साठ साल का हो गया हमारा गणतंत्र...साठ साल की उम्र में नौकरीपेशा इंसान रिटायर हो जाता है...लेकिन हमारा गणतंत्र तो अभी सही ढंग से जवान भी नहीं हुआ...26 जनवरी 1950 को जब संविधान लागू हुआ था उस वक्त देश की 45 फीसदी आबादी यानि 16 करोड़ 20 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे थे...आज 60 साल बाद देश में गरीबी का जो ताजा आंकड़ा है उसके मुताबिक गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग 45 फीसदी से घटकर 37 फीसदी रह गए हैं...लेकिन इस 37 फीसदी को आबादी में तब्दील किया जाए तो ये 40 करोड़ बैठता है...यानि सिर्फ संख्या की बात की जाए तो साठ साल में गरीब ढाई गुणा बढ़ गए...
लेकिन हमारे शहरों में बन रहे मॉल्स, फ्लाईओवर्स, चमचमाती कारें, आलीशान इमारतें, आधुनिक हवाई अड्डे, मेट्रो दूसरी ही कहानी कहते हैं...बाहर से आने वाला कोई भी मेहमान विकास के मेकअप से पुते इस चेहरे को देखकर कह सकता है कि भारत काफी बदल गया है...लेकिन यही बदलाव उसी शहर की मलीन बस्ती (स्लम्स) में उड़नछू हो जाता है...शहरों से निकल कर गांव का रुख कीजिए...बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश के दूर-दराज के इलाकों में जाइए, गांवों में घर के नाम पर मिट्टी और फूस की झोपड़ियां, भूमिहीन मज़दूरों के चेहरों से साफ पढ़ा जा सकता है कि साठ साल पहले जैसे उनके दादा-पड़दादा थे, वो ठीक उसी हालात में ज़िंदगी जीने को अभिशप्त हैं...यानि विकास के नाम पर वो एक इंच भी आगे नहीं सरक सके हैं...
अनेकता में एकता का दावा करने वाले इस देश में क्या जात-पात का भेद मिट गया...या विशुद्ध जाति के आधार पर ही राजनीतिक संगठन खड़े किए जाने लगे...आज कोई जय हिंद क्यों नहीं कहता...सिर्फ अपनी भाषा, अपनी बोली, अपने प्रांत के फायदे की ही बात हम सोचते हैं...साथ मिलकर देश को आगे बढ़ाने की हम क्यों नहीं सोचते...जब तक देश से गरीबी, भूख, बेरोज़गारी, अशिक्षा, बीमारियों का सफाया नहीं हो जाता हमारे विकास के सारे दावे खोखले हैं...मैं किसान की हालत को लेकर ही इस पोस्ट में 1950 और आज की स्थिति को लेकर आर्थिक मोर्चे की बात करुंगा...किसान खुशहाल हुआ है या साठ साल पहले से भी ज़्यादा बदहाल...
अगर हम आर्थिक मानदंडों की बात करें तो भारत ने काफी तरक्की की है...किसी भी देश की माली हालत को उसके सकल घरेलू उत्पाद यानि ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (जीडीपी) से नापा जाता है...इस लिहाज से भारत ने 1950 से आज तक 500 गुना लंबी छलांग लगाई है...1950-51 में देश का जीडीपी 9,719 करोड़ रुपये था जो 2008-09 में बढ़कर 49,33,183 करोड़ रुपये हो गया...साठ साल पहले प्रति व्यक्ति सालाना आय 255 रुपये थी जो अब बढ़कर 33,283 रुपये हो गई...लेकिन इसी बीच देश की आबादी तीन गुना से भी ज़्यादा बढ़ गई...इसी दौरान इस्पात का उत्पादन 50 गुना, सीमेंट का उत्पादन 70 फीसदी, बिजली का उत्पादन 128 फीसदी और खाद्यान का उत्पादन चार गुना बढ़ा...लेकिन क्या देश के दूर-दराज के गांवों को इस तरक्की का कोई फायदा मिला...
