अंग्रेज चले गए और....खुशदीप

अंग्रेज़ों ने हमसे क्या लूटा...और बदले में भारत को क्या दिया...सवाल पुराना है...लेकिन ज्वलंत है...और शायद हमेशा रहेगा भी...अदा जी ने इस मुद्दे पर दो बेहद विचारोत्तेजक और सारगर्भित लेख लिखे...

'रीढ़ की हड्डी' है कि नहीं ....?? http://swapnamanjusha.blogspot.com/2009/11/blog-post_02.html

रीढ़ की हड्डी ??? वो क्या होती है ??? http://swapnamanjusha.blogspot.com/2009/11/blog-post.html

इन लेखों पर प्रतिक्रियाएं भी एक से बढ़ कर एक आईं...प्रवीण शाह भाई ने अंग्रेज़ों को लेकर देश में विचार की जो प्रचलित धारा है, उसके खिलाफ जाकर कुछ सुलगते प्रश्न उठाए...अदा जी ने साक्ष्यों के साथ उनका जवाब भी बखूबी दिया...लेकिन मेरा आग्रह कुछ और है...ये ठीक है हमें अपने अतीत को नहीं भुलाना चाहिए...हमें अपने इतिहास, संस्कृति, धरोहरों पर गर्व करना चाहिए...लेकिन सिर्फ अतीत के भरोसे बैठे रह कर क्या हम सही मायने में विकसित देश बन सकते हैं...

यहां मैं आपसे एक प्रश्न करना चाहूंगा...1945 की 6 अगस्त और 9 अगस्त की काली तारीखों को जापान के हिरोशिमा और नागासाकी को परमाणु बम की विभीषिका ने तबाह करके रख दिया...लेकिन जापान ने क्या किया...क्या वो सिर्फ अमेरिका को कोसता रहा...जापान दोबारा उठ कर खडा नहीं हुआ...64 साल बाद जापान की जो आर्थिक संपन्नता की तस्वीर आज दिखती है वही शायद अमेरिका को सबसे करारा जवाब है...

मेरा इस परिचर्चा को नया मोड़ देने का मकसद सिर्फ यही है कि हम इस पर विचार करें कि आज़ादी के 62 साल बाद हम कहां तक पहुंच पाए हैं...आजादी के मतवालों ने प्राणो का बलिदान देकर हमें खुली हवा में सांस लेने की नेमत बख्शी...लेकिन बदले में हमने क्या किया...

जागृति फिल्म में कवि प्रदीप का गीत था...

हम तूफान से लाए हैं कश्ती निकाल के,
मेरे बच्चों रखना तुम इसको संभाल के...

क्या हम सही में रख पाए उस कश्ती को संभाल के...क्या भूख से हमें आजादी मिल गई है...क्या भेदभाव खत्म हो गया है...दलितों के उत्थान का नारा देते देते क्या समाज समरस हो गया है...अशिक्षा से देश को मुक्ति मिल गई है...राजे-महाराजों की रियासतों की तरह प्रांतवाद नई शक्ल में सिर नहीं उठाने लगा है...अंग्रेजों ने फूट डालो, राज करो को भारत पर हुक्म चलाने के लिए मूलमंत्र बनाया...क्या आज यही काम हमारे राजनेता नहीं कर रहे हैं...मेरी चिंता बीता हुआ कल नहीं आज और आने वाला कल है...यहां मैं अदा जी के लेख पर शरद कोकास भाई की टिप्पणी की आखिरी तीन पंक्तियों का उल्लेख ज़रूर करना चाहूंगा...

स्थितियाँ पूरी तरह से बदल गई हैं । अब केवल अपने गौरव गान से भी कुछ हासिल नही होना है , अतीत की सच्चाइयों का सामना करना होगा और वर्तमान और भविष्य के लिये व्याव्हारिकता के साथ निर्णय लेने होंगे...

शरद भाई ने जो कहा, वही आज का सबसे बड़ा सच है...आज भौगोलिक उपनिवेशवाद नहीं आर्थिक उपनिवेशवाद हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा है...कोकाकोला और पेप्सी के सिप लेते हुए हम मैक़्डॉनल्ड के फिंगरचिप्स के चटखारे ले रहे हैं...माल्स जाकर विदेशी ब्रैंड के कप़ड़े खरीदने को हम अपनी शान समझते हैं...जुबानी जमाखर्च और बौद्धिक जुगाली कितनी भी की जा सकती है लेकिन सच यही है कि हम आईना देखने को तैयार नहीं है...अगर ऐसा नहीं होता तो फिर किसी को ये क्यों कहना पड़ता...

जिन्हें नाज़ है हिंद पर,
कहां हैं, कहां हैं, कहां हैं...

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27 टिप्पणियाँ
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  1. जिन्हें नाज़ है हिंद पर,
    कहां हैं, कहां हैं, कहां हैं...


    bilkul sach hai.....



    aapne mujhe ek aur theme de di likhne ke liye apni is shandar post ke dwara..... m thankful to u.....

    Bahut hi shaandaar aur sochne ko majboor kar dene wali post .........

