संडे स्पेशल में बंदर और मक्खन...खुशदीप

ये उन दिनों की बात है जब हम मेरठ के गवर्मेंट इंटर कॉलेज के होनहार (?) छात्र हुआ करते थे...पढ़ा क्या करते थे, एक जैसी सोच वाले हम कुछ मस्तमौलाओं ने चांडाल चौकड़ी बना रखी थी...

हम सब में सबसे ज़्यादा मोटा आलोक हुआ करता था...वो लेदर की काली जैकट पहनकर स्कूल आया करता तो दूर से ही ऐसा लगता कि गेंडा अपनी मस्ती में चला आ रहा है...रोज़ उसकी सुबह स्कूल के गेट पर रिक्शे वाले से किचकिच के साथ होती थी...आलोक का घर स्कूल से मुश्किल से सात-आठ सौ मीटर की दूरी पर होगा...आलोक महाराज को सुबह घर से निकलते ही सिगरेट की तलब लगती थी...अब पैदल चलते तो किसी भी जानने वाले के देख लेने का डर होता था...तो ये क्या करते, एक रिक्शा करते और उस बेचारे रिक्शे वाले को न जाने कौन कौन सी पतली गलियों से घुमाते हुए स्कूल लाते, जिससे आराम से सुट्टे मारते सिगरेट खत्म की जा सके...

अब ज़ाहिर है इतना चलने के बाद रिक्शा वाला पैसे ज़्यादा तो मांगेगा ही...वो पांच रुपये मांगता (उस ज़माने में पांच रुपये भी बहुत होते थे) और आलोक महाराज उसकी हथेली पर एक या दो रुपये रखते...अब रिक्शा वाला लाख हाथ पैर पटकता लेकिन मजाल है कि आलोक जी टस से मस हो जाएं...ऊपर से तुर्रा ये कि चार पांच लोगों को और इकट्ठा कर लेते कि बताओ इतनी पास से आया (सात-आठ सौ मीटर) और पांच रुपये मांग रहा है...अब लोगों को क्या पता कि जनाब गरीब रिक्शे वाले को पूरा मेरठ घूमाकर ला रहे हैं...वो उस रिक्शेवाले को ही कोसते- क्यों बेचारे बच्चे को लूट रहा है...

वैसे ये आलोक जी बजरंग बली के परम भक्त थे...हर मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर में जाकर गुलदाने का प्रशाद चढ़ाना नहीं भूलते थे...एक दिन रोज़ के रूटीन की तरह हमारी चांडाल चौकड़ी क्लास से बंक मार कर सड़क पर चाय वाले के यहां चाय-समोसे का आनंद ले रही थी...हम एक समोसा लेते थे, आलोक जी कम से कम तीन-चार समोसे और कुछ बिस्किट जब तक गप न कर लेते, उनके विशालकाय शरीर को तृप्ति नहीं मिलती थी...

ऐसे ही एक दिन चाय वाले के पास गप्पों का दौर चल रहा था कि सामने से बाउंड्री वाल पर आलोक जितना ही मोटा ताजा एक बंदर खरामा-खरामा (धीरे मस्त चाल) आता दिखाई दिया...हम सब सतर्क होना शुरू हो गए, सिवा आलोक महाराज के...आलोक ने कड़ी आवाज़ में हमें आगाह कर दिया...इस बंदर को कोई कुछ नहीं कहेगा...ये भगवान का भेजा दूत है और हमें इम्तिहानों के लिए आशीर्वाद देने आया है...अब वो बंदर बिल्कुल पास आ गया...हम तो अलग हो गए थे लेकिन आलोक जी अपने आसन पर जस के तस विराजमान थे और उस वक्त उनके हाथ में बिस्किट था...उन्होंने बड़े प्यार से बिस्किट बंदर जी की सेवा में पेश किया...बंदर न जाने किस मूड में था, शायद बंदरिया से लड़ कर आ रहा था, उसने आव देखा न ताव, बिस्किट का तो चूरा करके फेंक ही दिया, ऊपर से बत्तीसी दिखाता हुआ खीं खीं कर आलोक जी के कंधे पर चढ़ बैठा...लगा उनके मोटे मोटे गाल नोचने...नुकीले पंजों के वार सहते हुए आलोक जी को दिन में तारे नज़र आने लगे...वो तो भला हो चाय वाले का, उसने डंडा दिखाकर बंदर को आलोक से अलग किया...



