आज़ादी के बाद हमने क्या खोया और क्या पाया...आज इस पर विमर्श के लिए सिर्फ और सिर्फ कुछ सवाल रखूंगा...लेकिन उससे पहले आज हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट का उल्लेख...
अमेरिका से 45 वर्षीय वैज्ञानिक शिवा अय्यादुरै को भारत बुलाकर कांउसिंल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च में सलाहकार पद पर नियुक्त किया गया...लेकिन पांच महीने में ही शिवा की छुट्टी कर दी गई...कारण बताया गया है कि शिवा को नौकरी पर रखना बहुत महंगा साबित हो रहा था...शिवा के पास मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी से विज्ञान की चार डिग्रियां हैं...शिवा के नाम के साथ दुनिया का सबसे पहला ई-मेल सिस्टम विकसित करने वाली कंपनी को खड़ा करने का गौरव जुड़ा है...शिवा ने २० अक्टूबर को प्रधानमंत्री को लिखे अपने पत्र में कहा है कि मुझे सीएसआईआर नौकरी से इसलिए हटा रहा है क्योंकि मैंने अपनी पेशेवर ड्यूटी के दौरान नेतृ्त्व की खामियों के मुद्दे को निरूपित करने की कोशिश की थी...ऐसा करने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ भारतीय विज्ञान और अभिनवता की बेहतरी था...
शिवा का उदाहरण मात्र है कि विदेशों में बसे जो भारतवंशी देश लौटकर राष्ट्र के उत्थान में हाथ बंटाना चाहते हैं, उन्हें लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद के चलते कैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। आज देश में किसी विदेशी महारानी की नहीं, खुद अपने वोट से चुनी गई हुकूमत है...अब यहां हम किसको दोष दे...हमें अपनी खामियों का ठीकरा फोड़ने के लिेए किसी बाहर वाले के सिर की नहीं अपने खुद के सिर को ओखली में देने की ज़रूरत है....मुद्दा ऐसा है जितना चाहे लिख लो...फिर भी कम पड़ेगा...हां तो अब आता हूं मैं अपने सवालों पर...
1... क्या 62 साल बाद भी हमे टोटल आज़ादी मिल पाई है...(टोटल आज़ादी से मेरा तात्पर्य भूख, अशिक्षा, सांप्रदायिकता, भेदभाव, कुपोषण, भ्रष्टाचार...आदि आदि से छुटकारे से है)
2... गांधी ने कांग्रेस को आज़ादी के बाद खुद को सत्ता की राजनीति से न जुड़ते हुए सिर्फ समाज सेवा को अपना ध्येय बनाने की नसीहत दी थी...कांग्रेस ने क्यों नहीं सलाह मानी...नेहरू को प्रधानमंत्री बनने की इतनी ललक क्यों थी कि आंख मूंदकर लॉर्ड माउंटबेटन के बंटवारे के दस्तावेज को स्वीकार कर लिया...
3...आज़ादी के बाद आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ दस साल के लिए रखी गई थी...क्यों इसे हर दस साल बाद बढ़ाया जाता रहा...आज एक भी राजनीतिक दल वोटों के खेल के चलते आरक्षण का खुलकर विरोध करने की हिम्मत नहीं दिखा सकता...ये नजरिया समाज को एकसार कर रहा है या और भेदभाव पैदा कर रहा है....
4...नेहरू ने गांधी के ग्राम अर्थव्यवस्था के मॉडल को दरकिनार कर औद्योगिकरण की पश्चिमी लीक को अपनाया...इससे मानव-संसाधन का विकास हुआ या आबादी देश पर बोझ बन गई...दूसरी तरफ चीन ने हाथ के काम की ताकत को पहचाना और मानव-संसाधन को अपने विकास का औजार बना लिया...धीरे-धीरे चीन इसी मॉडल को विकसित करते हुए आज ऐसी स्थिति में पंहुच गया है कि अमेरिका जैसी आर्थिक महाशक्ति भी उससे खौफ खाने लगी है.
5...क्या एक कपिल सिब्बल के कहने से देश में हर बच्चे को शिक्षा पर समान अधिकार मिल जाएगा...गांव का बच्चा शहर के बच्चे को मिलने वाली शिक्षा का मुकाबला कर सकेगा... क्यों नहीं बनाया जा सका देश में शिक्षा को बच्चों का मूलभूत अधिकार...
सवाल कई हैं...लेकिन आज विमर्श के लिए इतना ही काफी है...अब इंतज़ार है आपके बेशकीमती विचारों का...
