डॉ अमर कुमार जी का आदेश हुआ है कि मैं घिसे हुये ब्लॉगर को परिभाषित करने वाली एक मौज़दार पोस्ट लिखूं...आदेश सर माथे पर...
इस तरह एट रैंडम टॉपिक पर लिखना बड़ा मुश्किल होता है, फिर भी कोशिश करता हूं...वैसे ये क्लियर कर देता हूं कि मैंने पिछली पोस्ट पर ज़िक्र किया था कि घिसे हुए ब्लॉगर्स (मैं भी शामिल) की जगह सिर्फ जवां ख़ून ब्लॉगर्स की बात करूंगा कि उन्होंने नांगलोई ब्लॉगर्स मीट में क्या क्या कहा था...अब डॉ अमर कुमार जी से ज़्यादा घिसा हुआ ब्लॉगर कौन होगा (पुरातत्व विभाग चाहे तो रिसर्च करा सकता है)... झट से मेरी बात पकड़ ली और ठोक दिया आदेश...मरता क्या न करता, अब लिखना तो पड़ेगा ही...लिखना भी ऐसे पड़ेगा कि ब्लॉगर्स की घिसाई भी समझा दूं और किसी की रूसवाई भी मोल न लूं...
पहले एक किस्से के ज़रिए घिसे हुए माल और फ्रेश माल का फर्क समझाने की कोशिश करता हूं...
मैंने सबसे पहले एक बड़े अखबार में ट्रेनी के तौर पर काम शुरू किया...नया नया मुल्ला था, इसलिए अल्लाह अल्लाह तो ज़्यादा करना ही था...तनख्वाह जीरे जितनी मिलती थी और काम ऊंट जितना लिया जाता था...ये भी देखता था कि जो घिसे हुए पत्रकार थे, बस कुर्सी पर टांग पे टांग चढ़ा कर हम जैसे रंगरूटों पर बस ऑर्डर झाड़ने का काम किया करते थे...जब दो घिसे हुए आपस में बात करते थे तो बस वेतन आयोग, बोनस, इन्सेंटिव, इन्क्रीमेंट की ही बात करते थे...काम के लिए तो हम जैसे बेगार के पठ्ठे मौजूद थे ही...मैं देख रहा था कि संस्थान में हम जैसे जवां पठ्ठे बढ़ते ही जा रहे थे...और ऊपर से आदेश झाड़ने वाले घिसे हुए महानुभाव कम होते जा रहे थे...वो कहते हैं न सेर के ऊपर भी सवा सेर होता है...अखबार के स्थानीय संपादक मालिकों के परिवार में से ही एक सदस्य थे...वो एक दिन संस्थान के एचआर इंचार्ज से कह रहे थे...बैल जैसे जैसे बूढ़ा होता जाता है, चारा ज़्यादा मांगता है, काम करने के लिए कहो तो ना में नाड़ हिला देता है...इसलिए संस्थान में घिसे हुए बैल बस ज़रूरत जितने ही रखो बाकी उनके ज़रिए सारा काम नए बैलों से निकलवाओ...उस वक्त तो मैं ये बात नहीं समझा था लेकिन तज़ुर्बा बढ़ने के साथ बात की गहराई समझता गया...
वैसे घिसे हुओं का एक और शौक भी होता है, जब ये घिस घिस कर घीस की तरह ही घुपले घुपले हो जाते हैं तो खुद तो इनमें भिड़ने का स्टैमिना रहता नहीं, लेकिन दिमाग और तलवार की धार की तरह तेज़ हो गया होता है...फिर इन्हें नए बैलों को आपस में भिड़ा कर या अपने जैसे ही दूसरे घीसों के खेमों में चोंच मरवाने में मज़ा आने लगता है...साथ ही वैसा शोर करते हैं जैसे कि दो मुर्गों की लड़ाई के वक्त उनके मालिक मचाते हैं..
स्लॉग शेर
रंग लाती है हिना पत्थर पर पिस जाने के बाद,
सुर्ख रूह होता है इनसान, ठोकरें खाने के बाद..
"किस्मत का लिखा मिटता नही हैं आंसू बहाने से
जवाब देंहटाएंजो होना हैं , होकर रहेगा हर बहाने से "
आपसे सहमत हूं।
जवाब देंहटाएंनौजवानों को मार देता है
जवाब देंहटाएंनौजवानी का जोश.
घिसे हुओं को घिसियाने में
रहता नहीं है होश.
यूँ पत्रकार निकाल लेते हैं
पत्रकारिता का रोष
पाठक गण तो पाठक ठहरे,
दें वो किसको दोष?
उनके लिए तो बचता है बस,
पढ़ और सोच,
सोच, सोच, और सोच!
सत्य प्रदर्शित करती पोस्ट !! बधाई और आभार !!
जवाब देंहटाएंघिस घिस घिसा ....
जवाब देंहटाएंभीड़ भीड़ भिड़ा
बहुत ही रोचक पोस्ट . ...आनंद आ गया
"...किया था कि घिसे हुए ब्लॉगर्स (मैं भी शामिल) ....