ये सही है जब देश आज़ाद हुआ तो अंग्रेज इसे दाने-दाने को मोहताज छोड़ गए थे...एक अनुमान के मुताबिक ब्रिटिश अपने आखिरी 20 साल में देश से 15 करोड़ पाउंड हर साल निचोड़ कर ले गए...कुल मिलाकर बात की जाए तो अंग्रेज बीस साल में 3 अरब पाउंड झटक कर ले गए...बीसवीं सदी के पहले 50 साल में देश ने सिर्फ 0.1 फीसदी सालाना विकास दर से तरक्की की...दुनिया में सबसे ऊपजाऊ ज़मीन होने के बावजूद ब्रिटिश हुकूमत के दौरान 25 अकाल देश ने देखे और इसमें तीन से चार करोड़ लोगों को जान गंवानी पड़ी...
आज़ादी के बाद देश में जो बड़ा बदलाव आया है वो ये है कि 1950 में जीडीपी में 53 फीसदी हिस्सेदारी खेती-किसानी की होती थी जो अब घटकर 21 फीसदी रह गई है...दूसरी ओर उद्योग की हिस्सेदारी इसी दौरान जीडीपी में 14 से बढ़कर 27 फीसदी हो गई, सर्विस सेक्टर की हिस्सेदारी 1950 के 33 फीसदी से बढ़कर अब 52 फीसदी हो गई है...यानि 1950 में जो भूमिका कृषि सेक्टर निभा रहा था अब कमोवेश वो रोल सर्विस सेक्टर के पास चला गया है...आज भी देश में 60 फीसदी आबादी का गुजारा कृषि से ही चलता है लेकिन पिछले एक दशक से कृषि उत्पादन में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है...उलटे खेती की लागत में ज़रूर तेज़ी से इज़ाफा हुआ है...ये स्थिति बड़ी खतरनाक है...अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई भी उतार-चढ़ाव होता है उसका सीधा असर देश में महंगाई के तौर पर दिखता है...
सीधी सी बात है आपके लिए चीनी महंगी होती है तो इसका मतलब ये नहीं गन्ना किसानों को कोई फायदा हो रहा है...चीनी महंगी इसलिए हो रही है कि चीन ने अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से बड़ी मात्रा में चीनी खरीदी...हमारे लिए खरीदने को चीनी ही नहीं बची...और जो चीनी खरीदी गई उसके बेचने वालों ने मुंहमांगे दाम लिए...यानि आयातित चीनी के महंगे दाम चुकाने के लिए हमारी जेब पर ही डाका पड़ा......फायदा बिचौलियों, कमीशनखोरों और जमाखोरों ने उठाया...किसान को तो खुद ही खाने के लाले पड़े हुए हैं...पिछले एक दशक में बड़ी संख्या में युवकों ने कृषि से मुंह मोड़कर शहरों की ओर रुख किया...लेकिन क्या इतने युवकों को खपाने के लिए देश में रोज़गार का सृजन हुआ...सिर्फ असंगठित सेक्टर में मजदूरों की संख्या बढ़ती गई...नतीजा शहरों में भी स्लम बढ़ते गए...
पिछले दो दशक में आर्थिक सुधारों ने धन्ना सेठों को और धनी किया...सर्विस सेक्टर में काम करने वाले मध्यम वर्ग के सपनों को पंख लगाए नतीजन उपभोक्ता वस्तुओं का बड़ा बाज़ार भी साथ में विकसित हुआ...लेकिन गरीब और गरीब होता गया...दाल-रोटी का जुगाड़ करना भी अब गरीब के लिए चांद-तारे तोड़ना जैसा होता जा रहा है...फिर भी हम कह रहे हैं देश आगे बढ़ रहा है...लेकिन गरीब को पीछे छोड़ ये लंगड़ी चाल क्या देश को सच में आगे ले जाएगी...क्या ये सवाल गणतंत्र के सीनियर सिटीजन बनने यानि 61 वें साल में प्रवेश करने पर कोई मायने रखता है...या हम सिर्फ अपने लिए ही कार का नया ब्रैंड खरीदने के लिए सोचते रहेंगे....
स्लॉग गीत
गणतंत्र दिवस पर याद कीजिए भारत कुमार यानि मनोज कुमार और उनकी फिल्म पूरब और पश्चिम के इस गीत को जो देशभक्ति के लिए आ़ज भी नस-नस में जोश भर देता है....