क्या आपको सच में एसा लगता है कि अपने देश में अब एक विदेशी महारानी का राज़ नहीं है ??
जवाब देंहटाएंकमाल है ??
जरा दोबारा सोचियेगा !!
जय हिंद !!
यहां की व्यवस्था पर तो यही कहना है कि-
जवाब देंहटाएंनज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होठों पे आ रही है जुबां और भी खराब...
दिल्ली आया था। रवि के साथ रात को बैठक हुई थी मुख्तसर सी। खुशदीप सहगल का चर्चा भी हुआ था, मुख्तसर सा।
यह सब लम्बा चले, इसके बारे में क्या खयाल है ?
वाजिब सवाल है :
जवाब देंहटाएंवे कह्ते है कि देखकर चलो
चलने से पहले मगर आँखे चुरा लिये
सबसे सरकारी तरीके से पुराने ढ़र्रे पर काम करवाना चाहते हैं, पर फ़िर भी तरक्की चाहते हैं, कैसे मुमकिन है।
जवाब देंहटाएंभाई जी मुद्दा तो आपने बहुत ही गंभीर उठा लिया है। वाजीब भी लगा। आपके क्या कहने , बड़े ही सरलता से आपने अपनी मारक बात रखी। बहुत-बहुत बधाई इस शानदार रचना के लिए।
जवाब देंहटाएंआजादी तो मिली ..मगर आजाद देश के सञ्चालन के लिए जो नीतियाँ और मानक स्थापित किये गए ...वे अंग्रेजी शासन से ही प्रभावित थे ...फूट डालो और राज्य करो जैसी विदेशी अनैतिक नीतियों का पालन कर अगर देश की बेहतरी की कामना की जाए तो ऐसी टोटल आजादी ही मिलेगी ...!!
जवाब देंहटाएंआपके प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करने के पूर्व मैं बताना चाहूँगा कि शिवा का यह प्रकरण कोई पहला प्रकरण नहीं है। ऐसा तो शुरू से ही चलते चला आ रहा है। भारतीय नोबल पुरस्कार विजेता श्री हरगोविंद खुराना ने सिर्फ इसीलिये विदेशी नागरिकता स्वीकार की क्योंकि, देश की सेवा करने की भावना से विदेश की अच्छी नौकरी के प्रस्ताव को अस्वीकार करके भारत आने के बावजूद भी, उन्हें भारत में नौकरी नहीं मिली। जिन पदों के वे उम्मीदवार थे उन पदों पर अयोग्य लोगों को चयनित कर लिया गया। अस्तु, कहने का तात्पर्य यह है कि आरम्भ से ही इस देश की बागडोर मौकापरस्त स्वार्थी लोगों के हाथ में रही है।
जवाब देंहटाएंप्रश्नः 1... क्या 62 साल बाद भी हमे टोटल आज़ादी मिल पाई है...(टोटल आज़ादी से मेरा तात्पर्य भूख, अशिक्षा, सांप्रदायिकता, भेदभाव, कुपोषण, भ्रष्टाचार...आदि आदि से छुटकारे से है)
उत्तरः इस प्रश्न के उत्तर में मेरा प्रश्न है कि क्या हमें वास्तव में आजादी मिली?
हम तो आज भी गुलाम ही हैं। पहले अंग्रेजों की गुलामी करते थे बाद में मौकापरस्त स्वार्थी राजनीतिबाजों की गुलामी करने लगे।
प्रश्नः 2... गांधी ने कांग्रेस को आज़ादी के बाद खुद को सत्ता की राजनीति से न जुड़ते हुए सिर्फ समाज सेवा को अपना ध्येय बनाने की नसीहत दी थी...कांग्रेस ने क्यों नहीं सलाह मानी...नेहरू को प्रधानमंत्री बनने की इतनी ललक क्यों थी कि आंख मूंदकर लॉर्ड माउंटबेटन के बंटवारे के दस्तावेज को स्वीकार कर लिया...
