क्या आप टीना फैक्टर जानते हैं...खुशदीप

सब चलता है...बस अपना काम चलाओ, प्रभु के गुण गाओ...कमोवेश यही मनोस्थिति हम सब की है...हम झल्लाते हैं, गरियाते हैं, गुस्साते हैं, दांत भींचते हैं...फिर ये कह कर शांत हो जाते हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता...लेकिन क्या हमने कभी ये सवाल अपने से किया कि क्या हम बदलते हैं...उपदेश झाड़ना आसान है, लेकिन उस पर अमल करना बहुत मुश्किल...इस देश के सिस्टम को हम कोसते रहते हैं लेकिन क्या हम इस सिस्टम के हिस्सा नहीं है...

आज ब्लॉग के ज़रिए मैं एक संवाद शुरू करना चाहता हूं...पूरी ब्ल़ॉगर बिरादरी से मेरा आग्रह है इस संवाद में खुल कर अपने विचार रखें...मंथन होगा तो शायद हम विष को अलग कर अमृतपान की दिशा में आगे बढ़ सकें...मैं कोशिश करूंगा कि एक-एक करके ऐसे मुद्दे उठाऊं जो मेरे, आपके, हम सबके जीवन पर प्रभाव डालते हैं, समाज का चाल और चरित्र तय करते हैं...इस कड़ी में सबसे पहले बात राजनीति की...




गांधी, पटेल, सुभाष, नेहरू, अंबेडकर के देश में ऐसी स्थिति क्यों आ गई....ये क्यों कहा जाने लगा कि जिस में कोई नीति नहीं, वही राजनीति है...हमारे देश की यही बदकिस्मती है कि यहां द्विदलीय व्यवस्था नहीं है...इस व्यवस्था में विपक्ष हमेशा मज़बूत रहता है...सतर्क विपक्ष जहां चौकीदार की भूमिका निभाता है वहीं सत्ता पक्ष पर अंकुश रहता है..सत्ता पक्ष को डर रहता है कि विपक्ष की उस पर पैनी नज़र है...गलत काम किया तो चुनाव में जनता छुट्टी कर विपक्ष को मौका दे देगी...लेकिन जब विपक्ष मज़बूत नहीं होता तो सत्ता पक्ष आत्ममुग्ध होकर मदमस्त हो जाता है...ये स्थिति जनता के लिए सबसे खराब होती है...यहां मैं भाई प्रवीण शाह की एक टिप्पणी यथावत पेश करना चाहता हूं...ये टिप्पणी कल मेरी गडकरी वाली पोस्ट पर आई थी...

खुशदीप जी,
किसी भी लोकतंत्र को सही से चलने के लिये सशक्त विपक्ष की भी जरूरत होती है..."गडकरी को बीजेपी के कायापलट के लिए नागपुर ने जो तीन सूत्री एजेंडा सौंपा है...उसमें आम आदमी के हित की बात करना सबसे ऊपर है...फिर विकास उन्मुख राजनीति और अनुशासन..."अगर यह बात सही है तो फिर अच्छे की ही उम्मीद रखनी चाहिये... तीनों बातें आज की जरूरत हैं... पर क्या धन्ना सेठों और पूंजीवादियों के चंगुल से इतनी आसानी से बाहर निकल पायेगी पार्टी... इतना हौसला और इच्छाशक्ति बची है कर्णधारों में अब तक ...यह एक यक्षप्रश्न होगा...

भाई प्रवीण शाह का प्रश्न वाकई ही यक्ष है...विपक्ष अगर कमज़ोर है तो जनता को झक मार कर फिर उन्हें ही चुनना पड़ेगा जो सत्ता में बैठे हैं...वो सत्ता में बैठे हैं, इसलिए नहीं कि जनता उन्हें चाहती है बल्कि वो इसलिए बैठे हैं कि लोगों के पास और कोई मज़बूत विकल्प नहीं है... (There Is No Alternative). यही T...I...N...A... यानि टीना फैक्टर है जिसका कांग्रेस और एनसीपी ने हाल में महाराष्ट्र में फायदा उठाया...क्योंकि महाराष्ट्र में शिवसेना, बीजेपी या  राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का जो विकल्प दिख रहा था वो कांग्रेस और एनसीपी से भी खतरनाक था...मरता क्या न करता वाली तर्ज पर लोगों को कांग्रेस और एनसीपी की सत्ता पर ही लगातार तीसरी बार मुहर लगानी पड़ी....

