हम तो चले परदेस, हम परदेसी हो गए, छूटा अपना देस हम परदेसी हो गए...आखिर वो कौन सी मजबूरी है जो इंसान को अपनी माटी छोड़कर दूर अजनबियों के बीच ले जाती है...सिर्फ इसी ललक में कि बेहतर कमा सकेंगे...खुद के साथ परिवार वालों को पैसे के साथ खुश रख सकेंगे...लेकिन इस मृगतृष्णा में जो हम खोते हैं, उसकी कीमत जब समझ आती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है...जीवन खत्म हो जाता है लेकिन आगे बढ़ने की आपाधापी पर कभी विराम नहीं लगता...पीछे जो छोड़ आए हैं, एक दिन इतने पीछे हो जाते हैं कि आंखों को दिखने ही बंद हो जाते हैं...
मैं यहां जिस पलायन की बात कर रहा हूं वो सात समंदर पार का वीज़ा कटाने वाला पलायन नहीं है...ये पलायन है बिहार के किसी छोटे से गांव से किसी बधुआ, किसी ननकू, किसी मनव्वर का मुंबई, पंजाब या दिल्ली कूच करने का...कल पंजाब के लुधियाना में बिहार-पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए मज़दूर सड़कों पर थे...उनका आक्रोश सरकारी बसों में आगजनी के ज़रिए बाहर आ रहा था...हाइवे और रेल ट्रैक ठप कर दिया गया...शहर में कर्फ्यू लगाना पड़ गया...वजह क्या थी...इन मज़दूरों का कहना था कि हर महीने उनकी खून-पसीने की कमाई से बदमाश चौथ वसूल कर लेते हैं...पुलिस से शिकायत करने जाते हैं तो उलटे जलील करके भगा दिया जाता है...अगर ज़ोर से दबाओ तो चींटी भी काट लेती है और फिर ये तो जीते-जागते इंसान हैं...यहां ये बताता चलूं कि लुधियाना की मौजूदा आबादी में हर चौथा शख्स प्रवासी मज़दूर है...
मुंबई में बाल ठाकरे और राज ठाकरे की सेनाओं ने उत्तर भारतीयों को निशाने पर लेकर क्षेत्रवाद की जो आग लगाई, उसकी आंच दूसरे राज्यों तक भी पहुंचनी शुरू हो गई है...हाल ही में छह नवंबर को मध्य प्रदेश के मुख्यमत्री शिवराज सिंह चौहान कह ही चुके हैं कि प्रदेश की नौकरियों पर सिर्फ स्थानीय लोगों का ही हक है...बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए लोगों के लिए यहां कोई जगह नहीं है....महाराष्ट्र तो मूलत मराठी भाषी राज्य है लेकिन मध्य प्रदेश तो ठेठ हिंदीभाषी राज्य है, अगर वहां भी बिहार या उत्तर प्रदेश के लोगों को धमकाया जाने लगा है तो फिर तो देश के संघीय ढांचे का राम ही मालिक है...
ये सब भारत में ही हो रहा है...संघीय ढांचे की बुनियाद वाले अपने देश में...ये पेट की आग ही है जो इंसान को अनजान जगह पर सब कुछ सहते हुए भी बसेरा बनाने को मजबूर कर देती है...अजनबी शहर में रहने के लिए ऐसी जगह ढूढी जाती है जहां अपने जैसे प्रवासियों ने पहले से ही डेरा डाल रखा हो...झुंड बनाकर ही रहने-चलने में इन्हें अपनी ताकत दिखती है...धीरे-धीरे यही आदत प्रवासियों और स्थानीयों के बीच तनातनी की वजह बन जाती है...शहर के स्थानीय बाशिंदे रोज़गार के अवसर कम होने के लिए प्रवासियों को ही ज़िम्मेदार मानने लगते हैं...सियासत भी इस तनातनी की आंच पर अपनी चुनावी रोटियां सेंकने से पीछे नहीं रहती...