उत्तरः कांग्रेस को राजनीति से न जुड़ते हुए सिर्फ समाज सेवा को अपना ध्येय बनाने की नसीहत गांधी की नहीं थी। जहाँ तक मेरी जानकारी है कांग्रेस के निर्माण के बाद एक मीटिंग में सर्वसम्मति से यह तय हुआ था कि कांग्रेस का उद्देश्य मात्र देश को आजादी दिलाना है न कि आजादी के बाद शासन करना। गांधी ने उस उद्देश्य को मात्र मजबूरीवश दोहराया था। यदि मजबूरी न होती तो उन्होंने अपने स्वभाव के अनुसार जिद करके अपनी बात मनवा लिया होता जैसे कि पाकिस्तान को 65 करोड़ देने के लिये मनवा लिया था।
प्रश्नः 3...आज़ादी के बाद आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ दस साल के लिए रखी गई थी...क्यों इसे हर दस साल बाद बढ़ाया जाता रहा...आज एक भी राजनीतिक दल वोटों के खेल के चलते आरक्षण का खुलकर विरोध करने की हिम्मत नहीं दिखा सकता...ये नजरिया समाज को एकसार कर रहा है या और भेदभाव पैदा कर रहा है....
उत्तरः आरक्षण की व्यवस्था रखी ही क्यों गई थी? योग्य व्यक्तियों की योग्यता को नकार देना और आरक्षण की व्यवस्था करके अयोग्य लोगों को योग्य से आगे बढ़ाना कहाँ तक उचित है?
किसी को आगे बढ़ाने के लिये आरक्षण ही एकमात्र उपाय नहीं है, खोजें तो बहुत सारे उपाय मिल जायेंगे किन्तु उन उपायों से वोट बैंक नहीं बन सकता।
प्रश्नः 4...नेहरू ने गांधी के ग्राम अर्थव्यवस्था के मॉडल को दरकिनार कर औद्योगिकरण की पश्चिमी लीक को अपनाया...इससे मानव-संसाधन का विकास हुआ या आबादी देश पर बोझ बन गई...दूसरी तरफ चीन ने हाथ के काम की ताकत को पहचाना और मानव-संसाधन को अपने विकास का औजार बना लिया...धीरे-धीरे चीन इसी मॉडल को विकसित करते हुए आज ऐसी स्थिति में पंहुच गया है कि अमेरिका जैसी आर्थिक महाशक्ति भी उससे खौफ खाने लगी है.
उत्तरः चाहे ग्राम अर्थव्यस्था हो या औद्योगिकीकरण, देश के विकास के लिये दोनों ही आवश्यक हैं। किन्तु गांधी, नेहरू और कांग्रेस के पास सिर्फ बातें ही बातें थीं जिन पर आपस में मतभेद था। कोई ठोस योजना और उसे निष्ठापूर्वक पूर्ण करने की लगन कभी भी नहीं रही।
प्रश्नः 5...क्या एक कपिल सिब्बल के कहने से देश में हर बच्चे को शिक्षा पर समान अधिकार मिल जाएगा...गांव का बच्चा शहर के बच्चे को मिलने वाली शिक्षा का मुकाबला कर सकेगा... क्यों नहीं बनाया जा सका देश में शिक्षा को बच्चों का मूलभूत अधिकार...
उत्तरः शिक्षानीति के विषय में मैं आपके कल के पोस्ट की टिप्पणी में अपने विचार प्रस्तु कर चुका हूँ।
राष्ट्र के उत्थान में हाथ बंटाना चाहते हैं, उन्हें लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद के चलते कैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहना है आपका .. वैसे 62 वर्षों में हम ढाई कोस नहीं चले हैं .. 1947 के बाद के शुरूआती 10 या 15 वर्षों में ही पांच कोस चल चुके थे .. बाद के लगभग 45 वर्षों में ढाई कोस पीछे आए हैं !!
कुछ नही कहना ही ज्यादा अच्छा लग रहा है।
जवाब देंहटाएंआज़ादी तो नहीं मिली है है जी... जहाँ तक मैं जानता हूँ कुछ ऐसी फसलें भी हैं जो उपनिवेश रह चुके देश नहीं उपजा सकते... पिछले कुछ दिन बेहद निराशा में जा रहे हैं... ऐसी ऐसी विचित्र चीजें देखि और महसूस की की निस्संदेह आजाद नहीं हैं हम... हांकें जा रहे हैं...
जवाब देंहटाएंSach kaha Khushdeep bhai...
जवाब देंहटाएंJai Hind
देश बर्बाद हो यहां की प्रजा जाए चुल्हे मे-इनको कोई मतलब नही, ये सारे कोड़ा के राजनैतिक पुर्वज है, अगर कहा जाए तो पहले गोरे अंग्रेजों ने देश को लूटा अब ये काम काले अंग्रेज कर के जेन्टलमेन/मेम बन रहे हैं। बढिया प्रश्न उटाए-जय हो, आभार
जवाब देंहटाएंकहने को तो इतना कुछ है कि हमारी कलम ही न रुके....
