आपने अपने हिंदी ब्लॉग को एलीट, अभिजात्य, कुलीन, संभ्रात, विद्वत ब्लॉगरों से मान्यता दिलानी है, तो आपको अपने लेखन में आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे...सबसे पहले आपको लेखन की इस तरह की शैली को तजना होगा जो पहली बार पढ़ने मॆं ही किसी की समझ में आ जाए...भला इस तरह का लेखन भी कोई लेखन हुआ...जब तक कुछ शब्दों का अर्थ समझने के लिए शब्दकोष, दिग्दर्शिकाओं को कंसल्ट करने की ज़रूरत न पड़े तो बेकार है आपका लेखन....
आपके ब्लॉग का नाम भी 'किंकर्तव्यविमूढ़' या 'दैदीप्यमान' जैसे ही क्लिष्ट से क्लिष्ट हिंदी शब्द पर होना चाहिए...पाठकों को नाम समझने में कसरत करने के साथ इसे बोलने में भी उनकी जीह्वा मुड़-तुड़ न जाए तो व्यर्थ है आपका रचनात्मक कौशल...
पत्रकारिता में एक बात पर बहुत ज़ोर दिया जाता है कि आपकी रिपोर्ट धाराप्रवाह होने के साथ आम बोलचाल की भाषा में होनी चाहिए...खास तौर पर टीवी रिपोर्टिंग ...टीवी की रिपोर्ट के दर्शकों में विश्वविद्यालय का कोई प्रोफेसर भी हो सकता है और कम पढ़ा-लिखा कोई रिक्शा-चालक भी...अब ये पत्रकार के शब्दों का कौशल होगा कि प्रोफेसर और रिक्शा-चालक समान रूप से उसकी रिपोर्ट को आत्मसात कर सकें...प्रोफेसर तो आपके क्लिष्ट शब्दों को भी समझ लेगा लेकिन बेचारे रिक्शा-चालक के साथ ये अन्याय होगा...लेकिन ब्लॉगिॆग का परिवेश बिल्कुल दूसरा है...यहां आपके विद्वत और गंभीर लेखन के ठप्पे के लिए सुगम सुग्राह्य शैली में लिखना घातक सिद्ध होगा...ये कोई मायने नहीं रखता कि स्टैटकाउंटर पर आपके ब्लॉग को पढ़ने वालों का आंकड़ा कितना है...आपकी अलैक्सा रैंकिंग कितनी है...ये मानकर चला जाएगा कि ये सारी पठनीयता ऋणात्मक है, धनात्मक नहीं...
अब आपको 'सूर्यमाल का सप्तक' बनना है तो आपको कभी कभी इस तरह की कलमतोड़ शायरी भी करनी होगी...
बड़ी चाहत है कि फ़ुरसत के साथ
बैठें,
लेकिन कमबख़्त फ़ुरसत को ही फ़ुरसत कहां...
विद्वतता के सागर में आपको हलचल मनानी है तो कभी किसी पोस्ट में आपको बीथोविन की सिम्फनी की झंकार छेड़नी होगी...कभी महान ओपेराकार मोज़ार्ट के इडोमोनिया की याद दिलानी होगी...कभी अर्नेस्तो "चे" गेवारा की क्यूबा की क्रांति के ज़िक्र के साथ समाजवाद का अलख जगाना होगा...ऐसे आंचलिक और देशज शब्दों का भी बहुतायत में प्रयोग करना होगा जिससे आपके ठेठ शहरी होने के बावजूद ज़ड़ों की मिट्टी की खुशबू का एहसास दिया जाता रहे...
ब्लॉगिॆग में ये फंडे अपनाएंगे तो लुडविग वेन बीथोविन की तरह दस्सी के अंक से आपको कोई चाह कर भी दूर नहीं रख सकेगा...बीथोविन के लिए 1805 से 1812 का दौर उनके जीवन में दस्सी का अंक लेकर आया...दस्सी के अंक से मतलब उस पीरियड से है, जब किसी कलाकार का सृजन उत्कर्ष पर रहता है और वह दोनों हाथ से सफलता और कीर्ति बटोरता है...
