नेहरू और पामेला मांउटबेटन

आपने जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन की नज़दीकी के किस्से तो गाहे-बगाहे सुने होंगे, लेकिन यहां बात पामेला माउंटबेटन की होगी- भारत में ब्रिटिश हुकूमत के आखिरी वाइसराय और आज़ाद भारत के पहले गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन और एडविना माउंटबेटन की बेटी पामेला माउंटबेटन. भारत के आज़ाद होने के वक्त पामेला सिर्फ 17 साल की थीं. पामेला खुद अपनी किताब India remembered : A personal account of Mountbatten में मान चुकी हैं कि उनकी मां एडविना और नेहरू के बीच प्यार का रिश्ता था। लेकिन ये लगाव जिस्मानी ना होकर रूहानी किस्म का था. लेकिन यहां कोई प्यार-मुहब्बत की दास्तान नहीं लिखी जा रही, बल्कि ज़िक्र नेहरू की शख्सीयत से जुड़े एक और पहलू का होगा.

जसवंत सिंह की जिन्ना पर लिखी किताब के बाद जिन्ना के साथ-साथ गांधी, नेहरू भी बहस के केंद्र में आ गए हैं. सर्च लाइट लेकर इन शख्सीयतों के प्लस-माइनस ढूंढे जाने लगे हैं. गांधी, नेहरू और जिन्ना तीनों ने ही विदेश में शिक्षा हासिल की. लेकिन जहां नेहरू और जिन्ना की सोच पाश्चात्य रंग-ढंग में ढली थी वहीं गांधी कभी भारतीयता से अलग नहीं हुए.

अब असली विषय नेहरू और पामेला पर लौटते हैं. इनसे जुड़ी 15 अगस्त 1947 की एक घटना है जो नेहरू के व्यक्तित्व को लेकर कुछ सोचने को मजबूर करती है. लैरी कोलिंस और डोमनिक लैपियरे ने अपनी किताब Freedom at midnight में इस घटना का बारीकी से उल्लेख किया है. 15 अगस्त 1947 को शाम पांच बजे इंडिया गेट पर तिरंगा फहराया जाना था. लॉर्ड माउंटबेटन को उम्मीद थी कि इंडिया गेट पर तीस हज़ार लोग जुट सकते हैं. लेकिन लार्ड माउंटबेटन का अंदाज़ सिर्फ पांच-साढ़े पांच लाख गलत निकला.

दिल्ली की सड़कों पर जहां देखो लोगों का सैलाब इंडिया गेट की ओर बढ़ा जा रहा था. व्यवस्था बनाए रखने के लिए जो बांस-बल्लियां और बैरीकेडिंग लगाई गई थीं, वो भीड़ के दबाव के आगे धरी की धरी रह गईं.समारोह के लिेए जो बैंड वाले बुलाए गए थे वो भीड़ के बीच पता ही नहीं चला कहां गुम हो गए. ऐसे में लार्ड माउंटबेटन की बेटी भी निजी स्टॉफ के दो सदस्यों के साथ समारोह की गवाह बनने वहां पहुंच गईं. लेकिन वो मंच तक पहुंचे तो पहुंचे कैसे. जहां देखो वहां सिर ही सिर. लोग ऐसे सट कर बैठे हुए थे कि उनके बीच से हवा तक का गुज़रना मुश्किल था.

पामेला ने खुद अपनी किताब में ज़िक्र किया है कि कुछ महिलाओं की गोद मे बच्चे थे. भीड़ का दबाव इतना था कि महिलाएं बच्चों को बार-बार हवा में उछाल रही थीं. सिर्फ इसलिए कि कहीं बच्चों का भीड़ में दम ना घुट जाए. पामेला के मुताबिक एक साथ कई बच्चों को हवा में उछलते देखना विस्मयकारी था. ऐसी हालत में पामेला ने सोच लिया कि उनका आगे बढ़ना नामुमकिन है. वो वापस जाने की सोच ही रही थीं कि मंच से नेहरू ने उन्हें देख लिया. पामेला की हिचकिचाहट नेहरू समझ गए. नेहरू ने वहीं से आवाज दी..पामेला लोगों के सिरों पर ही चलती हुई मंच तक आ जाओ... नफ़ासतपसंद पामेला भला कहां ऐसी अभद्रता के बारे में सोच सकती थीं.. उन्होंने इशारे से ही मना कर दिया... इस पर नेहरू ने फिर चिल्लाकर कहा कि नादानों जैसी बात मत करो, जैसा मैं कह रहा हूं, वैसा ही करो...आखिर नेहरू की बात मान पामेला ने अपनी ऊंची एड़ी वाले सैंडल उतार कर हाथ में लिए और लोगों के सिरों से ही जगह बनाते हुए आगे बढ़ना शुरू किया। भीड़ में जिस के सिर पर पामेला का पैर पड़ जाता वो खुश हो जाता...पामेला लड़खड़ाने लगतीं तो लोग ही उन्हें संभाल लेते...कोई पामेला के ऊंची एड़ी के सैंडलों को देखकर खुश होता...सब सीधे-साधे, लाग-लपेट से कोसो दूर लोग।

किसी तरह पामेला मंच तक पहुंच गईं। उधर गाड़ी से आए लार्ड माउंटबेटन तो भीड़ को देखकर गाड़ी से उतरने की भी हिम्मत भी नहीं कर पाए. उन्होंने गाड़ी से ही तिरंगा फहराने का इशारा किया...सवाल यहां ये है कि नेहरू ने क्यों पामेला को अपने लोगों के सिरों पर से चलकर मंच तक पहुंचने के लिए कहा...