जवाब देंहटाएंकभी किसी को मुकम्मिल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कही आसमान नहीं मिलता
जिन्हें हम विकसित देश कहते हैं...जो धनी हैं वहां भी ८ में से १ बच्चा भूखा है...
वहां भी कालों की दुर्दशा देखने लायक है, भूख, भेद-भावः, अशिक्षा, साम्प्रदायिकता.....क्या नहीं है.....उनके साथ ?
लेकिन अब कौन बहस करे.....देते रहिये देश को, नेताओं को गाली....मेरे बाप का क्या जाता है....
गाली देने से पहले :
अपने घर का बिजली का मीटर ठीक से चलने दीजिये,
खुद कतार में खड़े होकर प्रतीक्षा करके सब काम कीजिये......
फ़ोन वाले से सेटिंग मत कीजिये......
के admission के लिए घूस या पता नहीं क्या मनी कहा जाता है मत दीजिये.....
टाइम से टैक्स और सही टैक्स दीजिये....
सेल्स टैक्स दीजिये.....बाकायदा रसीद लेकर....जो भी खरीदें
गाड़ी के सब पेपर दुरुस्त रखिये.....
एक लाइसेंस पर पोर खानदान गाडी न चलावे ..
इंश्योरेंस .....
रोड टैक्स ..
मकान टैक्स....
एक हज़ार चीज़ें हैं ......कहें तो हम पूरी लिस्ट दे सकते हैं ...क्या-क्या करना चाहिए.....
हमें गलत कामों की इतनी आदत है की क्या सही है क्या गलत है उसकी तक पहचान नहीं है....
गलत काम भी हम उसी अधिकार से करते हैं...और पता भी नहीं चलता की गलती हो गयी....
कर पायेंगे आप लोग ?? इतना सब कुछ नहीं कर पायेंगे.....आसन नहीं है.....बस ये सब पोस्ट पर ही ठीक लगता है....जब ज़िन्दगी को इनकी आदत हो गयी है तो कैसे छूटेगी ये आदत......
अगर देश को बदलना है तो इसी पोस्ट पर आप सभी इसी वक्त शपथ लीजिये की आपके जीवन का हर काम वैधानिक तरीके से आप करेंगे.....चाहे कुछ भी हो जाए......तभी देश बदलेगा....वर्ना......खुश रहिये...!!!
Deri se aane ke liye maafi chahta hoon........ deri se aane ke kayi nuksaan hai..........
जवाब देंहटाएंbahut kuch likhna chahta tha....... par der ho gayi........
Sorry.......... extrmely sorry...........
JAI HIND,
JAI HINDI,
JAI BHARAT....
इन तमाम खामियों के लिए हमारे नेता जिम्मेदार हैं और इनको चनने के लिए हम ज़िम्मेदार हैं, तो...........:)
जवाब देंहटाएंखुशदीप जी आप बधाई के पात्र हैं इस लेख को लिखने के लिये। मन की बात लिख दी खास तौर पर सवाल नम्बर 3।
जवाब देंहटाएंजी.के. अवधिया के उत्तर काफ़ी हद तक अपने से लगे और उनसे सहमत।
@ अदा जी,
कौन नहीं करना चाह्ता वैधानिक तरीके से काम? क्या आप को लगता है यह सब कुछ खुशी से करते हैं लोग? नहीं। इस सब के लिये जिम्मेदार हैं लोग लेकिन कुछ हद तक ही, अधिकांषतः इस सब के लिये जिम्मेदार हैं नेता और उससे भी ज्यादा वह प्रशासनिक अधिकारी जो नेता और सरकार को भी अपने हिसाब से हाकं लेते हैं। वह लोग / नेता जिन्होंने आजादी की लढ़ाई लढ़ने की कीमत वसूली देश पर राज कर के, अपने फ़ायदे के लिये और अपनी गद्दी बचाये रखने के लिये देश की जनता को गुमराह किया शुरू से ही। देश पर राज करने के लिये परिवारवाद को बढ़ावा दिया और लोकतंत्र के नाम पर रजवाडा बना दिया।
बाकी आप ही के शब्दों में:
"कहने को तो इतना कुछ है कि हमारी कलम ही न रुके...."