    JAI HIND

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  2. मेरे विचारों को उद्ध्रत करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद खुशदीप ।यह बहुत ज़रूरी चर्चा है इसलिये कि यदि हम अब भी नहीं समझे तो इस आर्थिक उपनिवेशवाद के चंगुल मे इस तरह फँसेंगे कि निकल नहीं पायेंगे। आज हम मॉल में जाकर विदेशी कपड़े खरीद पा रहे हैं लेकिन हमारी आनेवाली पीढी एक जोड़ कपड़े को तरस जायेगी ,यह मै भय नही दिखा रहा हूँ यदि हमने इस आर्थिक तंत्र को नही समझा तो एक दिन ऐसा आयेगा । प्राचीन गौरव की जो बात है उसके लिये मै चीन का उदाहरण देना चाहूंगा । आप सभी यह जानते होंगे कि चीन ने आठवे दशक के बाद अपने यहाँ एशियाड आयोजित किया जबकि वहाँ के खिलाड़ी सबसे ज़्यादा स्वर्णपदक जीतते थे । चीन का साफ कहना था जब तक हम अपने यहाँ के एक एक व्यक्ति के मुँह मे निवाला डालने में सक्षम नहीं है तब तक यह खेल आयोजित नही करेंगे। आज चीन का आर्थिक तंत्र मजबूत है । रही अपने देश की बात ..हमे मॉल और सुपर बाज़ारो वाले अपने देश पर गर्व है..। दुश्यंत जी बहुत साल पहले ही लिख गये हैं "कल नुमाईश में मिला था वो चीथड़े पहने हुए /मैने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है " आपकी जानकारी के लिये बता दूँ इस शेर की वजह से उनकी किताब इमरजेंसी मे बैन कर दी गई थी । फिर भी हमे अपने देश पर गर्व तो है !!!
    शरद कोकास "पुरातत्ववेत्ता " http://sharadkokas.blogspot.com

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  3. स्थितियाँ पूरी तरह से बदल गई हैं । अब केवल अपने गौरव गान से भी कुछ हासिल नही होना है , अतीत की सच्चाइयों का सामना करना होगा और वर्तमान और भविष्य के लिये व्याव्हारिकता के साथ निर्णय लेने होंगे...शरद कोकस.


    एकदम सही. पूरी बात कह दी.

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  4. परिचर्चा को समीचीन मोड दिया है. वक्त के साथ चलना होगा वर्ना वक्त हमें चलता करने में कोई कोर-कसर नहीं छोडने वाला है. वर्तमान और भविष्य साधने के लिए आत्ममन्थन की प्रक्रिया को अपनाना ही होगा.

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  5. सारगर्भित सार्थक परिचर्चा !

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  6. खुशदीप जी,
    आपकी बात सोलह आने सच है......आज भौगोलिक उपनिवेशवाद नहीं आर्थिक उपनिवेशवाद हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा है........आपने जो यहाँ कहा और जो मैं कह रही हूँ.....दोनों का मकसद एक ही है....बस कान या तो आप सीधे सीधे पकडें या घुमा कर.....आज की स्तिथि और भी भयावह है ....क्यूंकि अब गुलामी शरीर की नहीं मन की हो गयी है...और अंग्रेज अब घर-घर में घुस चुके हैं......Mcdonald में berger खाने से फायदा अंत में किसे हो रहा है ? आज लोग गणेश तक की मूर्ती चाइना की बनी हुई ले रहे हैं....दीवाली में दीये चाइना से आ रहे हैं...राखी चाइनीस....किसको फायदा हो रहा है ? अरे देश का पूरा पैसा बाहर जा रहा है.......और छोटे -छोटे कुटीर उद्योग बंद हो जायेंगे.......(वैसे भी आज रेलैअस फ्रेश ने कितने छोटे सब्जी बेचने वालों कि रोजी-रोटी बंद कर दी हालाँकि यह बिलकुल दूसरा मुद्दा है)........गाँधी जी ने उस ज़माने में विदेशी सामानों का बहिष्कार करने को कहा था......उसके पीछे एक मकसद था .....mancheshter के जितने भी कपडे के मिल थे उनको आर्थिक चोट पहुँचाना .....लेकिन आज तो विदेशी सामान खरीदना एक status symbol है....ये विदेशी हमारी खाट खड़ी करके ही छोडेंगे अगर .....हम नहीं सम्हले तो.....बर्तानिया और अमेरिकन बहुत ही materialistic समाज है.....बिना फायदे के ये अपने बदन का मैल भी न दें......ये बहुत ही घाघ business man होते हैं......
    पेप्सी-कोला और जितनी भी विदेशी चीज़ें हैं सबका बहिष्कार जरूरी है......
    लोग मुझे बेवकूफ कहेंगे.....लेकिन मैं कनाडा में होते हुए भी इंडियन सामान खरीदती ......शैंपू.....sunsilk .......साबुन......neem या pears ......डाबर आंवला.....च्यवनप्राश......घर में खाने की सभी चीज़ें ...चावल-दाल....आटा.....मेरे बच्चों को मैंने विदेशी खाने की आदत ही नहीं लगायी.......वो विदेशी खाना खा तो लेते हैं लेकिन तृप्ति उनको चावल दाल रोटी खाकर ही मिलती है......कहने का मतलब यह है..कि जो भी खर्च मैं करती हूँ कोशिश यही रहती है किसी न किसी तरह वो हिन्दुस्तान पहुँच जाए.....लोग मुझे सनकी समझते हैं.....लेकिन उसे मैं अपने देश के लिए अपनी सनक समझती हूँ....
    मेरी टिपण्णी थोडी ज्यादा लम्बी हो गयी....

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  7. "...लेकिन सिर्फ अतीत के भरोसे बैठे रह कर क्या हम सही मायने में विकसित देश बन सकते हैं..."

    क्यों नहीं बन सकते? क्या कभी किसी ने प्रयास किया है?

    हमारे अतीत में शिक्षा के लिये आश्रम हुआ करते थे। गुरु वशिष्ठ के आश्रम में राजकुमार रामचन्द्र के साथ ही साथ एक निषाद का पुत्र गुह भी शिक्षा ग्रहण करता था। गुरु संदीपनी के आश्रम में सम्पन्न कृष्ण के साथ ही साथ विपन्न सुदामा को भी शिक्षा प्राप्त होती थी। निर्धन सुदामा के साथ कृष्ण को भी लकड़ी काटने जाना पड़ता था।

    क्या कमी थी इस शिक्षा पद्धति में? क्यों हैं आज लक्ष्मीपुत्रों के संतानों के लिये पब्लिक स्कूल और गरीब लोगों के बच्चों के लिये म्युनिसपालिटी के स्कूल? पब्लिक स्कूल में पढ़े लोग ही क्यों आगे बढ़ते हैं?

