रिटेल सेक्टर में एफडीआई (विदेशी प्रत्यक्ष निवेश) पर लोकसभा की मंज़ूरी मिलने से सत्ता पक्ष फूले नहीं समा रहा....वहीं विपक्ष का कहना है कि आंकड़ों में बेशक उनकी हार हो गई लेकिन नैतिक तौर पर उनकी जीत हुई...इस चक्कर में दोनों पक्षों के सांसदों को पूरे देश के सामने टेलीविज़न पर गला साफ़ करने का मौका ज़रूर मिल गया...वालमार्ट देश में आया तो क्या क्या होगा...सरकारी पक्ष का तर्क था कि किसानों से सीधे खरीद होगी तो उन्हें फायदा मिलेगा...उपभोक्ताओं को भी सस्ता सामान मिलेगा...मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी का तर्क था कि इससे छोटे दुकानदारों का धंधा चौपट हो जाएगा...सबने बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी की लेकिन इतनी अहम बहस के लिए बिना किसी खास तैयारी के...काश ये लोग बहस से पहले पी. साईनाथ का ये लेख ही पढ़ लेते...ये लेख अमेरिका के एक किसान पर आधारित है...अब भारत में जो ये तर्क दे रहे हैं कि छोटे किसानों को विदेशी स्टोरों के आने से फायदा होगा, उनकी आंखें इस लेख को पढ़ने के बाद ज़रूर खुल जानी चाहिए...इस लेख के लिए मेरी ओर से साईनाथ साहब को ज़ोरदार सैल्यूट....
क्रिस पावेलस्की |
पावेलस्की का कहना है कि आकार रिटेल चेन स्टोर तय करते हैं... "हर चीज़" उनके फ़रमान के अनुसार होती है... "हर चीज़" में कीमतें भी शामिल हैं...वालमार्ट, शॉप राइट और दूसरे चेन स्टोर पावेलस्की जैसे उत्पादित प्याजों को 1.49 डॉलर से लेकर 1.89 डॉलर प्रति पाउंड (करीब 453 ग्राम) में बेचते हैं...लेकिन पावेलस्की के हिस्से में एक पाउंड प्याज के लिए सिर्फ 17 सेंट (1 डॉलर=100 सेंट) ही आते हैं...ये स्थिति भी पिछले दो साल से ही बेहतर हुई है...1983 से 2010 के बीच पावेलस्की को एक पाउंड प्याज के सिर्फ 12 सेंट ही मिलते थे।
पावेलस्की का कहना है कि खाद, कीटनाशक समेत खेती की हर तरह की लागत बढ़ी है...अगर कुछ नहीं बढ़ा है तो वो हमें मिलने वाली कीमतें...हमें 50 पाउंड के बोरे के करीब छह डॉलर ही मिलते हैं...हां इसी दौरान प्याज की रिटेल कीमतों में ज़रूर इज़ाफ़ा हुआ है...फिर पावेलस्की ने सवाल किया कि क्या कोई खाना पकाता है...हिचकते हुए कुछ हाथ ऊपर खड़े हुए...पावेलस्की ने एक प्याज हाथ में लेकर कहा कि वो इतना बड़ा ही प्याज चाहते हैं, क्योंकि वो जानते हैं कि आप खाना बनाते वक्त इसका आधा हिस्सा ही इस्तेमाल करेंगे...और बचा आधा हिस्सा आप फेंक दोगे...जितना ज़्यादा आप बर्बाद करोगे, उतना ही ज़्यादा आप खरीदोगे...स्टोर ये अच्छी तरह जानते हैं...इसलिए यहां बर्बादी रणनीति है, बाइ-प्रोडक्ट नहीं...