वैसे यह मानता हूं कि पानी के बहाव के साथ तो सब तैर लेते हैं, मजा तो तब है जब बहाव के विपरीत दिशा मैं सफ़लता से तैरा जाये, इसलिये आप की उठाई बातों का पालन करना ही चाहिये देश हित मैं चाहे परिस्थितियां कितनी ही प्रतिकूल क्यों न हों। दिल में एक ही ज्जबा होना चाहिये हर भारतीय के कि "हम होंगे कामयाब एक दिन"
इस लिये ही कहते हैं मेरा भारत महान।
जय हिंद।
खुशदीप जी ! कई दिनों से आपका उत्प्रेरक सवाल पड़ते हुए हैरान हो रहा हूँ ,आपके भीतर जो आग है मुझे लगता हैं कि अब नहीं बुझेगी ,जबतक सही आजादी नहीं मिल जाती तब तक आग जलाते रहिये ,मैं एक बात बहुत ही स्पष्ट लिखना चाहता हूँ कि गाँधी जी ने देश को रसातल में डाल कर चले गए ,काश इस देश में गाँधी न होते तो आज यह दुर्गति न होता, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जरुर इस देश के संकल्पवान सेवक होते,एक नालायक को देश की प्रधान बनाकर थोपने वाले गाँधी जी को इतिहास कभी माफ नहीं करेगा १
जवाब देंहटाएंसही आजादी तो नेताजी दिलाते , आजादी भीख मांगने से नहीं मिलती ,उसके लिए कीमत चुकानी होती हैं ,रात १२ बजे सत्ता का हस्तांतरण को आजादी कहकर आज भी प्रचारित किया जा रहा हैं --- सत्तालोलुप नेहरु ने स्वार्थ के कारण देश का बटवारा स्वीकार किया था ,गांधीजी भी इसलिए कम दोषी नहीं हैं मुह में कुछ ओर कार्य में कुछ की ताशिर गांधीजी से सीखना चाहिए --अनेक प्रमाण मेरे पास हैं 1
जाति और आरक्षण की बातें आपने लिखी हैं ,जब तक उच्च नीच की भावना इस देश से ख़त्म नहीं हो जाती हैं ,तब तक आरक्षण भी ख़त्म नहीं होगी ,क्या ब्राह्मण को किराना दुकान चलाने पर उसे वैश्य कहना मंजूर हो सकता हैं ? यदि नहीं तो आरक्षण भी ख़त्म नहीं होगा 1
शिक्षा को मुलभुत अधिकार के रूप में मान्यता दिया गया हैं ,प्रश्न मान्यता से नहीं ,व्यवहार से हैं ,शिक्षा में एकरूपता होना आवश्यक हैं ,चाहे गरीब हो या अमीर सभी को सामान शिक्षा द्वारा आगे बढ़ने का अधिकार हैं 1
जी.के.अवधिया जी की बातों से सहमत...अदा जी भी सही कह रही हैँ..हमें..सबसे पहले खुद को ही सुधारना होगा..
जवाब देंहटाएंअगर हम किसी लाल बत्ती पे रुक के खड़े हुए हैँ तो जो उसे जम्प कर के आगे निकल जाते हैँ..उन्हें हम कोसने लगते हैँ लेकिन कई बार जब हम खुद लाल बत्ती जम्प कर के आगे निकल जाते हैँ कि...'ये सब तो चलता है'...
इसी..'सब चलता है' वाली सोच ने ही हम लोगों को बरबाद कर के रखा हुआ है...
हम करें तो ठीक..दूसरा करे तो गुनाह...
देख मेरे मौला..हमें है देश की परवाह
जिन्दा लोगों की तलाश! मर्जी आपकी, आग्रह हमारा!!
जवाब देंहटाएंकाले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
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उक्त शीर्षक पढकर अटपटा जरूर लग रहा होगा, लेकिन सच में इस देश को कुछ जिन्दा लोगों की तलाश है। सागर की तलाश में हम सिर्फ सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है।
आग्रह है कि बूंद से सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो निश्चय ही विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।
हम ऐसे कुछ जिन्दा लोगों की तलाश में हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो, लेकिन इस जज्बे की आग से अपने आपको जलने से बचाने की समझ भी हो, क्योंकि जोश में भगत सिंह ने यही नासमझी की थी। जिसका दुःख आने वाली पीढियों को सदैव सताता रहेगा। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।
इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।
अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।
अतः हमें समझना होगा कि आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-ष्भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थानष् (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-
सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?
जो भी व्यक्ति स्वेच्छा से इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय अध्यक्ष
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
7, तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666
E-mail : dr.purushottammeena@yahoo.in
बेहतर होगा कि पहले संविधान को पढलें!