    शिक्षा, चिकित्सा यहाँ तक कि पीने का पानी जैसी दान की वस्तुएँ आज बेची जा रही हैं, क्या यही विकसित होना है?

    क्या भौतिक विकास ही विकास है और मानसकिक, आध्यात्मिक विकास विकास नहीं है?

    क्या है विकास की परिभाषा?

    जवाब देंहटाएं
  8. .
    .
    .
    खुशदीप जी,

    बहुत बहुत धन्यवाद आपका इस आलेख के लिये, आपने मेरे मन की बात कही है शायद मैं स्वयं भी इससे बेहतर नहीं कह पाता...
    हिंद पर नाज मुझे भी है पर आज के दौर में यदि कोई कहे " मेरी हथेली सूंघो, मेरे परदादा ने जीवन भर घी खाया था " तो दुनिया उस पर हंसेगी ही...

    ठीक इसी तरह क्या अब भी हम भूत काल में विदेशी शासकों द्वारा किये गये शोषण का रोना रोते रहेंगे...वह भी तब जबकि हमारे अपने शासक भी कुछ बेहतर नहीं थे। चलो एक बार मैं मान भी लूं कि हम 'सोने की चिड़िया' थे...पर आज तो मुझे टीन की चिड़िया वो भी बेपर की ही नजर आती है...उड़ी तो कभी नहीं वो आज तक...

    अपने एक आलेख में मैंने स्वयं को श्रेष्ठ मानने वालों के बारे में लिखा था:-
    "२-हमारा धर्म कई करोड़ साल पुराना है भले ही आधुनिक आदमी का इतिहास महज कुछ हजार सालों का ही हो।
    ३-हमारे स्वर्णिम प्राचीन काल में यद्यपि पशु शक्ति व लकड़ी जलाकर उर्जा प्राप्त करने के अतिरिक्त उर्जा के किसी स्रोत के सबूत नहीं हैं फिर भी हमारे पुरखों ने विमान (पुष्पक आदि), आणविक अस्त्र (ब्रह्मास्त्र),टेस्ट ट्यूब बेबी(कौरव) आदि आदि सब बना लिये थे।
    ४-हम तो मानते हैं कि हमारे मिथक और इतिहास एक ही हैं इनमें कोई भेद हमें स्वीकार नहीं।
    ५-लाल किला, कुतुब मीनार, ताज महल आदि आदि जो भी पुरानी प्रसिद्ध इमारतें हैंवो हमारे धर्म के शासकों ने बनाई, दूसरे धर्म के शासकों ने अपने शासन काल में उन्हें स्वयं द्वारा बनाया प्रचारित कर दिया।"
    जस का तस उद्धृत कर दिया है ऊपर क्योंकि मैं चाहता हूँ कि इस पर भी कुछ कहा जाये...

    अब रही बात कि आजादी के ६२ साल बाद हम कहाँ हैं तो हम नीचे से कुछ ही ऊपर हैं देखना चाहें तो स्वास्थय, पेयजल उप्लब्धता, पोषण, विद्युतीकरण आदि के बारे में हमारी पोजीशन देखें कहीं भी...

    अब बात करते हैं आज के हमारे आई टी सुपर पावर होने के भ्रम की...मेरे परिवार से भी कई हैं इस क्षेत्र में...है क्या भारत में एक भी माईक्रोसोफ्ट, इंटेल, गूगल, ऐपल,आई बी एम, याहू,ओरेकल जैसी कंपनी... सस्ते दाम पर सोफ्टवेयर मेन्टेनेन्स और दुनिया का बैक औफिस बने हुऐ हैं हम और उसी पर इतरा रहे हैं...हंसते हैं बाकी इस भ्रम पर...CYBER COOLIE कहा जाता है हम को...

    आबादी ज्यादा होने के कारण एक बड़ा और संभावनापूर्ण बाजार जरूर हैं हम...दुनिया यही कहती है और हम फूले नहीं समाते...

    कोई इसे व्यक्तिगत आक्षेप के तौर पर न ले परंतु विदेश जाकर भी हम लोग उनके समाज में घुल मिलने का प्रयत्न भी नहीं करते अलग एक समूह बन जाते हैं अपने प्रति आश्वस्त सभ्यतायें ऐसा नहीं करती... रही बात स्वदेशी बनाम विदेशी की तो ग्लोबलाईजेशन के इस दौर में जब हमारी कंपनियों ने MNC होने की ओर शुरुआती कदम उठा लिये हैं, तो इस मुद्दे से हमें ही नुकसान होगा।

    और कितना ही गुणगान कर ले कोई, पर योग और आयुर्वेद स्वास्थय संबंधी सभी समस्याओं का निदान नहीं कर सकते यह प्राचीन पद्धतियां आज के ज्ञान के प्रकाश में काफी कुछ असामयिक हो गई हैं...यदि यकीन न हो तो अपने आस पास एक छोटा सा सर्वे करिये और देखिये कि BAMS आयुर्वेदाचार्य क्या लिख रहे हैं अपने पर्चों में... क्या लिखूं अवैज्ञानिकता में हमारा कोई सानी नहीं...जिस होम्योपैथी को अनेकों बार प्रयोगों द्वारा नकारा जा चुका है हमारी सरकार उसके लिये नये नये संस्थान खोल रही है...
    Modern evidence based medicine ही हमें आगे बड़ा सकती है इस सत्य को स्वीकार करना होगा हमें...