क्या आपने कभी गौर किया कि आपके क्षेत्र का एमपी या एमएलए वाकई आपके क्षेत्र की पूरी तरह नुमाइंदगी करता है...पूरी तरह तो छोड़ क्या बहुमत का भी प्रतिनिधित्व करता है...बहुमत से मेरा तात्पर्य है कि चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार को उस क्षेत्र के 51 प्रतिशत वोट मिले हों...दरअसल हमारे यहां इतनी पार्टियां हो गई हैं कि वोट कई जगह छितरा जाते हैं...बीस फीसदी वोट हासिल करने वाले तक चुनाव जीत जाते हैं...क्यों जीत जाते हैं...क्योंकि दूसरे किसी उम्मीदवार को बीस फीसदी तक वोट नहीं मिले होते...ऐसे में जीतने वाले के पक्ष में सिर्फ बीस फीसदी लोग हैं...जबकि क्षेत्र के अस्सी फीसदी वोटर उस उम्मीदवार के खिलाफ हैं...क्या इस व्यवस्था में बदलाव नहीं होना चाहिए...अगर आप के पास कुछ सुझाव हैं तो दीजिए...मैं इस मुद्दे पर सबकी राय जानने के बाद कल अपना मत रखूंगा...


स्लॉग ओवर
एक प्रदेश में चुनाव के बाद त्रिशंकु विधानसभा आई...जोड़-तोड़ से सरकार बनाने के अलावा कोई चारा नहीं था...भानुमति का कुनबा जोड़ा कि तर्ज़ पर खुद की पार्टी, सहयोगी दल, समर्थन देने वाले दलबदलू, निर्दलीय हर कोई मंत्री बनने का दावा करने लगा...लेकिन मुख्यमंत्री करे तो क्या...एक अनार, सौ बीमार...विभाग 60 और मंत्री बनने की चाहत रखने वाले 61 सारी कांट-छांट के बावजूद समीकरण ऐसे कि 61 के 61 को मंत्री बनाना जरूरी...एक भी बिदका तो विरोधी दल तख्ता खींचने के लिए पूरी तरह तैयार...ऐसे में मुख्यमंत्री की मदद के लिए ताऊ नाम से मशहूर घिसा हुआ नेता ही काम आया...ताऊ बोला...अरे बुरबकों...इसमें कौन परेशानी...क्यों हलकान होवो सब...खेल-कूद का महकमा हैण लाग रिया न...दो हिस्सों में तोड़ एक को खेल थमावो और दूसरे के ज़िम्मे कूद लगा दिओ...यो भी खुश...वो भी खुश...

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24 टिप्पणियाँ
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  1. व्यवस्था में बदलाव जरूरी है। पर वह क्रांति से आता है जिसे जनता करती है।

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  2. ओ०० !!
    ये वाली टीना...हम कहें वो वाली टीना.....टीना अम्बानी....
    डूब मरने वाली बात तो है ...लगभग २ अरब जनसँख्या वाले देश में ढंग का विपक्ष नहीं है....
    दुनिया का सबसे बड़ा मतपत्र है हमारा...न जाने कितनी पार्टियां हैं....लेकिन एक अदद विपक्ष नहीं....
    बदलाव की बहुत ज्यादा आवश्यकता है....जब तक out of the box सोच नहीं होगी....मुश्किल है सुधार....और हर दिन हमें देर होती ही जा रही है....
    आज हाल ये है की पढ़े लिखे लोगों ने राजनीति को हाथ जोड़ दिए हैं....अब उनको शामिल होना ही पड़ेगा....राजनीति को गुंडे-मवालियों के चंगुल से निकालना ही होगा.... तभी सबका कल्याण होगा....वर्ना.....जैसे थे...!!!

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  3. TINA Factor से भी बड़ा फेक्टर है हमारी उदासीनता और हर हालातों से समझौता कर लेने की पड़ चुकी गंदी आदत..हमें सब चलता है. लाईट आई तो ठीक, न आई तो ठीक. पानी आया तो न आया तो...हमने हर तरह के अपनी सहूलियत के लिए समझौता करना सीख लिया है और हालात यहाँ तक आ गये है कि हम अपने अधिकारों तक से वंचित रह जा रहे हैं.


    स्लॉग ओवर तो मस्त है..