अगला दृश्य

मैदान में बंदर आगे-आगे...और आलोक जी पूरी ईंट लेकर बंदर के पीछे पीछे हंड्रेड मीटर स्प्रिंट रेस लगा रहे थे...हम भी पीछे-पीछे हो लिए...आलोक जी साथ में चिल्लाते जा रहे थे....मार डालो साले को...ये बंदर है सिर्फ बंदर, और कुछ नहीं...आज मैं इसे निपटा कर ही दम लूंगा...

बंदर तो क्या ही हाथ आना था...आलोक जी का सांस थोड़ी देर में ही फूल गया...पसर गए मैदान में ही टांगे चौड़ी कर के...आलोक जी अब एक क्लिनिक में थे और उन्हें एटीएस के टीके लग रहे थे...


स्लॉग ओवर

मक्खन का दिमाग एक बार ज़्यादा ही हिल गया तो उसे Dr Chopra, psychotherapist को दिखाया गया...डॉक्टर पूरी तरह तो मक्खन को ठीक नहीं कर पाया लेकिन मक्खन खुद ज़रूर ये समझने लगा कि वो अब बिल्कुल ठीक है...मक्खन डॉक्टर को फीस तो पूरी देता ही रहा था लेकिन वो अब Dr Chopra को भगवान मानने लगा...डॉक्टर के पीछे ही पड़ गया कि मेरे लायक कोई काम हो तो बताओ...डॉक्टर ने पीछा छुड़ाने के लिए कह दिया कि उसके क्लीनिक के बाहर लगी नेमप्लेट पुरानी हो गई है, हो सके तो उसे नई बनवा कर ला दो...मक्खन ने कहा...बस इतना सा काम, कल ही लीजिए डॉक्टर साहब...अगले दिन मक्खन ने नई नेम प्लेट लाकर डॉक्टर के क्लीनिक के बाहर लगा दी...डॉक्टर ने आकर वो नेम प्लेट देखी तो उसे खुद अपनी ही फील्ड के बड़े एक्सपर्ट को दिखाने की ज़रूरत पड़ गई...नेमप्लेट पर लिखा था...

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"Dr Chorpa, Psycho The Rapist"



डिस्क्लेमर- पंजाबी में पा भाई को कहते हैं...Dr Chorpa यानि डॉ चोर भाई...

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33 टिप्पणियाँ
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  1. मक्खन तो मक्खन... मुझे तो डा. चोपड़ा भी हिले हुए लगे. किसने कहा था मक्खन पे भरोसा कर लेने को.

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  2. Ye makkhan to kalaakaar hai koi na koi gul khilaye bina rahega nahin.. lekin aalok ji ko kahiyega ki wo tha to Hanumaan ji ka doot hi bas fark itna tha ki aasheerwad dene nahin balki gareeb rikshawwale ka shoshan karne ki saza dene aaya tha.
    vaise bandaron se jang meri bhi ho chuki hai.. :)

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  3. यह डा. चोपडा आप के आलोक साहब ही तो नही थे बचपन वाले??? लेकिन मजे दार जी मकखन जी की ईमानदारी पर कोई शक नही

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  4. sahi hai Alok bhaiya bhi kya karein hanumaan ji ke darshan kar rhe the...ab hanuman ji ugr ho gaye to kya karein...aur makkhan ji to kamaal hi the...

    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  5. ये लो जी मक्खन पे भरोसा करोगे तो यही तो होगा :)

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  6. ये उन दिनों की बात है जब हम मेरठ के गवर्मेंट इंटर कॉलेज के होनहार (?) छात्र हुआ करते थे...
    पहले तो एक कौतूहल यह कालेज वही तो नहीं जिसका जिक्र आपने पिछले पोस्ट में किया था.
    विकल्प
    हाँ
    नहीं
    यदि हाँ तो आप लोग उस समय गर्ल्स थे या ब्वायज.

    मक्खन जिन्दाबाद

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  7. मुझे तो मक्खन पर शुरू से भरोसा नहीं है...
    जाने डॉ.चोप्रा ने कैसे कर लिया...
    शकल-वकल नहीं देखी है !!
    हाँ नहीं तो...!!!

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  8. बंदर में तो गज़ब रेबिज़ होता है भाई...आलोक बाद में ठीक तो रहे? :)


    खैर, मख्ख्न ने सॉलिड नेम प्लेट बनवाई.. हा हा!!

