कल पूरा कोलकाता सड़क पर था...एक नायक को आखिरी विदाई देने के लिए...कॉमरेड ज्योति बसु को लाल सलाम देने के लिए...हाल फिलहाल के इतिहास में बंगाल में ऐसा कोई मौका नहीं आया जब किसी नेता को विदाई देने के लिए ऐसा जनसैलाब उमड़ा हो...ज्योति बाबू ने तेइस साल तक बंगाल पर एकछत्र राज करने के बाद सन 2000 में खुद ही मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़कर बुद्धदेव भट्टाचार्य को उस पर बिठा दिया था...एक दशक तक खुद को कोलकाता के इंदिरा भवन तक सीमित रखने के बाद भी ज्योति बसु कभी अप्रासंगिक नहीं हुए...लोगों के दिलों से दूर नहीं हुए...सबूत कल मिला...
कोलकाता में ज्योति बसु को लोगों का आखिरी सलाम
एक तरफ ज्योति बाबू... इकलौते कम्युनिस्ट नेता, जो प्रधानमंत्री की कुर्सी के एकदम नजदीक पहुंच गये थे...अपनी पार्टी में वो बस एक वोट के चलते प्रधानमंत्री की कुर्सी से चूक गए...बाद में उस एक वोट को इतिहास का सबसे गलत वोट कहा गया...वोट देने वाले ने भी माना, वह ऐतिहासिक गलती थी...अब याद कीजिए कुछ ऐसे नेताओं को जो जनता के प्यार से नहीं परिस्थितियों के फेर की वजह से देश में सत्ता की सबसे आला कुर्सी तक पहुंचे...ऐसे ही चेहरों में मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, पी वी नरसिंहा राव के नाम जेहन में आते हैं...ये सब ही अब इस दुनिया में नहीं है...लेकिन क्या इनमें से किसी एक के लिए भी कहीं वैसा जनसैलाब उमड़ा जैसा कोलकाता में ज्योति बसु के लिए उमड़ा...ज़ाहिर है जो दिलों पर राज करते हैं वो सत्ता की ताकत के मोहताज नहीं होते...
खाते-पीते और जाने-माने परिवार में जन्मे और विलायत में पढ़ाई करने वाले ज्योति बसु बंगाल की राजनीतिक धारा के अलग छोर रहे...शायद इसीलिए लोग उन्हें बाबू कहते थे तो उसमें उनका प्यार और हक साफ झलकता था...ज्योति बाबू सत्ता में थे तो उनकी पुलिस ने ममता बनर्जी को घसीटकर राइटर्स बिल्डिंग से लालबाजार के लाकअप में पहुंचा दिया था...लेकिन बुज़ुर्ग नेता के रूप में ज्योति बसु बंगाल के कस्टोडियन बन गये...ममता बनर्जी सिंगूर में टाटा के ज़मीन अधिग्रहण के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठीं तो ज्योति बसु परेशान दिखाई दिए...इसलिए नहीं कि बंगाल में उनके वाममोर्चा की सरकार को चुनौती पेश आ रही थी बल्कि इसलिए कि उन्हें ममता की बिगड़ती सेहत की फिक्र थी....
ज्योति बाबू ने सच्चे वामपंथी कैडर के नाते आंखें और पूरा देहदान करने का ऐलान किया था...उनकी इस इच्छा के अनुरुप 17 जनवरी को उनके निधन वाले दिन उनके दोनों नेत्र निकाल लिए गए थे...उनके नेत्रों ने दो लोगों को इस दुनिया को देखने का मौका दिया...जहां तक उनके देहदान की बात है, उनका शव कोलकाता के सेठ सुखलाल करनानी मेडिकल अस्पताल (एसएसकेएम) पहुंचा दिया गया...यानि मरने के बाद भी एक नायक की देह जन-जन को फायदा देने के काम ही आएगी....
नायक ऐसे ही होते हैं...अब याद कीजिए ज़रा लोकनायक जय प्रकाश नारायण की...कांग्रेस की ज़मीन की चूलें हिलाकर जेपी लोकनायक बने थे...संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है...का नारा देने वाले जेपी ने आठ अक्टूबर 1979 को शरीर त्यागा था तो पूरा पटना उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए सड़कों पर निकल आया था...जेपी भी कभी सत्ता के किसी पद पर नहीं रहे लेकिन समग्र क्रांति के ज़रिए उन्होंने जन-जन के दिलों पर हुकूमत की...जननायक ऐसे ही होते हैं...