दुल्हन चली हा बहन चली, पहन तीन रंग की चोली...
स्लॉग ओवर
कल मक्खन ने बड़ा मासूम सा सवाल मुझसे पूछा...मैं तो जवाब क्या ही देता, आप खुद ही उस सवाल पर गौर कर देखिए...
मक्खन...भाईजी, इस साल 26 जनवरी कौन सी तारीख को पड़ेगी...
गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें....
जवाब देंहटाएंजय हिंद... जय बुंदेलखंड...
यानि सिर्फ संख्या की बात की जाए तो साठ साल में गरीब ढाई गुणा बढ़ गए...
जवाब देंहटाएंअगर ऐसा है तो अमीर भी तो उसी अनुपात में बढे होंगे....??
हमेशा की तरह बहुत ही जानकारीपूर्ण पोस्ट....
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामना ..!!
विचारणीय आलेख-बेहतरीन स्लॉग गीत और स्लॉग ओवर की तारीख तो कलेन्डर में देखकर बताते हैं कि २६ जनवरी कौन सी तारीख को पड़ेगा..:)
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ.
आर्थिक नीतियां देश को समृद्ध दिखा तो रही हैं ...हो यह रहा है कि अमीर और अमीर...गरीब और गरीब होता जा रहा है ...दोनों वर्गों के आर्थिक स्तर में बहुत तेजी से अंतर बढ़ रहा है ....
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें ...!!
मुझे तो इस दिन रघुवीर सहाय का 'हरचरना' याद आता है जो 'फटा सुथन्ना' पहने राष्ट्रगान के बोलों में 'जाने किस भाग्यविधाता' का गुन गाता रहता है
जवाब देंहटाएं:(
खुशदीप भाई-26जनवरी गणतंत्र दिवस की बधाई,
जवाब देंहटाएंमक्खन तो मक्खन है कुछ भी पुछ सकता है।:)
६० साल रिटायर किजिये सविधान को उम्र जो हो गई और पैवन्द भी तो बहुत लग गये है . नये दौर मे लिखे मिल कर नयी कहानी .
जवाब देंहटाएंवैसे २६ जनवरी अब्की मन्गल की तारिख पर पडा है .
गणतंत्र के पहले चील-कौए जवान हो गए हैं। इन का इंतजाम कौन करे?
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएं♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥
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"अगर हम आर्थिक मानदंडों की बात करें तो भारत ने काफी तरक्की की है...किसी भी देश की माली हालत को उसके सकल घरेलू उत्पाद यानि ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (जीडीपी) से नापा जाता है...इस लिहाज से भारत ने 1950 से आज तक 500 गुना लंबी छलांग लगाई है...1950-51 में देश का जीडीपी 9,719 करोड़ रुपये था जो 2008-09 में बढ़कर 49,33,183 करोड़ रुपये हो गया...साठ साल पहले प्रति व्यक्ति सालाना आय 255 रुपये थी जो अब बढ़कर 33,283 रुपये हो गई...लेकिन इसी बीच देश की आबादी तीन गुना से भी ज़्यादा बढ़ गई...इसी दौरान इस्पात का उत्पादन 50 गुना, सीमेंट का उत्पादन 70 फीसदी, बिजली का उत्पादन 128 फीसदी और खाद्यान का उत्पादन चार गुना बढ़ा..."
जवाब देंहटाएंतरक्की के ये आँकड़े वास्तव में खुशी प्रदान करते हैं किन्तु मँहगाई और भ्रष्टाचार के आँकड़ों को भी इनके साथ मिला दिया जाये तो यह खुशी शायद ही बनी रह पाये।
यह विडंबना ही है कि हमारा गणतंत्र अपनी जिम्मेदारियों को पूरा किए वगैर सिनियर सीटिजन भी बन गया .. आनेवाली दूसरी पीढी से उम्मीद रखी जाए .. और कर भी क्या सकते हें हम ??
