आभार: अक्षिता मोंगा (Arre.co.in) |
क्या #MeToo के साथ भी वैसा ही होने वाला है जैसे कि विदेश से आयातित कैम्पेनों
के साथ अतीत में होता रहा है. किस-किस ने क्या-क्या कहा? किस-किस के खिलाफ कहा? पलटवार में क्या-क्या कहा गया? एक्शन-रीएक्शन में क्या क्या हुआ? इस पर बहुत कुछ कहा
जा चुका है इसलिए उसे यहां दोहराने की कोई तुक नहीं.
कहते हैं कि बिना आग़ धुआं नहीं उठता. इसलिए कुछ महिलाओं ने आरोप
लगाए तो ज़रूर सोच समझ कर ही लगाए होंगे. उनकी समझ से उनके पास इसकी वजह भी रही होंगी. रिप्पल इफेक्ट की तरह एक को
देख कर दूसरे में जिस तरह हिम्मत आती है, वैसे ही #MeToo में भी हुआ. जिन पर आरोप लगे उनमें से अधिकतर अपने-अपने क्षेत्र में
बड़े नाम हैं या कभी बड़े नाम रह चुके हैं.
आरोप सच्चे हैं या झूठे, ये कोई तय नहीं कर सकता सिवाए अदालत के. लेकिन धारणा है कि बिना किसी वजह
आखिर कोई महिला किसी शख्स (वो भी रसूखदार) के खिलाफ आरोप लगाने का जोखिम क्यों मोल
लेगी? लेकिन अदालतें धारणाओं या परसेप्शन पर नहीं चलती, वो सबूतों के आधार पर फैसले देती हैं.
ये सही है कि इस कैम्पेन से यौन उत्पीड़न के आरोपों के घेरे में आए
बड़े नाम वाले लोगों का मान-मर्दन (Naming & Shaming) हुआ. ये अपने आप में ही ‘बड़ी सज़ा’ है. लेकिन जिन्होंने आरोप लगाए, क्या वो आश्वस्त हैं कि वो क़ानूनन भी इन्हें सज़ा दिला पाएंगी? क्या इसके लिए उनके पास पर्याप्त सबूत हैं?
ये भी तय है कि जिन पर आरोप लगे हैं वो खुद को पाक-साफ़ साबित करने
के लिए हर मुमकिन कोशिश करेंगे. बड़े से बड़े वकीलों की मदद लेंगे. अवमानना के
नोटिस भी भेजें जाएंगे. ये कोई कम खर्चीला काम नहीं है. उन्हें ऐसा करने का हक़
है. देश का कानून हर नागरिक को खुद के बचाव में सफाई का मौका देता है.
ये सच है कि किसी भी महिला को वर्कप्लेस हो या कोई और जगह, सुरक्षा का पूरा माहौल मिलना चाहिए...अगर कोई
उनके साथ Misconduct
(Verbal or Physical) करता है तो
उसे क़ानून के मुताबिक सज़ा मिलनी चाहिए. ऐसा नहीं कि इस सबंध में प्रावधान नहीं
है, कानून नहीं है, कमेटियां नहीं हैं.
सब कुछ हैं लेकिन फिर भी ऐसी घटनाएं होती हैं, शोषण होता है.
ये सब कैसे रुके?
#MeToo कैम्पेन को सराहा जाना चाहिए कि इसकी
वजह से इस संवेदनशील मुद्दे पर देश भर में बहस तो छिड़ी. केंद्र में महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी की ओर से ऐसी शिकायतों पर गौर करने के लिए कमेटी बनाने
का एलान भी करना पड़ा. मेनका गांधी के मुताबिक मी टू मामलों की जन सुनवाई के लिए
सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की चार सदस्यीय समिति बनाई जाएगी. नया घटनाक्रम ये है कि सरकार की ओर से मेनका गांधी के इस प्रस्ताव को हरी झंडी नहीं दी गई है. सूत्रों के मुताबिक केंद्र सरकार इस मसले पर मंत्रियों का समूह (GOM) बनाने पर विचार कर रही है. इस समूह की अध्यक्षता वरिष्ठ महिला मंत्री करेंगी. ये मंत्रियों का समूह मी टू अभियान में उठे सवालों को देखेगा. साथ ही वर्कप्लेस पर महिलाओं के उत्पीड़न को रोकने के लिए मौजूदा कानून-नियमों की खामियों को दूर करने के उपाय सुझाएगा.
#MeToo के इस दौर में एक केस की ओर ज्यादा लोगों का ध्यान नहीं गया. इस साल
के शुरू में 75 वर्षीय अभिनेता जितेंद्र पर उनकी फुफेरी बहन ने ही यौन उत्पीड़न का
आरोप लगाया. आरोप लगाने वाली महिला ने कहा था कि 47 साल पहले 1971 में जितेंद्र एक
फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में हिमाचल प्रदेश आए थे तो उन्होंने शिमला के एक होटल
में उनका यौन उत्पीड़न किया था. महिला के मुताबिक उस वक्त जितेंद्र की उम्र 28 साल
और महिला की 18 साल थी. 47 साल तक महिला क्यों चुप रही? इस सवाल के जवाब में महिला का कहना था कि उस वक्त उसके माता-पिता
जीवित थे और वो उन्हें दुखी नहीं करना चाहती थी.