पावेलस्की के मुताबिक पीले प्याज के लिए सामान्यतया दो इंच या उससे थोड़ा बड़ा ही आकार चलता है...जबकि तीन दशक पहले एक इंच के आसपास ही मानक आकार माना जाता था...पावेलस्की के अनुसार छोटे किसान वालमार्ट के साथ मोल-भाव नहीं कर सकते...इसी वजह से उनके खेतों के पास छोटे प्याज़ों के पहाड़ सड़ते मिल जाते हैं...
पावेलस्की के फार्म को छोटा फार्म माना जाता है...अमेरिकी कृषि विभाग के मुताबिक जिन फार्म की सालाना आय ढाई लाख डॉलर से कम हैं, उन्हें छोटा ही माना जाता है...ये बात अलग है कि अमेरिका के कुल फार्म में 91 फीसदी हिस्सेदारी इन छोटे फार्म की ही है...इनमें से भी 60 फीसदी ऐसे फार्म हैं जिनकी सालाना आय दस हज़ार डॉलर से कम है...पावेलस्की, उनके पिता और उनके भाई संयुक्त रूप से 100 एकड़ में खेती करते हैं...इस ज़मीन में से 60 फीसदी के ये मालिक हैं और 40 फीसदी ज़मीन किराये की है...
पावेलस्की का कहना है कि सिर्फ चेनस्टोर ही छोटे किसानों के हितों के खिलाफ काम नहीं करते...बाढ़ और आइरीन तूफ़ान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की भी मार उन्हें सहनी पड़ती है...पावेलस्की को 2009 में फसल नष्ट होने से एक लाख पंद्रह हज़ार डॉलर का नुकसान हुआ था...लेकिन उन्हें फसल बीमे से सिर्फ छह हज़ार डॉलर की भरपाई हुई...जबकि बीमे के प्रीमियम पर ही उनके दस हज़ार डॉलर जेब से खर्च हुए थे...
पूरा कृषिगत ढ़ांचा और नीतियां पिछले कुछ दशकों में छोटे किसानों के खिलाफ होती गई हैं....पावेलस्की खुद कम्युनिकेशन्स स्टडीज़ में पोस्ट ग्रेजुएट हैं...उनके पड़दादा ने जब अमेरिका में पहली बार कदम रखा था तो उनकी जेब में सिर्फ पांच डॉलर थे...आज उऩका पडपोता तीन लाख बीस हज़ार डॉलर का कर्ज़दार है...अमेरिकी कृषि का पूरा ढ़ाचा छोटे किसानों की जगह कारपोरेट सेक्टर के हित साधने वाला है...
पावेलस्की की पत्नी एक स्कूल में असिस्टेंट लाइब्रेरियन हैं...वो इसलिए ये नौकरी करती हैं कि परिवार को आर्थिक सहारा मिलता रहे...पावेलस्की के मुताबिक पिछले साल उन्होंने पचास एकड़ के फार्म पर कृषि लागत पर एक लाख साठ हज़़ार डॉलर खर्च किए और बदले में उन्हें दो लाख डॉलर मिले....यानी चालीस हज़ार डॉलर की कमाई पर उन्हें टैक्स देना पड़ा...इससे दोबारा निवेश के लिए उनके पास बहुत कम बचा...
एसोसिएटेड प्रेस की 2001 में कराई एक जांच से सामने आया था कि सार्वजनिक पैसा सबसे ज़्यादा कहां जाता है...जबकि तब हालात काफ़ी अलग थे, लेकिन तब भी कारपोरेट जगत और बहुत अमीर कंपनियों की पकड़ बहुत मज़बूत थी...एसोसिएटेड प्रेस ने अमेरिकी कृषि विभाग के दो करोड बीस लाख चेकों की जांच की तो उनमें से 63 फीसदी रकम इस क्षेत्र के सिर्फ दस बड़े खिलाड़यों को ही मिली...डेविड रॉकफेलर, टेड टर्नर, स्कॉटी पिपेन जैसे धनकुबेरों को भी उनके फार्म्स के लिए सब्सिडी मिली... पी. साईनाथ
क्या यही होने जा रहा है अब भारत में भी....