जवाब देंहटाएंये पतली गली से निकलने की कोशिश न करें. सबको पता है कौन कितना घिसा है, घिस चुका है अथवा घिस रहा है...
नहीं? :)
घिसे हुओं का ब्लॉगिंग पर पठ्ठों को दिए जाना वाला एक मंत्र तो पोस्ट में लिखना भूल ही गया...
जवाब देंहटाएंमुफ्त का चंदन, घिस मेरे नंदन...
जय हिंद...
ghis ghis kar Amar ho gaye !...[Dr]
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी,
जवाब देंहटाएंइस देश में एक बूटी होती है, उसे जितना घिसो उतना ही अधिक रंग देती है।
सुर्ख रूह होता है इनसान, ठोकरें खाने के बाद.. ये शब्द ठीक हैं घिसे और जवान दोनों के लिए !!!!!! इसी का इंतजार है बेबकूफों को तब जाकर समझेंगे ये अनुभव के जमीनी हकीकत को !!!!!
जवाब देंहटाएंघसीटा राम हमारे यहां एक मो्ची था,बेचारा घिस घिस कर घसीटा बन गया.....:)वेसे घीसे हुये ही काम के होते है, नये को भी घिसना पडता है...ओर यह दुनिया युही चलती रहती है घिस घिस के
जवाब देंहटाएंआपसे सहमत हूं।
जवाब देंहटाएंवाह ! मजेदार पोस्ट |
जवाब देंहटाएंअभी परीक्षण किया और पता चला जब से ब्लोगिग करी है तब से .२ सेमी घिस गया हू .
जवाब देंहटाएंशायद हम भी अब घिस चुके .....ब्लॉग जगत से मन उबने सा लगा है .....
जवाब देंहटाएंबहोत दिनों से कम्प्यूटर भी खराब पड़ा था ....बस आपका ध्यान आता रहा
ये डा.अमर जी को क्या सूझी जो घिसने का काम आपको सौंप दिया .....
अपनी तलवार की धार उनकी चमकाते तो मज़ा आता न ......
जवाब देंहटाएंहे वत्स प्रसन्नजोत, मनोवाँछित प्रभाव छोड़ने वाले घिसे हुओं की व्याख्या अब तू मुझसे सुन
पहला घिसा हुआ :
होस्टिंग मुफ़्त, टेम्प्लेट मुफ़्त, फिरैंड कनेक्ट मुफ़्त और क्या क्या नहीं मुफ़्त ?
अपना टाइम जाया हो मुफ़्त, सो सही है कि मुफ़्त का चँदन घिस मेरे नँदन
घिसे तो इतना घिसे कि इन्तिहाँ होय गयी, चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग
घिसे तो इतना घिसे कि हालिया जलजला इफ़ेक्ट तक से अविचलित रह गये
दूसरा घिसा हुआ :
वह जो बुद्धिजीवी टाइप घिसाई करने में प्रवीणता प्राप्त कर चुका हो
आठ नौ लाइन का रद्दा ठेल कर, अस्सी नब्बे टिप्पणीकारों को रपटा दे
तीसरा घिसा हुआ :
वह जो हवाई मार्ग से फूल बिखेरता हुआ ब्लॉगकर्म में लिप्त जनों को कृतार्थ करता चले
पुराणों में वर्णन आया है कि फूल बिखेरने से घिस गये हथेलियों वाले ऎसे सिद्ध पुरुष स्वतः ही इन्द्र का पद प्राप्त कर लेते हैं
चौथा घिसा हुआ :
जिनका दावा है कि उन्होंनें गालियाँ खायीं, कुपित बाण झेले और शब्दों के लात तक सहे, फिर भी कभी किसी ने उनकी बेइज़्ज़ती खराब नहीं की क्योंकि घर परिवार में ऎसी मौज़ें स्वाभाविक हैं । वक़्त इनको नमन करता है क्योंकि यह ब्लॉगजगत के नरीमन पॉइन्ट के घिसे हुये चट्टान हैं !
पाँचवाँ घिसा हुआ :
दूर क्यों जाते हैं, मैं स्वयँ ही उदाहरण हूँ । इस कोटि के घिस्सू पोस्ट लिखना छोड़ जहाँ तहाँ टिप्पणी बक्सों में मुँह मारा करते हैं मानो कि यह अपना ओढ़ना बिछौना समेट कर दूसरे की रज़ाई में घुस कर गर्मी लेने की फिराक में रहा करते हैं । बिन ब्लॉगिंग के ब्लॉगर !
:)
जवाब देंहटाएंक्या बात है! घिसे हुए माल और फ्रेश माल मे अन्तर को आपने खुशनुमा अंदाज मे पेश किया है। बधाई।
जवाब देंहटाएंजंग लगा लोहा घिस घिस कर चमकदार हो जाता है.
जवाब देंहटाएंek din sabhi ghise huye ban jate hain.....naye ko purana banna hi padta hai.........yahi prakriti ka niyam hai,
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