तबीयत ख़राब होने के दौर में ये किस तरह की पोस्ट लिख गया...और क्लिष्ट बनाने के लिए शायद ज्यामिति की किसी अनसुलझी प्रमेय का उल्लेख और किया जाना चाहिए था...
:):)..बीमारी में इतना चिंतन ठीक नहीं ..आराम करिये .
जवाब देंहटाएं☺ सहमति की स्माइली
हटाएंअच्छी सलाह है, खासकर हिन्दी के मुश्किल शब्द बोलने से बचें, तब तक बेतक़ल्लुफ़ी से फ़ारसी शायरी से काम चलाया जा सकता है!
हटाएंबोलचाल की अति-सरल भाषा के कुछ सामयिक उदाहरण:
हटाएंजब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है।
[मैं भी स्माइली लगा ही दूँ, ब्लॉगिंग है, न जाने कब किस बात पे ह्ंगामा हो जाये]
:)
aarae waah aaj hi aap ki tabiyat kaa haal puchha tha satish ji sae aur abhi aayii to post daekhi
जवाब देंहटाएंpehlae rest karae yae sab chaltaa rahegaa
waesae sach kahun aap ki kami lagii do din
ssneh
उनके पूछे से जो आ जाती है मुँह पे रौनक़, वे समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है ...
हटाएं[सरल भाषा में कहा है, आज नहीं कहा और हमने नहीं कहा]
बहुत शानदार और सुंदर कमेन्ट.. हैट्स ऑफ टू रचना जी..
हटाएंकौन किस का रफीक होता हैं
हटाएंकौन किसका रकीब होता हैं
बन जाते हैं युहीं रिश्ते
जैसा किसका नसीब होता हैं
@स्मार्ट इंडियन , मैने नहीं कहा , आप के लिये तो बिलकुल नहीं कहा :)
@महफूज़ , टोपी पहनाते पहनाते , उतरनी भी सीख ली ??
बीमारी में क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल खतरनाक निशानी है . :)
जवाब देंहटाएंवैसे कह आप ठीक ही रहे हैं .
मैंने ला मार्टिनियर के कुछ बच्चों को हिंदी के ब्लोग्स पढने को दिए. बेचारे बच्चे ब्लौगरों की हिंदी देख कर बीमार पड़ गए.. कुछ आई.सी.यू. में हैं और कुछ कोमा में. स्कूल के मैनेजमेंट ने मेरे ऊपर केस कर दिया है कि उनके स्कूल के बच्चे ऐसी हिंदी देख कर आत्महत्या करने लग गए. कोर्ट ने कहा कि ऐसी हिंदी पढवाने के जुर्म में मुझे दो दिन की कैद और पांच सौ रुपये देने पड़ेंगे. कोई नालायकों को नहीं पकड़ेगा सब मेरे ही पीछे पड़े रहते हैं..
जवाब देंहटाएंमैंने ला मार्टिनियर के कुछ बच्चों को हिंदी के ब्लोग्स पढने को दिए. बेचारे बच्चे ब्लौगरों की हिंदी देख कर बीमार पड़ गए.. कुछ आई.सी.यू. में हैं और कुछ कोमा में. स्कूल के मैनेजमेंट ने मेरे ऊपर केस कर दिया है कि उनके स्कूल के बच्चे ऐसी हिंदी देख कर आत्महत्या करने लग गए. कोर्ट ने कहा कि ऐसी हिंदी पढवाने के जुर्म में मुझे दो दिन की कैद और पांच सौ रुपये देने पड़ेंगे. कोई नालायकों को नहीं पकड़ेगा सब मेरे ही पीछे पड़े रहते हैं..