अब ज़रा आपको देश की सरहद से बाहर ले जाता हूं...याद कीजिए एक प्रिंसेज को...राजकुमारी डायना को...जीते जी डायना अपनों से प्यार और सम्मान के लिए तरसती रहीं...सम्मान उन्हें मिला मरने के बाद...वो भी अपनों से कहीं ज़्यादा लोगों से...छह सितंबर 1997 को पूरा लंदन आंखों में आंसु लिए अपनी इस पीपल्स प्रिंसेज को अंतिम विदाई देने के लिए सड़कों पर उमड़ आया था...दिलों पर राज करने वाले ऐसे ही होते हैं...जिन्होंने खुद को सत्ता के लोभ से ऊंचा कर लिया उनका मुकाम लोगों के दिलों में और भी ऊंचा हो गया...
लेकिन यहां एक सवाल मेरे जेहन में आता है प्रधानमंत्री की कुर्सी तो सोनिया गांधी ने भी ठुकरा कर त्याग की मिसाल दी थी...तो क्या वो भी एक जननायिका हैं...यहां संदेह इसलिए होता है क्योंकि वो खुद को नहीं अपने पुत्र राहुल गांधी को गांधी परिवार के वारिस के तौर पर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहती हैं...यानि लोगों से ज़्यादा पुत्र के भविष्य की फिक्र यहां देखी जा सकती है...राहुल गांधी डिस्कवरी ऑफ इंडिया की मुहिम के तहत पूरा देश नाप रहे हैं...खुद को प्रधानमंत्री के लायक बनाने से पहले राहुल पूरे देश की ज़मीनी हक़ीकत समझ लेना चाहते हैं...लेकिन मैं कहता हूं राहुल गांधी के पास प्रधानमंत्री के पद से भी ऊंचा उठने का मौका है...राहुल ऐलान कर दें कि वो कभी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठेंगे...जैसा कि राहुल कहते हैं एक देश में दो देश के फर्क को पाटना है...राहुल अपनी सारी ऊर्जा इसी मिशन पर लगाएं...राहुल अगर ऐसा करने की हिम्मत दिखा सकते हैं तो बेशक वो प्रधानमंत्री न बन पाएं लेकिन लोगों के दिलों पर उनकी हुकूमत को कोई खारिज नहीं कर सकेगा...लेकिन क्या राहुल ऐसा कर पाएंगे...उस रास्ते पर आगे बढ़ पाएंगे जो इंसान को नेता से आगे जननायक के कद तक पहुंचा देता है...क्या राहुल बनेंगे पीपल्स प्रिंस...
Katai nahin kar payenge bhaia... kursi ka moh aur congress ke neta inka choli daman ka sath raha hai..
जवाब देंहटाएंवसंत पंचमी की शुभकामनायें
जय हिंद...
किसी भी दल में आन्तरिक लोकतंत्र नहीं है ...यह कहकर राहुल गाँधी ने जननायक बनने की शुरुआत तो कर दी है ...
जवाब देंहटाएंअब ये पता नहीं उनका यह वक्तव्य खुद अपनी पार्टी पर लागू होता है या नहीं ...:):)
देखिये, क्या गुल खिलाते हैं राहुल!!
जवाब देंहटाएंवसंत पंचमी की शुभकामनायें
एकदम स्टीक और समयोचित शानदार पोस्ट
जवाब देंहटाएंयदि राहूल गांधी का लक्ष्य अच्छा है .. तो उन्हें हमारी ओर से शुभकामनाएं मिलनी ही चाहिए !!
जवाब देंहटाएंआप ने तो राहुल गांधी के सामने नए लक्ष्य रख दिये हैं। इन में से किसी के पास सत्ता प्राप्ति का लक्ष्य नहीं था। लेकिन राहुलगांधी के पास है। यही उन को या किसी को भी जननायक बनने से रोकता है।
जवाब देंहटाएंजन नायक, जन का ही अंग होते हैं और उसकी नब्ज पहचानते हैं।
जवाब देंहटाएंबसंत पंचमी की शुभकामनाएं
सच कहूं खुशदीप भाई तो कई बार लगता है कि ये सब कहने-सुनने वाली बड़ी-बड़ी बातें ही तो नहीं महज इन कथित जन-नायकों की...द्विवेदी जी की बातों को आगे बढ़ाते हुये कहूं अगर।
जवाब देंहटाएं"सूरज का सातवां घोड़ा"...बहुत अच्छा लिखा है और इस आलेख को जनसत्ता में भी आपके नाम से छपा देख कर और भी अच्छा लगा। बधाई!