    जल्दी में हूँ फिर आउंगा शाम को...

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  9. समय बदला है और उसी के साथ बदली है प्राथमिकतायें व मानसिकता भी।जिस दौर को हमने देखा नहि उसकी कहानियां भी धीरे-धीरे हम भूलते जा रहे और जो दौर देख रहे है वो निश्चित है सब कुछ भुला कर तेज,तेज और बहुत तेज दौड़ते-भागते सुख-सुविधाओं को इकट्ठा करने के है।आज आदमी के पास खुद के लिये भी समय शायद कम पड़ रहा है,ऐसे मे उससे इतिहास का रोना रोने की उम्मीद नही की जा सकती।ग़ुलामी के दौर मे देशवासियों के पास जीने का एक मह्त्त्वपूर्ण उद्देश्य था आज़ादी और आज़ादी के बाद धीरे-धीरे बाद की पीढी ने (जिसने गुलामी की पीड़ा नही भोगी थी)आज़ादी को पाने के लिये किया गया संघर्ष भुला दिया और वो एक नये संघर्ष मे पागल होती चली गई जिसका परिणाम आप आज देख रहे हैं।चाहे इसे भौतिकवाद कह लिजिये या भोगवाद क्या फ़र्क़ पड़ता है।बापू ने कहा था कि ज़रुरत से ज्यादा जमा करना पाप है आज कौन मानता है इस बात को और उनकी किस बात को अमल मे लाया जाता है,फ़ार्मेलिटी के लिये याद कर लेते हैं ये भी लगता है उन पर एहसान कर रहे हैं।पहले की पीढी के पास एक नही चुनने के लिये आदर्शों की फ़ौज़ थी आज आप बताईये युवा पीढी जाये तो जाये किसके पीछे।कोड़ा जैसे एक नई कई राजनेता हैं जो पूरी राजनैतिक प्रणाली को संदेह के दायरे मे ला दिया है।आज़ादी उस दौर की प्रथमिकता थी और आज उस आज़ादी का भरपूर दोहन करना है।कमाने से लेकर लूट-खसोट तक़ की आज़ादी,सेवा के नाम पर मेवा बटोरने की आज़ादी,अपनी आज़ादी के नाम पर पड़ोसी,रिश्तेदार,भाई-बंधु और हर किसी दूसरे की आज़ादी छीन लेने की आज़ादी।क्या हम सिर्फ़ इसलिये आज़ाद हुये थे जो जिस तरीके से जी रहें है?उस दौर मे प्राथकमिकता सिर्फ़ और सिर्फ़ एक थी देश।और आज देश का नम्बर आता है खुद,भाई-बहन,रिश्तेदार,यार-दोस्त,मुहल्ला,शहर,और राज्य के बाद्।उसमे भी खुद की ही प्राथमिकतायें इतनी है कि वो कभी-कभी उस से आगे ही नही बढ पाता।पैदा होने के बाद पढाई और पढते-पढ्ते ही नौकरी या धंधा,काम धंधे से लगते ही शादी और शादी के बाद बच्चे,और फ़िर बच्चे के पैदा होने के बाद वो चक्की फ़िर चल पड़ती है जिसमे पिस कर आदमी कब चूरा हो जाता है उसे पता ही नही लगता।कोई कोई तो इस चक्की से निकल कर मां-बाप,भाई-बहन,अडोसी-पडोसी तक़ के बारे मे सोच नही पाता तो देश के लिये सोचने की उसे फ़ुरसत मिले।पहले दिखावे मे विश्वास नही किया जाता था।सिखाया जाता था सादा जीवन उच्च विचार आज ठीक उल्टा हो रहा है।दिखावे कि ज़िंदगी जी रहे लोग हैसियत से बाहर निकल कर खर्च कर रहे हैं जो कर्ज़ से लेकर तमाम अनैतिकताओं की महामारी फ़ैला रहा है।आज आज़ादी नही अराज़कता सबसे बड़ी समस्या है और इससे इस्लिये नही निपटा जा सकता क्योंकि हर कोई कंही न कंही इसे बढा ही रहा है।मै निराशावादी नही हूं मगर मै अपने से पहले की पीढी और आज की पीढी के बीच की कड़ी हूं जो रोज़ दोनो सीरों को दूर होते देख रही है।शायद मै ज्यादा कह गया हूं,ये मेरे अपने विचार हैं और ज़रूरी नही है कि सब उससे सहमत हों,जो सहमत हूं उनका आभारी रहूंगा और जिन्हे मेरी कोई बात पसंद ना आये तो एडवांस मे क्षमा मांग लेता हूं।शायद मैने किसी पोस्ट पर आपकी आज की पोस्ट का शीर्षक बतौर कमेण्ट इस्तेमाल किया था।बहरहाल आपने बहुत अच्छा विषय सामने लाया है आप और अदा जी इसके लिये बधाई के पात्र हैं,शायद ये ब्लागिंग का सार्थक स्वरूप है,और जितना खुश मै आज हूं ब्लागिंग से शायद उतना पहला कभी नही हुआ हूंगा।

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  10. देखिये भारत की तमाम समस्याओं का मूल है --विवेक -बुद्धि का अभाव . यहाँ बीयर,
    रम, विस्की एवम वाइन इन सभी को एक ही पैमाने में मापा जाता है और इन सबके लिए एक ही शब्द
    मदिरा अथवा शराब प्रचलित है . जब तक देश बीयर को शराब के लांछन युक्त विशेषण
    से मुक्त नहीं करता और इस सामान्य पेय को भारी कर उगाहने के लालच से मुक्त नहीं करता
    , समस्याएँ बनी रहेंगी . किसी भी सभ्य समाज का पैमाना उसका 'बीयर सूचकांक' तय
    करता है और ये तथ्य विश्लेषण पर आधारित है .