जवाब देंहटाएंकुछ बच्चों को हिंदी के ब्लोग्स पढने को दिए..
हटाएंअमां डाक्टर साहेब ऐसे कौन से ब्लॉग्स थे वे ..जरा हमें भी तो दिखाएं
.....फ़िलहाल सहजता से यही कहूँगा:
जवाब देंहटाएंजुग-जुग जियो महाराज :-)
जब कृष्ण चंदर बीमार हुए तो डाक्टरों ने उन्हें गंभीर लिखने पढ़ने से इन्कार कर दिया था। डाक्टरों की इजाजत से उन्हों ने जासूसी उपन्यास लिखा।
जवाब देंहटाएंदुश्मनों की तबीयत नासाज है क्या मियाँ ?
जवाब देंहटाएंआपकी तबियत को क्या हुआ खुशदीप भाई?
जवाब देंहटाएंअस्वस्थ होने के बाबजूद अच्छी नसीहतें दी हैं आपने.
आपके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए मंगल कामना करता हूँ.
खुशदीप भाई ,
जवाब देंहटाएंरचना जी ने कल फोन कर आपका हाल चाल जाना था वे आपके स्वास्थ्य को लेकर चिंतित थीं ...
शुभकामनायें आपको !
आप शारीरिक शौष्ठव को स्वयं संज्ञान में अवश्य लाएं...
जवाब देंहटाएं( पता नहीं क्या लिख गया है )
कठिन घडि़यों की कठिनाई भी कई बार राह सुगम कर देती है.
जवाब देंहटाएंमान गई की ब्लोगिंग से बड़ी कोई बीमारी नहीं है जो बीमार को भी लिखने के लिए मजबूर कर दे :)
जवाब देंहटाएंयदि बीमार को अच्छा कर दे तो ठीक नहीं तो ये बेकार ही है , इस ब्लोगिंग की बीमारी का कोई इलाज नहीं है इसे ठीक करना मुश्किल है अच्छा हो पहले शारीरिक सेहत को ठीक कर ले इन झंझटो से दूर रह कर |
स्वस्थ्य लाभ की शुभकामनाये !!
@मान गई की ब्लोगिंग से बड़ी कोई बीमारी नहीं है जो बीमार को भी लिखने के लिए मजबूर कर दे :)
हटाएंवाकाई, अब लग रहा है ये ब्लॉग्गिंग सभी बीमारियों की माँ है,
खुशदीप जी, आपके स्वस्थ्य लाभ की शुभकामनाये.
कोई वर्ग ऐसे क्लिष्ट शब्दों को पसन्द करता है और मेरे जैसे कईयों की समझ छोटी पडती है।
जवाब देंहटाएंखैर कोई भी बने "सूर्यमाल के सप्तक" सबके अपने-अपने भगवान हैं।
रचना जी ने भी एक बार बताया था पूजकों के बारे में
आपके स्वास्थ्य की कामना के साथ
प्रणाम स्वीकार करें
आराम कीजिये और स्लोग ओवर के साथ वापस आइये ...मक्खन को मिस कर रहे है :-)
जवाब देंहटाएंकठिन नाम रख कर सहज रहने का प्रयास कर रहे हैं..
जवाब देंहटाएंब्लॉगिंग की रेंज बहुत बड़ी है। वहां सूर्यदीप को भी जगह है, खुशदीप के लिये भी जगह है। बीथोविन की सिम्फ़नी के भी चाहने वाले हैं और मक्खन को मिस करने वाले भी। सूर्यमाल के सप्तक के तारीफ़ करने वाले भी हैं यहां और मक्खन के स्लाग ओवर भी। जिसके साथ मन हो आनन्दित होइये।
जवाब देंहटाएंतबियत-उबियत ठीक-ठाक होने के लिये शुभकामनायें-उभकामनायें।
:):):)
हटाएंpranam.
सत्य वचन.