लेकिन हर समस्या की तरह सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है...सवाल उठ सकता है कि एक शहर भी कितनी आबादी का बोझ उठा सकता है...शहर में रहने की जगह सीमित है...बुनियादी सुविधाएं सीमित हैं...रोज़गार सीमित हैं...ऐसे में कोई शहर कितना अतिरिक्त दबाव झेल सकता है..आंकड़ों के मुताबिक मज़दूर वर्ग का सबसे ज़्यादा पलायन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही देश के अन्य राज्यों की ओर होता है...क्या ये वाजिब नहीं कि केंद्र सरकार एक राज्य से दूसरे राज्य को पलायन रोकने के लिए कोई ठोस नीति बनाए...अगर रोज़गार का ज़रिया और इज्ज़त के साथ रोटी अपने ही राज्य में ही मिल जाए तो किसी को कोई पागल कुत्ता काटता है जो घर से दूर अजनबी शहर में मारा-मारा फिरे...
पलायन के इसी दर्द के बीच लुधियाना में जो कल हुआ, उसका दूसरा पहलू भी है....लुधियाना आबादी के लिहाज़ से देश का 18 वां सबसे बड़ा शहर है...भारत के मैनचैस्टर के नाम से मशहूर लुधियाना के हौज़री उद्योग की धाक दुनिया भर में हैं...लेकिन आज लुधियाना की इसी पहचान पर संकट है...लुधियाना की इंडस्ट्री में उत्पादन लगातार गिरता जा रहा है...मंदी और बिजली की कमी ने इंडस्ट्री की कमर पहले ही तोड़ रखी थी, रही सही कसर अब लेबर के आक्रोश ने पूरी कर दी है...इंडस्ट्री मालिकों को पगार बढ़ाने पर भी मज़दूर नहीं मिल रहे...
दरअसल केंद्र की राष्ट्रीय ग्रामीण रोजग़ार गारंटी योजना यानि नरेगा ही लुधियाना की इंडस्ट्री की दुश्मन बन गई है...नरेगा में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले हर परिवार के एक सदस्य को सौ दिन का रोज़गार निश्चित तौर पर दिया जाता है...इस योजना के तहत देश के विभिन्न राज्यों में प्रतिदिन मिलने वाली दिहाड़ी अस्सी से लेकर एक सौ चालीस रूपये तक है...बिहार में नरेगा की कामयाबी कई प्रवासी मज़दूरों को लुधियाना से बिहार वापस ले जा रही है...प्रवासी मज़दूर भी सोचते हैं कि घर में रहेंगे तो सरकार से जो रकम मिलेगी सो मिलेगी, घऱ के खेती-बाड़ी या दूसरे धंधों में भी हाथ बंटा सकेंगे...लुधियाना से ही पिछले एक साल में बीस फीसदी मज़दूरों ने त्योहारों के नाम पर घर का टिकट कटाया तो वापस लुधियाना आने का नाम नहीं लिया....मज़दूरों की इस कमी से लुधियाना की इंडस्ट्री का उत्पादन बीस फीसदी तक गिर गया है...
मुझे पलायन के इस पूरे पेंच का एक ही समाधान नज़र आता है और वो है सामंजस्य...इंडस्ट्री भी चलती रहे...मजदूरों को उनका पसीना सूखने से पहले वाजिब मेहनताना मिलता रहे...और सरकार निगहेबान की भूमिका ईमानदारी से निभाएं...लेकिन ये सब शायद मेरा सपना है....सपना है, सपने का क्या...
स्लॉग गीत
घर से दूर जाने का दर्द ऋषि कपूर की फिल्म सरगम के गीत... हम तो चले परदेस, हम परदेसी हो गए...में बड़ी शिद्दत के साथ उभरा था...इस लिंक पर उस दर्द को देख-सुन कर आप भी महसूस करिए...
"...अगर रोज़गार का ज़रिया और इज्ज़त के साथ रोटी अपने ही राज्य में ही मिल जाए तो किसी को कोई पागल कुत्ता काटता है जो घर से दूर अजनबी शहर में मारा-मारा फिरे..."
जवाब देंहटाएंयही सत्य है!
जल्दी सेठ बन्ने की ललक, ऐश्वर्य और दिखावे के प्रति बढ़ता झुकाव, देश में प्रयाप्त संसाधनों की कमी और उचित रोजगार न मिलना, दूसरी दुनिया को देखने का शौक, अपने परिजनों से ख़ास लगाव न होना इत्यादि !