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  11. वैसे तो ये कहा गया है की व्यक्तिगत आक्षेप नहीं है और मैं मान भी रही हूँ कि यह सही भी होगा ...फिर भी कुछ कहना आवशयक समझती हूँ यहाँ पर....विदेश में हम रहते हैं और यहाँ के समाज में बहुत अच्छी तरह घुले मिले भी हैं....इस लिए जो बातें हम आपको बता सकते हैं शायद ही कोई और बता पाए....
    जिस तरह की हर चमकनेवाली चीज़ सोना नहीं होती....ठीक उसी तरह.....यहाँ सब कुछ परफेक्ट नहीं है.......

    मैंने एक बात कही कि हम हिन्दुस्तानी खाना खाते हैं......आपको यह जान कर घोर आश्चर्य होगा कि यहाँ के दोक्टोर्स भी अब मरीजों को अब इंडियन खाना ही prescribe कर रहे हैं....क्यूंकि वर्ल्ड हैल्थ ओर्गानिज़शन ने भी सबसे balanced food अब हमारे हिन्दुस्तानी भोजन को ही माना है......अगर आप दूसरे भोजन देखेंगे तो आपको उसमें ऐसा संतुलन नहीं मिलेगा......

    हम हिन्दुस्तानी जहाँ भी रहे अपनी चमड़ी नहीं बदल सकते हैं....बाल , दांत ये सबकुछ अपनी बनावट लिए हुए है....जो भी प्रोडक्ट बनता है चाहे वो कॉस्मेटिक्स हो वो उस परिवेश और वहीँ के raw मटेरिअल से बनता है.....उसका कॉम्बिनेशन भी majority population की खपत के हिसाब से होता है......जाहिर सी बात है वो यहाँ के लोगों की त्वचा, texture के हिसाब से होता है.....इसलिए बहुत सी चीजें हमारे लिए नहीं होंगी.....

    तीसरी बात आपको घोर आर्श्चय होगा की यहाँ के लोगों का झुकाओ naturopathy की और इतना ज्यादा है की आप अंदाजा नहीं लगा सकते डॉ. दीपक चोपडा जैसे लोगों की डिमांड आज किसी भी दसरे doctors से कही ज्यादा है...allopathic दवाईयों के साइड इफेक्ट से सभी को परहेज है....इस लिए...naturopathy और योग का बहुत ज्यादा चलन है...और उनकी मार्केट यहाँ बहुत बड़ी है...

    रही बात बिजली पानी की ...तो ये सभी देश प्राकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण हैं....दुनिया का सबसे बड़ा जलप्रपात ...नायग्रा कनाडा में है.......कनाडा मं बिजली की कमी हो ही नहीं सकती......पानी की कमी नहीं है क्यूंकि साल के ६-७ महीन बर्फ ही रहती है.....और जब पिघलती है तो नदी-नालों की कमी नहीं है.... जंगल की भरमार है.......कनाडा शायद भारत से साइज़ में दुगुना होगा लेकिन आबादी में एक चौथाई......इसलिए ...हर चीज़ कि खपत कम है और मारा-मारी नहीं है....

    टैक्स बहुत हाई है ...हम अपनी आमदनी का ६०% टैक्स देते हैं......सीधा.....source में टैक्स २४% न्यूनतम से लेकर ५४% तक कटता है......आप कुछ भी खरीदें......दूध, ब्रेड, बच्चों के कपडे और कुछ छोटी मोटी चीज़ों को छोड़ कर आप upfront १४% टैक्स देते हैं....बिना किसी न-नुकुर के......आप शादी करते हैं तब आप टैक्स देते हैं....आपके निधन पर टैक्स लगता है......आपके दाह संस्कार का खर्चा कमसे कम $१०००० है....आप रोड टैक्स देते हैं....मकान टैक्स .... टैक्स से आप किसी भी कीमत पर नहीं बच सकते.....
    जब सरकार इतना टैक्स लेगी तो सुविधाएँ भी तो देगी....इसलिए सुविधायें है...लेकिन आप उनकी भरपूर कीमत अदा करते हैं...

    अब बात करते हैं माईक्रोसोफ्ट, इंटेल, गूगल, ऐपल,आई बी एम, याहू,ओरेकल......जिस तरह की आर्थिक मंदी से दुनिया गुजर रही है..भारत ने ही इन कंपनियों को बचाया हुआ है......वर्ना इनमें ताला लगने में देर नहीं थी.....जो भारत को साइबर कुली कहते हैं उनको भान ही नहीं है की वो क्या कह रहे हैं......सामने की बात है.....पूरा हाऊसिंग मार्केट US का धूल चाटने लगा है.....आपको लगता है सबकुछ बहुत खूबसूरत है ...जी नहीं आज usa पर ११.४ trillion dollars का कर्जा है.....बैंक ऑफ़ अमेरिका, wacovia, fenni mae, freddy mae बैंकों ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया.....हमने कभी भी अपने जीवन में किसी बैंक को दीवालिया होते नहीं देखा था..यही देखा.....कितनी हवाई जहाज की कंपनियों ने दिवालिया घोषित कर दिया......यहाँ के हवाई जहाज में आप सफ़र करेंगे तो पानी तक आप खरीद कर पियेंगे......