सही बात है, बसंत पंचमी की घणी रामराम.
जवाब देंहटाएंरामराम.
कल पूरा कोलकाता सड़क पर था...एक नायक को आखिरी विदाई देने के लिए...कॉमरेड ज्योति बसु को लाल सलाम देने के लिए...
जवाब देंहटाएंजनता पागल है सा..
लगता तो नहीं कि 'राहुल गांधी' की ये सारी मशक्कत जननायक बनने के लिए है...पर अगर सत्ता के शिखर पर बैठने से पहले वे जमीनी हकीकत से जुड़ना चाहते हैं, खुद अपनी आँखों से सच्चाई देखना चाहते तो इसकी भी प्रशंसा करनी चाहिए...वरना कच्चे घरों में रहने वाले और कच्ची सड़कों पर चलने वाले लोग भी दिल्ली पहुँचते ही अपने घर का रुख कैसे भूल जाते हैं,हम सबसे छुपा नहीं है.
जवाब देंहटाएंबसंत पंचमी की शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंबात तो सिर्फ अपने अन्दर झांकने की है .दूसरों के लिए मापदंड निर्धारित करना शायद आसान हो परन्तु एक विशेष परिस्थिति में में हम किस तरह का व्यवहार करते हैं - यह देखने की बात है . ज्योति बासु तो महान थे ही , साथ में जन नायक भी.
जवाब देंहटाएंsatta ka moh chhod kuch kar payenge rahul bhi....bahut mushkil hai
जवाब देंहटाएंसटीक आलेख..बसंत पंचमी की शुभकामनाये और बधाई.
जवाब देंहटाएंहाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और...
जवाब देंहटाएंजब सोनिया यह लोभ संवरण नहीं कर पाई....तो राहुल ...??
पवार बहुत बड़ी चीज़ है...उसको छोड़ना....बहुत मुश्किल है...
khushdeepji...jan neta to tabhi ban sakte jab logon ke dil par raaj ho...
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएं.
.
खुशदीप जी,
ज्योति दा निश्चित ही महामानव और जननायक थे।
उनको आखिरी सलाम!
पर कुछ बिन्दुओं पर असहमति जताउंगा आपसे...
मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, पी वी नरसिंहा राव... ये सब भी नायक तो थे ही, अपने प्रशंसकों का प्यार और अगाध विश्वास भी पाया इन्होंने... और जहां तक मुझे याद है, लाखों लोग थे इनकी अंतिम यात्रा में भी।
राजकुमारी डायना मात्र एक मीडिया क्रियेशन व Phenomenon थीं, Royalty और Wealthy & Mighty सेलिब्रिटीज के अंतरंग जीवन से जुड़ी बातों को चटकारे ले लेकर पढ़ने की मानसिकता का नतीजा...
अब आते हैं राहुल गांधी पर... हो सकता है मैं गलत होऊं... पर मुझे लगता है कि केवल आप ही नहीं, हमारा ज्यादातर मीडिया गाँधी परिवार को देश का अघोषित पर निर्विवाद राजवंश मानता है और राहुल को भारत का युवराज... इसीलिये उन्हे प्रोजेक्ट करने के मौके तलाशने रहता है... वरना ज्योति दा जैसे व्यक्तित्व के साथ सोनिया गाँधी और राहुल की भी उसी सांस मे चर्चा... बात पचने लायक तो बिल्कुल नहीं है।
कहां से चले और कहां पहुच गये . ज्योति बाबु या किसी की भी तुलना मेरी सम्झ से सही नही .
जवाब देंहटाएंऔर डायना घर के रसोईया से लेकर अल डोडी तक ना जाने कितने स्केन्डल लिये चली गई वह सही थी और बेचारे चार्ल्स सिर्फ़ एक ही के साथ रहे वह बदनाम हो गये . यह है मिडिया पावर .
और अपने राज परिवार के राज कुमार की बात तो पहले शादी करवाइये बाकि बात बाद मे
जन नायकों पर आपके विचारों से सहमत।
जवाब देंहटाएंहालाँकि बाकि नेतागण भी अपने आप में महानुभूति थे और सम्मानीय हैं।
आगे का तो समय ही बताएगा।
ज्योति बासू जी को नमन ,बाकी सब बातो से असहमत जी
जवाब देंहटाएंहालांकि अगली पीढी के युवा राजनीतिज्ञों में मुझे खुद राहुल भी औरों से बेहतर दिखते हैं , और अभी तो ये देखना बांकी है कि वे नायक बनेंगे , या जननायक , बस नालायक न बनें ,इतनी ही उम्मीद और आशा है
जवाब देंहटाएंअजय कुमार झा
नेता वही जो जन मन भाये... राहुल गाँधी नेता नहीं हैं... corporate हैं.... उम्मीद है कि कंपनी.. ज़रूर सफल होगी.... पर पीपल्ज़ प्रिंस ....??????????