जवाब देंहटाएंजिसके हाथ मे कुछ हुनर होता है उसको पलायन करना ही पड़ता है क्योंकि एक स्थान पर ही उसको समुचित रोजगार नही मिल पाता, अगर हम शिल्पकार और कामगारों का इतिहास देखें तो पता चल जायेगा, और हमारे यहां तीन रुपये मे 35 किलो चावल मिलने के कारण किसी भी दिहाड़ी पर मजदु्र नही मिल रहे हैं। बड़ी समस्या हो गयी है।
जवाब देंहटाएंआज की गडबडझाला व्यवस्था ही सबसे बडा कारण है.. यदि हर क्षेत्र में हर दिमाग और शक्ति का सही उपयोग हो सके .. तो हमें अपने क्षेत्र से बाहर जाने की आवश्यकता क्यूं हो ??
जवाब देंहटाएंजब तक देश के पिछड़े इलाकों का समुचित विकास नहीं हो जाएगा...ये पलायन चलता ही रहेगा...आज अगर बिहार और उत्तर प्रदेश से लेबर आनी बन्द हो जाए तो देश का अधिकांशत: उत्पादन ठप्प हो जाएगा
जवाब देंहटाएंभारत संघ एक मिसकंसेप्ट है। इसे संघ तो कहा गया है लेकिन यह संघ नहीं है। संघ वो जिस में राज्य स्वैच्छा से शामिल हों और उन्हें संघ से पृथक होने का अधिकार भी हो। ऐसा भारत संघ में नहीं है। इस कारण से इस संघ के राज्य राज्य नहीं हैं। वे महज प्रान्त हो कर रह गए हैं। भारत संघ स्वयं एक राज्य है। भारत का कोई राज्य संप्रभु नहीं है। राज्य इन बातों को समझते हैं और अनेक जिम्मेदारियों से मुहँ चुराते हैं। इन कारणों से आप का कहना सही है कि केंद्र को बहुत सी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए उन में से एक यह कि पलायन रोके जाने के प्रयत्न किए जाएँ।
जवाब देंहटाएंसटीक, समयोचित रचना। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी आपके शीर्शल ने एकबारगी तो डरा ही दिया कि कहीं झा जी की पीछे पीछे ही तो नहीं चले गये आप? बाकी पोस्ट पढ कर साँस मे साँस आयी। बाकी हम ,अप जितना भी दर्द महसूस कर लें लेकिन सरकार नहीं सुनेगी किसी की आह। गीत वाकई बहुत अच्छा है वैसे भी आपकी कोई पोस्ट कोई टिप्पणी बिना गीत गज़ल कविता के पूरी नहीं होती। शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंआपने दोनो बातें लिखी हैं। एक तरफ दूसरे प्रांतों से आए मजदूर हैं जिनके कारण स्थानीय मजदूर बेरोजगार हुआ अनुभव करते हैं तो दूसरी तरफ उनके चले जाने पर उद्योग धंधे चौपट हो रहे हैं। सभी प्रांतों की यही स्थिति है। हम काम करते नहीं या हम इतनी संख्या में नहीं की पूरे उद्योग को सम्भाल सके फिर भी अपने ही देशवासियों के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं। यह सत्य है कि यदि आज दूसरे प्रांतों से आए मजदूर अपने प्रांतों में चले जाएं तब उद्योग धंधों को बन्द होने का क्रम शुरू हो जाएगा। भारत का दर्द यही है कि इसने कभी भी राष्ट्रीयता को स्वीकार नहीं किया, केवल वे अपने प्रांतों में या फिर अपने नगरों तक ही सिमटकर रह गए हैं। झगड़े केवल प्रांतों के ही नहीं है, प्रांतों में भी शहरों और गाँवों के हैं।
जवाब देंहटाएंमैं एक और बेहतरीन गीत याद दिलाना चाहूँगा ... कालका फिल्म थी शायद... शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत और जगजीत सिंह ने संगीत दिया था... गीत था "दो रोटी के चक्कर में दुर्गत भइल हमार" अगर मिल सके तो सुनिए... इससे ज्यादा दर्द अभी तक तो और कहें नहीं मिला है... हाँ दो लाइन का दोहा कहूँ तो निदा फाजली याद आते हैं...
जवाब देंहटाएं"मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुःख ने दुःख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार"
कैसी रही !