    कर्जे पर ही सबकुछ चलता है....यहाँ लोग पे-चेक तो पे-चेक जीते हैं......दो बिल्डिंग गिरीं तो चूल्हे घरों में बंद हो गए.....
    जिस सिरदर्द की एक गोली की कीमत आप भारत में ५० पैसा देते हैं उसी गोली की कीमत यहाँ इंडियन कर्रेंक्य में हम ४० रुपये देते हैं....अब ये बताइए इसका तुक क्या है.....उस गोली को बनाने में जो सामान लगा है वो तो वही है..फिर भी कीमत का फर्क देखिये.....जाहिर सी बात है दावा बनाए वाली कंपनी पैसा बनायेंगी ही....

    और भी बहुत कुछ लिखूंगी....रात के १२.३० बज गए हैं.......

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  12. जैसा खाए अन वैसा रहे मन ...कनाडा में रहते हुए भी अदाजी की भारतीयता जस की तस है ...राज खुल गया ..क्यूँ !!...और हिंदुस्तान में रहते हुए.. जिस थाली में खाए उसी में छेद करने वाले मन ...शायद इस विदेशी अन्न की ही करामात है जिसे वे स्वयं कूड़ा मानते हुए गरीब देशों को निर्यात कर रहे हैं ...!!
    खुशदीप जी को बहुत बधाई और आभार ...एक और सार्थक विमर्श प्रारंभ करने के लिए ..!!

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  13. उत्कृष्ट व सुखकर पोस्ट
    इन दिनों अनायास ही ब्लॉगिंग से छिटका हुआ हूँ ।
    मेरे मनपसँद विषय पर बेहतरीन परिचर्चा चल रही है, यह देखना सुखकर है ।
    देखना है कि, उपसँहार तक यह किस करवट को जा टिकता है !

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  14. मौजूदा जीर्ण व्यवस्था बदलाव चाहती है। सोचना है किस दिशा में जाया जाए। सोचना है औऱ करना है।

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  15. ांअज की चर्चा मे भाग लेने का मन था मगर आज केवल धन्यवाद और शुभकामनायें दे कर ही जा रही हूँ । अभी इतनी हिम्मत नहीं है

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  16. कवि दिनेश कुमार शुक्ल की
    कविता है -------------
    '' न जंगी बेडे न दर्रा खैबर से
    इस बार आयेंगे तुम्हारे ही भीतर से वे | ''
    आज के दौर में आर्थिक - सांस्कृतिक
    संकट हम पर छाया है; ऐसी स्थिति में
    बौद्धिक - वैचारिक शक्ति की जरूरत
    होती है | आप जैसों देखकर लगता है
    'कलम के सिपाही 'जगे रहेंगे ,क्योंकि ---------
    ''कलम के सिपाही अगर सो गए तो
    वतन के सिपाही वतन बेंच देंगे |''
    अच्छा लगा |
    धन्यवाद्...

    जवाब देंहटाएं
  17. अदा जी की बात से अक्षरश: सहमत.
    एक महीना कनाडा में रहकर मैंने भी यही जाना.
    अपने देश में दो डेमन्स (आबादी और भ्रष्टाचार),को कंट्रोल कर लें तो इतिहास और विकास का अच्छा मेल हो सकता है.

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  18. जी हाँ......मुद्दा ये हैं की पिछले ६२ साल में भारत ने कितनी उन्नति की है....ये सच है कि भारत ने उतनी उन्नति नहीं कि जितनी करनी चाहिए.....इसका कारण फिर मैं कहूँगी अंग्रेज थे.....सबसे पहली बात कि आजादी के वक्त हमारे देश का खजाना वैसे भई खाली हो चुका था.....रहा सहा धन दो हिस्सों में बांटा गया......जबके पकिस्तान हर लिहाज़ से भारत से छोटा था फिर भई उसे कोष लगभग बराबर ही मिला.....तो जब आप घर संसार minus
    से शुरू करते हैं तो दिक्कतें आती ही हैं.....फिर भई हमने इतनी मुसीबतों के बावजूद जो भई किया है अच्छा किया है......पकिस्तान और भारत साथ-साथ आजाद हुए....लेकिन जितनी तरक्की भारत ने की उतनी पकिस्तान नहीं कर पाया.......७० के दशक तक....पकिस्तान एक सेफ्टीपिन बनाने की भई औकात नहीं रखता था......लेकिन भारत ने इतनी विसंकतियों के बावजूद.....बहुत कुछ हासिल किया.......आज हमारी तकनिकी ज्ञान का सभी लोहा मानते हैं........मैं आपको बता दूँ की NASA के ३५% कार्यकर्त्ता हिन्दुस्तानी हैं.....

    दूसरी और लूट खसोट के जमा किया हुआ माल से बर्तानिया सरकार के पास कोष कि कमी नहीं रही कभी.......जाहिर सी बात है पैसा-पैसे को खींचता है....और उनका विनिमय भई अपने गुलामों के देश में ही होता रहा.....इससे ज्यादा फायदे कि बात क्या हो सकती है.....कि उनसे ही लूटो ....उस लूट के पैसे से सामान बनाओ और ...उन्ही को बेचकर और पैसा बनाओ.....
    आपको क्या लगता है......अमेरिका ने इराक पर हमला यूँ ही किया था ये उनकी नीति रही है.......लडाई की शुरुआत करो....अपने हथियार उन्ही को बेचो......उनके शहर बर्बाद करो और फिर उनको बना कर उनसे ही पैसा लो.....इस तरह का बिज़नस अगर भारत करने लगे तो पैसा ही पैसा है......ये अमेरिका और ब्रिटेन की पॉलिसी रही है हमेशा से......ये ऐसे देश हैं जिन्होंने ...युद्ध से ही पैसा कमाया है......
    दुनिया के सारे बुरे काम इन्ही से शुरू होते हैं......दुनिया में अमेरिका को छोड़ कर आज तक किस देश ने परमाणु बम का इस्तेमाल किया है...बताइए.....फिर भई ये बेहतर हैं.....कैसे..??
    मैं फिर आउंगी.....