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  9. एक ही झटके में आलोक जी के सारे विचार बदल गये..बंदरों के बारे में....खुशदीप बढ़िया संस्मरण....और भैया ये मक्खन जी से नेमप्लेट बदलवाना तो महँगा पड़ गया डॉ. साहब को...मजेदार पोस्ट...धन्यवाद भैया

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  10. खुशदीप भाई,एक बार फिर शब्दो का चमत्कार...उत्तम रचना..!!

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  11. यार खुशदीप भाई मैं सोच रहा था कि यदि वो कटखना बंदर , मक्खन को काट लेता तो , इंजेक्शन जरूर उस बंदर को ही लगवाने पडते आखिर रिएक्शन तो उसे ही होना था । पता नहीं मक्खन के अंदर क्या क्या भरा हो ।

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  12. अलोक जी के किस्से ने कई लाला याद दिला दिए बाकि मक्खन तो है ही कमाल

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  13. सुन्दर संस्मरण!

    स्कूल और कॉलेज के दिनों की याद करने का अपना एक अलग आनन्द है!

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  14. अरे! आलोक जी ने उस दिन मंदिर में गुलदाने का प्रशाद नहीं चढ़ाया होगा। तभी तो उस रामभक्त का मूड़ उखड़ गया।

    मक्खनबाजी ऐसी भी नहीं होनी चाहिए :-)

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  15. डॉक्टर का तो पतीला लिकाड़ दिया मक्खन नै।

    भाई बंदर तो सिर्फ़ बंदर ही होया करे।
    यो तो समझणा था बावळे ने।
    आखिर भगवान का नया रुप देखणा पड़ ग्या ना

    राम राम

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  16. वाह आनन्द आ गया. आलोक जी का किस्सा पढ के. और मक्खन जी से तो हमेशा ही किसी न किसी गड़बड़ की उम्मीद रहती है.

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  17. बहुत खूब खुशदीप भाई ! क्या किस्सा सुनाया है !
    और नेमप्लेट के तो क्या कहने !!

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  18. Achha likhte h aap.
    Waise m bhi Meerut mein he rhta hun.
    Aur aapke GIC college k paas guzarta rhta hun.
    Aapki post apne blog par dalunga.
    Is post k liye Mubarakbad aapko.

    blogishnary.blogspot.com

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  19. कॉलेज के दिन की सुन्दर झलकियाँ प्रस्तुति की है आपने बहुत अच्छा लगा ... हमें भी अपने दिन याद आ गए ......
    हार्दिक शुभकामनाएँ ..

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  20. तबीयत कैसी है आपकी . .................
    शायद उसके बाद से डाकटर मरीज़ से सिर्फ़ फ़ीस ही लेते है कोइ काम नही कराते .

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  21. जानते हो दुर्भाग्य से इस साल उस कोलेज का बड़ा हिस्सा आग की भेट चढ़ गया .....वैसे बेच मेट डोट कॉम पर इस कॉलेज की साईट है ओर ढेरो लोग बाहर है .एवेन मेरे बेच के २६ लोग डॉक्टर है .उस समय के टीचर भी समर्पित लोग थे.....सेंत थोमस वाली गली के हलवाई के यहाँ हमने भी बहुत पूरी खायी है.....
    which yr you were in G.I.C?

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  22. @डॉ अनुराग,
    आपसे प्यारे स्कूल जीआईसी के जलने की खबर सुनकर ऐसा लगा कि जैसे किसी अपने के साथ हादसे की खबर सुनने पर होता है...आप मुझसे काफ़ी जूनियर बैच के लगते हैं...मेरा 1980 का पासिंग आउट है...डॉ कपिल सेठ, डॉ राजीव अग्रवाल मुझसे दो साल सीनियर थे...क्या जीआईसी की कोई alumni association है...अगर है तो उसका कॉन्टेक्ट मुझे ज़रूर दीजिएगा...मेरा मेरठ आना बहुत कम हो पाता है...अब आऊंगा तो आपसे ज़रूर मिलूंगा..मेरा ई-मेल है- sehgalkd@gmail.com...अपना ई-मेल दीजिएगा...

    जय हिंद...

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  23. जरूर हनुमान जी किसी कारण नाराज थे ...और क्या कारण हो सकता है !

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  24. बहुत ही मजेदार संस्मरण, बेचारे आलोक....भारी शरीर और बन्दर का पीछा..
    मक्खन से तो ऐसी हरकतों की ही उम्मीदें हम लगा बैठते हैं..

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  25. मजेदार संस्मरण....और मक्खन की तो बात ही निराली है :):)

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