जवाब देंहटाएंजय हिंद.....
आप सबने इस मु्द्दे पर अपने विचार रखे, मुझे अच्छा लगा...लोकतंत्र की यही तो खूबी है, हर एक को खुल कर अपनी बात रखनी चाहिए...
जवाब देंहटाएं@ प्रवीण शाह भाई,
आपके विचारों का मैं सम्मान करता हूं...आप साफगोई से अपनी बात कहते हैं, ये बड़ी अच्छी बात है...लेकिन आपने पूरे मीडिया को गांधी परिवार के प्रति आसक्त बताया...उससे मैं अपनी असहमति जताता हूं...पत्रकारिता में किसी भी पार्टी के लिए समर्थन या विरोध
की गुंजाइश नहीं होती...और जो ऐसा करते हैं मैं उन्हें पत्रकार ही नहीं मानता...पहली बात तो ये इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया था तो सच्ची बात करने वाले पत्रकारों को भी उतना ही उत्पीड़न सहना पड़ा था जिस तरह उस दौर के विरोधी दलों के नेताओं को...कुलदीप
नैयर ऐसी ही एक मिसाल हैं....पत्रकार को बस सही और गलत पर नज़र रखनी चाहिए...और उसे ईमानदारी और निर्भीकता से पाठकों तक पहुंचाना चाहिए...
इस पोस्ट का अभिप्राय बस इतना था कि वही राजनीति में वही हस्तियां लोगों की याद में हमेशा के लिए बस गईं जिन्होंने निस्वार्थ भाव से और बिना सत्ता मोह के जन-जन की भलाई के लिए काम किया...
लोकनायक जयप्रकाश नारायण कभी किसी पद पर नहीं रहे लेकिन हमेशा के लिए इतिहास में अपना नाम लिखा गए...मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर और पी वी नरसिंहा राव सब अपनी-अपनी खूबियों की वजह से नायक थे...लेकिन सत्ता से हटने के बाद सभी अप्रसांगिक हो गए...और प्रवीण भाई, आपसे निवेदन है कि एक बार फिर चेक कीजिएगा कि इन सभी विभूतियों की अंतिम यात्रा में क्या वाकई लाखों लोग उमड़े थे...
ज्योति बसु को जननायक मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि सीएम का पद छोड़ने के बाद भी उनकी प्रासंगिकता बनी रही...लोगों ने उन्हें जीते-जी भुलाया नहीं...
जय हिंद ...
रही बात सोनिया गांधी की तो उनके लिए मैंने यही कहा कि प्रधानमंत्री का पद त्यागने के बावजूद वो कहीं से भी जननायक नहीं है...क्योंकि वो पुत्र के हाथ में गांधी परिवार की विरासत के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी चाहती हैं...मेरा निवेदन यही है कि अगर राहुल गांधी पीएम बनने का इरादा तजकर सिर्फ समाजसेवा को ही ध्येय बनाते हैं तो वो जननायक बनने की राह पर चल पड़ेंगे...जननायक बन नहीं चाहेंगे...वो तो इतिहास तय करेगा कि राहुल ने एक देश में दो देश का फर्क पाटने के लिए कितनी ईमानदारी और गंभीरता से काम किया...मेरा आग्रह ये भी है कि जिस तरह किसी की कमज़ोरियों को उजागर किया जाना चाहिए, वैसे ही अगर कोई खूबी दिखे तो उसका स्वागत भी किया जाना चाहिए....और ये मानदंड राहुल पर भी लागू होता है...पहले से कोई राय बनाए बिना राहुल के कामों के मुताबिक उनका मूल्यांकन किया जाना चाहिए...अगर राहुल ये कहते हैं कि उन्हें वशंवाद का फायदा मिला, राहुल ये कहते हैं कि कांग्रेस समेत किसी भी पार्टी में लोकतंत्र नहीं है, अगर राहुल ये कहते हैं युवाओं को राजनीति में आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया जाता...तो इसे राहुल की ईमानदारी माना जाना चाहिए... गांधी परिवार के राहुल सदस्य हैं, सिर्फ इसी नाते उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया जाना चाहिए...जिस तरह ये गलत है, उसी तरह ये भी गलत है कि राहुल गांधी को गांधी परिवार का सदस्य होने के नाते उनके सब अच्छे कामों को भी खारिज कर दिया जाना चाहिए...