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  19. मेरे इस कमेन्ट में कई जगह 'भई ह गया है कृपया उसे 'भी' पढें....

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  20. अंग्रेज़ चले गए ....... और औलाद छोड़ गए जो राष्ट्रभाषा को भी सम्मानित नहीं करते!!!!

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  21. अदा जी,
    आपका ये रूप देखकर मैं अभिभूत हूं...आपके गुस्से में दुर्गा और लेखनी में सरस्वती के साक्षात दर्शन हो रहे हैं...गीत-संगीत जैसी कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति से तो आप निहाल करती ही रहती हैं लेकिन जिस तरह तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर आपने अपनी बात रखी है, मैं तो निशब्द हो गया हूं...ये ठीक है अंग्रेज भारत छोड़ते वक्त अपनी ओर से पूरा इंतज़ाम कर गए थे कि हम कभी सिर उठा कर जी न पाएं...आप कनाडा में रहती हैं, जहां साक्षरता की दर सौ फीसदी या एक-दो फीसदी कम ही होगी...इसलिए हर कोई खुशी खुशी राष्ट्र के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझता है...इसलिए टैक्स भरने को अपना कर्तव्य समझता है....लेकिन भारत में धन्ना सेठों की भी यही कोशिश रहती है कि कैसे ज़्यादा से ज्यादा टैक्स बचाया जाए...स्विस बैंकों में जमा काला धन में सबसे ज्यादा भारत से भेजा गया है...और ये सब आज़ादी के बाद ही हुआ है...खैर एक बार फिर परिचर्चा के प्राण बनने के लिए आपको साधुवाद...

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  22. खुशदीप जी,
    मैं सिर्फ एक बात अभी यहाँ आपके जवाब में कहना चाहती हूँ...ये सच है कि भारत कि अपेक्षा टैक्स ख़ुशी ख़ुशी देनेवालों कि संख्या शायद यहाँ थोडी सी ज्यादा हो....लेकिन ऐसी लोगों की कमी भी नहीं है जो नहीं देना चाहते हैं......अब ये देखिये कि यहाँ इंडियन, चीनी, अफ्रीकन, सोमाली, अरब, और न जाने कौन कौन हैं......जो हम हिन्दुस्तानियों कि तरह ही बे-ईमान हैं..... पूरी आबादी में ..इमानदारों कि संख्या कितनी होगी भला ?? २% से ५% इससे ज्यादा नहीं हो सकती है.....बाकी ज़बरदस्ती के ईमानदार हैं.....यहाँ का सिस्टम ऐसा है कि सबकुछ नज़र आता है....आपनी पूरी ज़िन्दगी में कितनी बार डॉक्टर का मुंह देखा.....कितने किलो आलू खरीदे....आपको कौन कौन सी बिमारी है...सब कुछ सामने होता है.....इसलिए ईमानदार बनाना पड़ता हैं.....
    आप खुद सोचिये जो हिन्दुस्तानी भारत में पूरी ज़िन्दगी बेईमानी करता रहा वो यहाँ आकर अचानक ईमानदार कैसे बन जाता है......हृदयपरिवर्तन ??? नहीं यहाँ का सिस्टम ऐसा बनाने को मजबूर कर देता है..

    सीधी सी बात है ......ये बिलकुल ऐसा ही है.......मैं ईमानदार हूँ क्यूंकि मुझे कोई घूस नहीं देता ....

    बस भारत में भी ऐसे ही सिस्टम की ज़रुरत है ...जो हरेक को बस घेर के रखे ..निकलने का कोई भी रास्ता न ही.......जो शायद अब शुरू भी हो चुका है....फिर देखिये.....

    INDIA WILL NOT SHINE SHE WILL GLOW...!!

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    खुशदीप जी,

    आपकी टिप्पणी स्वागतयोग्य है क्योंकि चर्चा थोड़ा भटक रही थी, अमेरिका और उसकी वैश्विक नीतियों पर चर्चा फिर कभी...वैसे भी विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक और सैनिक शक्ति तथा सबसे ताकतवर लोकतंत्र होने के कारण बाकी सबों से भला बुरा सुनने के लिये अभिशप्त है यह देश... पर यह मत भूलें कि आज की सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद को उसके स्रोत पर जाकर उखाड़ने की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है उसे...आर्थिक हानि तथा सैनिकों की जान के रूप में।

    "लेकिन भारत में धन्ना सेठों की भी यही कोशिश रहती है कि कैसे ज़्यादा से ज्यादा टैक्स बचाया जाए" बहुत सही लिखा है आपने, टैक्स बचाने के इस खेल में हमारे बड़े बड़े धर्मगुरू सहयोगी हैं। बिजली के मीटर से छेड़छाड़ हर दूसरे घर में होगी हमारे यहाँ, ऐसा अंदाजा है मेरा, भ्रष्टाचार को सामाजिक स्वीकार्यता है...घूस की कमाई...चोरी की कमाई पर महल बना कर ईठलाते हैं लोग...अपने वैभव को शो-ऑफ करते हैं...और समाज उनके गृहप्रवेश पर शुभकामनायें देता है। इक्का दुक्का ईमान वाले उस दिन अपनी बीबियों की डांट खाते हैं...देखा तुमसे अच्छा तो तुम्हारे दफ्तर का वो सबआर्डिनेट है...कहां तुम अभी तक किराये के मकान में हो।

    क्या आपको लगता है कि 'राष्ट्रीय चरित्र' जैसी कोई चीज विकसित कर पाये हैं हम, जब तक यह नहीं होगा हम थर्ड वर्ल्ड ही बने रहेंगे इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिये किसी को...