जवाब देंहटाएं==============================
खुशदीप सहगल जी एवं जी. के. अवधिया जी आपने आरक्षण व्यवस्था पर पूरी तरह से असंवैधानिक बातें लिखी हैं, जिससे दूसरे पाठक दिग्भ्रमित होते हैं। वैसे अधिकतर लोग पहले से ही भ्रमित हैं। आप उनके भ्रम को तोडने के बजाय एक झूठ को ताकत के साथ स्थापित कर रहे हैं। जिसकी आप जैसे विद्वानों से अपेक्षा नहीं की जा सकती। कृपया संविधान को पढें और आरक्षण के इतिहास को समझें, तब टिप्पणी लिखें, तो संविधान के जानकार पाठकों को अच्छा लगेगा।
पाँच बातें मैं आपकी जानकारी हेतु बतला दूँ :-
एक-मूल संविधान में अजा एवं अजजा के लिये नौकरियों एवं शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं थी।
दो-संविधान में अजा एवं अजजा के लिये नौकरियों एवं शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की स्थायी व्यवस्था है। जिसे आज तक कभी भी बढाया नहीं गया है।
तीन-आरक्षण संविधान में अजा एवं अजजातियों के मूल अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है। और
चार-सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थाओं एवं विधान मण्डलों में अजा एवं अजजातियों को वर्तमान में जो आरक्षण व्यवस्था उपलब्ध है, वह डॉ. अम्बेडकर या अन्य किसी भी दलित-आदिवासी ने कभी नहीं माँगा था, बल्कि सैपरेट इलैक्ट्रोल के अधिकार को छीनकर मोहन दास कर्मचन्द गाँधी नामक चालाक व्यक्ति द्वारा जबरन अजा एवं अजजा पर आरक्षण थोपा गया है।
पाँच-यदि गाँधी द्वारा धोखे से छीना गया एवं आजादी की शर्त के रूप में स्वीकारा गया सैपरेट इलेक्ट्रोल का अधिकार अजा एवं अजजातियों को डॉ. अम्बेडकर के साथ लन्दन में हुए समझौते के अनुसार वापस मिले तो आरक्षण को तत्काल समाप्त किया जा सकता है। कृपया इस मामले में अजा एवं अजजातियों का सहयोग करें। आपकी समस्या स्वतः ही समाप्त हो जायेगी।
अवधियाजी ने लिखा है कि-
किसी को आगे बढाने के लिये आरक्षण ही एकमात्र उपाय नहीं है, खोजें तो बहुत सारे उपाय मिल जायेंगे।
इस बारे में भी दो बातें-
एक-किसी को से आपका अभिप्राय अजा एवं अजजा वर्ग ही है। भाई इनसे इतनी घृणा मत करो कि आपको लिखना पडे-किसी को आगे बढाने के लिये-ये भी आपके ही देश के मूल निवासी हैं। बल्कि वास्तविक मूल निवासी हैं।
दो-संविधान पढेंगे तो पता चलेगा कि नौकरियों एवं शिक्षण संस्थाओं में दिया गया आरक्षण अजा एवं अजजातियों को आगे बढाने के लिये नहीं दिया गया है। लेकिन यदि आपकी बात मान भी लें, जो सच नहीं है तो अवधिया जी बतलाने का कष्ट करें कि किस प्रकार से आगे बढाया जा सकता है। बहुत सारे न सही एक-दो उपाय तो बतला दें। साथ में उन करोडों विपन्न एवं अभावग्रस्त सवर्णों को आगे बढाने के लिये भी कुछ बतला देना, जिनके हकों को ६० वर्ष से उन्हीं के मुठ्ठीभर सक्षम भाई खाते आ रहे हैं और विपन्न सवर्ण की दशा बद से बदतर हो चुकी है। जिनके लिये कोई भी नहीं सोचता!
श्री अवधिया जी एवं श्री सहगलजी और भी बहुत सी बातें हैं, बहस को आगे बढाईये। लेकिन बेहतर होगा कि पहले संविधान को पढलें और यदि आपको अपनी भूल या गलती (आप जो भी समझें) का अहसास हो तो इस ब्लॉग पर समस्त पाठकों एवं उन लोगों से क्षमा याचना करें, जिन्हें धुत्कारने के लिये असंवैधानिक तथ्यों को संवैधानिक एवं सच बतलाकर लिखा गया है। क्षमा करें, क्या करूँ सच हमेशा ही कडवा होता है।
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