हैं...इसके लिए आपको पहले देश की राजनीति की ज़मीनी हक़ीक़त को समझना होगा...
मनमोहन बात-बात में गठबंधन धर्म की मजबूरी का हवाला बेशक दे रहे हों लेकिन कांग्रेस की मजबूरियों को भी वो अच्छी तरह समझते हैं...मिस्टर क्लीन को पता है कि कांग्रेस के पास तत्काल ऐसा कोई बी-प्लान मौजूद नहीं है जो उनके प्रधानमंत्री की गद्दी छोड़ने के बाद देश की कमान संभाल सके...युवराज राहुल गांधी राज्याभिषेक के लिए अभी कितने तैयार हैं, इसका सबूत पिछले साल बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की भद्द पिटने से मिल ही चुका है...2004 में सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया था तो सोच यही होगी कि सत्ता की ताकत भी मुट्ठी में रहेगी और राहुल गांधी को भविष्य के नेता के तौर पर तैयार भी किया जा सकेगा...इस बीच कांग्रेस को ऐसी स्थिति में लाया जाए कि वो अकेले दम पर ही सरकार बना सके...जिससे राहुल गांधी को ताजपोशी के बाद गठबंधन-धर्म जैसी किसी दिक्कत का सामना न करना पड़े...लेकिन सोनिया गांधी भी ये बात अच्छी तरह जानती हैं कि देश में अकेले दम पर किसी पार्टी को केंद्र की सत्ता मिलना दूर की कौड़ी है...
10, जनपथ की नज़र से चिदंबरम और प्रणब मुखर्जी की प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश भी छुपी नहीं है...चिदंबरम गवर्मेंट डेफेसिट और एथिकल डेफेसिट जैसे जुमले उछाल कर अपनी ही सरकार को निशाने पर लेते हैं तो मंशा यही जताने की होती है कि प्रधानमंत्री की गद्दी के लिए वो खुद भी सशक्त दावेदार हैं...ऐसे में मनमोहन के हटने का मतलब कांग्रेस में अंदरूनी टकराव को और हवा देना होगा...इन हालात में कांग्रेस आलाकमान की कोशिश यही रहेगी कि गठबंधन की बैसाखियों पर जब तक सरकार चले, मनमोहन सिंह ही कांग्रेस का चेहरा बने रहें...मनमोहन के हटने की स्थिति में प्रांतीय सहयोगी दलों के नए सिरे से ध्रुवीकरण की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता...
जहां तक बीजेपी जैसे विरोधी दलों की मिस्टर क्लीन पर हल्ला बोलने की बात है तो ये पहला मौका नहीं है जब मनमोहन सिंह इस तरह के तूफ़ान को झेल रहे हैं...यूपीए की पहली पारी में न्यूक्लियर डील पर लेफ्ट के समर्थन वापस लेने के बाद मनमोहन सरकार के गिरने की नौबत तक आ गई थी...लेकिन प्रधानमंत्री डील को खुद की प्रतिष्ठा से जोड़कर अपने रुख पर अटल रहे थे...उस वक्त कांग्रेस के पॉलिटिकल मैनेजरों ने मुलायम और मायावती से सौदेबाज़ी कर बेशक सरकार बचाई लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में मनमोहन के भले और ईमानदार इनसान की छवि ने भी कांग्रेस की नैया पार लगाने में खासी भूमिका निभाई थी...मनमोहन और कांग्रेस दोनों ही जानते हैं कि बीजेपी और लेफ्ट कितना भी शोर क्यों न मचाए लेकिन जब तक कांग्रेस को यूपीए के सहयोगियो का समर्थन मिल रहा है मनमोहन सरकार का बाल-बांका नहीं हो सकता...मनमोहन अगर महंगाई की कीमत पर भी आर्थिक एजेंडे को बढ़ाने और विकास दर नौ फीसदी लाने पर अड़े हैं तो उसके पीछे देश की राजनीति का यही सच है....सोनिया और राहुल आम आदमी की दुहाई देते हुए वेलफेयर सेक्टर के लिए बेशक ज़्यादा से ज़्यादा सरकारी पैसा खर्चने की वकालत करें लेकिन मनमोहन सिंह के अंदर के इकोनॉमिस्ट का पूरा ज़ोर इन्फ्रास्ट्रक्चर को धार देने पर है...शायद इसीलिए वो कहते हैं...मुझे अपनी ज़िम्मेदारियों का अच्छी तरह एहसास है....