जितेंद्र के वकील ने इन आरोपों के खिलाफ हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट का
दरवाजा खटखटाया. जितेंद्र के वकील ने दलील दी कि उनके मुवक्किल के खिलाफ ये केस
साजिशन किया गया. शिमला के महिला पुलिस थाने में 16 फरवरी 2018 को आईपीसी की धारा
354 के तहत एफआईआर दर्ज की गई.
जितेंद्र की ओर से दलील दी गई कि FIR उन्हें ब्लैकमेल करने के इरादे से दर्ज की गई. जितेंद्र की ओर से ये भी कहा गया कि आरोप लगाने वाली महिला ने ना तो शिमला के होटल का नाम बताया, ना ही फिल्म का नाम बताया और ना ही फिल्म में उनके साथ काम करने वाले किसी सह-कलाकार का नाम बताया. जितेंद्र की ओर से ये तर्क भी दिया गया कि आम आदमी को पुलिस में एफआईआर दर्ज करने में काफी मशक्कत का सामना करना पड़ता है, फिर ये एफआईआर कैसे आननफानन में दर्ज कर ली गई वो भी बिना सबूत और बिना कोई पड़ताल किए.
हाईकोर्ट ने इस मामले में सुनवाई के बाद आगे जांच या किसी तरह की भी
कार्रवाई पर रोक लगा दी. महिला ने माता-पिता को दुख ना पहुंचाने का हवाला देकर
शिकायत में इतने साल की देरी की जो वजह बताई, उसे
नहीं माना गया.
बता दें कि जितेंद्र के वकील ने कोर्ट में लिमिटेशन एक्ट का हवाला भी
दिया था. यानि किसी अपराध के लिए किसी निश्चित समय अवधि तक ही शिकायत दर्ज कराई जा
सकती है. जितेंद्र के खिलाफ केस में शिकायत 47 साल बाद दर्ज कराई गई.
यौन अपराधों को लेकर क्या भारत में भी कोई समय अवधि निर्धारित है? और क्या उन अपराधों में समय अवधि बीत जाने के
बाद शिकायत दर्ज नहीं कराई जा सकती? इस सवाल का जवाब इस
बात पर निर्भर है कि उस अपराध में कितनी अधिकतम सजा का प्रावधान है. मान लीजिए कि
स्टॉकिंग (पीछा करना) में तीन साल की अधिकतम सजा है. ऐसे में तीन साल के भीतर
अपराध की शिकायत करना जरूरी है. तीन साल बीत जाने पर शिकायत नहीं की जा सकती.
हालांकि जिन अपराधों में अधिकतम सजा का प्रावधान तीन साल से ज्यादा है वहां ये
लिमिट नहीं लागू होती. ऐसे अपराधों में कभी भी शिकायत दर्ज कराई जा सकती है.
भारत समेत दुनिया भर में बच्चों से Sex
Abuse (यौन उत्पीड़न) के अधिकतर मामले रिपोर्ट ही नहीं होते. ऐसे
में क्या हमारे देश में ये प्रावधान नहीं हो सकता कि ऐसे किसी भी अपराध के लिए
जीवन में आगे चलकर पीड़ित कभी भी शिकायत दर्ज करा सके. इस साल फरवरी में राष्ट्रीय
महिला आयोग की रजत जयंती के मौके पर केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने कहा था कि
सरकार ऐसे प्रस्ताव पर विचार करेगी जिसमें अपराध हुए काफी साल बीतने के बाद भी शिकायत
दर्ज कराई जा सके. महिला और बाल कल्याण
मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक ये मामला ‘नेशनल
कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स’ को सौंप दिया गया
है.
बहरहाल #MeToo जब तक सुर्खियों में है तब तक है. जब ये सुर्खियों में नहीं रहेगा तब की स्थिति पर गौर कीजिए. जिन्होंने आरोप लगाए हैं, उन्हें खुद ही अपनी लड़ाई लड़नी होगी. दूसरी तरफ महंगे वकीलों की फौज होगी. असहज करने वाले सवाल होंगे. सच आपके साथ है तो पूरा दम लगाकर लड़िए. जो दोषी हैं, उन्हें उनके अंजाम तक पहुंचा कर छोड़िए. तमाम मुश्किलात का सामना करने के बावजूद देश की न्याय व्यवस्था पर भरोसा रखिए. एक दोषी को भी सज़ा मिली तो #MeToo से #JusticePrevails का ये सफ़र देश के लिए डिफाइनिंग मोमेंट बनेगा.
आमीन...