बंटवारे का दर्द जिस पीढ़ी ने सहा, और जो उस वक्त पूरे होश-ओ-हवास में थे,उनमें से ज़्यादातर लोग दुनिया को अलविदा कह चुके हैं...1947 में भी जो पैदा हुए थे, वो आज 65 साल के हो चुके हैं...देश की आज़ादी के साथ इस बंटवारे ने क्या-क्या छीना, इसकी कसक वही शिद्दत के साथ बयां कर सकते हैं, जिन्होंने इसे जिया, महसूस किया...इस दर्द की एक बानगी देखनी है तो पीयूष मिश्रा का एक गीत सुनिए...गुलाल फेम पीयूष मिश्रा के इस गीत में जावेद नाम के एक शख्स की चिट्ठी के ज़रिए व्यथा को उकेरा गया है...अपनी माशूका हुस्ना से बिछुड़ गया जावेद इन अल्फाज़ों में हर उस बात का ज़िक्र कर रहा है जो सब पीछे छूट चुकी है...
लाहौर के उस पहले जिले के,
दो परगना में पहुंचे,
रेशम गली के दूजे कूचे के,
चौथे मकां में पहुंचे,
कहते हैं जिसको दूजा मुल्क,
उस पाकिस्तान में पहुंचे,
लिखता हूं खत मैं हिंदुस्तां से
पहलु-ए-हुस्ना में पहुंचे,
ओ हुस्ना…
मैं तो हूं बैठा,
ओ हुस्ना मेरी, यादों पुरानी में खोया,
पल पल को गिनता
पल पल को चुनता
बीती कहानी में खोया
पत्ते जब झड़ते हिंदुस्तां में
यादें तुम्हारी ये बोलें
होता उजाला जब हिंदुस्तां में
बातें तुम्हारी ये बोलें
ओ हुस्ना मेरी ये तो बता दो
होता है ऐसा क्या उस गुलिस्तां में
रहती हो नन्ही कबूतर सी गुम तुम जहां
ओ हुस्ना…
पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्तान में वैसे ही
जैसे झड़ते यहां
ओ हुस्ना…
होता उजाला क्या वैसा ही है
जैसा होता है हिंदुस्तां में…हां
ओ हुस्ना…
वो हीरों के रांझे, के नगमे मुझको
हर पल आ आके सताएं
वो बुल्ले शाह की तकरीरों के
झीने झीने से साये
वो ईद की ईदी, लंबी नमाजें, सेवइयों की झालर
वो दीवाली के दिये, संग में बैसाखी के बादल
होली की वो लकड़ी जिसमें
संग संग आंच लगायी
लोहड़ी का वो धुंआ जिसमें
धड़कन है सुलगायी
ओ हुस्ना मेरी
ये तो बता दो
लोहड़ी का धुआं क्या अब भी निकलता है
जैसे निकलता था, उस दौर में हां… वहां
ओ हुस्ना
हीरों के रांझों के नगमे
क्या अब भी सुने जाते हैं वहां
ओ हुस्ना
रोता है रातों में पाकिस्तान क्या वैसे ही
जैसे हिंदुस्तान
ओ हुस्ना
पत्ते क्या झड़ते हैं क्या वैसे ही
जैसे कि झड़ते यहां
होता उजाला क्या वैसे ही
जैसा होता ही हिंदुस्तां में… हां
ओ हुस्ना…
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गायक और गीतकार....पीयूष मिश्रा
संगीतकार....हितेश सोनिक
एलबम....कोक स्टूडियो सीज़न फ़ाइव
touched...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय ||
रोता रातों में रहा, हरदम पाकिस्तान |
बँटवारे की विभीषिका, आज हो रहा भान |
आज हो रहा भान, बघारे दिन में शेखी |
कहीं बुरे दिन और, यहाँ की पब्लिक देखी |
भाईचारा अमन, धर्म समभाव विलोता |
निश्चय ऐसा देश, अल्पजीवी हो रोता ||
bahut achchha likha hai ji,
जवाब देंहटाएंमार्मिक !
जवाब देंहटाएंजब धरती चीरी जाती है तो सदियाँ रोती हैं, विभक्त हुयी नदियाँ रोती हैं।
जवाब देंहटाएंजिसने भुगता है , वही समझ सकता हो इस पीड़ा को.
जवाब देंहटाएंलेकिन बार बार कुरेदने से जख्म हरे होते हैं.
वाह.....
जवाब देंहटाएंजिस तन लागे वो मन जाने ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआखिर क्यों नहीं पहुँचती हमारी पोस्ट गूगल सर्च तक?
dil ko chhuti hui....!
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