कांग्रेस और मनमोहन सिंह को पता है कि यह देश बुजदिलों और स्वार्थी लोगों का देश है इसलिए जितना लूट सको लूट लो। यहाँ क्रांति हो नहीं सकती तो जनता हमारा क्या कर लेगी। भ्रष्टाचार बढ़ रहा है अर्थात भ्रष्टाचारी जनता भी बढ़ रही है और ये सारे ही भ्रष्टाचारी इन्हें वोट देते रहेंगे। देश का प्रधानमंत्री कहे कि मैं मजबूर हूँ, इससे बड़ी शर्म की बात किसी भी देश के लिए हो सकती नहीं।
जवाब देंहटाएंमुझे तो लगता है मनमोहन सिंह के सिवा कोई भी प्रधान मन्त्री पद के लिये अच्छा नेता नही बेशक कुछ जगह वो नाकामयाब रहे जिसका मुख्य कारण गठबन्धन भी है और चप्पे चप्पे पर बैठे भ्रष्टाव्चारी भी हैं। अकेला चना कब तक भाड फोडेगा। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंप्रधान मंत्री को पूरा अंदाजा था की उनसे क्या सवाल पूछे जायेंगे ( पुरे देश को पता था ) और उनकी तैयारी साफ दिख रही थी | थामस या कामनवेल्थ मामले में उनकी क्या मज़बूरी थी कुछ भी नहीं फिर क्यों नहीं उसे रोक सके | वो मजबूर नहीं कमजोर प्रधानमंत्री है जो हर फैसले के लिए सोनिया जी का मुंह तकते है जिस तरह अटल जी एन डी ए के चेहरा नहीं मुखौटा थे उसी तरह मनमोहन सिंह भी यु पी ए के बस मुखौटा भर है जिसके पीछे कोई और दिमाग काम करता है | देश को मजबूर और कमजोर प्रधानमंत्री की जरुरत नहीं है |
जवाब देंहटाएंवो मजबूर नहीं कमजोर प्रधानमंत्री है जो हर फैसले के लिए सोनिया जी का मुंह तकते है जिस तरह अटल जी एन डी ए के चेहरा नहीं मुखौटा थे उसी तरह मनमोहन सिंह भी यु पी ए के बस मुखौटा भर है जिसके पीछे कोई और दिमाग काम करता है | देश को मजबूर और कमजोर प्रधानमंत्री की जरुरत नहीं है |
जवाब देंहटाएंइस कमजोर प्रधानमत्री को लाल बाहदुर शास्त्री जी की जीवनी पढाई जाये, भारत की सब से ताकत वर कुर्सी पर बेठ कर भी.. हीही ही करते रहे, चलिये अब डाबर आंबला खाये थोडी कमजोरी दुर हो,
जवाब देंहटाएंकोई उनके मन में बैठकर भी देखे, क्या करें?
जवाब देंहटाएंखूब मदद कर रहे है आप भी मनु भईया की ... लगे रहिये ! वैसे उन्होंने मदद मांगी भी है मिडिया से तो आप लोगो का फ़र्ज़ भी बनता ही है !
जवाब देंहटाएंजय हिंद !
रिपोर्ट अच्छी है।
जवाब देंहटाएंधीरे बोलने कम बोलने से अच्छा है सत्ता को लात मारकर निकल आये मनमोहन सिंह . क्यो और किसलिये गठबन्धन के पापो को अपने सिर पर ढो रहे है .खुद भी मुक्त हो और देश को भी मुक्त करे
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंमनमोहन सिंह के बारे में अब दो और बातें जान लीजिए...
जवाब देंहटाएंमनमोहन सिंह अगर शार्ट में अपना नाम लिखेंगे तो ऐसे लिखेंगे...डॉ एम एस कोहली...
मनमोहन सिंह कभी आदमी के चलाए जाने वाले रिक्शे में नहीं बैठे...न ही वो कभी पत्नी को ऐसे रिक्शे पर बैठने देते हैं...
जय हिंद...