हटाएंशीघ्र स्वस्थ हों ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
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जवाब देंहटाएं.
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खुशदीप जी,
सबसे पहले तो शीघ्र स्वास्थ्य लाभ हेतु शुभकामनायें...
अब आते हैं पोस्ट पर... ब्लॉगिंग अन्य माध्यमों जैसा नहीं, यह 'मेरे मन की मौज' वाला माध्यम है... यहाँ आप किसी को कुछ भी लिखने, किसी का आकलन-मूल्यांकन करने, इनाम बांटने, ग्रुप-गुट बनाने आदि आदि से रोक नहीं सकते... ब्लॉगिंग के लोकतंत्र में हर कोई आजाद है अपने मन की करने को, यहाँ कोई नियम नहीं है... किसी को क्यों अपने हिंदी ब्लॉग को एलीट, अभिजात्य, कुलीन, संभ्रात, विद्वत ब्लॉगरों से मान्यता दिलाने की चिंता करनी चाहिये, यह मेरी समझ से बाहर है... ब्लॉगर का माई-बाप केवल और केवल उसका पाठक है,और कोई नहीं... अगर आप ब्लॉगिंग में अपने असली 'खुद' को ईमानदारी से अभिव्यक्त कर रहे हैं, मात्र किसी को इम्प्रैस-खुश करने या बहुत सारी अच्छी अच्छी टीपें पाने के लिये बनावटी विचारों का लबादा नहीं ओढ़ रहे और ऐसा करते हुऐ भी अपने पाठक वर्ग से कनेक्ट कर पा रहे हैं तो यही आपकी सफलता है...
आभार !
...
बडी चाहत है फुरसत संग जरा बैठें
जवाब देंहटाएंमगर कम्बख्त फुर्सत को नही फुरसत
लो मैने कलमतोड शायरी का एक शेर बना दिया। जब पोस्ट लिखो मुझे मैल कर दिया करो न तो मै रोज किसी एग्रिगेटर पर जाती हूँ न ही मेरी ब्लागलिस्ट अभी बन पायी है। शुभकामनायें।
ये दिल है बड़ा ही दीवाना
जवाब देंहटाएंछेड़ा न करो इस पागल को
तुम से न शरारत कर बैठे
नादान की नीयत ठीक नहीं,
इस रंग बदलती दुनिया में
इनसान की नीयत ठीक नहीं
निकला न करो तुम सज\-धजकर
ईमान की नीयत ठीक नहीं, इस......
ज़नाब के दुश्मनों की तबीयत अभी भी नासाज़ लगती है :-)
बड़े भाई सहगल जी,
जवाब देंहटाएंसूर्यमाल ... बढिया लगा, पूरा वेस्ट दिल्ली ढूंढ मारा, पर ऐसा माल नहीं मिला. शायद दिल्ली में कहीं वो, पर क्या किया जाए मेरी दिल्ली तो मात्र वेस्ट दिल्ली ही है..
@ 'किंकर्तव्यविमूढ़' या 'दैदीप्यमान' जैसे क्लिष्ट से क्लिष्ट शब्द कभी कभी समझ आ जाते हैं, पर बीथोविन, ओपेराकार मोज़ार्ट ओर अर्नेस्तो "चे" गेवारा शब्द मेरे जैसे ब्लॉग चालक से उपर को गुजर गए
आप पूर्ण रूपेन स्वस्थ हो जाएँ, समय बहुत है, ब्लॉग्गिंग तो मात्र एक दशक की ही हुई है, कल हम लोगों के नाती-पोते अपने अपने नानों-दादों के ब्लॉग की रेटिंग करे तो ज्यादा अच्छा लगेगा.
बीमारी में क्लिष्टता ने आ घेरा। अब हम जेसे लोग क्या करें जिन्हें ये शब्द आते ही नहीं। हम तो दोयम दर्जे के ब्लोगर ही सही।
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