इस समस्या का बस एक ही समाधान है...गाँवों का विकास किया जाए...गाँव वासियों को पेट भर खाना और तन ढकने को कपड़े मिल जाएँ तो वे कहीं नहीं जायेंगे.फिर गाँव से बाहर वही लोग जायेंगे ..जिन्हें नयी जगह देखने की तमन्ना हो और किसी शहर पर अनावश्यक बोझ भी नहीं पड़ेगा
जवाब देंहटाएंलेबर वर्गों के लिए क्या उद्योगों का पलायन अथवा नए उद्योगों की स्थापना सुदूर पिछड़े क्षेत्रों में नहीं किया जा सकता है.
जवाब देंहटाएंजरुर किया जा सकता है यदि प्रशासन उन्हें वहां सुरक्षा प्रदान करे.
दूसरी बात, हमारे पढ़े लिखे युवा - युवाओं के पास तो जैसे विकल्पों की भारी कमी है. कुछ बेहतर सोच है तो अपने गाँव/शहर में रुकना वक़्त की बर्बादी है. दूर महानगर जाना ही होगा. यही उत्तम विकल्प है. ओफ्फ्फ. क्या समय आ गया है अपने ही प्रियजनों के साथ रहना, अपने गाँव शहरों में जिंदगी बिताना कठिन होता जा रहा है. मतलब हमारा गाँव शहर अपने देश की सीमा से बाहर है. हमारे जन प्रतिनिधियों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती की वहां (अपने क्षेत्र) में विकास की गंगा बहाई जाए.
अब देखअ न, ना ना करत करत हमअहुं परदेस आ गयनी. अब वापिस जाये के रास्ता खोजत बानी,
अरे वो खुशदीप भैया, कोनो रास्ता भी देखाव न...
NREGA scheme points towards the pragmatic and constructive approach of the Govt. and will definitely help migration of the local population to other states.We hope all works well and this "scheme" also does not go haywire and end up in filling the coffers of the Local Politicians.
जवाब देंहटाएं'Yaar weekend te ik chutkala tere blog te milda si, is wari o wi nahin!Koi gal nahin is wari mahol nu main thoda halka kar denda haan."
Santa- What does buffallo produce during a earthquake?
Banta- MILKSHAKE
PJ hai na!Mainu pata si.
HAHAHAHAHAHA!
@ ए एस बिंद्रा,
जवाब देंहटाएंग्रेट...गोल्डी पापे, छा गए...पहली वार ही छक्का मार दिता...अर्थक्वेक...मिल्क शेक...छुट्टी दा मज़ा दुगना कर दिता...
जय हिंद...
सटीक, धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआभार
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मुम्बई ब्लोगर मीट दिनाक ०६/१२/२००९ साय ३:३० से
नेशनल पार्क बोरीवली मुम्बई के त्रिमुर्तीदिगम्बर जैन टेम्पल
मे होनॆ की सुचना विवेकजी रस्तोगी से प्राप्त हुई...
शुभकामानाऎ
वैसे मै यानी मुम्बई टाईगर इसी नैशनल पार्क मे विचरण करते है.
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जीवन विज्ञान विद्यार्थीयों में व्यवहारिक एवं अभिवृति परिवर्तन सूनिशचित करता है
ताउ के बारे मे अपने विचार कुछ इस तरह
ब्लाग चर्चा मुन्नाभाई सर्किट की..
खुश दीप जी यह दुख तो वो ही जाने जिन पर बीत रही होती है, भारत मै सब कुछ है बस यहां इमान दारी नही, पिसते रहो पिसते रहो, ओर जिन्दगी को तिल तिल करते जीते रहो, ऊपर से फ़िर अपने ही देश मै विदेशी, यह पंजाबी है, यह गुजराती है तो यह बिहारी है... तो उस से अच्छा तो.....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिखा आप ने
“..लेकिन इस मृगतृष्णा में जो हम खोते हैं, उसकी कीमत जब समझ आती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.’
जवाब देंहटाएंबातें है बातों का क्या.... जब पेट की आग जलाने लगती है, जब अपने भी मुंह मोड़ लेते है, जब माटी की सुगंध दुर्गंध लगती है, तब पलायन होता है भाई:(
खुशदीप भाई,
जवाब देंहटाएंउत्तर प्रदेश और बिहार से पलायन करने वाले मजदूरों की वास्तविक स्थिति ..सच में ही बहुत दयनीय है ....और आजादी के इतने वर्षों बाद भी यही हाल तो ...सिवा अफ़सोस के क्या हो सकत है ...जीवन का सबसे जरूरी आयाम .....शिक्षा का पूरे परिद्र्श्य से गायब होना ही सबसे बडी वजह है ...आपने सार्थक बात को सटीकता से कहा ....विशेष आभार ...पोस्ट के लिए भी और आपके स्नेह के लिए भी
खुशदीप जी,
जवाब देंहटाएंआपने बहुत ही समसायिक बात उठाई है ...भारत की एकता पर इस प्रांतवाद का प्रहार बहुत ही घातक होगा...