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  4. ताऊ नेता बनेगो तो सारी समस्याने ऐसे चुटकी में ही उड़ा देगो ...तो क्या कहते हैं ...अगले चुनाव में ताऊ की उम्मीदवारी पक्की ....
    मजबूत विपक्ष की कमी ने ही तो इस देश का कबाड़ा किया है ...मगर ये होगा कैसे ...हमें बुरे और बहुत बुरे में से एक को चुनना पड़ता है ...अच्छे और सच्चे का कोई विकल्प है भी तो नहीं ...अगर होता भी है तो उनके साथ लोग नहीं ....सिस्टम को बिगाड़ने में आम जनता की भी इतनी ही भागीदारी है ...आपने अपने मंच से सार्थक पहल की है ...इस विमर्श से शायद कुछ अच्छा छन कर आये ...साधुवाद ...!!

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  5. आज का स्लाग आवर चुटकुला नहीं है. उत्तर प्रदेश में एसा हुआ भी था.
    एक कद्दावर ने जुगाड़ किया तो पशुधन मंत्रालय में राज्यमंत्री बना दिया गया. अपने कैबिनेट मिनिस्टर को बुलाकर उसने यही कहा था कि चलो भई काम का बंटवारा यूं हुआ - पशुमंत्रालय तुम ले लो, धनमंत्रालय मैं देख लूंगा.

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  6. टीना बोले तो टीना मुनीम -मुझे बस यही याद आवे है और उनका कौनो विकल्प नहीं रहा !

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  7. यो भी खुश...वो भी खुश... बाकी जो "दीप" बच गया वो "खुशदीप" धोरे, भाई कुछ मौज लेण का तो तेरा भी हक बणै सै। राम-राम

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  8. ek achi bahas ki shuruaat hai. TINA ke bahane bahas ko nayi dhar milegi.

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  9. राजनीति में अधिक रुचि न होने के कारण इस विषय में अत्यन्त अल्पज्ञानी हूँ फिर भी कुछ तो अपने विचार रख सकता हूँ।

    "गांधी, पटेल, सुभाष, नेहरू, अंबेडकर के देश में ऐसी स्थिति क्यों आ गई....ये क्यों कहा जाने लगा कि जिस में कोई नीति नहीं, वही राजनीति है..."

    सुभाष को छोड़कर जितने नाम आपने गिनाये हैं वे ही इसके लिये जिम्मेदार हैं।

    "हमारे देश की यही बदकिस्मती है कि यहां द्विदलीय व्यवस्था नहीं है..."

    बदकिस्मती? बहुत बड़ा दुर्भाग्य है यह! इसी के कारण बहुमत के स्थान पर अल्पमत राज्य करता है हमारे देश में।

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  10. पहले हम खुद को बदल लें, फिर देश की सोचेंगे।
    आजकल हो उल्टा रहा है।
    भगवान सब को सदबुद्धी दे।

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  11. खुशदीप भाई, "विपक्ष मजबूत नहीं है…" यह भ्रम बड़ी चालबाजी के साथ मीडिया ने ही फ़ैलाया है… वरना लोकसभा चुनाव के दौरान क्या भाजपा के नेताओं को कोढ़ हो गई थी, क्या सुषमा स्वराज, जेटली, आडवाणी या किसी अन्य नेता की क्षमताओं में अचानक कमी आ गई थी? क्या जनता भाजपा को चुनती तो देश गहरे अंधेरे में चला जाता? और अब महंगाई को लेकर जो रोना-धोना कर रहे हैं यदि उन्होंने भाजपा को वोट ही नहीं दिया है तब किस मुँह से वे सशक्त विपक्ष की बात कर सकते हैं? कमजोर विपक्ष एक मिथक है, यदि जनता ने वोट दिया होता (साथ ही वोटिंग मशीनें अभी भी संदेह के घेरे में हैं) तो क्या भाजपा शासन नहीं चला पाती? खुशदीप जी, ये "टीना" वगैरह कुछ नहीं है, यह 5M effect है जो बेहद मजबूत हो चुका है… क्या कहा, 5M इफ़ेक्ट नहीं जानते? मुल्ला, मार्क्स, मिशनरी, मैकाले और माइनो…। अब ये मत कहियेगा कि मीडिया पर इन पाँचों का कोई प्रभाव नहीं है…

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  12. ये क्या खुशदीप जी जिस बात से हर कोई नज़र चुराता है वही बात ले बैठे । अगर हम पहले ही से टीना को जानते हैं इस लिये एक जगह से टस से मस नहीं होते।
    चोरों मे से चोर चुने अब
    जनता की लाचारी तौबा। धन्यवाद और शुभकामनायें । आपलो टीना की जगह ऐश्वर्या पर चर्चा करनी पडे