हो सकता है कि नेहरू अपने लोगों के निश्चल स्वभाव को जानते हों और भारतीयता के उस संस्कार का पालन कर रहे हों जिसमें अतिथि को सिर-आंखों पर बैठा लिया जाता है...लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि वो आज़ादी का पहला दिन था...क्या नेहरू उसी दिन जानते थे कि आम भारतीयों की अहमियत इतनी ही है कि एक विदेशी को उनके सिरों पर पैर रखकर चलने के लिए भी कहा जा सकता है...और वो फिर भी अपने नेता को सम्मान देते हुए उनकी बात का बुरा नहीं मानेगे. नेहरू ने जाने-अनजाने जो भी कहा, वो उनके सोचने के अंदाज़ पर सवालिया निशान ज़रूर लगाता है. देखने वाले यहीं से गांधी और नेहरू की सोच के बुनियादी अंतर को भी देख सकते हैं...

गांधी जहां गांव से ही भारत का भविष्य खड़ा करना चाहते थे वहीं नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण के लिए औद्योगिकीकरण की विदेशी लीक पकड़ी॥कौन सही था, कौन गलत, ये एक देश में दो देश के उस फर्क से समझा जा सकता है जिस पर आज़ादी के 62 साल बाद भी आज राहुल गांधी को शिद्दत के साथ ज़ोर देना पड़ रहा है.

स्लॉग ओवर
उम्मीद की हद...99 साल की एक दादी अम्मा अपने मोबाइल के लिए लाइफ़टाइम री-चार्ज कराने पहुंची.

एक टिप्पणी भेजें

8 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
  1. aapke lekh ne nehru ke mudde par sochne ke liye majboor kiya hai...jaankari dene ke liye shukriya

    जवाब देंहटाएं
  2. आपके लेख ने वाकई सोचने को विवश किया लेकिन दिल से। सच आप दिल से लिखते हैं और आपकी हर बात दिल को छू जाती है। काश सब देशवासी सोचने लगें देश के बारे में, सही और गलत के बारे में, अपने स्वामीभान के बारे में, अपनी मानसिक आज़ादी के बारे में, अपने नेताओं की हकीकत और खुदगर्जी के बारे में........
    अभी भी समय है, इससे पहले कि देर हो जाए हमको आत्ममंथन करना ही होगा।
    आपके लेख की "जय हो"

    जवाब देंहटाएं
  3. नेहरू को देश से बस इतना ही लेना देना था और इतना ही सोनिया राहुल का है ये तो देश के लोगो को सोचना है कि कितनो को कब तक अपने सर से गुजरने देंगे ?

    जवाब देंहटाएं
  4. मुझे नही लगता कि नेहरू ने कुछ गलत किया उत्सवधर्मिता और आज़ादी हासिल होने के उन्माद मे यह सम्भव था यहाँ तो क्रिकेट मैच और फिल्मी कलाकारों के कार्यक्रम मे यह द्रष्य आम है ।

    जवाब देंहटाएं
  5. अनूपजी, फौजियाजी, सतींदरजी,सतीशजी, अरुणजी, आपको नेहरु का अनछुआ पहलू पढने में अच्छा लगा. शुक्रिया...
    शरदजी, नेहरु को लेकर मैं आपकी भावनाओं की कद्र करता हूँ. मैंने अपने लेख में कहीं भी नेहरु को गलत नहीं कहा, केवल सवाल उठाया है, मैं बीते हुए कल को लेकर नहीं आज और आने वाले कल को लेकर चिंतित हूँ, आज क्यों नेहरु के पड़नाती राहुल को एक देश से दो देश का फर्क मिटने की बात करनी पड़ रही है..वैसे आप मुझसे सहमत होंगे कि ऐसे मुद्दे पर बहस जारी रहनी चाहिए. आखिर में गुस्ताखी माफ़ शरदजी... फिल्म,क्रिकेट मैच और देश की आज़ादी के दिन में कुछ तो फर्क होना चाहिए...साभार

    जवाब देंहटाएं
  6. खुशदीप भाई ,
    आपका लेख पढ़ा |
    बात सही या गलत की नहीं बल्कि सोच की है |
    नेहरू वंश में शायद येही सिखाया गया है कि यह देश हमारी निजी संपत्ति है और हम इस देश के मालिक |
    और मालिक की निगाह में हम सब आज भी गुलाम ही है न चाहे ६२ साल पहेले आज़ादी पाने का दावा क्यों न किया जाए |
    राहुल बाबा चुनाव से पहेले कलावती के पल्लू से बंधे थे फ़िर उसे छोड़ दिया क्यों कौन जाने ??
    कलावती को भूले राहुल लाला ....पर क्यों भला ???
    अपना काम बनता , भाड में जाए जनता |

    जवाब देंहटाएं