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की ६० वीं वर्षगाँठ पर आपको हार्दिक शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंइसमें कोई शक नहीं की इन ६० सालों में हमने बहुत तरक्की की है।
इसमें भी कोई शक नहीं की आज भी महानगरों में भी लोग फुटपाथ पर सोते हैं।
लेकिन इन सब की जड़ है, बढती हुई आबादी, जिस के बारे में आज कोई भी बात नहीं करना चाहता।
जय हिंद ।
बिल्कुल यथार्थ लिखा है. लेकिन अभी हर जन के लिये सही मायने मे उन्नति नही हुई है सिर्फ़ चंद लोगों के लिये ही चांदनी आई है.
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.
रामराम.
लेकिन हमारे शहरों में बन रहे मॉल्स, फ्लाईओवर्स, चमचमाती कारें, आलीशान इमारतें, आधुनिक हवाई अड्डे, मेट्रो दूसरी ही कहानी कहते हैं...बाहर से आने वाला कोई भी मेहमान विकास के मेकअप से पुते इस चेहरे को देखकर कह सकता है कि भारत काफी बदल गया है
जवाब देंहटाएंकितना सच कहा है....खुशदीप जी ! सटीक विश्लेषण किया है आपने...एक एक पंक्ति में यथार्थ है
बहुत सुन्दर! आपको और आपके परिवार को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंआज ही दैनिक भास्कर में दिनकर जी की कालजयी रचना ’सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है’ देखने के बाद आपकी पोस्ट देखना सोने पर सुहागा जैसा हो गया। जी.डी.पी. और दूसरे फैब्रिकेटड फैक्टस जो भी कहे, तरक्की तो सही मायने में सुखराम, कल्पनाथ राय, रेड्डी बंधु, मधु कौडा जैसों की ही हुई है। और हो भी क्यों न,जब आम बजट में कार, हीरे, शराब जैसी जीवनोपयोगी चीजों पर छूट की खुशखबरी सुनाते हैं तो आटा, चावल जैसी छोटी-मोटी चीजों को तो नजर अंदाज करना ही होगा। तदापि गणतंत्र-दिवस पर सभी भारतीयों को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंye nakal mari hai hindee font nahi chal raha aaj gaNtantar divas par chhuti kar gaya aakhir 61 ve saal me koi kitana kaam kar sakata hai | kyon kos rahe hain lok tantar ko| shubhakamanayen
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जवाब देंहटाएं.
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खुशदीप जी,
...लेकिन गरीब को पीछे छोड़ ये लंगड़ी चाल क्या देश को सच में आगे ले जाएगी...क्या ये सवाल गणतंत्र के सीनियर सिटीजन बनने यानि 61 वें साल में प्रवेश करने पर कोई मायने रखता है...
बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट और उससे उठता यह सवाल...
यह हकीकत है कि गरीब और गरीब हुआ है जबकि हमारे योजना आयोग के अनुसार १९७३-७४ से गरीबों की संख्या स्थिर यानी ३२ करोड़ के आसपास है, और प्रतिशत ५४.९% से घट कर ३६% हो गया है... कैसे हो रहा है यह जादू...चारों तरफ देखिये तो अनेकों आपको ऐसे मिलेंगे जो वाकई पात्र हैं पर तंत्र नें उनको बीपीएल कार्ड नहीं बना कर दिया...क्योंकि गांव-गांव के लिये बीपीएल कार्ड बनाने का टारगेट ऊपर से निर्धारित है। यह गरीबी रेखा खुद में एक बड़ा मजाक है देखिये...
As per the Government of India, poverty line for the urban areas is Rs. 296 per month and for rural areas Rs. 276 per month, i.e. people in India who earn less than Rs. 10 per day. As per GOI, this amount will buy food equivalent to 2200 calories per day, medically enough, to prevent death. At this level of earning, even in a poor country like India, survival on Rs. 10 per day is a nightmare! This actually translates to Rs. 3650 per year or US $ 75 per year.
On what basis have our planners decided this definition of "Poverty Line"? Does it mean that the person will get enough food to stay alive? How and where is he or she supposed to cook it? What about the minimum needs in education, housing, health services, clothing,and other basic necessities? Are we supposed to live on pavements and sleep under trees from birth till death? YOU BE THE JUDGE!