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  13. अभी हाल में ही महाराष्ट्र के चुनाव के दौरान मैंने टी.वी. पर एक आम आदमी का इंटरव्यू देखा...जब उस से कॉग्रेस को वोट करने की वजह पूछी गयी तो उसने कहा..."इनका पेट तो भरा हुआ है..ये शायद कम खाएं...दूसरे तो भूखे होंगे ,वो ज्यादा खा जायेंगे"...जब वोट देने का मापदंड ये हो तो फिर क्या उम्मीद की जा सकती है.
    और क्रांति आ भी जाए...तो क्या बदल जायेगा?..क्रांति लाने वाले लोग भी सत्ता मिलते ही वही जामा पहन लेते हैं...आम आदमी की दशा में कोई परिवर्तन नहीं होता...बात बहुत निराशावादी जरूर है..पर सच तो यही है.

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  14. यदि हर मतदाता को वोट डालना जरूरी कर दिया जाए... जैसा की मोदी जी ने कहा.....तो शायद कुछ अच्छा हो पाएगा....

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  15. अरे हम तो समझे थे आप टीना आंटी की बात कर रहे है, सब से बडी बात जनता को जब तक अपने अधिकारो का ग्याण नही होगा, जब तक उस मै अपने अधिकारो को मांगने की हिम्मत नही होगी तब तक यह सब खेल चलता रहे गा, जब हम टेक्स देते है किस बात का? यह सवाल तो जनता ही करेगी, जिसे चुना है उस से कभी किसी ने पुछा कि भाई आप के वादे कहा गये, चलो उसे पुरा करो या फ़िर दफ़ा हो जाओ, यह जनता जब तक गरीब की जोरू बनी रहे गी तो सभी की भाभी ही कहलायेगी, जिस दिन यह जनता जागरुक हुयी यह सब नेता गुंडे सुंडॆ दुम दवा कर भाग जाये गे, हम युही पक्ष ओर विपक्ष को कोस रहे है? केसा पक्ष ओर केसा विपक्ष सभी नेता तो समय समय पर पार्टिया बदलते है, पक्ष ओर विपक्ष वहा होता है जहां जिस पार्टी से एक नेता बना उसी मै रहे या फ़िर घर बेठे.
    इन सब का इलाज है एक सुभाष चंद्र जी जेसा, ओर दुसरा नही कोई कर सकता, नेहरु ओर गांधी ने तो आज के बीज ६२ साल पहले वोये थे जो आज हम भुगत रहे है.
    आप ने बात बहुत मुद्दे कि उठाई है. धन्यवाद

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  16. बहणों और भाईयो! आप मुझे वोट देकर जिताओ. बदले मे मैं वादा करता हूं कि ना पक्ष को रहने दूंगा, ना विपक्ष को और ना आपको.

    बोलो ताऊ महाराज जिंदाबाद!

    रामराम.

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  17. कब से सोचा रहा हूं कि आपका ये "देशनामा" के लिये नियमित समय निकालूंगा...आज से शुरु कर रहा हूं।

    राजनीति से अपना वास्ता तो कुछ नहीं , किंटु इस टीना फैक्टर ने खूब प्रभावित किया।

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  18. Bilkul sahi kaha aapne...poorntah sahmat hun...Aaj rajniti me vyapak fer badal ki aawashykta hai...parantu is badlaav ka shamarthy ,yani tantra jinke haathon hai,we bhala kyon sir laabh ki kadahee se bahar nikal rajniti ko swasth karne ki disha me sochenge....

    Mujhe to lagta hai kisi bhi naam ki koi cheej hi nahi honee chahiye...jaise desh me any kisi bhi pariksha me sabhi pariksharthi hote hain aur seeton ki sankhya nishchit hoti hai jisme ki paas hone waale prashashan ke hisse hote hain ,waise hi isme bhi pichhle performens ke aadhar par pratyek neta ko chunaav apne bal par ladna chahiye aur jeetne wala shashan kare aur bakee cut off numbers tak ke neta vipakshi bane...tabhi ya do dal wali pranali safalta payegi...

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  19. .
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    .
    खुशदीप जी,

    सबसे पहले तो धन्यवाद!