दरअसल शुरू से ही कुछ प्रान्तों को प्राथमिकता दी गयी है इसलिए प्रान्तों के विकास मैं बहुत अन्तर है...राजनेता दिल्ली में बैठ कर सोचते हैं की दिल्ली ही देश है....
कितनी बार ऐसा हुआ है की स्पेशल qualification है किसी की और उस qualification के लिए नौकरी के विकल्प बहुत कम हैं उस राज्य में , जाहिर सी बात है उसे वो जगह छोडनी ही पड़ेगी.....जब मैंने senior सॉफ्टवेर engineer का पोस्ट IGNOU में लिया था तो हम चार लोग थे और सभी दिल्ली से बाहर के....तब भी ये मसला उठा था की यहाँ से कोई क्यूँ नहीं लिया गया....तो बता दें की जितने भी application आये थे वहां के locals के वो हर मायने में हमसे कम थे...जिनका चुनाव हुआ उनमें से दो आँध्रप्रदेश से थे ....एक महाराष्ट्र और एक मैं बिहार से.....
खैर, भारत एक गणराज्य है और हर किसी को हर जगह सामान अधिकार मिलना ही चाहिये.....इस तरह का प्रांतवाद वहां सही लगता है जहाँ हर राज्य सामान रूप से विकसित हो....यहाँ तो ....
कहीं घन घना , कहीं मुट्ठी भर चना, कहीं वो भी मना ..वाला हिसाब है...
और हाँ...बिना स्लोग ओवर के बात कुछ जमती नहीं है....
सवाल है :
घड़ी और बीबी में क्या फर्क है.....???
जवाब :
घड़ी जब बिगडती है तो बंद हो जाती है
और बीवी जब बिगड़ती है तो शुरू हो जाती हैं :):)
आईला !!
जवाब देंहटाएंझा जी प्रकट हुए हैं ?
स्वागत है आपका झा जी.....
आशा है आपने अपने नेट वाली की जम के धुनाई की होगी...
केतना लोग का ऊपर का सांस ऊपर रह गया था....
खुशदीप जी तो बाल्टी भर भर के रोये हैं...
अब नज़र आ रही है मुस्की उनपर....ऐसा मत हड़काया कीजिये आप .....हाँ नहीं तो !!
अदा जी,
जवाब देंहटाएंपलायन जैसे गंभीर मुद्दे के साथ स्लॉग ओवर देना मुझे खुद नहीं जम रहा था...मैं पलायन पर ही सबके विचार जानना चाहा रहा था...कई बार मैंने देखा कि स्लॉग ओवर साथ हो तो वो मुद्दे पर ही हावी हो जाता है...वैसे मैं इसकी कसर टिप्पणियों के ज़रिए पूरी करने की कोशिश करता हूं....आज ये कोटा मैं ललित शर्मा जी की पोस्ट पर पूरी
कर आया था...
चलिए अब यहां थो़ड़ी बहुत कमी और पूरी कर देता हूं...
पत्नी और रेडियो में क्या फ़र्क होता है....
रेडियो को आप जब चाहे स्विच ऑफ कर सकते हैं और पत्नी को...
एक और किस्सा है तो पुराना लेकिन शायद आपने न सुना हो...
एक बच्चा पड़ोसी के घर पहुंच कर कहता है...
अंकल, अंकल इस्त्री दे दो...
अंकल...जा दूसरे कमरे में बैठी है, ले जा...
बच्चा...अंकल ये वाली इस्त्री नहीं, वो जो करंट मारती है...
अंकल...जा, हाथ लगाके देख...
जय हिंद...
अपने लिये तो हर कोई सपने देखता हैं लेकिन सबके लिये सपना देखना हर किसी के बस की बात नही है,ऐसा सिर्फ़ खुशदिल खुशदीप ही कर कर सकते हैं।सलाम करता हूं आपकी भावना को।
जवाब देंहटाएं