गरीबों की मदद के लिये चलाई जा रही योजनायें फेल हो गई हैं पीडीएस एक दुधारू गाय बन चुका है सत्ताधीशों के दोहन के लिये... अब सवाल यह है कि समाधान क्या है...नंदन निलिकेनी और उनकी UID के लागू होने के बाद टारगेटेड सब्सिडी की बातें की जा रही हैं...देखते हैं आगे होता है क्या...
मेरी समझ में राज्य अपनी पूरी आबादी को यदि मात्र चार चीजें २४ घंटे बिजली, साल के बारहों महीने २४ घंटे चलने लायक सड़क, चाक-चौबस्त कानून और नियामक व्यवस्था और सभी के लिये सर्वसुलभ निशुल्क चिकित्सा की व्यवस्था मात्र दे दे... तो हमारी आबादी में इतना दम है कि वह खुद ही गरीबी से उबर जाये...महंगी प्राईवेट चिकित्सा पर होने वाला खर्चा एक बड़ा कारण बन गया है परिवारों को गरीबी की ओर ढकेलने का...
दुर्भाग्य की बात है कि उपतोक्त चारों पैमानों पर हम बुरी तरह नाकामयाब रहे हैं और निकट भविष्य में कोई सुधार की उम्मीद भी नजर नहीं आ रही...
खुशदीप भाई मैं भी सुबह से यही सोच रहा हूं कि साठ साल के देश को क्या कहूं ....परिपक्व होता देश या कि साठ पर सठियाता देश , भटकता हुआ , कभी कभी तो मुझे लगता है हम पीछे ही चले जा रहे हैं , आलेख एकदम सटीक और सामयिक रहा
जवाब देंहटाएंअजय कुमार झा
सही कहा है आपने:
जवाब देंहटाएं"दाल-रोटी का जुगाड़ करना भी अब गरीब के लिए चांद-तारे तोड़ना जैसा होता जा रहा है...फिर भी हम कह रहे हैं देश आगे बढ़ रहा है..."
बल्कि दाल-रोटी का जुगाड़ करना अब गरीब के लिए क्या मध्यमवर्गीय परिवार के लिए भी चांद-तारे तोड़ना जैसा होता जा रहा है.....
जय हिंद्
गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंखुश दीप भाई जब हम लोग भारत छोड कर विदेशो मै गये तो हम सब मिडिल कलास के ही थे, ओर आज भी हम उसी कलास मै आते है, ओर जब भी हम भारत आते है दिल अपनो मै जाने को करता है,( यह मॉल्स, फ्लाईओवर्स, चमचमाती कारें, आलीशान इमारतें, आधुनिक हवाई अड्डे, मेट्रो देख कर हम चोंकते नही है, क्यो कि यह सब तो हम विदेशियो से बनबाते है, चोंके तब जब इन्हे बनाने वाले हमारे ठेके दार हो??) ओर जब हम अपनो से मिलते है तो देखते है कुछ नही बदला सब कुछ वेसा ही तो है, प्र्ति दमी आमदन तो बढी लेकिन साथ साथ मे समान भी मंहगा हो गया है, मै एक पान १५ पेसो मै लेता था, कल सुना ५,६ रुपये मै मिलता है, मुंगफ़ली ५० ग्राम १५ पैसो मै मिलती थी, अगर हमारे यहां भारत मै खाने पीने की चीजे सस्ती हो, ओर ऎश की चीजे मंहगी हो तो खुश हाली आ सकती है, लेकिन हो इस से उलटा रहा है, युरोप मे खाने पीने की सभी चीजे हद से ज्यादा सस्ती है, बाकी सब ऎश का समान मंहगा है.
आप की पोस्ट के एक एक शव्द से सहमत हुं,अग्रेजो ने शायद कम लूटा हो हमे , आज के नेता दोनो हाथो से लुट रहे है इस देश को, जब कि हमारे देश मै किसी भी चीज की कमी नही, अगर हम दुनिया से किसी से भी कुछ ना ले तो भी सब जनता के लिये हमारे पास खाने को बहुत है
जानकारी से परिपूर्ण विचारणीय पोस्ट
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