राहुल युवा हैं, विरोधी नेताओं के लिए भी सम्मान जताते हुए अपनी बात रखते हैं...हर एक से संवाद कायम करना चाहते हैं, ये आज की राजनीति में कम ही दिखता है...हां, राहुल की कथनी और करनी में फर्क नहीं होना चाहिए...अगर वो सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए दलितों के साथ भोजन करते हैं तो वो जनता से ज़्यादा खुद को धोखा देना होगा...राहुल को ये ध्यान रखना चाहिए कि एक बार तो काठ की हांडी चढ़ सकती है, बार-बार नहीं....सत्ता एक बार मिल जाएगी लेकिन लोगों का विश्वास टूट गया तो उसे दोबारा हासिल करना बड़ा मुश्किल होता है....और मुझे खुशी है कि राहुल ने राजनीति में आने के बाद अभी तक कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे उन पर उंगली उठाई जा सके...मैं भी यही चाहता हूं कि राहुल सत्ता की राजनीति से दूर रहकर जन-जन के लिए काम करें...उसी अग्निपथ पर चलते हुए कोई जननायक की मुश्किल मंजिल तक पहुंच सकता है..
जवाब देंहटाएंबाकी सबके अपने-अपने विचार है...असहमति के बावजूद देश को आगे ले जाने के लिेए सबकी सहमति है...
जय हिंद...
जननायक बन नहीं चाहेंगे...कि जगह जननायक बन नहीं जाएंगे...पढ़ें...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
.
जवाब देंहटाएं.
.
"और मुझे खुशी है कि राहुल ने राजनीति में आने के बाद अभी तक कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे उन पर उंगली उठाई जा सके...मैं भी यही चाहता हूं कि राहुल सत्ता की राजनीति से दूर रहकर जन-जन के लिए काम करें...उसी अग्निपथ पर चलते हुए कोई जननायक की मुश्किल मंजिल तक पहुंच सकता है..."
खुशदीप जी,
मेरा पॉईंट यही था...मीडिया का काम किसी का पक्ष लेना या विरोध करना नहीं अपितु घटनाओं को जैसे वे घटीं उसी हालत में बयान करना और उनकी व्याख्या करना होता है...कांग्रेस में बहुत से महासचिव हैं... पर आप यह सब राहुल से ही चाहते हैं...किसी और जमीन से निकले नेता से नहीं... अब यह या तो आसक्ति है या गांधी परिवार को देश का राजवंश मानने की प्रवृत्ति...
आभार!
वो तो इतिहास तय करेगा कि राहुल ने एक देश में दो देश का फर्क पाटने के लिए कितनी ईमानदारी और गंभीरता से काम किया...मेरा आग्रह ये भी है कि जिस तरह किसी की कमज़ोरियों को उजागर किया जाना चाहिए, वैसे ही अगर कोई खूबी दिखे तो उसका स्वागत भी किया जाना चाहिए....और ये मानदंड राहुल पर भी लागू होता है...पहले से कोई राय बनाए बिना राहुल के कामों के मुताबिक उनका मूल्यांकन किया जाना चाहिए...अगर राहुल ये कहते हैं कि उन्हें वशंवाद का फायदा मिला, राहुल ये कहते हैं कि कांग्रेस समेत किसी भी पार्टी में लोकतंत्र नहीं है, अगर राहुल ये कहते हैं युवाओं को राजनीति में आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया जाता...तो इसे राहुल की ईमानदारी माना जाना चाहिए... गांधी परिवार के राहुल सदस्य हैं,
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी इसे4 मेरा भी कमेन्ट समझें मगर मेरा मानना है कि सभी पार्टियों मे अगर वंशवाद है तो राहुल को भी राजनीति मे आना चाहिये उनको जमीनी हकीकत के इलावा जो पुश्तैनी तज़ुर्बा मिला है वो उन्हें एक सफल राजनेता बनायेगा। और ऐसे कर्मठ नेता की ही आज जरूरत है। और पार्टियों के बडे बडे नेता भी जन्ता से आँख चुराते फिरते हैं। बहुत सही आलेख है।
तथ्यों पर आधारित विचारणीय पोस्ट लिखने में आपका कोई सानी नहीं है
जवाब देंहटाएं