    अब बात की जाये आपके आज के मुद्दे की...
    "सब चलता है...बस अपना काम चलाओ, प्रभु के गुण गाओ...कमोवेश यही मनोस्थिति हम सब की है...हम झल्लाते हैं, गरियाते हैं, गुस्साते हैं, दांत भींचते हैं...फिर ये कह कर शांत हो जाते हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता...लेकिन क्या हमने कभी ये सवाल अपने से किया कि क्या हम बदलते हैं...उपदेश झाड़ना आसान है, लेकिन उस पर अमल करना बहुत मुश्किल...इस देश के सिस्टम को हम कोसते रहते हैं लेकिन क्या हम इस सिस्टम के हिस्सा नहीं है..."

    राजनीति और नेताओं को दोष देना बहुत आसान है पर राजनीतिक परिदॄश्य में जो दिखाई दे रहा है वह हमारे आज के समाज का प्रतिविम्ब ही तो है...एकाध अपवाद को छोड़कर ईमानदारी, स्पष्टवादिता और समाज के लिये कुछ करने का जज्बा दिखता है अपने इर्द-गिर्द ?... कहीं कुछ गलत हो रहा हो तो विरोध करने या विरोध करने वाले को समर्थन देने के बजाय अपना काम निकाल कर पतली गली से ही निकल लेने में भलाई मानते हैं हम लोग...हमें किसी लफड़े में नहीं फंसना...और अपना घर साफसुथरा रखना है...भ्रष्टाचार को सामाजिक मान्यता मिल गई है... और गलत तरीकों से पैसा कमा कर संपत्ति जोड़ने वाले रोल मॉडल बन गये हैं एक पूरी पीढ़ी के...स्वयं, अपना जीवनसाथी और बच्चे, बस इसी में सीमित हो गई है हमारी दुनिया... फिर राजनीति में अच्छे लोग आयेंगे कहाँ से...कहा भी गया है कि किसी भी समाज को वही शासन ULTIMATELY मिलता है जैसे शासन को वह समाज DESERVE करता है। हम जैसे हो चुके हैं उस हिसाब से हमें काफी बेहतर शासन मिल रहा है।

    अब बात आती है कि क्षेत्र का नुमाइंदा वाकई में बहुमत की नुमाइन्दगी करता है या नहीं, तो एक अच्छी पहल की है नरेन्द्र मोदी जी ने गुजरात में... वोटिंग को अनिवार्य करके... चुनाव को दो चरणों का भी किया जा सकता है पहले चरण में टॉप दो स्थानों पर रहने वाले उम्मीदवार दूसरे चरण में दोबारा लड़ें... इस तरह जीतने वाले को हर हाल में कुल पड़े वोटों का ५०% से ज्यादा ही मिलेगा।

    आदरणीय सुरेश चिपलून्कर जी कह रहे हैं "(साथ ही वोटिंग मशीनें अभी भी संदेह के घेरे में हैं)" क्या सचमुच ऐसा है सुरेश जी, हारने वालों ने तक ऐसा कहा नहीं, और भाजपा के जो जीते उनकी EVM कैसी थीं?

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  20. जी... बहुत अच्छी चर्चा शुरू कि है आपने.... यह बात तो सही है कि कई सारी पार्टियाँ हो जाने से वोट्स का dissemination हो गया है.... अब वक़्त आ गया है... डुअल पार्टी सिस्टम का..... जिसकी इस देश कि बहुत ज़रूरत है..... वैसे शेक्सपियर ने एक बार कहा था कि "Democracy is a government of fools" अब यह बात भारत के लिए चरितार्थ सिद्ध हो रही है..... हम लोग तो डेमोक्रेसी का मतलब जानते ही नहीं हैं.... और जब तक के उधार के क़ानून यहाँ रहेंगे.... न्याय व्यवस्था.... दुरुस्त नहीं होगी.... ... वोटिंग कम्पलसरी नहीं होगी....तब तक के हमारा देश नहीं सुधरेगा.....

    जय हिंद...

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  21. जब-जब देश पर काँग्रेस का राज हुआ है..देश का बेड़ागर्क हुआ है...विपक्ष में एकता नहीं है..हर कोई मलाई खाना चाहता है...जब भी काँग्रेस के अलावा किसी दूसरी पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिला...उसे अपनों ने ही कहीं का नहीं छोड़ा...आज देश को आवश्यकता है एक ऐसे विपक्ष की जो अपनी दलगत भावनाओं से ऊपर उठ कर देश हित के लिए काम करे और एक झटके में काँग्रेस की सत्ता को उखाड़ फैंके...

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