अरे क्या करियेगा कुछ कह कर, और क्या होगा पढकर, बहस कर के??.सब तो फिक्स है न.किसी को पड़ी है क्या देश या जनता की?.
जवाब देंहटाएंsahi kah rahe hain aap .शोध -माननीय कुलाधिपति जी पहले अवलोकन तो किया होता .
जवाब देंहटाएंबड़ी बवाल स्थिति है।
जवाब देंहटाएंहम भी बिल्कुल पक्ष में नहीं है, परंतु वैश्वीकरण के दौर में रिश्वत कब कैसे और कहाँ आ जा रही है, यह पता ही नहीं चल रहा है, भले ही बड़ी कंपनियाँ अपनी जन्मभूमि में बंद हो रही हों, पर वे अपने लिये दूसरे बाजार ढूँढ़कर अपनी दुकाने सजाने में लगे हैं, और सरकार पक्ष लेकर दुकानें खुलवाने को तैयार हो जाती हैं। जब यहाँ बैंगलोर में हम २५ रूपये किलो आलू खरीद रहे हैं (वह भी बहुत अच्छा नहीं) , कल राजस्थान में बात हो रही थी पता चला कि अच्छी क्वालिटी का आलू मात्र ७-९ रूपये किलो में उपलब्ध है।
जवाब देंहटाएंहमें कुछ तो दिखायी देना चाहिये..
जवाब देंहटाएंgazab kee khoji rapat pesh kar dee aapne khushdeep bhai
जवाब देंहटाएंपी. साईनाथ ने सही आयना दिखाया है| पर हमारे नेताओं को तो जनता, किसानों के बजाय अपने स्विस बैंक खाते भरने में ज्यादा दिलचस्पी है|
जवाब देंहटाएंआज जब बड़े स्टोर नहीं है तब भी किसान के उत्पाद का मूल्य बाजार में बैठे आढ़तिए तय करते है और किसान को सरेआम लुटते है तो ये विदेशी क्या गुल खिलाएंगे आसानी से समझा जा सकता है|
आज छोटे किसान के लिए कृषि करना फायदेमंद नहीं रह गया सिर्फ मज़बूरी में ही खेती की जा रही है क्योंकि किसान के लिए दूसरा कोई रोजगार भी तो नहीं|
केंद्र सरकार की वोट बैंक मजबूत करने वाली योजना मनरेगा ने भी कृषि का पूरा बेड़ा गर्क किया है| खेतों में कृषि मजदुर है ही नहीं|इस कारण जरुरत पर अकेला किसान पुरे कार्य समय पर कर ही नहीं पाता|
प्याज आज भी बाजार में दस रूपये से अधिक बिकता है पर किसान को उसकी लागत भी नहीं मिलती|
जवाब देंहटाएंयदि किसान अपने उत्पाद की लागत का हिसाब रखने लगे तो शायद वह कृषि करने की हिम्मत जुटा पाये|
प्याज की लागत और किसान को मिलने वाले बाजार मूल्य का अध्ययन करने के बाद मेरे किसान पिता ने प्याज की फसल करना ही अपने खेत में बंद कर दिया|
ऊपर टिप्पणी में --"शायद वह कृषि करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये|"@ पढ़ें
जवाब देंहटाएंham haaare huye hai :-(
जवाब देंहटाएंये सच्चाई सता के नशे में चूर हमारे सताधिशों को दिखाई दे तब हो ना !!
जवाब देंहटाएंकिसान तो बेचारा हमेशा पिसता आया है.
जवाब देंहटाएंकल का यह फैसला देकर लगा था कि अब वो दिन शायद फिर से दूर नहीं, जब एक बार फिर विदेशी व्यवारियों की वजह से गुलामी की नौबत आजाएगी।
जवाब देंहटाएंआपका स्वागत है।
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