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  24. गली -गली में सुनने को मिलता हैं कि अंग्रेज चले गए ,पर औलाद छोड़ गए ,हमारे देश में कुछ लोग दिखने में तो भारतीय लगते हैं पर मानसिक रूप से आज भी अंग्रेज हैं,ये भारतीय अंग्रेजों को पालन-पोषण करने वाले कौन लोग थे और कौन हैं ---- इस पर भी विचार करना चाहिए ,खुशदीप जी !आप को याद होगा कि नेहरूजी के ज़माने में रक्षा घोटाला हुआ था ,जहाँ तक मुझे लगता हैं कि आजादी के बाद यह पहला घोटाला होगा, जो सार्वजनिक हुआ था ,नेहरु जी ने संसद में साफ़ शब्दों में कहा था कि राजनीतिक दलों का खर्च इन घोटालों से ही चलता हैं ,घोटालेबाजों को बचाने का कितना सार्थक तर्क नेहरूजी ने देश के सामने प्रस्तुत किया था और उसके बाद -- जो हुआ और आजतक जो सिलसिला जारी हैं-- उसे सभी जानते और देख रहे हैं .निश्चित रूप से बाजारबाद ने हमें बर्बाद कर दिया हैं ,जिसका दर्द आप जैसे हमें भी हैं ,लेकिन हम करे तो क्या ? यहाँ तो हर शाख में उल्लू बैठे हैं --- जब तक उल्लू ख़त्म नहीं हो जाता तब तक देश में प्रजातंत्र के नाम से लुट तंत्र चलता रहेगा ,अतीत की अच्छाईओं को यदि कार्य रूप में परिवर्तित किया जा सके तो उसमे कोई हर्ज नहीं ,पर अतीत के नाम से इस आशा में बैठे रहना कि भगवान आकर देश सुधर देगा यह कोरी कल्पना हैं ,हमें कुछ न कुछ करना ही होगा ------ इस चर्चा को सार्थक बनाना सभी ब्लोगरों का कर्त्तव्य हैं

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  25. टैक्स बचाने और हिसाब में हेरा फेरी सिर्फ भारत में नहीं होता....worldcom, enron, Adelphia , Arthur Andersen and Enron , Global Crossing , ImClone Systems Inc., Merrill Lynch and Co. Tyco , Qwest ,
    ये रही वो कम्पनियां जिन्होंने हमलोगों का पैसा खूब जी भर के लूटा है.....मेरे खुद के पैसे इनमें डूबे हैं......रातों रात इन्होने सबका माल दबाया और निकल लिए हैं.....और ये घपला छोटा-मोटा नहीं है......trillions of dollars का है ....... और ना जाने कितने हैं जो आज तक पकडे ही नहीं गए हैं...इतनी सिक्यूरिटी के बावजूद जब ये हाल है तो अगर ये हिन्दुस्तान में होते तो क्या करते???
    हम सिर्फ इतना कहना कहते हैं ...कमियाँ हर जगह हैं.....जरूरत है उन्हें सुधारने की......इतनी इमानदारी का ढोल पीट कर आँखों में आँखें डाल कर ....बेईमानी कोई भी कही भी कर सकता है....ये कहना की ऐसा सिर्फ भारत में होता है मुझे सख्त एतराज़ है.....जरूरत पड़ी तो मैं पूरी ज़िन्दगी इसपर बहस कर सकती हूँ और सबूत पर सबूत दिखा सकती हूँ.....मेरे पास इसकी कमी नहीं है....

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  26. और हाँ अतीत के नाम पर कोई भी बैठ कर कुछ नहीं कर रहा है जरूरत है....अपनी गलतियों को याद रखना और अंतर्राष्ट्रीय नीतियों का भान होना.....

    मैंने मुद्दा ये उठाया था की माननीय राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी को 'लकुटी' लेने लन्दन नहीं जाना चाहिए था क्यूंकि यह कोई ऐसा महत्वपूर्ण काम नहीं था...जिसके लिए हेड ऑफ़ स्टेट जाए.....आज तक किसी भी देश से कभी भी कोई भी हेड ऑफ़ स्टेट नहीं गया है.......

    दूसरी बात हमें अपना कोहीनूर हीरा वापिस चाहिए......बेशक आज उसकी कीमत कुछ न हो लेकिन वो हमारा इतिहास है हमारा गौरव है, हमारा स्वाभिमान है .....ये तो वही बात है की ....हमारी चीज़ कोई चोर ले जाए ....मुझे भी पता है कौन चोर है....चोर को भी मालूम है की वो चोर है ....सारी दुनिया भी जानती है की चोर कौन है और .....कोई कुछ न कहे.....

    तीसरी बात हमें महारानी से दुनिया के सामने हम पर किये गए अत्याचार की माफ़ी चाहिए.......कोई कहेगा उनके पूर्वजों ने जो गुनाह किया उसकी सजा इन्हें क्यूँ.....तो भाई बाप क़र्ज़ लेते है और वो न रहे तो बेटे को चुकाना पड़ता है......गलती उनके पूर्वाजों ने की.....कोहीनूर ताज पर जड़ कर वो पहन रही हैं तो माफ़ी मांगने पडोसी आयेंगे क्या......???? एक फिल्म देखी थी schindler's list ....आज भी हिटलर के अनुयाइयों को ढूंढ-ढूंढ कर मारा जाता है......उन्हें प्रिसोनेर्स ऑफ़ वार की category रखा जाता है......फिर इनके साथ अलग कानून क्यूँ नहीं.....इन्होने भी कोई कम अत्याचार तो नहीं किया था..... इनको भी वही सब भुगता चाहिए.....

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  27. अभी तक 'अदा' जी के दोनों लेख पढ नहीं पाया हूँ...उन्हें पढने के बाद जल्द ही सटीक टिप्पणी करूँगा

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